काफल के समय काफल के नोस्टाल्जिया पर अक्सर बात होती ही है लेकिन इसी को सकारात्मक तरीके से देखें तो यह वह समय होता है जब बचपन की अनेक यादें दृश्य के रूप में अचानक धड़धड़ाते हुए आ जाती हैं. शायद इसलिए भी कि बचपन से आज तक उन सब चीजों से लगातार जुड़ाव रहता है.
(Kafal in Ranikhet Market)
मेरे लिए काफल और काफल के समय का काल, एक नोस्टालजिया या विषाद से आह्लाद का अधिक रहा है. शिशु व अबोध स्थिति को छोड़ दिया जाए तो मेरे लिए काफल का मौसम बहुत आकर्षक रहा था, जब हम अपने ननिहाल रानीखेत होते थे. तब हमारी गर्मी की छुट्टियां काफल, किल्मोडे, हिसालू और चिरूए से होते हुए चिआरु, खुबानी, नाशपाती, सेब, और कई तरह के खट्टे मीठे पुलम को पार करती हुई दाड़मी और कठुआ आडू तक पहुंचती थी जो जुलाई के पहले हफ्ते तक बस चाट बनाने के काम आ पाते थे.
लेकिन मेरे लिए काफल का सीजन रमजानी को याद करने का भी होता था. जो मेरे बचपन और किशोरावस्था काल में रानीखेत के एक किनारे से दूसरे किनारे तक निचले इलाकों मुहल्लों में सर पर टोकरा रखे आवाज लगाकर काफल बेचा करते थे. रमजानी मूल रूप से भैंसखेत के रहने वाले थे उनके अब्बा दर्जीगिरी करते जो बाद में गांव से आकर रानीखेत में बस गए थे.
किशोर अवस्था में अपनी शरारतों या हरकतों के कारण मुझ पर कडी़ नजर रखी जाती थी. फिर दूसरी पीढी का सबसे बडा बच्चा होने पर सबकी नजरें रहती थीं. फिर भी कुछ देर के लिए मैं नजर बचाकर आसपास के गधेरों में बहुतायत से होने वाले किल्मोडे़ और हिसालू की झाडियों में पहुंच जाता था. उसका नतीजा अक्सर खुशगवार नहीं होता था. हिसालू और किल्मोडे़ खाने में कांटे लगने और बिच्छू लगने का इतना मलाल और दर्द नहीं होता था, जितना कपडे़ फटने और बनियान (स्वेटर) के फटने का होता था.
(Kafal in Ranikhet Market)
फिर काफल की कहानी थोड़ा और टेढी़ होती थी. एक तो उस समय (सत्तर के दशक) भी काफल के पेड़ रानीखेत के शहरी इलाके से थोड़ा हटकर ही थे. डेयरी, लालकुर्ती, पुरानी कर्बला और किलकोट की तरफ हो या ठंडी सड़क और द्यूलीखेत की तरफ. सब जगह जाने के लिए वक्त लगता था और साथ भी चाहिए होता था. फिर काफल के पेड़ में चढ़कर काफल तोडना और साथ खैरियत उतर जाना थोड़ा टैक्नीकल काम था. चढ़ने में चढ़ जाओ लेकिन पेड़ से उतरने मे कपडे़ फटने के साथ साथ पेट की खाल तक छिल जाती थी फिर हाथ पैर टूटने का बड़ा खतरा. वैसे भी परिवार में कई हादसे हो चुके थे.
इस मौसम में पहाड़ में जिन बच्चों के हाथ पैर में प्लास्टर चढे़ होते हैं उसका बड़ा कारण यही होता है. लेकिन बच्चे ही हुए और बच्चों का मन मानता ही नहीं, चंचल जो ठहरा.
इसीलिए चाहकर भी काफल खाने जंगल नहीं जा पाते थे, ऐसे में हमें रमजानी की दूर से आती हुई आवाज ‘काफल ले लो काफल’ बहुत अच्छी लगती थी. यह आवाज आती-आती खो जाती थी, आबकारी धारे के पास से साफ आती तो फिर गुम हो जाती, जैसाकि पहाड़ में होता धार में आवाज दूर तक जाती फिर ढाल पर धीरे-धीरे कम होती जाती, ठीक वैसे ही. फिर जब पार मुहल्ले से आती या फिर नीचे बारबर मुहल्ले से आती तो हम समझ जाते कि अब बस रमजानी पहुंचने ही वाला है.
पहाड़ में फलों का सीजन काफल से शुरू होता है हालांकि हिसालू और किल्मोडे़ को भी फल में गिना जाता है लेकिन जंगल से प्राकृतिक रूप से मिलने वा़ले काफल के अलावा किसी और फल को ज्यादा तरजीह नहीं मिली हैं. हिसालू भले ही छुटपुट रूप से बिकता रहे. लेकिन काफल तो अब अखिल भारतीय फल हो गया है. पहाड़ के शहरों में ही नहीं बड़े शहरों में भी उसकी डायरेक्ट डिलीवरी होती है.
