हमारी वेबसाइट पर हम कथासरित्सागर की कहानियाँ साझा कर रहे हैं. इससे पहले आप “पुष्पदन्त और माल्यवान को मिला श्राप” और “पुष्पदंत बने वररुचि और सीखे वेद” कहानियाँ पढ़ चुके हैं. आज पढ़िए कैसे वररुचि ने काणभूति को पाटलिपुत्र नगरी के बसने की रोचक कहानी सुनाई.
वन में वररुचि ने अपनी कहानी जारी रखी और काणभूति गौर से सुनने लगा. वररुचि बोले, “एक दिन जब वेदों का पाठ पूरा हो गया और दैनिक अनुष्ठान समाप्त हुए, तो हमने अपने गुरु वर्षा से पूछा, ‘यह नगरी धन और ज्ञान का केंद्र कैसे बनी?’ गुरुजी ने कहा, ‘सुनो, मैं तुम्हें कहानी सुनाता हूँ.’
जहाँ गंगा पहाड़ों से निकलती है, वहाँ कनखल नाम का एक तीर्थ स्थान है. वहाँ दक्षिण के एक ब्राह्मण ने अपनी पत्नी के साथ तपस्या की. उनके तीन बेटे हुए. समय बीतने पर माता-पिता का देहांत हो गया. तीनों भाई ज्ञान प्राप्त करने राजगृह नगरी गए, लेकिन फिर भी उनका मन नहीं भरा. वे दक्षिण में कार्तिकेय भगवान के मंदिर जाने लगे.
रास्ते में समुद्र तट पर स्थित चिंचिणी नगरी में वे भोजिक नामक ब्राह्मण के घर ठहरे. भोजिक ने अपनी तीन बेटियों की शादी उन तीनों भाइयों से कर दी और सारा धन देकर खुद गंगा तट पर तपस्या करने चले गए.
कुछ समय बाद भयंकर अकाल पड़ा. तीनों स्वार्थी ब्राह्मण अपनी पत्नियों को छोड़कर भाग गए. जब तीनों बहनों को पता चला कि उनमें से मँझली गर्भवती है, तो वे अपने पिता के मित्र यज्ञदत्त के घर शरण लेने गईं. इतनी मुसीबत में भी तीनों अपने पतियों के प्रति वफादार रहीं. कुछ समय बाद मँझली बहन ने एक बेटे को जन्म दिया. तीनों बहनें मिलकर उस बच्चे की देखभाल करने लगीं.
एक बार शिव और पार्वती आकाश में घूम रहे थे. पार्वती ने नीचे उस बच्चे और तीनों महिलाओं को देखा तो दया आ गई. शिवजी ने बताया, “यह बालक पिछले जन्म में हमारा भक्त था. इसकी पत्नी राजकुमारी पाटली के रूप में जन्मी है और इस जन्म में भी यह इसकी पत्नी बनेगी.”
फिर शिवजी ने तीनों महिलाओं को सपने में आदेश दिया, “इस बालक का नाम पुत्रक रखो. हर सुबह इसके तकिये के नीचे तुम्हें एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ मिलेंगी. बड़ा होकर यह राजा बनेगा.”
अगली सुबह ऐसा ही हुआ. इस धन के बल पर पुत्रक ने एक बड़ी सेना खड़ी की और राजा बन गया.
यज्ञदत्त ने पुत्रक को सलाह दी, “तुम्हारे पिता और चाचा अकाल के कारण कहीं चले गए हैं. तुम ब्राह्मणों को दान देकर ऐसी ख्याति फैलाओ कि वे लौट आएँ.”
पुत्रक ने ऐसा ही किया. दूर-दूर तक उसकी दानशीलता की चर्चा फैली. तीनों ब्राह्मण यह सुनकर लौट आए. पुत्रक ने उनका स्वागत किया और खूब धन दिया.
लेकिन इन तीनों का स्वभाव नहीं बदला. उन्होंने पुत्रक के राज्य पर कब्जा करने की साजिश रची. उन्होंने पुत्रक को दुर्गा मंदिर की यात्रा का बहाना देकर वहाँ ले जाकर मारने का षड्यंत्र रचा.
मंदिर के अंदर पहले से हत्यारे छिपे थे. पुत्रक ने जब हत्यारों को देखा तो घबराया नहीं. उसने पूछा, “तुम मुझे क्यों मारना चाहते हो?”
हत्यारों ने बताया, “तुम्हारे पिता और चाचाओं ने हमें यह काम सौंपा है.”
पुत्रक ने हिम्मत से काम लिया. उसने हत्यारों को एक कीमती गहना देकर अपनी जान बचाई और वहाँ से दूर चला गया. हत्यारों ने झूठ बोल दिया कि पुत्रक मर गया है.
जब तीनों ब्राह्मण राज्य लेने शहर लौटे तो पुत्रक के मंत्रियों ने उन्हें देशद्रोह के आरोप में मार डाला.
इस बीच पुत्रक विन्ध्य के जंगलों में भटक रहा था. एक दिन उसने दो युवकों को लड़ते देखा. वे माया नामक असुर के बेटे थे और तीन जादुई वस्तुओं के लिए लड़ रहे थे – एक ऐसा बर्तन जो मनचाहा भोजन देता, एक ऐसी छड़ी जो लिखी हर बात सच कर देती, और एक जोड़ी जूते जो पहनने वाले को उड़ने की शक्ति देते.
चतुर पुत्रक ने कहा, “लड़ने से क्या फायदा? दौड़ लगाओ, जो जीतेगा उसे ये वस्तुएँ मिलेंगी.”
जैसे ही दोनों दौड़े, पुत्रक ने जूते पहने, छड़ी और बर्तन लिए और आकाश में उड़ गया. वह आकर्षिका नगरी में एक बूढ़ी महिला के घर रहने लगा. एक दिन बूढ़ी माँ ने बताया, “इस नगरी की राजकुमारी पाटली बहुत सुंदर है.”
पुत्रक उसी रात जादुई जूतों की मदद से महल में पहुँचा. चाँदनी में सोई हुई पाटली को देखकर वह मोहित हो गया. उसने पाटली को जगाया और दोनों ने गंधर्व विवाह कर लिया.
हर रात पुत्रक इसी तरह महल आने लगा. एक दिन राजा को पता चला तो उसने पुत्रक को पकड़वाया, लेकिन पुत्रक जादुई जूतों की मदद से फिर उड़ गया.
वह सीधे पाटली के कक्ष में पहुँचा और उसे लेकर उड़ गया. गंगा तट पर उतरकर उसने जादुई छड़ी से एक भव्य नगर बनाया. इसका नाम पाटलिपुत्र रखा. पुत्रक ने यहाँ राज किया और समस्त पृथ्वी पर अपना आधिपत्य स्थापित किया. इस प्रकार जादू से बनी यह नगरी धन और ज्ञान का केंद्र बन गई.”
वररुचि ने कहा, “काणभूति, गुरु वर्षा की यह अद्भुत कहानी हमेशा हमारे दिलों में बसी रही.”
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