गैरीगुरु की पालिटिकल इकानोमी : अथ चुनाव प्रसंग-5
पिछली कड़ी- लोकतंत्र के पहरुवे
जनतंत्र में जनगणमन की पूर्ण प्रतियोगिता से आह्लादित हवायें चलती हैं. पुरबइया. खुली सांस मजबूत इरादे, पूरी आजादी, अर्धचेतन में कुलबुलाती है. सब आदमजात छोटे-बड़े, गोरे-काले, गेहूंए-झलुए सींकिए-भंजुग, लम्बू-नाटे, संत-खडूस जैसा भेदभाव नहीं रखते. ये समान-सजातीय-एकरूप-एकवर्ण इकाइयां अपने बीच से अपना माल चुनने व उससे प्राप्त उपयोगिता द्वारा हर्षित, उल्लासित व संतुष्ट होती है. इस बाजार में प्रतिफल के पैमाने के नियम लागू होते हैं. जिनकी प्रेक्टिस अल्पकाल में की जाती है व नतीजा दीर्धकाल तक भुगतना पड़ता है. पर इसकी नब्ज टटोलना न तो हकीम लुकमान के पास होता है न राजवैध शीतल प्रसाद के पास. वैलिंगटन चौराहे वाले असली डाक्टर साहब भी अमरोहा वाले हाशिमी दवाखाने के चक्कर लगाने पर विवश हो जाते हैं. जगाधरी वाले गंगा वैद्य कोका पण्डित के पास जाने की राय देता है. इन सबसे अच्छा अपना लोकमणि कविराज, जो दायें हाथ की नब्ज बायें हाथ की उंगलियों से टटोलना सिखा देता. तब आपको यह अहसासे-कमतरी होगा कि वह जो भी नुमाइंदा चुना जाएगा और ताज ओ तख्त पर बैठ नित नए फरमान जारी करेगा, पहले उसे आप अपने दुख-सुख का हितैषी पाऐंगे. हम प्याला हमनिवाला बनाऐंगे. वह आपके यहां नामकरण का भात सपोड़ेगा नवान की पूड़ी तोड़ेगा, शादी ब्याह में दावत उडाएगा और गमी में केला बताशा टिकाएगा. इस बिंदु के बाद चढ़ता प्रतिफल स्थिर में कायान्तरित हो जाएगा. ‘पहले जो मिलते थे कभी हमसे दिवानों की तरह आज गायब ऐसे कि कोई पहचान नहीं.’ जानबूझ अनजान बने रहने का आभास होगा.स्थिर प्रतिफल की दशा वही है जो नयी-नयी शादी के कुछ समय अंतराल में बाजार की भेलपूरी, गोल गप्पे, कुलचे, भटूरों को तकने पर बेबस करती. कहीं कुत्ते की तरह दुम हिलाती तो, कहीं बिल्ली की तरह मुंह मारने के उपक्रम रचती.
चाहे वह वस्तु हो या वस्तुओं की टोकरी. प्रत्याशी हो या कोई दल कहीं न कहीं कुछ चिटकता-खटकता है. आप विकल्प की तलाश में लटकते-भटकते है. कहे सुने भोगे के मापदण्ड टटोलते हैं. नयी चाहतें खुरचते हैं. नयी चीजें, नई बातें, नये ब्राण्ड, नये अल्फाज, नयी सूरत, नयी सीरत. नवीनता के नवनीत में डूबी आकांक्षायें बटर टोस्ट को बटर चिकन बनाना चाहती हैं. कारण बस वही कि पांच साल के दीर्धकाल में प्रतिफल ससुरा अपनी जात-औकात दिखा, बढ़ते से स्थिर और अब हासमान हो जाता है.