(Kafal in Ranikhet Market)
वैसे काफल की तरह का एक और फल पूर्वोत्तर भारत में होता है. लेकिन अपेक्षाकृत बड़ा, दोगुने से चार गुना बड़ा. हमने अपनी मेघालय यात्रा में शिलांग से पहले एक ग्रामीण बाजार में कौतूहलवश खरीद लिया था. खाया तो एकदम खट्टा चूक.
मेरे मित्र अपने-अपने इलाकों के काफल की तारीफ करते हैं लेकिन रानीखेत के काफल के क्या कहने. और रानीखेत के कालका का काफल तो बिल्कुल हाट केक की तरह बिकता रहा है. लाल से अधिक गहरे कत्थई, चमकते हुए काले रंग के नगीने. पहले रोडवेज बस स्टैण्ड से आगे अस्पताल की सीढियों से जहां आजकल अच्छा खासा बाजार है, वहां काफल और फल वाले बैठे रहते थे. सीजन के शुरुआत में काफल बाजार में आते ही खत्म हो जाता था. तब बहुत से लोग ललचाते रह जाते थे.
उस दौर में मिशन स्कूल से लेकर बारबर मुहल्ले और सरना गार्डन तक रानीखेत के निचले इलाकों और मुहल्लों के लोगों खासकर घरेलू महिलाओं और बच्चों के लिए बाजार जाकर काफल खरीदना मुश्किल काम था. ऐसे हालात और ऐसे इलाकों में रमजानी की ही वजह से बहुत से परिवार काफल चख लिया करते थे. वैसे रमजानी किसी से खरीदकर काफल नहीं बेचता था, वह खुद ही जंगल से लाकर काफल बेचता था.
रमजानी की व्यस्तता काफल के सीजन से शुरू होकर भादों में दाड़िम बेचने तक चलती थी. इस बीच वह सिर पर टोकरी रखे आवाज लगाकर पुलम, खुबानी और नाशपाती बेच लेता था. ऐसे बहुत से घर थे जिनके यहां दो-चार पेड़ फलों के होते थे. रमजानी उनके पेड़ों के फल भी बेच दिया करता था. ऐसे लोगों का भी रमजानी एक सहारा था. (Kafal in Ranikhet Market)
रमजानी का सीजन में फल बेचने के अलावा एक और काम जो मुझे याद है, वह था मुहर्रम और चेल्हुम में धनिया बेचना. धनिया एक तरह की पंजीरी की तरह होता है. जिसमें धनिये को भिगाकर व कूटकर निकाले गए बीज को सुखाकर उसमें खसखस, चीनी, गोला, किश्मिश वगैरह मेवे डाले जाते हैं. जो खाने में बहुत बढिया और बच्चों को लुभाने वाला होता है.
रमजानी अपना खोमचा मुहर्रम के जुलूस के साथ-साथ जरूरी बाजार, खड़ी बाजार, सदर बाजार में मून होटल के पीछे जरूरी बाजार से आने वाले रास्ते के तिराहे पर लगाता था. मुहर्रम चेल्हुम के जुलूस के साथ चलने वाले ज्यादातर लोग इधर से ही चढ़ाई चढ़कर सदरबाजार आ जाते थे. जबकि जूलूस लतीफ वर्कशाप होता हुआ जरूरी बाजार वाली सड़क से गांधी चौक पर जुड़ता था.
जैसे कहा जाता है कि पहाड़ में अल्मोड़ा के मुहर्रम और रानीखेत के चेल्हुम मशहूर होते हैं. गमी के यह दोनों त्योहार दोनों शहरों में खूब मनाए जाते हैं जिनमें सभी लोग बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं. जिनमें बहुत भीड़ होती है.
और रमजानी लकड़ी की ट्रे में एक डेढ़ फिट ऊंची चोटी से सजे रंगा-रंग धनिए को बेचता था. बच्चे बहुत ललचाते थे. धनिए की ट्रे सिर्की के लम्बे मूढे़ पर रखी होती थी. उस त्योहार के समय हमारे पास जो सबसे बड़ी दौलत चार आने या आठ आने होती थी वो हम धनिया खरीदने में खर्च कर देते थे. वैसे तो पांच दस पैसे में भी बच्चों की चीज आ जाती थी. (Kafal in Ranikhet Market)
रमजानी वक्त के किन लम्हों में कब खो गया पता ही नहीं चला. शायद अस्सी के दशक के मध्य में जब मैं बचपन और किशोरावस्था छोड़करर कालेज में गया, तभी उसका सफर भी रुक गया था. लेकिन आज भी जब मैं सीजन के दिनों में रानीखेत जाता हूं तो लगता है कहीं से रमजानी की आवाज आ रही है, और अब भी कहीं से भी. हर बार काफल खरीदते समय मुझे रमजानी से पांच दस पैसे के काफल खरीदने की स्मृति फ्लैश की तरह चमक जाती है.
