एक ज़माना था जब कादर खान को एक फिल्म लिखने के अमिताभ बच्चन से ज़्यादा पैसे मिलते थे. सत्तर और अस्सी के दशक में कादर खान के बिना किसी सुपर हिट फिल्म की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. दुर्भाग्य का विषय है कि आम जनता में इस अद्वितीय इंसान की छवि फिल्मों में फूहड़ हास्य अभिनेता या द्विअर्थी डायलाग लेखक के रूप में बनी. असली कादर खान विश्व कविता और दर्शनशास्त्र के अलावा जीवन-शास्त्र के बहुत बड़े छात्र और विद्वान थे. कमाठीपुरा जैसी बदनाम और दलिद्दर जगह से शुरू हुई उनके जीवन संघर्ष की कथा किसी महागाथा से कम नहीं है. 81 साल की आयु में उनका देहांत हो गया. उनके जीवन संघर्ष को लेकर कबाड़खाना ब्लॉग में उनका एक इंटरव्यू शाया हुआ था. ख्यात पत्रकार कॉनी हाम ने फरवरी 2007 में अभिनेता कादर ख़ान का यह लंबा साक्षात्कार किया था. कादर खान को श्रद्धांजलि स्वरूप वही पेश है –
(Kadar Khan Rare Interview)
फिल्मों में कादर ख़ान के लम्बे करियर की शुरुआत १९७० के दशक के प्रारम्भिक वर्षों में हुई थी. तब से अब तक वे ३०० से अधिक फिल्मों में काम कर चुके हैं. अपनी मुलायम आवाज़ और कुटिल मुस्कान की खूबियों से खलनायक के कई चरित्र निभाने के बाद वे अंततः कैरेक्टर और कॉमिक भूमिकाओं में अपने को स्थापित करने में सफल रहे. शब्दों के साथ उनके बर्ताव ने कई लोगों की दिलचस्पी को हवा दी है. मैं भी उनमें से एक हूँ. करीब ८० फिल्मों के डायलॉग्स लिख चुकने के बाद आज उनके नाम हिन्दी सिनेमा की कई यादगार पंक्तियाँ हैं. जब मैं मनमोहन देसाई वाली किताब पर काम कर रही थी, मुझे उम्मीद थी मैं कादर ख़ान से बात कर सकूंगी. मुझे पता था कि देसाई कादर ख़ान को अपनी सफलता का बड़ा हिस्सा मानते हैं. कादर ख़ान की भाषा को उन्होंने एक नाम भी दिया था.
“अगर मैं सड़कछाप डायलॉग्स का इस्तेमाल करता हूँ तो उसके पीछे मकसद यह रहता है कि वह आसानी से समझ में आ जाती है. मैंने जितने भी डायलॉग लेखकों के साथ काम किया है, कादर ख़ान उनमें सर्वश्रेष्ठ हैं. उन्हें बोलचाल के मुहावरे का अच्छा ज्ञान है. मैंने उनसे बहुत सीखा है.”
कई वर्षों बाद जब मुझे कादर ख़ान से मिलने का सौभाग्य मिला तो मैंने कादर ख़ान के मुंह से ठीक ऐसी ही बातें मनमोहन देसाई के लिए सुनीं. ‘अमर, अकबर, एन्थनी’, ‘कुली’ और ऐसी तमाम फिल्मों की सफलता का सेहरा निर्देशक और लेखक की जुगलबंदी को जाता है – दोनों को ही दर्शकों के स्पीच पैटर्न्स और लय का पूरा अंदेशा रहता था. हिन्दी फिल्मों को सिर्फ देखा ही नहीं जाता. उन्हें सुना भी जाता है. यह दूसरी वाली बात ज़्यादा मार्के की है.
इस साक्षात्कार में कादर ख़ान अपनी पृष्ठभूमि, फिल्मों में अपने प्रवेश, अपने काम के आयामों, अपनी अभिरुचियों और दीवानगियों की बाबत खुलकर बात कर रहे हैं. हालांकि फिल्मों में काम करने के लिए उन्होंने अध्यापन का काम छोड़ दिया था पर उनके भीतर का अध्यापक अब भी गतिशील है. आज वे तमाम शैक्षिक प्रोजेक्ट्स से जुड़े हुए हैं, ख़ास तौर पर मुस्लिम समाज के लिए. और इस साक्षात्कार के समय भी वे मेरे लिए एक अध्यापक बन गए थे – ग़ालिब की पंक्तियाँ समझाते हुए, यह दिखलाते हुए कि किस तरह मेटाफ़र और एनालजी की मारफ़त एक अभिनेता अपनी आवाज़ के उतार-चढ़ावों से विचारों में जीवन्तता पैदा कर सकता है.
रंगमंच से शुरुआत –
कादर ख़ान – रंगमंच ने मुझे बहुत मदद पहुंचाई. हाँ, मैंने ८-९ की उम्र से थियेटर में काम करना शुरू कर दिया था. देखिये, महबूब ख़ान की फिल्म ‘रोटी’ में एक बूढ़े एक्टर थे. उनका नाम था अशरफ़ ख़ान. बड़े नामी कलाकार थे. वो एक नाटक तैयार कर रहे थे – वमाज़ अज़रा, ‘रोमियो जूलियट’ टाइप का नाटक था. एक नन्हे राजकुमार की ज़रुरत थी. वही मेन कैरेक्टर था. तो आठ या नौ साल के एक ऐसे लड़के को कहाँ खोजा जाए जो कोई चालीसेक पन्ने लिख सके और उन्हें एक लाइव ऑडीएन्स के सामने बोल सके?
उन दिनों मेरा परिवार बहुत गरीब था और हम झोपड़पट्टी में रहा करते थे. माँ मुझे प्रार्थना करने के लिए मस्जिद भेजा करती थी. मैं वहाँ से भाग कर अकेला कब्रिस्तान चला आता और दो कब्रों के दरम्यान ज़ोर ज़ोर से चिल्ला कर बोला करता. शायद मैंने किसी को देखा होता था, मैं देखता था कि फलां आदमी ने काम अच्छा किया या इस में इस शख्स ने लफ्ज़ अच्छा बोला. तो मैं उसकी नकल किया करता … और फिर वो एक डेढ़ घंटे बाद जब नमाज़ ख़तम होती थी, मैं अपने घर चला जाता. और माँ अक्सर मेरी चोरी पकड़ लेतीं. मैं चप्पल तो कभी नहीं पहनता था न! नंगे पैर रहता था. वो मुझे पकड़ लेती थीं क्योंकि आप मस्जिद में जा के वुज़ू करते हैं जबकि मेरे पैर देखकर वे कहतीं – “तुम्हारे पैर गंदे हैं. मतलब तुम मस्जिद गए ही नहीं.”
कॉनी हाम – तो आप खूब आंखमिचौली किया करते थे?
कादर ख़ान – क्या करें? रिवोल्यूशन बाई बर्थ होता है इन्सान के अन्दर. आदमी तो पैदा ही विद्रोही होता है. तो कुछ लोगों ने जाकर अशरफ़ ख़ान साहब से कहा कि एक लड़का है; वो रात को दो कब्रों के बीच अकेला बैठा रहता हैं और चीखता-चिल्लाता रहता है. तो वे कई रातों तक मुझे देखते रहे और एक रात उन्होंने अपनी टॉर्च की रोशनी मुझ पर फेंक कर कहा –
“इधर आओ. तुम ये क्या बोलते रहते हो वहाँ बैठ के?”
“कुछ नहीं. ऐसे ही, जो अच्छा लगता है, बोलता हूँ मैं.”
उन्होंने मुझे घूर कर देखा. “ड्रामे में काम करोगे?”
मैंने पूछा -“ड्रामा क्या है?”
“जो तुम कर रहे हो, इसी को ज़ोर-ज़ोर से बोला जाए, तो वो ड्रामा कहलाता है.”
“नहीं, मैंने कभी किया नहीं ये.” मैं उनसे कह रहा था.