अल्पकाल में मांग के अनुरूप पूर्ति का समायोजन नहीं हो सकता.सब्जी के ठेले वाले से शाम के समय टहलते अचानक एक सौ गड्डी हरे धनिये की फरमाइश करिये. पहले वे घूर कर देखेगा फिर कुत्ते जैसी नाक बना आपको सूंघेगा. अंततः हाथ में लटका बड़ा थैला देख बोलेगा. कल ले लेव, अभी तो दस पन्द्रह ही पड़ी है. यह हुआ अल्पकाल, अति अल्पकाल. तो इसके पलट दीर्धकाल में जितनी मांग उतनी पूर्ति. पूर्ति के लिए उत्पादन के पैमाने में फेरबदल सम्भव. सभी आदाओं यानी इनपुट्स को लाना संभव. पूर्ति न हो पाए तो उसका वायदा भी संभव. कल तक घिसटते थे पांव पैदली में आज हवाई पट्टी पर चढ़ेंगे तो कललो बात. हो गई घोषणा कि हवा में पट्टी तनेगी. पांव में बिवाइयां पड़ी है. फ्लेक्स की चप्पल है. मांग रहा मैट्रो, तो ले लगा देते हैं शिलापट. आकस्मिक इच्छाऐं भी ढाल देता है चतुर उत्पादक. बडा सूनापन था. रणबाकुंरों को बड़ी चिंता थी सरहद की. राष्ट्रभक्ति डाइजियापाम की गिरफ्त में थी. बकलोली करते फिर रहे हैं कि हाथ काट दिए फौज के. तो लो कर दी वारदात. जारी हो गया टीजर फिर ट्रेलर. अब लाहौर रावलपिंडी में झंडा फहराओ ऐसा मुक्का मारो कि चू चपड़ वाले देशद्रोही भितरघाती की तरह देखे जायें. वहां से रूह अफजा की पेशकश.
लोकतंत्र के पंचतत्व में गिरते हुए प्रतिफल को जगाने के लिए बस एक्स अक्ष व वाई अक्ष के चरों अर्थात वेरिएबल को बदलना पड़ता है. एक्स अक्ष में निर्धनता और वाई अक्ष में बेकारी के चर तो बीमार पड़ गए. आय और उत्पादन की बढ़ोत्तरी कहीं लुतिया गई. कहीं सन्निपात को प्राप्त हुई. तकनीक और शिक्षा प्रसूत और अर्बुद से पीड़ित काले धन की वापसी से पन्द्रह लाख रूपये का उपभोक्ता अतिरेक भी ओजोन परत में समा गया. नोटबंदी ने सीमांत उपयोगिता शून्य से भी नीचे ऋणात्मक कर दी. अब ‘प्रोक्सी वेरिएवल’ लेकर आया गरजता शेर जिसे कहा गया ‘राष्ट्रवाद’. अर्थात एक्स अक्ष में जनता और वाई अक्ष में जनता की हिफाजत यानी सुरक्षा. अब इसी का हैंगओवर है. कल आह्लाद होगा या आर्तनाद इसका विनियोग दायें हाथ की उंगली दबा कर आप कर ही चुके हैं. नतीजों के बाद आप हम मेमने की शक्ल में ट्रांसफोर्म हो चुके होंगे.
उपभोक्ता के सिद्वांत जनता की ओर उन्मुख होते हुए यह सारगर्भित उपदेश देते हैं कि जो भी जमीनी मुद्दे है वह
1. सदैव उदासीनता या तटस्थता रेखाओं की भांति होते हैं.
2. उदासीनता रेखा आपकी आशाओं और इच्छाओं से हमेशा आपकी कुंठाओं और हताशाओं की ओर नीचे की ओर झुकती हुई होती है.
3. हर दल और उनके मुखिया अपनी सुविधानुसार पृथक-पृथक उदासीनता रेखाओं का निर्माण करते हैं. बस ठीक चुनावों की बेला के ग्रेस पीरियड या लीप पीरियड में यह एक दूसरे को काट भी देती हैं. तदन्तर तो यह एक दूसरे को छूती न काटती, बस एक दूसरे के दगड-दगड़ समानान्तर गति से चलती हैं.
अब कायदे से उपभोक्ता के संतुलन को समझ लें. ध्यान नहीं दिया तो आजीवन निरे दरजे के अहमक, बेवकूफ और पाजी बने रहेंगे. अपनी विकृतियों के शुद्धीकरण में कोंसेंगे मनमोहना को, कि इत्ता बड़ा इकोनोमिस्ट होते हुए उसने होठों पर क्विक फिक्स क्यों लगाया. क्यों उनके अगल-बगल वाले आचार्य अर्थशास्त्री विदेशो में स्कौचक्रीम चाटते भारत दुर्दशा पर टिटिया रहे. भूल के भी अपने महाविद्यालय-विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्रियों की बात मत कीजिये, वो तो कभी मुमताज गाइड, कभी सिल्क स्मिता गाइड, कभी कैटरीना क्वेश्चन बैंक और कभी लियोनी श्योर शार्ट सीरीज रट घोट यूजीसी का सातवां वेतनमान पचा रहे और रह रह अंधेरे-उजाले में इकोनोमी की बरबादी की रुदाली गा रहे. राग दरबारी पढ़े होते तो लमोड़े के दीवान परचून जोशी की तरह कला साहित्य कल्चर के साथ फिलम कंट्रोल कर हाजिर जवाबी वाला इंटरव्यू ले रिये होते.