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रानीखेत में जन्मे इस्लाम हुसैन फिलहाल काठगोदाम में रहते हैं. 1977 से ही लेखन और पत्रकारिता से जुड़े इस्लाम की कहानियां, कविताएँ, लेख और रपट विभिन्न राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं. कुछ वर्षों तक एक सार्वजनिक उपक्रम में प्रशासनिक/परियोजना अधिकारी के रूप में काम कर चुके इस्लाम हुसैन ने एक साप्ताहिक पत्र तथा पत्रिका का संपादन भी किया है. कई राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं. अपने ब्लॉग ‘नारीमैन चौराहा” में संस्मरण लेखन व ट्यूटर में “इस्लाम शेरी” नाम से कविता शायरी भी करते हैं.
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मुझे रानीखेत के चेहल्लुम (मुहर्रम के चालीस दिन बाद मनाया जाने वाला ग़मी का पर्व) की उस समय की अच्छी याद है जब मैं तीन-साढ़े तीन साल का था पापा अल्मोड़े से मुझे चेहल्लुम दिखाने रानीखेत ले गए थे सन 1959-60 रहा होगा। पापा की गोद से जो नज़ारा देखा था आज भी याद है -बहुत बड़े और चौड़े ख़ूबसूरत ताज़िए ,बीच में स्टैंड पर रखा ताशा जिसके चारों तरफ़ ढोल वाले एक गोल घेरे में ढोल बजाते हुए चक्कर लगाते थे तीन का हाथ (तीन ताल ) बजता था जबकि अल्मोड़े में सात का हाथ (सात ताल ) चलता था। यह नज़ारा मैं ने ज़रूरी बाज़ार में देखा था। अब आप सोच सकते हैं कि एक बच्चे को ज़रूरी बाज़ार का पता कैसे चला तो इसका जवाब है 1973 से 1976 तक इस बच्चे ने रानीखेत के मिशन इंटर कॉलेज से पढ़ा ,मजखाली,गनियाद्योली,पिलखोली सब पैदल नापा ,पापा ने यहाँ ट्रेज़री में नौकरी की। सुदामापुरी का मकान न ० 617 और बग़ीचा जो राजपुर तक था मेरे दादा बशीर खान का पैतृक आवास था। मुझे खटीक बिल्डिंग,हवलदार की दुकान जहां दस पैसे रोज़ के हिसाब से उपन्यास किराए पर मिलते थे ,कैंट की लाइब्रेरी,सिविल अस्पताल से थोड़ा आगे कुंवर दा के छोले-चाय का स्वाद ,लाल सौदागर ,सदर बाज़ार में इमामबाड़ा , पोस्ट ऑफिस,ग्लोब सिनेना,लेक्चर हॉल की यादें आज पचास साल बाद भी कल की घटना की तरह लगती हैं। मैं ने अल्मोड़े में बचपन में मुहर्रम का धनिया खाया है इसमें रेता हुआ गोलऔर धनिया होता था। नई पीढ़ी तो इन नायाब चीज़ों के नाम तक नहीं जानती। इसकी याद दिलाने के लिए शुक्रिया।
मुझे रानीखेत के चेहल्लुम (मुहर्रम के चालीस दिन बाद मनाया जाने वाला ग़मी का पर्व) की उस समय की अच्छी याद है जब मैं तीन-साढ़े तीन साल का था पापा अल्मोड़े से मुझे चेहल्लुम दिखाने रानीखेत ले गए थे सन 1959-60 रहा होगा। पापा की गोद से जो नज़ारा देखा था आज भी याद है -बहुत बड़े और चौड़े ख़ूबसूरत ताज़िए ,बीच में स्टैंड पर रखा ताशा जिसके चारों तरफ़ ढोल वाले एक गोल घेरे में ढोल बजाते हुए चक्कर लगाते थे तीन का हाथ (तीन ताल ) बजता था जबकि अल्मोड़े में सात का हाथ (सात ताल ) चलता था। यह नज़ारा मैं ने ज़रूरी बाज़ार में देखा था। अब आप सोच सकते हैं कि एक बच्चे को ज़रूरी बाज़ार का पता कैसे चला तो इसका जवाब है 1973 से 1976 तक इस बच्चे ने रानीखेत के मिशन इंटर कॉलेज से पढ़ा ,मजखाली,गनियाद्योली,पिलखोली सब पैदल नापा ,पापा ने यहाँ ट्रेज़री में नौकरी की। सुदामापुरी का मकान न ० 617 और बग़ीचा जो राजपुर तक था मेरे दादा बशीर खान का पैतृक आवास था। मुझे खटीक बिल्डिंग,हवलदार की दुकान जहां दस पैसे रोज़ के हिसाब से उपन्यास किराए पर मिलते थे ,कैंट की लाइब्रेरी,सिविल अस्पताल से थोड़ा आगे कुंवर दा के छोले-चाय का स्वाद ,लाल सौदागर ,सदर बाज़ार में इमामबाड़ा , पोस्ट ऑफिस,ग्लोब सिनेना,लेक्चर हॉल की यादें आज पचास साल बाद भी कल की घटना की तरह लगती हैं। मैं ने अल्मोड़े में बचपन में मुहर्रम का धनिया खाया है इसमें रेता हुआ गोला और धनिया होता था। नई पीढ़ी तो इन नायाब चीज़ों के नाम तक नहीं जानती। इसकी याद दिलाने के लिए शुक्रिया।