उन्होंने अपने आदमी से कहा कि मुझे अगले दिन शहर में उनके छोटे बंगले पर ले कर आये. मैं वहां गया. उन्होंने मेरी ट्रेनिंग शुरू की. और उनके मार्गनिर्देशन, प्यार और पितृवत स्नेह की बदौलत मैं महीने भर में रोल के लिए तैयार हो गया. डेढ़ महीने बाद नाटक का शो हुआ. दर्शकों ने खड़े होकर मुझे शाबासी दी. और तब एक बूढ़े सज्जन स्टेज पर आये और उन्होंने मुझे सौ रूपये का नोट दिया. वे बोले “इस उम्र में तुम्हारे लिए यह काफ़ी बड़ी रकम है. यह तुम्हारे लिए एक सर्टिफिकेट है. हमेशा याद रखना कि ये सर्टिफिकेट तुम्हें बहुत छोटी उम्र में दे दिया गया था. मेरी दुआएं तुम्हारे साथ हैं.” उन्होंने बस मेरे सिर पर हाथ रखा और फिर कहीं गायब हो गए. मुझे नहीं पता वो कौन थे. सौ रूपये का वह नोट कई सालों तक मेरे साथ रहा. लेकिन गरीबी में लोग सम्मान और ट्राफियां तक बेच देते हैं. मेरी भी ऐसी कुछ परिस्थिति बनी कि घर के लिए खाना लाने के लिए मुझे उस नोट को खर्च करना पड़ा.
फिर मैंने लिखना और निर्देशन करना शुरू किया. मैंने एक तकनीकी स्कूल से शिक्षा प्राप्त की. मेरे प्रिंसिपल बहुत अच्छे आदमी थे. मुझे थियेटर करते हुए देखना उन्हें बहुत अच्छा लगता था. फिर मैं दूसरे कॉलेज में चला गया. वहां मैंने बहुत सारे नाटक किये. दो-तीन सालों में मैं कॉलेज के छात्रों के बीच इतना लोकप्रिय हो गया था कि बम्बई के लोग कहने लगे थे कि अगर किसी ने कादर ख़ान के नाटकों में काम नहीं किया तो वह बम्बई के किसी कॉलेज में नहीं गया. दूसरे कॉलेजों के छात्र आकर मेरे ऑटोग्राफ़ ले जाया करते थे. सो पॉपुलर तो मैं जीवन की काफ़ी शुरूआत में हो गया था.
फिर मैंने पढ़ाना शुरू किया. मूलतः मैं एक सिविल इंजीनियर था. मैं स्ट्रक्चर, हाईड्रौलिक्स, आरसीसी स्टील वगैरह के बारे में पढ़ाया करता था. लेकिन मेरी दिलचस्पी थियेटर में थी. स्टानिस्लाव्स्की, मैक्सिम गोर्की, चेखव और दोस्तोवस्की मेरे दूसरे अध्यापक थे. तो इस तरह दो हिस्सों में बंटी हुई ज़िन्दगी थी मेरी.
कमाठीपुरा
मेरा परिवार मूलतः काबुल का रहनेवाला था. वहीं मैं एक कट्टर मुस्लिम परिवार में जन्मा. मेरे वालदैन बेहद ग़रीब थे. खाने के लाले थे. मुझसे पहले मेरे तीन भाई और थे जो आठ साल साल के होते होते मर गए. जब मैं पैदा हुआ,मेरी माँ ने कहा “नहीं, ये जगह मेरे बेटे के लिये नहीं”. मेरी माँ को भय था कि काबुल की ज़मीन और वहाँ की आबोहवा उसके बच्चों के लिए मुफ़ीद नहीं थी. वह बोली, “मुझे यहाँ से कहीं और जाना होगा.” उन्हें पता ही नहीं था वे कहाँ जा सकते थे. बहरहाल वहाँ से निकल पड़े और पता नहीं कैसे अल्लाह जाने वे बम्बई पहुँच गए. अनजान जगह. अनजान मुल्क. अनजान शहर. जाने-मिलने को कोई जगह-लोग नहीं. पास में धेला नहीं. वे बंबई की सबसे बुरी झोपड़पट्टी कमाठीपुरा आ गये. इमारतें बनाने वाले सारे मजदूर वहाँ रहा करते थे. लेकिन यह बहुत खराब झोपड़पट्टी थी. सारे के सारे रंडीखाने वहाँ. आप किसी भी बुरी चीज़ के बारे में सोचिये, वो वहाँ थी. इसे एशिया की सबसे बुरी झोपड़पट्टी कहा जाता है. धारावी एक झोपड़पट्टी है पर कमाठीपुरा तो उससे भी ख़राब था. धारावी में सिर्फ झोपड़ों की कतारें हैं, पर यहाँ झोपड़े ही नहीं थे – वेश्याएं, अफ़ीम, गांजा, चरस सब कुछ था. अगर किसी ने अपनी ज़िन्दगी तबाह करनी हो तो उसे यहाँ जाना चाहिए. पहले दर्जे से सिविल इंजीनियरिंग के डिप्लोमा तक मैं वहीं रहा.
पढ़!
मैंने और लड़कों को देखा जो काम पर जाया करते थे और अपने घर के खाने के लिए पैसा कम कर लाते थे. कभी-कभी जब घर में खाने को कुछ नहीं होता था तो मैं सोचा करता था कि मुझे भी जाकर किसी वर्कशॉप, गैरेज या होटल में काम करना चाहिए. एक दिन मैं हारने ही वाला था जब मुझे अपने कंधे पर एक हाथ महसूस हुआ. मेरी माँ खड़ी थीं. वे बोलीं’ “मुझे पता है तू कहाँ जा रहा है. मैं समझ सकती हूँ. तू कुछ लड़कों से बातें कर रहा था. तू दिन में दो या तीन रुपये कमाने वाला है. लेकिन तेरे कमाए दो-तीन रुपयों से इस घर की गरीबी नहीं मिटने वाली. सारी ज़िन्दगी तीन रुपया-चार रुपया तू कमाता रहेगा. अगर तुझे इस घर की गरीबी उठानी है तो तुझे पढ़ना होगा.”
जिस तरीके से उसने मुझसे “पढ़!” कहा, उस ने पारे की बूँद जैसा काम किया. वह मेरे सिर पर गिरी और मेरी नसों में जा मिली. मैं उसे अब भी महसूस कर सकता हूँ. मेरा सारा बदन कांपने लगा. और तब मैंने फैसला किया कि मैं अपनी माँ को कभी धोख़ा नहीं दूंगा. मैंने पढ़ना शुरू कर दिया. हमारे पास दो कमरे नहीं थे. गणित में बहुत सारे जोड़-भाग करने होते थे. इसके लिए मैं चॉक का डिब्बा खरीद लाता था. मेरे पास कागज़ नहीं होता था सो मैं कमरे के पूरे फर्श पर लिखाई करता था और फिर उसे मिटा देता. मेरी माँ रात भर एक कोने में बैठी रहती और मुझे पढ़ाई करता हुआ देखती. वह मुझे आधी रात को जगा देती “उठ, पढ़ाई शुरू कर!”
कॉनी हाम – पढ़ाई के लिए ऐसी इच्छा उनके भीतर कहाँ से आई?
कादर ख़ान – मुझे नहीं मालूम. मेरे लिए वो एक फ़रिश्ता थीं. मैं दुआ करता हूँ काश हर बेटे को ऐसी माँ मिले. उसने मुझे ज़िन्दगी में सब कुछ दिया. मेरे कहने का मतलब दुनियावी चीज़ों से नहीं है, यानी मैं जो कुछ भी हूँ, जो कुछ भी बन सका हूँ, वह मेरी माँ और मेरे पिता के कारण संभव हुआ. मेरे वालिद बहुत कमज़ोर आदमी थे. बेहद ग़रीब. वे बहुत पढ़े-लिखे थे. उन्हें दस तरह की फ़ारसी और आठ तरह की अरबी का ज्ञान था.
कॉनी हाम – उन्होंने यह सब कहाँ सीखा?
कादर ख़ान – काबुल में. उन्होंने वहाँ कोई स्कूल ज्वाइन किया था. उनकी हस्तलिपि शानदार थी. लेकिन पढ़े-लिखे लोग पैसे नहीं कमा पाते. जब वे बम्बई आये तो एक मस्जिद में मौलवी बन गए. वहाँ वो दूसरों को अरबी सिखाया करते थे – अरबी व्याकरण, फ़ारसी, उर्दू. लेकिन उन्हें बदले में कुछ नहीं मिलता था – बस चार या पांच या छः रुपये एक महीने के.