अब गजबजाना नहीं है. धबड़ाना नहीं है, बात गंभीर है. संतुलन की है. जनता के साम्य की है. उसके प्रकट अधिमान की है. कितने स्वांगकर यह सत्ता अंततः उदासीनता का कवच धारण कर लेती है. समस्याओं को नकारने अनदेखा करने का प्रपंच रचती है. इसके लिए तो जनता जितनी अज्ञानी रहे उतना भला. इसलिए इस उदासीन भाव के साथ चाहिए जनता की हैसियत उसकी कुव्वत.
साम्य तब होगा जब उदासीनता रेखा बजट रेखा को स्पर्श करेगी. यानी लिप-टु-लिप टेंजेंसी. ध्यान रहे कि बजट रेखा हर किसी के लिए जुदा-जुदा है. जुदा मेरी मंजिल जुदा तेरी राहों जैसी. अब देश को अभी भी खेतिहर अर्थव्यवस्था कहने की आदत पड़ी है आपको, तो सवा सेर गेहूं, दो बीघा जमीन, मदर इंडिया के दृष्टांत लीजिए. यहां बेहाल फटेहाल आसमान को ताके इंद्रदेव की कृपा यानी ‘रेनफेड एग्रीकल्चर’ पर टिका किसान है. फार्म हाउस वाला घरमिंदर नहीं जिसका पूरा कुनबा कमल उगा रहा. हम जिस मजलूम-लाचार की बातकर रहे वह तो आकुल-व्याकुल है कि कब धन बरसे. उसकी फसलमंडी में न्यूनतम कीमत पा जाए.उसके सपने आपने तरंगित कर दिये तो उसकी सोच भी फैल गई कि कब तक खाते में छः हजार पड़ते रहेंगे. क्या मालूम बहत्तर हजार का तुक्का पड़ जाए. बीमा सीमा भी हो जाए, पुरानी देनदारी भी माफ हो जाए. अब एक चिंता थोड़ी है. सुना ठेके में फसल उगा रही सरकार. देश में भी विदेश में भी. दालें सब बाहर से आ रही. नहीं तो इधर दालों के भाव ऐसे बढ़ते कि प्याज की तरह सरकार डुबाने के उदाहरण बनते. देशी किस्म, देशी बीज, देशी तरीके सब की कपाल क्रिया के बाद खेतिहर की सारी चिंताओं दुःस्वप्नों का पिंडदान तर्पण हरिद्वार में कर गया में आजीवन श्राद्ध भी करा दिया है. अब तो संकर हाइब्रिड बीज और विदेश में छनीखाद ही उर्वर बना रही शस्य श्यामला को. पहले बीटा बैगन और बीटा काटन उगाओ, फिर ठेके पर पेप्सिको आलू जमाओ. उस पर जो कीट पतंगे चढ़ें उनका जहर भी इम्पोर्ट मद में लाओ. चढ़ी उधारी पर फांसी खाओ. ऐन चुनाव के बखत इसकी माफी की घोषणायें करवाओ. लालटोपी कहेगी पूरा माफ, सफेद टोपी पांच साल में पौने चार लाख के जुगाड़ से कर दे पूरा मामला साफ. सरेआम सारे चैनलों में दिख रही जनसभाओं में पीटी डुगडुगी संतुलन साध रही. कुछ तो हो जाए की आस ऐसे ही नाच रही.
