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अद्भुत है राजा ब्रह्मदेव और उनकी सात बेटियों के शौर्य की गाथा

बहुत समय पहले कत्यूरगढ़ के सुंदर किले पर एक वीर और रूपवान राजा ब्रह्मदेव राज करते थे. उनके पिता का नाम गंभीरदेव था. ब्रह्मदेव दिखने में बहुत सुंदर और बलशाली थे — उनकी मूँछें शेर जैसी, आँखें हिरण जैसी और छाती चौड़ी थी.
(Raja Brhmdev Uttarakhand Folk Story)

उसी समय डोटीगढ़ पर तीन प्रमुख राजपूत सरदार राज करते थे — मान सिंह, ईश्वरु और रघुराय. इनमें से ईश्वरु की एक बेटी थी; “बिरमा डोटियाली”. वह अत्यंत रूपवती थी, उसका सौंदर्य सूर्य की चमक जैसा था. बचपन में ही उसका रिश्ता ब्रह्मदेव से तय हो गया था, जब वह केवल सात वर्ष की थी.

लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था. गंभीरदेव बीमार पड़े और मरने से पहले उन्होंने अपने बेटे ब्रह्मदेव का विवाह जल्दी-जल्दी ‘रानी बिजोरा’ से करवा दिया, जो कालौनीकोट के राजकुमारों की बहन थीं. इस विवाह से ब्रह्मदेव की सात बेटियाँ हुईं — नरंगा, सरंगा, फूलवती, नरंगादेवी, सरंगादेवी, इन्द्रादेवी और गंगावती. परंतु कोई पुत्र नहीं हुआ. ब्रह्मदेव चिंतित रहते कि वंश कौन आगे बढ़ाएगा.

उधर जब बिरमा डोटियाली विवाह योग्य हुई, तो दूर-दूर से राजकुमार उससे विवाह का प्रस्ताव लेकर आने लगे. आखिरकार चंपावतगढ़ के राजा निर्मलचंद ने अपने पुत्र ‘खड़गसिंह’ के लिए उसका हाथ माँगा और ईश्वरु ने यह विवाह पक्का कर दिया.
(Raja Brhmdev Uttarakhand Folk Story)

विवाह की तिथि तय हुई, तैयारियाँ शुरू हो गईं. तभी बिरमा ने एक ‘पत्र’ ब्रह्मदेव को भेजा – जब मैं सात साल की थी, तभी मेरा वचन आपसे हुआ था. मैंने कोई भूल नहीं की, फिर आपने मुझे क्यों भुला दिया? अब मेरा विवाह चंपावत के राजकुमार से होने जा रहा है — यदि आप मुझसे प्रेम करते हैं तो आइए और मुझे अपने साथ ले जाइए.

पत्र पढ़कर ब्रह्मदेव बहुत परेशान हुए. माँ और भाई धामदेव ने उन्हें रोका, पर उन्होंने निश्चय कर लिया कि वो बिरमा को अपने साथ लाएँगे. ब्रह्मदेव जादू-टोने के बड़े ज्ञानी थे. वो जादुई औज़ार लेकर डोटी की ओर चल पड़े.

डोटी के पास एक घराट पर उन्होंने विश्राम लिया, जहाँ उन्होंने देखा कि, बिरमा के विवाह के लिए अनाज पीसा जा रहा था. उन्होंने वहीं से भेष बदला और ‘ब्राह्मण का रूप’ धारण कर ईश्वरु के घर पहुँच गए. उसी समय खड़गसिंह की बारात भी पहुँची थी.