मेरे सौतेले पिता
गरीबी की वजह से मेरे माँ-बाप का साथ चल नहीं सका. मेरे वालिद घर की ज़रूरतें पूरी नहीं कर पाते थे. घर में हमेशा एक तनाव बना रहता था. तो वो दोनों अलग हो गए. मैं कोई चार साल का था जब मेरे माँ-बाप का तलाक हुआ. तब मेरे नाना मेरे मामा के साथ आये और उन्होंने कहा “एक जवान औरत ऐसी गंदी जगह में बिना पति के नहीं रह सकती. तुम्हे शादी करनी होगी.” और उन्होंने मेरी माँ की फिर से शादी करा दी. सो आठ साल की आयु से मैंने जीवन को एक माँ और दो पिताओं के साथ गुज़ारना शुरू किया – एक मेरे असली पिता, एक सौतेले. मेरे माता-पिता अलग हो चुके थे पर दोनों के मन में एक दूसरे के लिए सहानुभूति थी. हर कोई जानता था कि उनका अलगाव गरीबी के कारण हुआ है. माहौल ने उन्हें अलग होने पर विवश किया था. वर्ना उनके अलग हो जाने का कोई कारण न था. मेरे मन में अपनी माँ के लिए बेतरह मोहब्बत थी पर अपने सौतेले पिता के लिए उतनी ही बेपनाह नफ़रत. वह किसी ड्रामा या स्क्रीनप्ले के सौतेले बाप जैसे थे – कठोर दिल वाले. एक दफ़ा मेरा नाटक ‘लोकल ट्रेन’ राज्य स्तरीय प्रतियोगिता में पहुंचा. हमने बेस्ट प्ले, बेस्ट राइटर और बेस्ट एक्टर के अवार्ड्स जीते. मैं इन इनामों को माँ को दिखाने की नीयत से घर लाया. मेरे सौतेले पिता उस दिन मुझसे बात करने के मूड में नहीं थे. उन्होंने ट्राफी को देखना था और वे आगबबूला होकर मुझे पीटने लगे – उन्होंने पीट-पीट कर मुझे नीला बना दिया और लतियाते हुए घर से बाहर निकाल दिया. मैं अपने संस्थान गया और प्रिंसिपल के दरवाज़े पर बैठकर उनसे बातचीत की. वे बोले, “अगर तुम चाहो तो स्टाफ क्वार्टर्स में रह सकते हो..” उन्होंने मुझे बांस की बनी एक खटिया, बिस्तर, कम्बल और तकिया दिया. “मैं यही तुम्हारी मदद कर सकता हूँ” वे बोले. मैंने वहाँ रहना शुरू कर दिया.
बुरा वक़्त
कॉनी हाम – तब आप कितने साल के थे?
कादर ख़ान – मैं करीब २४ का था. तब मैं अपनी माँ से मिलने दोपहरों को जाया करता था. वे मुझसे वापस आ जाने को कहती थीं. मैं मना कर दिया. मैं तुम्हारे प्यार के लिए आता हूँ. मेरे भीतर एक आत्मसम्मान है जो मुझे यहाँ आने से रोकता है. मैंने उस से कहा कि मैं वहाँ इस लिए नहीं आना चाहता कि मैं नहीं चाहता वो आदमी मुझे बेइज़्ज़त करे. जब वह मुझे बेइज़्ज़त करता है तो मुझे लगता है वह तुम्हें बेइज़्ज़त कर रहा है. कई सालों तक ऐसे ही रहा. फिर मेरी शादी का दिन आया. यह आदमी काम भी किया करता था और एक बेहतरीन बढ़ई था. अगर वह चाहता होता तो बहुत पैसा बना सकता था. लेकिन उसकी संगत खराब थी. उसके दोस्त उसे शराबखानों में ले जाते थे. वह दारू पीता था. शराब पीता था, आता था, हंगामा करता था, माँ को मारता था, सबको गालियाँ देता था. और जब मैं छोटा था वह मुझसे कहता था “जा अपने बाप से पैसे मांग के ला.” तो कभी कभी मैं अपने पिताजी के पास जा कर खड़ा हो जाया करता.
“क्या है?”
“दो रुपये चाहिए.”
“मैं कहाँ से लाऊँ? मैं मुश्किल से छः रुपये कमाता हूँ.”
खैर. वे मुझे दो रूपये दे देते. उन पैसों से में थोडा आटा, दाल, घी या तेल ले जाया करता. तब जाकर माँ दाल-रोटी बनाती और हम खाना खाते. हफ्ते में दो दिन में-तीन दिन में एक बार भूखा रहना पड़ता था, फाका करते थे न! – इस ज़िन्दगी में सब कुछ देख लिया है! इन सारी चीज़ों में मुझे विद्रोही बना दिया. और मैंने बिना कहीं से साहित्य वगैरह पढ़े लिखना शुरू कर दिया.
और मुझे एक अच्छे अध्यापक के तौर पर ईनाम दिया गया क्योंकि मैं जो कुछ करता उसे प्यार से करता था. मुझे माँ-बाप के अलावा किसी का प्यार नहीं मिला. तो प्यार का वो इलाका ख़ाली था. मैं ऐसे स्कूल कॉलेज में पढ़ा जहां लड़कियां नहीं होती थीं. सो किसी तरह का कोई अनुराग नहीं, कोई मोहब्बत नहीं. हर किसी को माँ-बाप का प्यार चाहिए होता है. सच बात है. लेकिन उसके भीतर भी एक कोई शैतान होता है. आपको अल्लाह से भी मोहब्बत मिलती है. वह सबसे टॉप लेवल की मोहब्बत है. लेकिन इंसान टॉप लेवल नहीं होता. वह पहाड़ की चोटी पर नहीं घाटी में रहता है. सो एक इंसान को प्यार चाहिए होता है. लेकिन प्यार होता कहीं नहीं, सो उस सारे प्यार को मैंने विद्रोह की तरफ मोड़ दिया. मैं लिखा करता था. मैं तीखी पंक्तियाँ लिखा करता था. तीखे नाटक.
अध्यापन से सिनेमा और वापस
कॉनी हाम – और आपका सिनेमा का काम?
कादर ख़ान – मैंने कोई अट्ठाईस सालों तक फिल्मों के लिए लिखा. फिर मैं उकता गया. मूलतः मेरे पिता ने मुझे एक शिक्षक बनाया था. मुझे पढ़ाने में ही सबसे ज़्यादा आनन्द आता था. मैं ग्लैमर के संसार में गया. मैंने अच्छा नाम और पैसा बनाया. लेकिन मेरे दिल को आराम न था. मुझे महसूस होता था कि मेरे छात्र कहीं मेरा इंतज़ार कर रहे हैं. और इसी लिए जब एक दिन मैंने पाया कि नई पीढ़ी बॉलीवुड में आकर कब्ज़ा कर रही है – मतलब नए नए लड़के, और वो लड़के जो मेरे निर्देशक के असिस्टेंट के नीचे काम किया करते थे, वो भी थर्ड या फोर्थ या फिफ्थ असिस्टेंट. वे हीरो बन रहे थे, डायरेक्टर बन रहे थे. तो एक तरह का जेनेरेशन गैप आ रहा था. विचारों और भावनाओं में एक गैप आ रहा था. मैंने एकाध के साथ काम किया पर उसे चालू नहीं रख पाया. सो धीरे धीरे मैंने काम करना कम कर दिया. इस तरह मैं फिल्म इंडस्ट्री से बाहर आया. मेरे समय के 70 से 80% निर्देशक और एक्टर अब जा चुके हैं. और उनसे बात करना दिनोंदिन मुश्किल होता जा रहा है. उनके थॉट्स – वो सारे इम्पोर्टेड हैं. मैं इस ज़मीन का आदमी हूँ. मैं कमाठीपुरा का रहनेवाला हूँ. जब तक मुझे वो माहौल, वो कमाठीपुरा का माहौल नहीं मिलता, न मैं एक्टिंग कर सकता हूँ न लिखना. और ये नई जेनेरेशन – इसे कम्प्यूटर साइंस और बिजनेस मैनेजमेंट के बारे में सब पता है. हमारे समय में ये विषय होते ही नहीं थे. मैनेजमेंट बहुत दुरुस्त है. तकनीक बहुत आगे की है. लेकिन साहित्य को उन्होंने खो दिया है. अब कोई लेखक हैं ही नहीं. वो लोग लिखते ही नहीं. क्योंकि लिखने से पहले आपको ज़िन्दगी के कई उबलते हुए सबक सीखने पड़ते हैं, उनसे गुज़रना होता है.