कृषि के चौपटीकरण के उपरांत दूसरी बजट रेखा बनाने वाला बातबात में नक्शानवीसी करने वाला, आलिया भट्ट की तरह नाक चढ़ाने वाला वर्ग आता है. वही आम मध्यवर्ग जिसमें निजीकारपोरेट सरकारी तनखा पर पलने वाले टुटपुंजिए, दिल दिमाग में तुला तराजु समाए व्यापारी, इससे ले उसको दे वाले कान्ट्रेक्टर, एक से तीन बीएचके वाले फ्लैट और एपार्टमेंटों में किश्तों के बूते जी रहे टेकनोक्रेट, लिव इन रिलेशन वाले प्रबंध गुरू, नामी-गिरामी संस्थाओं से निकले बुद्धिजीवी जिनका पैशन डबल बैडों में चरमरा, गमलों में बोनसाई उगा, फर्टिलिटी सेंटर के चक्कर लगाता है. आयतित आइडिया से धाक जमा सेंसेक्स-निफ्टी की फ्लोटिंग कर थर्डवेव प्रोड्यूस करता है. यश के जौहर दिखाता है. साथ कदमताल करते चौथे पिलर के पत्रकार तू-तू, मैं-मैं के जानकार-वफादार-कलाकार-व्यंगकार जिनकी होठों की हंसी करूणा व उपहास में फंसी. हां यही है वो जो रखते अधिपति सेनापति की हर हवा हर छींक का हिसाब. गाडफादर को आम पसंद है. लूकाव्रासी को गंज हुई है. प्रधान तो महान है. सत्य की धरती कुरुक्षेत्र में टहलते हैं. पहले भी आए. कभी पैदल डोले कभी बस में धक्के खाए. कभी स्कूटर दौड़ाए. अब ये पंजे तिगड्डे. जाट के सर पर रखे खाट. पागल कुत्ता, बंदर, गंदी नाली का कीड़ा भस्मासुर कह प्रेम जताएं. लो ये भी पूछे मेरे पिता कौन है. जननी का अपमान करे तो पडेगा लठ्ठ. चटकाऊंगा वंशवाद. फुसिया दूंगा अनाचार भ्रष्टाचार. लिखते रहें टाइम मैगजीन वाले.
जानो, जानो मुखिया के बारे में सब जानो. अक्षय मुख से जानो. विदेश टहल का नियमित योग पहचानो . हर साल जंगल जा शिव रमाने की कला पहचानो. डिजाइनर जैकेट की दर्जी, तुर्रम साफे की मनमर्जी, बीस घंटे की बकैती, तीन घंटे की नींद के सिद्धआसन भी जानो. सीखो याकूब, जयंत, गोप, केएनसिंह, तिवारी, शेखमुख्तार, मुकरी, चार्ली, केस्टो, भगवान, जानीलीवर की क्लासिक चित्रकथायें, मारण-मोहन-वशीकरण की मुखमुद्रायें. प्रेस के आगे क्यों जाना? क्यों बताना बंद नोट खुले कहां? क्यों सूंघना बेकार का गटर. मूडी है हनक चढ़ती है तो दिया ज्वलनशील प्रज्ञा को टिकट. करी किरकिरे की किरकिरी. अरे मंदबुद्धियो शिक्षा, शोध पर्यावरण से वैतरणी पार नहीं लगताी. लाइफ लाइन नहीं बनाती. देखो बुद्धपर्वत पे उग आई वो खड़ी रेखा जो सीधे इलेक्शन फंड जुटाती. कुंडली में बुद्धादित्य योग रचाती. देखो ध्यान से, आंख फाड़ देखो पंजे की हृदय रेखा तीन चौथाई चल गायब गैप बनाती. जीवन रेखा तरूणाई में ही गायब हो जाती. हर पम्पलेट देखो, पोस्टर ताड़ो फिर बोलो. लाजिक वाली बात दिल में जगह बनाती. दिमाग में घुस जाती.
मान्यता ले लो कि अन्यबातों के समान रहने के साथ ये जो जनता है इसकी हथेली में गड्डा है. उंगलियों के बीच छेद है. संकल्प का जल डालते ही ‘ट्रिकिल डाउन’ हो रिस जाता है. इसीलिए जेट एयरवेज बंद. इंडियन एयरलाइन्स, बीएसएनएल, हिंदुस्तान एयरोनीटिक्स को घाटा, डाकतार विभाग, नवरत्न ओएनजीसी, पीएनबी को घाटा दर घाटा. कच्चे लोहे और दूसरी खदानों की लीज पट्टे पर चढ़ा चार लाख करोड़ रूपये की चपत. राज्य सरकारों को डराया, धमकाया, मजबूर कराया कि 288 खदानों की लीज का समय बढ़ायें. बड़ी कम्पनियों को लीज दो, तभी वो डोनेशन देंगी. यह आर्थिक अपराध नहीं. यह तो गोवा, कर्नाटक, उड़ीसा की कुल जमा दो सौ पैंतीस खदानों को लगाया पिठ्या है जिस पर वेदांता, अदानी, टाटा को सबसे ज्यादा अक्षत चढ़े. मेहनतकशों से सृजित कुबेर के इस खजाने से बनती है. ऊपर की ओर समानान्तर गति से जाती नयी बजट रेखा. फटी चप्पल घिसटती बंगालिन शेरनी गरजती रहे. कागज में लिखा भाषण पढ़ ठुमकते रहे माया और परधानी की कुर्सी के स्वप्नलोक में उलझे लाल टोपी धारी गरूड़नाखी मुलायम पुत्र. कोने में खुरंड दराती और हत्था टूटी हथौड़ी थामे बाटी-चूरमा-सतुआ गटके कन्हैया झाडते रहे अपना जेएनयू ज्ञान. सबकी बजट रेखायें उदासीनता रेखा को काट रही पर संतुलनकारी शर्त तो यह है कि टेंजेसी रहे यानी स्पर्श अर्थात अंतर्छेदन.