ब्रह्मदेव अब बीन बजाने वाले के भेष में विवाह मंडप पहुँचे. उन्होंने बीन बजाने की अनुमति माँगी और जादुई धुन से पूरी बारात को बेहोश कर दिया. फिर ऊपर छज्जे के पास बैठी बिरमा के पास पहुँचे. बिरमा ने उन्हें पहचान लिया और बोली “हे मेरे सच्चे स्वामी! जल्दी चलिए, इससे पहले कि ये लोग होश में आएं.”
(Raja Brhmdev Uttarakhand Folk Story)

ब्रह्मदेव ने जादू से सब पहरेदारों को सुला दिया और बिरमा को लेकर निकल पड़े. वो राजन नदी पार कर देवाली पहुँचे और रात को मोरी पहाड़ी पर आराम करने लगे. ब्रह्मदेव थके हुए थे और रानी की गोद में सिर रखकर सो गए.

सुबह जब पीछा करने वाले खड़गसिंह और उसके लोग पहुँचे, तो उन्होंने बिरमा और ब्रह्मदेव को वहीं पाया. बिरमा के आँसू ब्रह्मदेव के गाल पर गिरे और वो जाग उठे. उन्होंने नींद से उठाने के लिए बिरमा को डाँटा, पर जल्द ही दुश्मन को आते देख दोनों घोड़ों पर सवार होकर कत्यूरगढ़ लौट गए.

ब्रह्मदेव बहुत थक चुके थे. उन्होंने दरवाज़े बंद कर लिए. उधर दुश्मन सेना किले के पास पहुँच गई. तब उनकी सातों बेटियाँ आगे आईं और बोलीं — “पिताजी, हम लड़ेंगे!”

ब्रह्मदेव ने कहा — “तुम लड़कियाँ क्या कर सकोगी? अगर एक बेटा होता, तो वह आज मेरा मान बचाता.”

यह सुनकर बेटियाँ बहुत आहत हुईं. उन्होंने पिता से कहा  “अगर हम आपकी सच्ची बेटियाँ हैं, तो जीत हमारी ही होगी.”

पिता ने उनकी परीक्षा ली — 32 हाथ ऊँचा एक खंभा गाड़ा और कहा “जो इससे कूद सके, वही रणभूमि में जा सकती है.”

सातों बेटियों ने वह छलाँग पार कर दी.

अब उन्होंने कवच, तलवार और युद्ध घोड़े माँगे. कुलदेवी झालीमाली की पूजा की और युद्ध के लिए निकल पड़ीं.

राजन नदी के किनारे सातों बहनें दुश्मन सेना पर टूट पड़ीं. सातों ‘रौतेलियाँ’ ऐसी वीरता से लड़ीं कि धरती पर सिरों का ढेर लग गया. पर अंत में जब वो थक गईं, तब बचे हुए दुश्मनों ने अचानक वार किया. एक-एक करके सातों बहनें वीरगति को प्राप्त हुईं.
(Raja Brhmdev Uttarakhand Folk Story)

बाद में राजा निर्मलचंद ने कत्यूरगढ़ पर आक्रमण किया, लेकिन ब्रह्मदेव ने अपनी कुलदेवी झालीमाली से प्रार्थना की. देवी ने शत्रुओं को अंधा कर दिया, वो आपस में ही लड़ पड़े और मर गए.

राजा ब्रह्मदेव ने अपनी सातों वीर पुत्रियों के संस्कार किए.

‘आज भी कत्यूरगढ़ में “सात रौतेलियों” की वीरता के गीत गाए जाते हैं.”

अंग्रेजी भाषा में छपी इस लोककथा का हिन्दी अनुवाद काफल ट्री फाउंडेशन के लिये मंजुल पन्त ने किया है. यह कथा ई. शर्मन ओकले और तारादत्त गैरोला की 1935 में छपी किताब ‘हिमालयन फोकलोर’ के आधार पर है. इस पुस्तक में इन लोक कथाओं को अलग-अलग खण्डों में बांटा गया है. प्रारम्भिक खंड में ऐतिहासिक नायकों की कथाएँ हैं जबकि दूसरा खंड उपदेश-कथाओं का है. तीसरे और चौथे खण्डों में क्रमशः पशुओं व पक्षियों की कहानियां हैं जबकि अंतिम खण्डों में भूत-प्रेत कथाएँ हैं.

-काफल ट्री फाउंडेशन

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