कॉनी हाम – तो आप सोचते हैं कि नई पीढ़ी ने उतना सब सहा ही नहीं कि वे अच्छा लिख सकें?
कादर ख़ान – देखिये, यातना की सघनता – वे लोग यातना को कुछ और नाम से पुकारते हैं. अगर एक लड़के को एक लडकी से मोहब्बत हो जाती है और वह घंटों तक उसका इंतज़ार कर रहा है, उसे वो लोग यातना मतलब सफ़रिंग कहते हैं. नहीं साहब, वह सफ़रिंग नहीं है. वह कुछ और होती है. और वह ऐसी चीज़ होती है जो आपके अचेतन में चली जानी चाहिए, उसे वहीं लिखा जाना चाहिए, वहीं रेकॉर्ड किया जाना चाहिए. जीवन के किसी भी समय आप अपने को रोने के मूड में पा सकते हैं. आप क्यों चाहते हैं रोना? क्योंकि सारी बुरी चीज़ें भाप में बदल जाती हैं और आप उन्हें भूल जाते हैं, लेकिन वहाँ अचेतन में एक कैमरा होता है जो सब कुछ दर्ज करता चलता है. और एक दिन एक प्रोजेक्शन रूम भी होता है, और कैमरा प्रोजेक्टर बन जाता है और उस एपीसोड को प्रोजेक्ट करने लगता है जिसे आँखों ने देखा होता है. और वह कोई नाटकीय या संवेदनशील दृश्य होता है जो आपको रुला देता है. तो असल में यह यूं घटता है. इस तरह एक इंसान बस एक इंसान नहीं होता, वह कई हिस्सों में बंटा होता है. और शरीर का सबसे अहम् डिपार्टमेंट होता है अचेतन यानी सबकॉन्शस. हम उसे दिल या दिमाग कहते हैं पर वह सबकॉन्शस की परम शक्ति होती है असल में,
कॉनी हाम – तो वह कौन सा लम्हा था जब आप अध्यापन और लेखन अभिनय से अचानक सिनेमा में पहुंच गए?
कादर ख़ान – फिल्म इंडस्ट्री के लोग नियमित रूप से थियेटर देखने आया करते थे. तो उन्होंने मेरा नाम सुना. उन्होंने मुझे थियेटर के स्टेज पर देखा. उन्होंने मेरी एक्टिंग देखी, मेरा लेखन देखा और मेरा निर्देशन भी. उन्होंने कहना शुरू किया “यह बेवकूफ फिल्म इंडस्ट्री में क्यों नहीं आ रहा? इसमें प्रतिभा है. इसे फिल्म इंडस्ट्री में होना ही चाहिए.” जब मुझे ‘लोकल ट्रेन’ के लिए एक अवार्ड मिला तो अगले दिन एक निर्माता, कुछ निर्देशक और लेखक मेरे पास आकर बोले “आप फ़िल्में ज्वाइन क्यों नहीं करते?” मेरे लिए यह एक लतीफे जैसा था. “आप ने एक लेखक होना चाहिए, आपने एक अभिनेता होना चाहिए. आप कुछ भी कर सकते हैं क्योंकि आपको सब कुछ आता है.” मैंने फिल्मों में जाने के बारे में कभी नहीं सोचा था क्योंकि उन दिनों फिल्मों को अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता था. एक निर्माता रमेश बहल ने कहा कि वो एक फिल्म बनाने जा रहे हैं ‘जवानी दीवानी’ (१९७२).
“मैं चाहता हूँ आप इसके डायलॉग्स लिखें.”
मैंने जवाब दिया “मुझे नहीं आता डायलॉग लिखना.”
उन्होंने कहा “आप जो कुछ अपने नाटकों के लिए लिखते हैं, उसी को फिल्मों में डायलॉग्स कहा जाता है.”
सो मैं वहाँ गया और उन्होंने मुझे एक मौका दिया. उन्होंने कहा कि वे अगले हफ्ते से शूटिंग शुरू करना चाहते हैं. मेरे पास रहने की जगह नहीं थी. सो मैं क्रॉस मैदान चला गया जहां लोग फुटबॉल खेलते हैं. मैं एक कोने में बैठा रहा और फुटबॉल मुझे लगती रही. चार घंटे में मैंने स्क्रिप्ट लिख ली.
कॉनी हाम: उर्दू में?
कादर ख़ान: उर्दू में. मैं गया वापस. तो मुझे देखकर वे बौरा से गए. “ये उल्लू के पठ्ठे को वो सीन समझ में नहीं आया.”
मैं उनके होंठ पढ़ सकता था. वे मेरे बारे में बुरी बातें कह रहे थे. और मैं बोला “इस उल्लू के पठ्ठे को सब्जेक्ट समझ में आया है, ये उल्लू का पठ्ठा लिख के लाया है.”
“क्या! इतनी जल्दी! आज ही!”
“मेरी लाइफ ऐसी ही है. जो डिसाइड करता हूँ, उसी दिन कर देता हूँ. आज ही फैसला हो जाए. अगर आपने मुझे लेना है तो ठीक वरना मुझे जाने दीजिये क्योंकि मेरे स्टूडेंट्स मेरा इंतज़ार कर रहे हैं.”
तब मैंने अपना सब्जेक्ट उन्हें पढ़कर सुनाया और सीन भी. वे उछल पड़े. बोले “फिर से!” मैंने तीन या चार बार सुनाया. उन्होंने उसे रेकॉर्ड किया. और तीन दिन के अन्दर शूटिंग शुरू हो गयी. इस तरह मेरी स्क्रिप्ट ने फिल्म की सूरत ली. शेड्यूल के हिसाब से फिल्म दस दिन में शुरू होनी थी पर स्क्रिप्ट फाइनल होने के कारण वह तीन दिन में शुरू हो गयी. शूटिंग के इन दिनों में मुझे अतिरिक्त पब्लिसिटी मिली. इंडस्ट्री में अफवाह गर्म थी कि एक नया राइटर आया है जो बहुत आमफ़हम ज़बान लिखता है. और जिस तरह से वह सीन को नरेट करता है, अभिनेता के लिए परफॉर्म करना मुश्किल पड़ता है. पहली फिल्म के लिए मुझे 1500 रूपये मिले, जो उस ज़माने के हिसाब से बड़ी रकम थी क्योंकि मैंने उसके पहले पांच सौ का नोट भी नहीं देखा था. सात हफ्ते के बाद मैं अपनी संस्था में वापस जाने को तैयार था जब किसी ने आकर मुझसे कहा “मैं एक प्रोड्यूसर हूँ और एक फिल्म बनाने के बारे में सोच रहा हूँ. मेरी फिल्म का नाम है ‘खेल खेल में’. ये रहा स्क्रीनप्ले और मैं चाहता हूँ आप इसके डायलॉग्स लिखें.” उसने मुझे एक खासा मोटा लिफाफा थमाया. उसमें दस हज़ार से ज़्यादा रुपये थे. मैंने स्क्रिप्ट पूरी की. तब मुझे एक ऑफर और मिला.
मनमोहन देसाई का खेतवाड़ी वाला घर: कादर खान की पाठशाला
चार या छः महीने बाद मुझे मनमोहन देसाई ने बुलवाया. वे ‘रोटी’ फिल्म बना रहे थे. वे उर्दू लेखकों से बुरी तरह चट चुके थे. उन्होंने कहा “मुझे इस ज़बान से नफरत है. ये राइटर तमाम मुहावरे, लोकोक्तियों और उपमाओं का इस्तेमाल करना जानते हैं बस. मुझे अपनी रोज़मर्रा की ज़बान चाहिए. कोई लिख नहीं सकता.”
तो प्रोड्यूसर ने कहा “कादर खान को ट्राई क्यों नहीं करते?”
“एक और मुसलमान. मैं ऊब चुका हूँ उनसे. और तुम एक और नया लेकर आ रहे हो.” वे मुझसे मिले और बोले “देखो मियाँ, मैं बहुत स्ट्रेट बोलता हूँ. तुम्हारी स्टोरी पसंद आयेगी तुम्हारा डायलाग अच्छा लगेगा तो ठीक है वरना धक्के मार कर बाहर निकाल दूंगा.” पिछले छः या आठ महीनों में किसी ने मुझसे ऐसे बात की थी. “अगर अच्छा लगा तो मैं तेरे को लेके गणपति की तरह नाचूँगा.”