इन बजट रेखाओं के साथ कौनसी उदासीनता रेखा स्पर्श कर कब संतुलन बनाएगी? इस बात का निर्धारण इस तथ्य से होगा कि सबके नाड़े सिल गए अब पैजामों में डालने बाकी है. मेहमान जुटे हैं. बारात सजी-धजी खड़ी है. जनवासे में सोलह श्रृंगार किए दुलहिन महक रही है. बस दूल्हा चुना जाना बाकी है, बैंड तो महिनों पहले से बज रहे हैं. धीमे –धीमें चलिए थोड़ी डोली कुकुरी कर ली जाए. सिद्धांत को सत्यापित करने के लिए सर्वे आवश्यक है नहीं तो आलोचक कहेंगे फसकी है, गपोड़ हांकता है, बकुआ भाट है.
गांव देहात की खूसवू है यहां. गायें इधर-उधर मुंह मार रहीं. डंडे से उन्हें हर कोई दूसरे खेत में हका रहा है. घरों के आगे भैंसे बंधी है. गायों पर इतना पालिसी डिसीजन कर दिए हैं कि लोगों ने इसके बदले भैंस पाल ली. इसे ‘प्रतिस्थापन प्रभाव’ कहते हैं.’ अब इस सरल मूक परिवेश में प्रश्नावली से पहला सवाल पूछिए. हां ! हां ! पूछिए किसको वोट पड़ी. किसकी हवा है? कौन जीतेगा? कौन बनेगा दूल्हा? हैंऽऽऽऽ हैंऽऽऽ. अरे यहां तो हेयरिंग एड की जरूरत है बिचारे कम सुनते हैं. अब कितना चिल्ला कर बोलें. ना ना धैर्य रखिए. अभी विलम्बित तान है. तीन ताल, मंद्रसप्तक, झपताल में बदलते देर नहीं लगेगी. हुक्के में खमीरी गुड़गुड़ा रहा. चाइ के साथ मिश्री की डली आ रई. गेहूं कट चुके , धूप है उमस है. गरम हवा के थपेड़े. कोयल तो ना कूक रही. कौअे चोंच खोले फड़फड़ा रहे. रह रह जलती पराली की गंध नथुनों में समा रही. आम के पेड़ों से झड़े बौर हैं. नीम पर छोटे पिनकटुए सफेद फूल हैं. आंवलों पर नयी पत्तियां हैं बेल के पत्ते झरे हैं. मूंज की खटिया है. ताऊ, चच्चा,मामा, भानजे, भतीजे उनीं पे अधलेटे हैं. हां तो बाबू हम तो यही जानत रही कि चौकीदार प्योर है उसका आना श्योर है. बाकी सब चोर है.
खडंजे-पडंजे की सड़क पर टाटा महेंद्रा की ठूंस भरी जकड़न से इस्त्री हो गये बदन को झटक कई रणबांकुरे उतरते. विविध पुष्ट पेयों व रसगुटिकाओं की हमक से सम्पूरित. मौसमी रोजगार मिला है. नोट देनेवालों की आरती गायेंगे. कोई मोदी कवच पारायण करे कोई लल्लू चालीसा , कहीं पप्पु पुराण. माया-मुलायम के सम्पुट भी हैं. वोट बंट जाने, कट जाने, चिरजाने, फटजाने, पड़ जाने के तमाम अंदेशे हैं फिक्स रेट है पर प्राब्लम एको नाहीं. वह तो बस अपने रामलला हैं, अपने हाथी हैं, अपना हाथ है, जगन्नाथ है. देश को जो बचाए रखे, बनाए रखे वहीं पालनहार है, खेवनहार है. अभी सब मिलजुल कबड्डी खेल रहे. एक दूसरे को लंगड़ी देंगे. यही जग की रीत है. अपने डंडे से दूर छटका रहे गुल्ली. जितनी दूर पड़े आसमान छुए कहीं गिरे. हमें क्या? पदेगा तो विरोधी.
