कल पुलवामा (Pulwama) में हुए कायराना हमले के परिदृश्य में हमारे साथी अमित श्रीवास्तव ने यह झकझोर देने वाली टिप्पणी अपनी फेसबुक वॉल पर शेयर की है. ऐसे समय में जब सारा मीडिया देश, देशभक्ति, राष्ट्र और राष्ट्रवाद की लफ्फाजी में मुब्तिला है, अमित की ये बातें पढ़ा जाना बेहद जरूरी है.
दो-चार महीने … बस दो चार. इन्हीं जवानों का कोई भाई वारिसान बनवाने के लिए किसी सरकारी कर्मचारी के पीछे-पीछे घूमेगा … दो-चार-दस हज़ार मे सौदा डन करने को बाध्य होगा.
इन्ही जवानों में से किसी का पिता मण्डी में आलू उतरवाई के लिए आढ़ती के पैरों पर पगड़ी धर देगा और आधी कीमत दुगनी घुड़की के साथ गाँव लौटेगा.
इन्ही जवानों में से किसी की बहन पांच बरस के बुख़ार में तपते अपने बच्चे को गोद में उठाए अस्पताल में भर्ती करने के लिए गुहार लगा रही होगी और उसे कहीं जगह नहीं तो कहीं पैसे लाओ कहकर दुत्कार दिया जाएगा.
इन्ही जवानों में से किसी का भाई किसी लेबर सप्लायर से आधी मजदूरी पर अंगूठा लगा रहा होगा.
इन्ही जवानों में से किसी का पिता प्रॉपर्टी डीलर से दो-चार लाख रू कम करने की चिरौरी में बाकी पैसा नगद देकर ‘कम दाम कम स्टाम्प’ वाले अपराध में न चाहकर भी लिप्त हो जाएगा.
इन्ही जवानों में से किसी का भाई दबंगो द्वारा ज़मीन दबाए जाने की रपट लिखाने थाने जाएगा और चार दिन टहलाए जाने के बाद समझौता करने भलाई की सिखलाई लेकर वापस आ जाएगा.
इन्ही जवानों में से किसी की बहन बीच चौराहे पर छेड़ी जा रही होगी और बगल से गुज़रता देशभक्त कानों में इयरफोन खोंस कर दिशा बदल लेगा.
एक के बदले दस की हुंकार भरने वालों, मीडिया की ऊल-जलूल रिपोर्टों और बेहद गलीज विमर्शों से अपना विचार बनाने वालो, जवान को संख्या से गिनने वालो, ‘हमारे इतने-उनके इतने’ जैसी तुलना करने वालो, राजनीति की मुहरो … जाने दो!
देश के प्यारो … शहादत का सम्मान ज़्यादा देर तक कर नहीं पाओगे.
न!… तुमसे न हो पाएगा!
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अमित श्रीवास्तव
उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता).
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नितान्त सत्य.... कटु सत्य.. ..पर .....नही चेतेगे.
कड़वा सच तो यही है... ना हो पाएगा।