उन्होंने मुझे पूरा क्लाइमैक्स नरेट किया. वे खेतवाड़ी में रहते थे. वह मेरी पाठशाला था. दो या तीन दिन बाद मैं वहाँ गया तो वे गली के छोकरों के साथ क्रिकेट खेल रहे थे. उन्होंने मुझे देखा और बोले “क्या है?”
“सब्जेक्ट और सीन सुनाने आया हूँ.”
“सुनाने मतलब? लिख के लाया?” उन्होंने क्रिकेट खेलना छोड़ा और मुझसे बोले “चल झटपट.”
वे मुझे अन्दर ले गए. पहली बार. इतना बड़ा इंसान. पहले यूं होता था कि सारा क्रू और डायरेक्टर वगैरह से मेरी अच्छी ट्यूनिंग रहती थी. किसी बड़े प्रोड्यूसर के सामने सीन सुनाने का यह मेरा पहला मौका था. जो भी हो, मेरे भीतर के अभिनेता ने मेरी बहुत मदद की. सो इसी वजह से अभिनेता, लेखक और अध्यापक इन तीनों के बीच हमेशा ट्यूनिंग बनी रहती थी. अभिनेता ने मेरी बहुत मदद की. तब राइटर ने अभिनेता की मदद करना शुरू किया. मैंने सीन सुनाया तो वे उछल पड़े. “दुबारा! फिर से सुनाओ!” उन्होंने चिल्लाना शुरू किया “जीवन!” जीवन उनकी पत्नी का नाम था. “इधर आ!”
“कायको बुलाया है?” उन्होंने पूछा.
“सुनो ये क्या लिख के लाया है.”
मैंने फिर दोहराया. उन्होंने रोना शुरू कर दिया – “ये आदमी ऐसे सीन के लिए छः महीने से मर रहा है. तुमने उस से कहीं ज़्यादा कर दिखाया है.”
वे बोले “फिर से!” मैंने पूरा एपीसोड करीब दस बार सुनाया. मुझे पता नहीं थे कि उन्होंने टेप पर सब कुछ रेकॉर्ड कर लिया था. फिर वे अन्दर के कमरे में गए. वे एक छोटा पैनासोनिक टीवी लेकर आये. बोले “ये मेरी ओर से तोहफा है.” फिर उन्होंने मुझे सोने का एक कड़ा और पच्चीस हज़ार रुपये दिए. “मेरी तरफ से एक यादगार.” इतने बड़े आदमी थे वो. अगर उन्हें कोई अच्छा लगता था तो उसे दिल से प्यार करते थे. वे कंजूस आदमी नहीं थे. बड़े दिलेर इंसान थे. उन्होंने तमाम लेखकों और निर्देशकों को फोन लगाया और बोले “अब तुम सब चेत जाओ. एक आदमी आ गया है जो तुम्हारी इंडस्ट्री पर राज करने जा रहा है.” वे थोड़ा सनकी भी थे. उन्होंने लेखकों से कहा “अपनी कलमें फेंक दो. तुम्हें लिखना नहीं आता.” मुझसे बोले “लिखने के लिए तुम्हें कितना मिलता है?”
मैंने कहा “पच्चीस हज़ार.”
वे बोले “अब तुम्हारा रेट एक लाख होगा.” इस तरह मैं एक लाख पाने वाला लेखक बना. मुझे जैसे पहली मंजिल से सौवीं मंजिल पर पहुंचा दिया गया. सौवें माले से मैंने उड़ान भरी. वहाँ से वापसी का कोई रास्ता नहीं था. मेरे बगैर वे कोई फिल्म बना ही नहीं पाते थे. मुझे स्क्रीनप्ले पर बहसों, कहानी और गीतों तक हर चीज़ में वे अपने साथ बिठाते थे.
दक्षिण की ओर
एक दिन मैं आर. के. स्टूडियो में शूट कर रहा था, जितेन्द्र मेरे पास आये और बोले “माफ़ करना लेकिन एक प्रोड्यूसर आपसे दो साल से मिलना चाह रहा है, लेकिन उसके पास आपसे मिलने की हिम्मत नहीं है.”
तब वह प्रोड्यूसर आया. मैंने पूछा “आपको यह गुमान कब से हुआ कि मैं एक बड़ा लेखक और आदमी हूँ? मैं एक साधारण इंसान हूँ.”
“नहीं सर, दरअसल मेरा भाई आपसे बात करना चाहता है.” सो मैंने उसके भाई हनुमंत राव से बात की जो पद्मालय का प्रोड्यूसर होने के साथ ही एक बड़े दिल वाला अच्छा आदमी निकला. उसने कहा “मैं कन्नड़ से हिन्दी में एक रीमेक बनाने की सोच रहा हूँ.” उसने मुझे स्क्रिप्ट थमाई.
“मैंने सुना है” मैं बोला “दक्षिण भारत में आप जब रीमेक बनाते हैं तो आप कदम दर कदम शब्द दर शब्द ओरिजिनल की कॉपी करते हैं. मैं वैसा नहीं कर सकता. मुझे इसे दुबारा लिखना होगा.”
“आपको जैसा करना हो कीजिये” उसने जवाब दिया.
मैंने वैसा ही किया और पूरी स्क्रिप्ट को रेकॉर्ड किया. जितेन्द्र वहाँ काम करते थे. हेमा मालिनी वहाँ काम करती थीं. और वह फिल्म थी ‘मेरी आवाज़ सुनो’. उस फिल्म के साथ मैंने दक्षिण भारत में प्रवेश किया. सेंसर बोर्ड सर फिल्म को कुछ दिक्कतें पेश आईं पर फिल्म पास हो गयी. जब कोई फिल्म बैन की जाती है उसे अच्छी पब्लिसिटी मिलती है. फिल्म सुपरहिट गयी. मुझे बेस्ट राइटर का इनाम मिला. इस तरह साउथ में मेरी एंट्री हुई.
तनाव: किरची किरची आईना
अब मैं तीन हिस्सों में बंट गया था – मनमोहन देसाई, प्रकाश मेहरा और दक्षिण भारत. दक्षिण में लोग समय के बड़े पाबन्द होते हैं. वे आपको पूरा पैसा देते हैं. सो मैं वहाँ काम कर रहा था. मैं यहाँ भी काम कर रहा था. यही मेरा जीवन था. लेकिन घर पर हमेशा एक तनाव रहता था, “तुम हमें ज़रा भी समय नहीं दे रहे.” मैं झोपड़पट्टी से आया था. मैंने अपनी बीवी और बच्चों को फ्लैट्स और बंगले और सब कुछ दिया था. लेकिन इन सब पर सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि मैं उन्हें समय नहीं दे पा रहा था. सो दो के बदले अब तीन तीन विभाजन रेखाएं थीं. मनमोहन देसाई और प्रकाश मेहरा के बीच एक रेखा थी; मनमोहन देसाई, प्रकाश मेहरा और दक्षिण के बीच एक दूसरी रेखा थी जबकि मनमोहन देसाई, प्रकाश मेहरा और दक्षिण और घर के बीच एक तीसरी. और उस रेखा का अस्तित्व अब भी है. मैं टुकड़ों में बंट गया था. और अगर रोटी का एक टुकड़ा हिस्सों में बंट जाए तो उसे दुबारा जोड़कर एक नहीं बनाया जा सकता. ठीक जिस तरह एक आईना किर्चियों में टूट जाता है, मैं भी बिखर गया था. हालांकि इसका कोई अफ़सोस नहीं है. मैं जो भी हूँ, वो हूँ. मुझे पता है मैं अब भी मेहनत कर रहा हूँ. मेरे अपने लोग इस बात को अभी नहीं पहचानते पर एक दिन उन्हें मेरी याद आएगी. मेरे पिताजी बताया करते थे घर की खुशी, उसकी मोहब्बत और अपनेपन के बारे में … कुछ बातें मेरे दादाजी की बाबत. उन्हें अपने परिवार से अलग होना पड़ा था. वही चीज़ें मेरे दादाजी के साथ घटीं वही पिताजी के साथ. परिवार का सम्बन्ध क्या होता है? परिवार के लिए वह एक गोंद का काम करता है. अगर वो चीज़ें नहीं हैं तो सब कुछ बिखर जाएगा.