अब सजन झूठ न बोलो. हमें पधान के द्वार जाना है. बीडीओ से मोहर लगवानी है. न पटवारी है, न तहसीलदार. डायरेक्ट डीएम से मुहर लगानी है. गैस बंटी फौकट वाली पर हमें तो न मिल्ली. छः हजार रूपये आये वो भी खाय गए ससुर. अब कह के रहेगा कहने वाला. गैस तो रोज ही निकले, पर इस तोक का तो करमजले पानी ही सूखा दिए. ये ठेके की खेती, ये पेप्सिको के आलू, ये खड़िया मिट्टी खुदान. जाने कौन जात कुजात भुजंग घुस गांव में फैक्टरी लगा दिये. सारे खेतन में बंजर पड़ गयो हो. कुंआ या बावड़ी गहरे पड़ गए. नलकुप्पों की बिजली कट गई. हर बौरे चौबारे इनके हगे की सूंघो. बहू-बेटियां गुजरे तो ये साले खुजायें. ऊपर से कह रियो कि बुरका बंद तो घूंघट भी बंद.
अब चरण पड़े हैं गांव की पधानी के द्वार. मोरकली के द्वार. कपाल पे सास भी कभी बहुरिया वाली इरानी से बड़ी बिंदी. माथे पर या से वां तक, पीछे तक फ़ैल रहा सिंदूर. पूरी हाथ का अंगडा. पांच सौ एक बीड़ी के बंडल को रगड़ दुइये मिनट में भभका छोड़ बहुरिया को पंखा झलने से रोक चाय मिश्री लाने का हुकुम.अब हवा झल रहे पधानपति. मरियल मुंह, चमरौधी काया. अजी नतीजा तो साफ ही है. वहीं निकल जावे आगे, जिस को का-का गालियां दी. बानर कहा. बाप की पूछताछ की. शरम से डूब न मरें पतुरिया के छोरे जो ऐसे संत पर गोबर वारें. पिछली बार भी जीता. सारी लड़ैती-भिड़ैती खतम कर दी गावं की. ऊ योगी सा हनूमान. सब ठीको ठीक कर दिया. टैम पर राशन बंटे. पानी आवे. बिजली मिले, गैस मिले. चिंचयाते फिरते थे महंगाई, महंगाई . पूछो खसमखानों से आटा पिछली बेर पच्चीस था, अब चौबीस. कड़ुतेल भी नब्बे-पचानवे को पौच है. साग-सब्जी के रेट तो हरामी शहर के कुंजडे बिगाड़ दिये, अब टैम पे कस्बे तक रोडवेज भी आए और दिल्ली तक जनरथ भी जाए. पुलिस भी लिक्खे है फौरन एफआईआर. वो इनके तिगड्डे वाला गुद्दो पहलवान जिसकी टांग तोड़ी दी योगी पुलिस ने पुलिया पे. सारे लुच्चे गुण्डे पहाड़ भाग गए. वो छुन्नू, भेंगा, जब तब औरत जात को यहां वहां ताकता . अरे उसे क्या कहते हैं मलिकार, ऊ नाबालिग के ऊपर चढ़ने वाली धारा. वो फाक्को. अच्छा-अच्छा पासको. छुन्नू के उमर कैद करवा दी दुई महिने के भीतर . कुमकुम देवी रही जज. ससुर कमीना अब रंडवा ही मरेगा. यहां तो ये भी फैली कि उसके अण्डे-वण्डे भी निकाल दिए.
अब तो गांव देहात में कच्ची-पक्की भट्टी भी ना है. दरोगा सबऊ ऊपर जंगल की ओर भगा दिये हैं. सो जीतना तो ऐसा ही है जो हमारे लल्लाओं को हाथ के काम के लायक बना दे. ठेकेदारी दिला दे. अब पैले तो यां फालतू का हरामीपन करते थे. अब सारे निकल पड़े हैं लखनौं, दिल्ली प्रयागराज. चिट्ठी पत्री तो अब आती नहीं ये भनचोत मोबाइलवा यहां ठीक गाने पर अटकता है. अब का है जो तुमने का गोंद के लड्डू डाले हैं जतकाली की तरह? चुप्पे हो हमारे मलिकार.
