रेमन मैगसेसे पुरस्कार की शुरूआत 1957 में फ़िलीपींस के राष्ट्रपति रेमॉन मैगसेसे के नाम पर हुई. यह पुरस्कार एशियाई संस्थाओं व व्यक्तियों को सरकारी सेवा, सार्वजनिक सेवा, सामुदायिक नेतृत्व, पत्रकारिता, साहित्य एवं सृजनात्मकता, शान्ति एवं अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना आदि के लिए दिया जाता है. इसे एशिया का नोबेल भी कहा जाता है.
साल 2019 के रेमन मैगसेसे पुरस्कार की घोषणा हो चुकी है. म्यांमार के को स्वे विन, फ़िलीपींस के रेमुन्डो पुजांते, थाईलैंड के अंगखाना नीलापाइजित, दक्षिण कोरिया के किम जोंग-की के साथ ही भारत के रवीश कुमार को इस सम्मान के लिए चुना गया है. रवीश कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और एनडीटीवी समाचार चैनल के प्राइम टाइम का प्रमुख चेहरा हैं. सन 1996 में उन्होंने अपनी पत्रकारिता की शुरूआत एक फ़ील्ड रिपोर्टर के तौर पर की और धीरे-धीरे वो एनडीटीवी प्राइम टाइम का प्रमुख चेहरा बन गए.
ऐसा नही है कि रवीश कुमार भारत के पहले पत्रकार हैं जिन्हें यह सम्मान दिया गया है. इससे पहले भी पत्रकारिता के क्षेत्र में अमिताभ चौधरी (1961), बी जी वर्गीस (1975), अरुण शौरी (1982), आर के लक्ष्मण (1984) और पी साईंनाथ (2007) को रेमन मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है. टीवी पत्रकारिता के मामले में रवीश कुमार इस सम्मान को पाने वाले पहले पत्रकार कहे जा सकते हैं. 12 वर्षों के बाद किसी भारतीय पत्रकार को इस पुरस्कार के लिए मनोनीत किया गया है.
रवीश कुमार को बेआवाजों की आवाज़ बनने के लिए यह पुरस्कार 9 सितम्बर 2019 को फ़िलीपींस में दिया जाएगा. रवीश हमेशा से अपनी बेबाक़ पत्रकारिता के लिए मशहूर रहे हैं. पत्रकार किसी भी सरकार का स्थाई विपक्ष होता है इस बात को रवीश ने बख़ूबी जाना और यूपीए से लेकर वर्तमान एनडीए सरकार तक हमेशा सरकारों से सवाल करते रहे और बेज़ुबानों को आवाज़ दी. इंटरनेट के विस्तार के साथ ही डिजिटलाइजेशन बढ़ा और इस डिजिटल दौर में ट्रोल आर्मी का भी ख़ूब पालन-पोषण हुआ. न जाने कितने धमकी भरे कॉल, मैसेज, ट्वीट हर दिन रवीश कुमार के नाश्ते से लेकर डिनर टेबल तक में परोसे गए लेकिन उन्हें पत्रकारिता के उसूलों से नहीं डिगा पाए.
यूपीए के समय की उनकी ‘रवीश की रिपोर्ट’ को आज भी यूट्यूब में देखा जा सकता है. तब की मनमोहन सरकार को कठघरे में खड़ा करने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी लेकिन जब आज की सरकार से उन्होंने सवाल पूछने शुरू किये तो उन्हें देशद्रोही से लेकर कांग्रेस का एजेंट तक कह दिया गया. ट्रोल आर्मी ने उन्हें रात-दिन गालियॉं और जान से मारने की धमकियॉं दी लेकिन रवीश ने कभी हिम्मत नही हारी और ना ही कभी सिस्टम के आगे झुकने की कोशिश की.
यूनिवर्सिटी छात्रों से लेकर विश्वविद्यालयों की हालत तक और बेरोज़गार युवाओं से लेकर किसानों तक की परेशानियाँ जब किसी ने न सुनी तब रवीश ने इनको अपने प्राइम टाइम में जगह दी. यूनिवर्सिटी और बेरोज़गारी की सीरीज़ पर रवीश ने घंटों प्राइम टाइम किया और हमारे सिस्टम की सारी कलाइयॉं खोल दी. कई युवाओं के तो ऑफ़र लेटर तक रोज़गार सीरीज़ के बाद आने शुरू हो गए. रेलवे की भर्ती के फ़ॉर्म आना भी इसी सीरीज़ का नतीजा रहा.
पत्रकारिता को पतन की तरफ़ जाता देख उन्होंने इसे एक नया नाम दिया-गोदी मीडिया. कहॉं तो मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ व स्वतंत्र इकाई माना गया लेकिन भारत का मीडिया चंद कॉरपोरेट की गोद में बैठकर सरकार का स्थाई साथी हो गया. आज मीडिया एक एजेंडा के तहत काम करता हुआ नज़र आता है. आम जनमानस की ख़बरों से मीडिया का सरोकार न के बराबर रह गया है. मीडिया ‘ऑपीनियन सीकर’ की जगह ‘ऑपीनियन मेकर’ बन गया है. आम व्यक्ति कब, कैसे और क्या सोचेगा यह निर्णय अब मीडिया लेने लगा है. शायद इसीलिए रवीश हमेशा यही कहते हैं कि टीवी से दूरी बना के रखिये और ख़ासकर समाचार चैनलों को देखना बंद कर दीजिये.
रवीश उन चंद पत्रकारों में गिने जाते हैं जो सिस्टम से डटकर लड़ते हुए लोगों के मुद्दों को उठाते रहे हैं. इसी का परिणाम है कि 2010 में गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार, 2013 व 2017 में रामनाथ गोयनका पुरस्कार, 2016 में सर्वश्रेष्ठ पत्रकार का रेड इंक पुरस्कार, 2017 में कुलदीप नैयर पत्रकारिता पुरस्कार से उन्हें नवाज़ा जा चुका है और 2019 में बेहतरीन पत्रकारिता के लिए उनका चयन रेमन मैगसेसे पुरस्कार के लिए हुआ है.
नानकमत्ता (ऊधम सिंह नगर) के रहने वाले कमलेश जोशी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में स्नातक व भारतीय पर्यटन एवं यात्रा प्रबन्ध संस्थान (IITTM), ग्वालियर से MBA किया है. वर्तमान में हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के पर्यटन विभाग में शोध छात्र हैं.
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