पिता, पुत्र और मुस्लिम समुदाय
मेरे वालिद बहुत लायक इंसान थे. जब मैं अपनी क्लासेज़ ले रहा होता वे वहाँ आया करते थे. शाम को आकर वे मेरे अंतिम पीरियड में बैठा करते थे. और मैं उनसे पूछता “आप मेरी क्लासेज में क्यों आते हैं?”
वे कहते “सीखने के लिए. उम्र की कोई सीमा नहीं होती. आप कहीं भी जाकर कुछ भी सीख सकते हैं. मैं तुमसे यह सीख रहा हूँ कि पढ़ाया कैसे जाए. तुम एक अच्छे अध्यापक हो.”
मेरे पिताजी कहा करते “तुम मुस्लिम समुदाय की सहायता कर सकते हो – उन्हें पढ़ाकर.”
मैं कहता “मुझे कुछ नहीं आता.”
वे कहते “तुम्हें तो फिल्मों में लिखना भी नहीं आता था. न तुम्हें नाटक लिखने आते थे. तुम सब सीख सकते हो. तुम्हारे भीतर वह क्षमता है.”
अपने अंतिम दिनों में वे हॉलैंड चले गए थे जहाँ उन्होंने अपना शिक्षा संस्थान स्थापित किया जिसमें अरबी, फ़ारसी और उर्दू सिखाई जाती थी. जब वे अपनी मृत्युशैय्या पर थे उन्होंने मुझसे कहा “तुम्हें याद है न तुमने मुझसे एक वादा किया था.”
मैंने कहा “मैंने वादा नहीं किया किया था पर मैं कोशिश करूंगा.”
वे बोले “हाँ, तुम्हें कोशिश करनी चाहिए. अगर तुम्हारा जैसा आदमी कहता है कि ‘मैं कोशिश करूंगा’ तो उसे वादा की समझना चाहिए. और तुम्हारी कोशिश वाकई ईमानदार होगी.” फिर उनका इंतकाल हो गया. उनकी मौत के बाद मैं वाकई अनाथ हो गया. मुझे इच्छा होती है काश वे अभी होते. वे 95 की आयु में मरे. वे मज़बूत आदमी थे,उन्होंने चश्मा कभी नहीं पहना. उनकी आधी दाढ़ी काली और आधी सफ़ेद थी. वे टहला करते थे और उनके अपने दांत थे. वे अपनी दिनचर्या का पालन करने वाले मज़बूत इंसान थे. बहुत मोहब्बत से भरे हुए. उनके छात्र हर धर्म और जाति से थे – मुस्लिम, हिन्दू, ईसाई, यहूदी. वे सब आकर उनसे सीखते थे. हॉलैंड में भी डच, तुर्क और यहूदी सब उनके पास आते थे. तो मैं जब भी जाया करता, तो मैं उनकी डायरी में देख सकता था कि उनसे मुलाक़ात कब हो सकती थी. मैं उनसे मिलने मस्जिद में जाया करता था. वे एक दोस्त, दार्शनिक, मार्गदर्शक, एक अध्यापक – सब कुछ थे मेरे वास्ते. मैं इस कदर किस्मतवाला हूँ. मैं जहां भी गया, मेरे लिए अध्यापक हर जगह थे. मनमोहन देसाई मेरे लिए एक गुरु से कहीं ज़्यादा थे. उन्होंने मुझे कमर्शियल सिनेमा सिखाया. उन्होंने मुझसे वैसे काम लिया. वे मुझे अपनी गाड़ी से घर छोड़ा करते थे. उस सब को मैं एक समुन्दर में बदल लिया करता था. प्रकाश मेहरा. दक्षिण के लोग. मेरे लिए भाग्य मेरे पिता के कारण आया था. लेकिन जब वह माहौल बदलने लगा, और ज्ञान के आसमान का सूरज डूबने लगा, मैंने खुद से कहा, अब यह सब नहीं चल सकता. और यही वजह है कि मैं यहाँ बैठा हूँ कि मेरा स्टाफ़ साहित्य, अरबी, फ़ारसी और उर्दू पर काम कर रहा है. वह जो ज्ञान मैं मुस्लिम समुदाय को दूंगा, वे अपने धर्म को अच्छी तरह जानना शुरू करेंगे. वे उसे बेहतर समझने और बरतने का ज्ञान प्राप्त करेंगे.
लेखन की बाबत
कॉनी हाम – फिल्मों के अपने लेखन के बारे में मुझे कुछ बताइये.
कादर ख़ान – कहानी में उतार चढ़ाव – मनमोहन देसाई उस पर यकीन करते थे. वे मुझे आउटलाइन दे दिया करते थे जिनके बीच मैंने अपनी पंक्तियाँ फिट करनी होती थीं. और मुझे उनकी इस कमजोरी का पता चल गया था. वे चाहते थे कि डायलॉग्स पर तालियाँ बजें. “तलवार का वार जिसे मार न सके, वो अमर है. आग को जलाकर जो ख़ाक कर डाले वो अकबर है.” तब वे कहते थे “अपुन नईं पब्लिक बोलता है, अनहोनी को जो होनी बना डाल दे, वो एन्थनी है.” इसी तरह के ज़बान पर चढ़ जाने वाले डायलॉग्स. इसी से उन्होंने ‘जॉन, जॉनी जनार्दन’ गाना बनाया था.
तो मुझे मनमोहन देसाई की कमजोरी का पता चल गया था. मैं मनमोहन देसाई को फ्रेम में रखा करता था. उनके घर जाने से पहले ही मुझे उनकी प्रतिक्रिया का पता चल जाता था कि वे मेरी लाइनों पर तालियाँ बजाएंगे या नहीं. वे मेरी ऑडीएन्स थे. और वे ऑडीएन्स की नब्ज़ पकड़ना जानते थे.
कॉनी हाम – मैं आपसे पूछने ही वाली थी कि ऑडीएन्स के बारे में आपकी क्या इमेज थी. सो आपके दिमाग में मनमोहन देसाई रहते थे.
कादर ख़ान – जैसे, मैं नाटक लिखा करता था. मैंने इंटर-कॉलेज ड्रामाटिक प्रतियोगिताएं से शुरू किया था. चौपाटी में भारतीय विद्या भवन के नाम से एक बहुत घटिया नाटक प्रतियोगिता हुआ करती थी. या खुदा, क्या ऑडीएन्स आती थी वहाँ – बेहद खतरनाक. जब भी एक्टर स्टेज पर आता वे कहते थे “आओ.” एक्टर डरने ही वाला होता था जब वे कहते “बैठो” वह बैठ जाया करता. वह फोन का रिसीवर उठता. ऑडीएन्स कहती “हैलो” और यह एक्टर बिना नंबर डायल किये बातें करना शुरू कर देता. और तब उसे जुतिया के बाहर कर दिया जाता. तो ऑडीएन्स से मैंने बहुत सारे पाठ सीखे. वह 400 की क्षमता वाला हॉल था. जब मेरा नाटक होता तो 1700 से 1800 लोग आ जाया करते. और मैं उन्हें हर दफ़ा तालियाँ बजाने पर मजबूर कर देता था. मैं उन्हें गैलरी में बैठा देखने की कल्पना किया करता. दस तारीफों के बाद आप ऑडीएन्स को समझ जाते हो. और तब आप उन्हें अपने विचार बताया करते हैं. ऐसा ही लगातार करते जाना होता था. ऑडीएन्स हिल जाया करती थी. उस अनुभव ने मुझे बहुत सिखाया. सो भारतीय विद्या भवन से मैंने अपना फ़ोकस मनमोहन देसाई पर केन्द्रित कर लिया था.
लेखन और अभिनय के बारे में:
लेखकों ने हमेशा स्केचेज़ बनाने चाहिए. लेखकों ने हमेशा अभिनय करना चाहिए. अधिकतर लेखक रंगमंच से आते हैं. वक्तृता भी अभिनय ही है. जब आप बोलते हैं, आप ऑडीएन्स को जकड़ना शुरू करते हैं. शब्द का चयन, आपकी आवाज़ की लरज़, भावमुद्रा का चयन. यह सब मिलकर अभिनेता को बनाते हैं … जब हम असल जीवन में झूठ बोल रहे होते हैं हम सब अभिनय करते हैं. उस वक्त हमारे एक्सप्रेशन मेक-अप का काम करते हैं. वह आपके चेहरे को ढांप लेता है.