अब हम का बताई, सब तो कै दी है मोरकली. अच्छा हमारा नाम दिलाबर है. हां ऊ विधायक पुराना वाला तेतर वा वो हमारा बिरादर हुआ. हां हां डबल्यू, डायमंड ऊ सब भतीजे हुए. लाई रे बहुरिया. पकोरी लाई. चटनी लाई अमिया की. अब हमहू तो गवरमेंट के सारे टारगेट पूरे कर दिये. दुइये महिने रै गए पंचायत चुनाव को उसकी भी फूल तैयारी कर दी. आते देखा होगा सड़कों से कैसे डामर उछल उछल टायर चिकने कर दिया है. खूब डलवायें हैं कि पांचों बरस तक छेद न हो. ठेका भी मोरकली के भैयाजी को दिलाए. अरे अपने साले साब. दिल्ली पढ़ कर आया ऊ जेएनयूसे. सब जनेऊ वनेऊ उतार फेंका. ना जाने का मती फिरी कि यहां रहे बचे लौंडो को ज्ञान बांटने लगा. उन्हें अखबार पढ़ाने लगा. सफाई के तरीके समझाने लगा. महतारी बहुरियों के सेल्प-हेल्प गिरूप बना दिया. पापड, चटनी, अचार,मोरब्बा. हम भी फौरन तेतर वा विधायक से बोले ये हुये हैं पूत के पांव देख लियो. अब वो गैंदासिंह एमएलए रामलीला में दशरथ थे तो हमारा साला केकई बन ऐसा हठ किया, कि इधर राम जीने अजोध्या में सिंहासन संभाला तो साले को पिरेमरी स्कूल की टीचरी पकड़ाई. खुशी-खुशी कर रिया. हमारा हिसाब-किताब भी संभाल लिए हैं. मकड़ी की टांगो से एक शरीर पर भोंते-भोंते काम पकड़ लिया है. अरे ओ परबतिया. पकोरी न लाई. चाई चुई भी ला.
रामधनी लुआर है. सारा गांव, गिरामसभा, तोक यहां तक कि ब्लाक तक के सभी, इसके धूरे अपने हथियार टिकाते हैं. जन्तर-मन्तर भी जानता है. शनीचर की सुब्बे, इग्यारह बजे तक शनि का छल्ला भी ठोके है. पीट-पीट कर. न आग में तपाए न पानी में छयां करे. इसके हाथ से बड़े-बड़ों ने अपने सोये भाग खड़े किए हैं. वो फूलपुर वाला लडड्न नवी फेल . घिसटुवे अहीर का छोरा. इसके हाथ का बना लोहा डालते ही आल्हा उदल गाने लगा. ऊटूब में फिट कर दिया वो जौनपुर वाला दोस्त. अजी बालाजी वाली छोरी एकता मर मिटी ऊ डांस पे. सीधे नागिन वाले नृत्य में सपेरा ही बना दिया. ऊ कौनों है कपिलुआ शहरी भंडैत. हंसाने कम सीखे ज्यादा निपोरे है. उसके हियां चाय वाला तो पहले से था अब पकोड़ी वाला यही बने है अपना लड्डन. ईद पर सलमान आ रहा भारत ले के उसके पिरोगिराम में खिलाएगा हरी मिर्च की पकौड़ी. जब से ये सरकार आई . हमारे गांव की तो औकाद ही बदल गई. लोहा सही पहचाना लुए को. रामधनी की गांठदार उंगलियों ने मूसा के गुल की हथेली पर बनीलेई अपने भूरे काले दांतों पर रगड़ीं और कुछ मिनट की झर्रझम्म के बाद मेंढक की तरह बाहर को उभरी उसकी आंख पलक झपकाना भी भूल गई.
हां तो इब बातहै लुए की. लुवा तो होता है जवरजंड फट्टे का. फट्टा समझे की नांही. टिरक वाला फट्टा. ऐसा जबरजंड कि जैसी चाल वैसा ढल जाई. पांच साल मरवाए तो भी न चिटके न टूटै, बस तेल चुपड़ते रहो. टाटा की तरह टीएमटी की तरह.
उपसंहार की समझ यही बताती है कि गांव देहात कस्बों-शहरों में आला दर्जे की पैकेंजिंग, ब्रांडिंग हुई है. एक ब्रांड है राष्ट्रवाद तो दूसरा जातीय तिलिस्म. अब इकोनोमिक्स की प्राब्लम ही चुनाव समस्या कही जाती है. आप किस का चुनाव करेंगे, कौन से, ब्रांड के चक्कर में फसेंगे. इसके लिए बाकायदा विक्रय लागत खर्च की जाती है. यह विक्रय लागत घिसे-पिटे को भी विज्ञापनों के सहारे चट्ट-मट्ट बना देती. वह दिखायेंगे कि आपके अश्रु बहें. इशक-मुशक के फेर से आप विरही बनें. भोगे हुए यथार्थ का दिमाग पर वार चले. कभी इंद्रिया सुन्न पड़ जाये तो फिर कड़कड़ाने लगें. तमाम रसों की टपकन रहे.