मंटो के लेखन ने मुझे बहुत प्रेरित किया. मंटो से मैंने यह पाया कि अच्छे ख़याल लाने के लिए आपके पास अच्छे लफ्ज़ होने चाहिए. किसी बड़े आइडिया को नैरेट करने के लिए लोग बड़ी बड़ी शब्दावली का इस्तेमाल करते हैं,जबकि मंटो का मानना था कि आपके आइडिया बड़े होने चाहिए और वाक्य साधारण. और मैंने इसी बात का अनुसरण किया. यही मेरी सफलता का कारण बना. ग़ालिब ने मुझे स्क्रीनप्लेज की सूरत में आइडियाज़ दिए. किसी सीन को लेकर आपके पास कुछ न कुछ कल्पना होनी चाहिए. और वह सब आपको कम शब्दों में बयान कर सकना आना चाहिए. और ये सारे शब्द आपस में जुड़े होने चाहिए ताकि ऑडीएन्स भी उनसे जुड़ी रह सके. अगर आप ऑडीएन्स को अपनी स्क्रिप्ट से बाँध सकते हैं तो आप सफल हैं. यह बांधना ही सबसे मुश्किल होता है.
कॉनी हाम – दर्शकों को बांधे रखने की ट्रिक क्या है.
कादर ख़ान – ट्रिक ये है कि आपने सबको जानना चाहिए. आपने सब कुछ जानना चाहिए. आपको हरफनमौला होना होता है. अगर आप एक बढ़ई हैं तो आपको सबसे अच्छी लकड़ी छांटना आना चाहिए, उसे सलीके से काटना आना चाहिए, उसने सारी उपलब्ध स्पेस को घेरना चाहिए, और डिजाइन भी उम्दा होना होगा. डिजाइनिंग और एकोमोडेशन – ये हैं स्क्रिप्ट लेखन के उपकरण. कभी कभी आप सब कुछ अकोमोडेट करना चाहते हैं और वह किसी बक्से जैसा दिखने लगता है. चीज़ का अच्छा दिखना भी ज़रूरी है.
कॉनी हाम – आपको कैसे पता लगता है कि आपने सही लाइन लिखी है?
कादर ख़ान – प्रतिक्रिया के बाद. कभी कभी ऑडीटोरियम में आपको ऐसी लाइनों पर प्रतिक्रियाएं सुनने को मिल जाती हैं कि उनके बारे में आपने कभी सोचा तक नहीं होता. और कई बार जब आपको लगता है कि ये लाइन दर्शकों में धमाल मचा देगी तो कुछ होता ही नहीं. तीन तरह की प्रतिक्रियाएं होती हैं. पहली आपकी प्रतिक्रिया, दूसरी डायरेक्टर की और तीसरी ऑडीएन्स की. तीन प्रतिक्रियाओं के अपने अपने इलाके होते हैं, तीन मुख्तलिफ जज़ीरे होते हैं. आपने तीनों जज़ीरों की सैर करना होती है. यह एक काल्पनिक संसार होता है.
मानवीय वाणी
मैंने थियेटर से क्या सीखा? – एक अभिनेता के लिए, जब वह स्टेज पर आता है. यही बात सबसे ज़रूरी होनी चाहिए. उसकी एंट्री असाधारण होनी चाहिए. और कुछ आवाजें होनी चाहिए ताकि ऑडीएन्स का दिमाग कहीं और भी लगा रहे. आखिर एक इंसान इंसान ही हो सकता है. तो ऑडीएन्स का ध्यान भटकाया जाना चाहिए. तब जब वह बोलता है, उसका हर शब्द आख़िरी आदमी तक पहुंचना चाहिए. और अभिनेता एक गायक भी होता है. एक गायक अपने गानों के बोल गाता है. अभिनेता अपने डायलॉग्स की पंक्तियों को गाता है. उसको डायलॉग्स की शक्ल में गीत को गाना होता है. उसकी आवाज़ कानों को मीठी लगनी चाहिए. मैंने ये एनालिसिस किया है कि मर्द की आवाज़ में थोड़ी सी गूँज और गरज होनी चाहिए, थोड़ा सा बेस होना चाहिए, थोड़ी सी नेज़ल होनी चाहिए. ये कॉम्बिनेशन जो है , ये साउंड को ऐसा बना देती है जैसे कि किसी गुम्बद के अन्दर कोई घुँघरू गिरा हो. एक गुम्बद की तरह! आप एक घुँघरू गिराते हैं. जो साउंड पैदा होती है और उसकी गूँज, … वैसी आवाज़ होनी चाहिए जो अभिनेता के मुंह से बाहर निकले.तो जब आप उस टोन में बोलेंगे तो सुनने वाले मन्त्रमुग्ध हो जाएंगे. तब वे आपकी परफॉरमेंस के बारे में भूल जाएंगे क्योंकि शब्द बड़ी ताकतवर चीज़ है. और अगर एक्टर के बोलने में डायलाग डिलीवरी में ताकत है तो वह दर्शकों को अपनी आवाज़ से बाँध सकता है. और अगर उसके पास अच्छी भाव-भंगिमाएं हैं, चेहरे का अच्छा एक्सप्रेशन है और स्टाइल भी है, तो वह तमाम ऑडीएन्स को अपने घर ले के जा सकता है.
कॉनी हाम – आजकल क्या कर रहे हैं?
कादर ख़ान –मैं किताबें लिख रहा हूँ. मैं अपने सामने अनपढ़, अयोग्य लोगों को रखता हूँ. अगर कोई उनसे वैसी भाषा में बात करेगा तो क्या वे समझ सकेंगे? सो मैं सवाल-जवाब की शैली में किताबें लिख रहा हूँ. वह मुझसे सवाल कैसे पूछेगा? और मैं किस ज़बान में उसे उत्तर दूंगा ताकि वह समझ जाए?
कॉनी हाम – किस बारे में लिख रहे हैं?
कादर ख़ान – मैं ग़ालिब पर काम कर रहा हूँ. मैं उन ग़ज़लों को सुनाता हूँ, शब्द – दर –शब्द समझाता हूँ: इस शब्द का क्या मतलब है, इस का क्या. और इस शेर का सही मतलब क्या है. और इसका गहरा अर्थ क्या है. इस शेड के पीछे का आइडिया क्या है. मैं करीब सौ ग़ज़लों पर काम कर चुका हूँ. मेरी किताबें छः महीने में पूरी हो जाएँगी. फिर मैं अपनी खुद की सीडी बनाऊंगा ताकि लोगों को बता सकूं ग़ज़ल कैसे पढ़ी जाती है. और कबीर और इकबाल पर भी काम चल रहा है. यही काम मैं गीतों पर भी करना चाहता हूँ. और अरबी और कुरान और हदीस पर भी.
कॉनी हाम – यह तो दो या तीन जिंदगियों के बराबर का काम है?
कादर ख़ान – हम लोग ढाई सौ किताबें तैयार कर चुके हैं. एक लाख बीस हज़ार पन्ने टाइप हो चुके हैं. धीरे धीरे हम किताबें बांटना शुरू करेंगे. मैं इन किताबों पर लेक्चर दूंगा और इन किताबों को बांटूंगा … मैं एड्स पर भी एक सीडी तैयार कर रहा हूँ. एक एनीमेशन फिल्म. आप एड्स की बात करते हैं तो लोग बोर होने लगते हैं. मुझे अपने ऑडीएंस को बोर करने या खुद बोर हो जाने से बहुत डर लगता है.
मुस्लिम समुदाय को शिक्षित करना:
दुनिया भर में मुस्लिम समुदाय के खिलाफ असंतोष है. मैं भी मुस्लिम हूँ. अगर आप इन लोगों के घर जाकर इनके साथ बैठेंगे तो – हालाँकि लोग कहते हैं कि इन्होने संसार की शांति को तबाह कर दिया है – दरअसल इनके अपने घरों में शांति नहीं है. गरीबी. अशिक्षा. एक दूसरे का सम्मान नहीं. घर में बाप बेटे की इज्ज़त नहीं करता. बेटा माँ की बात नहीं सुनता. माँ अपने पति की नहीं सुनती. कोई किसी की इज्ज़त नहीं करता. एक तनाव जैसा हर समय बना रहता है क्योंकि पैसा नहीं है. जब वे बाहर आते हैं तो उन्हें दुनिया की आँखों में अपने लिए नफरत नज़र आती है. सो प्रतिशोध की भावना से … – मान लीजिये आप किसी को मारने के लिए हत्यारे को किराए पर लेना चाहते हैं, तो ऐसा करने आप खुद तो जाएंगे नहीं. आपको एक हत्यारे की ज़रूरत है. आप उसे 8000 रूपये देने को तैयार हैं. और अगर वह राजी है तो आप चाहेंगे आपका काम 5000 में हो जाए. ठीक है! 3-4% लोग हैं जो ऐसे काम करते हैं. और उन्हें रोकने वाला कोई नहीं है. ये ज़रूरतमंद संकी लोग हैं, हिंसा से भरे हुए. आप उन्हें कैसे रोक लेंगे?कुछ ऐसा हो पाता कि सारी मुस्लिम कौम एक डोर से बंध पाती. अब क्या है कि मुस्लिमों में कोई एक हाईकमान तो है नहीं. बहुत सारी हईकमानें हैं. इन सब ने मिलकर साथ आना चाहिय्र और तय करना चाहिए कि : मैं यह मारकाट, हत्या और आतंकवाद करने वाला नहीं हूँ, मैं नहीं चाहूँगा मेरा भाई या मेरा बेटा ये काम करे. कुछ लोग यह काम कर रहे हैं. मगर इसे रोका कैसे जाए? अगर हर इलाके का अपना हाईकमान है और अगर वहां कुछ होता है तो यह उसकी ज़िम्मेदारी मानी जानी चाहिए. मैं इसी तरह का कुछ काम करने की तरफ बढ़ रहा हूँ. अगर मैं फ़िल्मी कलाकार बनकर जाऊंगा तो वे मेरी बात न्हींसुनेंगे, सो मैं अध्यापक बनकर जाता हूँ. मैं उन्हें शिक्षित करने का प्रयास करूंगा. उनके दुखों को सुनूंगा उनकी तकलीफों का समाधान निकालने की कोशिश करूंगा. धीर धीरे उनके घरों से होता हुआ उनके दिलों में उतरने की कोशिश करूंगा. इसमें वक्त लगेगा पर मेरा मानना है मुझे सफलता मिलेगी.
इस्लामी कानून इस धरती पर अरबी में लिखी हुई पवित्र पुस्तक की मार्फ़त आया. लेकिन बहुत सारे मुस्लिम अरबी नहीं जानते. उन्हें साहित्य पढने की तमीज़ नहीं. वे कैसे समझेंगे इस्लामी क़ानून को? वे उसका अनुवाद पढेंगे. अनुवादक आपको कुछ भी बता सकता है और आप उसे मानने लगेंगे क्योंकि आप सोचते हैं वही अल्लाह के शब्द हैं. लेकिन जब आप भाषा को समझते हैं और कल कोई मुल्ला-मौलवी कहता है कि फलां काम करो या यह कि सारे मुसलमान एक हो जाएं और कोई गलत काम करने लगें तो मैं उन्हें शिक्षित कर इस लायक बनाना चाहता हूँ कि वे उनसे पूछ सकें “बताओ कहाँ लिखा है ऐसा?” तब उस मुल्ला-मौलवी ने अपनी बात साबित करना पड़ेगी. अगर वह ऐसा नहीं कर पाता तो उसकी बात कोई सुनेगा ही नहीं. ये है मेरा प्लान.
मनुष्य होने की बाबत:
एक इंसान बस एक इंसान होता है. इसे आप किसी नाम से कैसे बुला सकते हैं? क्या होता है हिन्दू? मुसलमान?ईसाई? हर इंसान के दो हिस्से होते हैं. एक अपने भगवान से उसका रिश्ता होता है. यह उन दोनों के बीच की बात है. मुझे आपसे यह पूछने का कोई हक़ नहीं कि आप क्या करते हैं और न आपको मुझसे ये बात पूछने का. कि आप पूजा करते हैं या नहीं. दूसरा हिस्सा मेरा-आपका सम्बन्ध है. मैं आपसे कैसा बर्ताव करता हूँ. जैसे मान लीजिये किसी का विवाह किसी औरत से हुआ है या वह उस औरत से मोहब्बत करता है. यह प्रेम उसकी व्यक्तिगत समस्या है. वह उसे समाज के सामने लेकर नहीं आता. वह उसकी चर्चा समाज में नहीं करेगा. अगर वह ऐसा करता है तो यह उसकी कमजोरी है. इकबाल ने एक उम्दा लाइन लिखी है:
दर्द-ए-दिल के वास्ते पैदा किया इंसान को,
वर्ना ताअत के लिए कुछ कम न थे
अगर खुदा चाहता कि उसे पूजा जाए तो फरिश्तों की क्या कमी थी? उसे आदमी बनाने की क्या ज़रुरत थी? अगर आदमी बनाया तो इसलिए कि उसे एक दिल दिया गया. और एक अच्छे दिल को दर्द सहना आना चाहिए. और वह दर्द बांटा जाना चाहिए. तो आपस में दुःख बाँट लें, तो इंसान को दुःख बांटने के लिए पैदा किया गया दुनिया में. पूजापाठ ही करना था तो फिर फ़रिश्ते बहुत थे. तो उसने कायको पैदा किया हमको?
कॉनी हाम – और सुख बांटने को नहीं? सुख नहीं, सिर्फ दुःख?
कादर ख़ान – दुःख बहुत अच्छी चीज़ है.
(दुःख और यातना को आगे समझाने के लिए कादर खान ने, जब उनसे मैंने पूछा कि उनका फेवरेट डायलाग क्या है,फिल्म ‘मुकद्दर का सिकन्दर’ का एक सीन चुना. उन्होंने अपनी वशीभूत कर लेने वाली शैली में आवाज़ के उतार-चढावों के साथ एक अध्यापक की तरह मुझे समझाते हुए यह डायलाग सुनाया. – कॉनी हाम)
कादर ख़ान – इस फिल्म में मैंने एक भिखारी का रोल किया था. मैं एक कब्रिस्तान में जाता हूँ और एक बच्चे को देखता हूँ. बच्चा बड़ा होकर अमिताभ बच्चन बनता है. वह कब्र पर बैठा रो रहा है.
“किसकी कब्र पर बैठे हो बच्चो?
“हमारी माँ मर गयी है.”
“उठो. आओ मेरे साथ. चारों तरफ देखो. यहाँ भी कोई किसी की बहन है, कोई किसी का भाई है. कोई किसी की माँ है. इस शहर-ए-खामोशी में, इस खामोश शहर में, इस मिट्टी के ढेर के नीचे सब दबे पड़े हैं. मौत से किसको रास्तागरी है? इस मौत से कौन छूट सकता है? आज उनकी, तो कल हमारी बारी है. मेरी ये बात याद रखना. इस फकीर की बात याद रखना. ये ज़िन्दगी में बहुत काम आएगी. कि अगर सुख में मुस्कराते हो तो दुःख में कहकहे लगाओ. क्योंकि ज़िन्दा हैं वो लोग जो मौत से टकराते हैं, पर मुर्दों से बदतर हैं वो लोग जो मौत से घबराते हैं. सुख तो बेवफा है. चन्द दिनों के लिए है. तवायफ की तरह आता है. दुनिया को बहलाता है दिल को बहलाता है और चला जाता है, मगर दुःख तो हमेशा का साथी है.एक बार आता है तो कभी लौटकर नहीं जाता, इसलिए सुख को ठोकर मार, दुःख को गले लगा. तकदीर तेरे क़दमों में होगी और तू मुकद्दर का बादशाह होगा.”
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कादर खान अगर फिल्मो के किये अभिनय
ओर ड़योलोग न लिखते तो अनगिनत
फिल्मे इतनी उंचाई न छू सकती ।
जनुंन ये था की दर्शक पहले ये देख लेता की इसके संवाद कादर खान ले लिखे है या नही।
आज वो हमसे जुदा हो गये परंतवी हमारे दिल ओर दिमाग में रचे ओर सदा सदा के लिये रचे बेस रहेंगे।
कलमकार,,,,,खीम सिंह रावत
हक्द्वानी सहर से,,,,,,,,
निश्चित रूप से कादर खान ने बहुत मेहनत से फिल्मों में अपना एक मुकाम हासिल किया लेकिन सस्ते द्विअर्थी संवाद भी खुद उन्होंने ही लिखे। उच्च शिक्षित कादर खान कमाठी पुरा की अपनी परवरिश को भुला न पाए इसमें किसी का दुर्भाग्य नहीं है। डिग्री हासिल करना और संस्कारी होने में बहुत फरक है।