विक्रय लागतों के जोन फिक्स होते हैं. इन्हें हाइ डेफिनेशन कैमरे से शूट किया जाता है. अंदाजे लगा ही लिए जाते हैं कि नोट और वोट कहां किस दिशा मैदान की ओर पड़ेंगे. इनकी चक्रवृद्धि दर भी बनाए रखी जाती है कि आपको कुछ न कुछ बोनस में मिलता रहे. कभी कूपन जैसी चुहल बाजी, सेल जैसी गप, धमाके में तू तड़ाक गाली गलौज सर फुटव्वल के किस्से. सब प्रायोजित है. देखना बस यह है कि आप इन्हें कितनी हवा देते हैं लाइक करते हें शेयर करते हैं.
दलों द्वारा वहन किया जा रहा व्यय लोकवित्त के एक अन्य सिद्धांत से भी ऊर्जा ग्रहण करता है जिसे ‘पम्प प्राइमिंग’ कहते हैं. पूंजी के पहाड खड़े किये लाला सेठिए भविष्य में प्राप्त होने वाले सट्टाजनित लाभ की आशा में टोपी वालों को सदियों से अनुग्रह थैली सौंपते आए हैं. इसकी बंदरबाट खास से आम की ओर होती है. किसी न किसी वस्तु, सेवा या मद के साथ नगद रूप में यह धन जन जन की फटी जेबों को रफू करने में सहायक होता हैै. हींग लगे न फिटकरी, भेड़ों की तरह रेवड़ में शामिल हो जाओ. श्रृंगालों की भांति एक हुआ पर हुंआ-हुंआ करो. सिटौले की तरह अब गूं निखूं – गूं निखूं का जाप करो. टिल्ल हो मस्त रहो, बस वोट टिकाओ.
‘एवरी वोट काउण्ट्स’ में पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त श्रीमान नवीन चावला बयां करते हैं कि चुनावी परिदृश्य बड़ा बिगड़ैल हो गया है. नकदी, शराब, जेवर, ड्रिंक्स, ड्रग्स, हशीश, कोकीन की जब्ती लगातार बढ़ती जा रही है. चार हजार करोड़ रूपये से ऊपर से पहुंच ही गयी . पर यह ऊंट के मुंह में जीरे जैसी है. सियासी खिलाड़ी चुनाव पर्यवक्षकों से गहरी गिद्ध दृष्टि वाले हैं. सतर्कता टीमों से बचा, अनाधिकृत पूंजी को ठिकाने लगाने के कई स्टेप्स है उनके पास. कौन पूछ रहा तुम्हारी सत्तर लाख की वैधानिक सीमा. पहले कभी गब्बरमैन टीएन शेषन का जुमला था कि वह सुबह के नाश्ते में राजनीतिज्ञों को चबा जाते हैं. अब मठाधीश दहाड़ रहे हैं. कितने दांत साबुत हैं यह पता लगने ही वाला है.
तुर्रम साफे, पगड़ी, टोपी में छुपे झांकते श्वेत केश लहराए झटकाए सिंह की गर्जना, गंजू चीते की फुरती या गीदड़, भेडिया, हथिनी मृगनयनी सब घिस रहे सुरती. सब साथ साथ हैं. साथ में मोर भी आया कौआ भी आया बंदर भी आया भालू भी आया. अपनी बाहुबली मुद्राओं के साथ विराजमान. प्रायोजित इन्टरव्यू में संतभक्त ग्यानी का आभामण्डल अवतरित है. नमो का प्रसारण है. देश की हिफाजत पहरेदारी के गुरूर से आत्मविश्वास. दूसरे पलड़े में तिगड्डा है. जहां सब कुछ खेल जातीय बेड़ियों में है. गांव देहात कस्बे के चिरकुट अस्तरों में सिमटा. हर गली मोहल्ले में फिरकापरस्त, हर घर में विभीषण, केकयी, सुरसा त्रिजटा, दुर्योधन. धर्म निरपेक्षता का आंगन गंधा रहा. भारी पड़ रहा राष्ट्रवाद. मायावीलोक, वर्चुअल प्राब्लम. क्या करें खिदमते-ए-खल्क मे यकीन के सिवाय. निरहुआ गा रहे हैं. ‘नून रोटी खायेंगे मोदी को जितायेंगे.तो विजय लाल छेड़ रहे विरहा, ‘दूध रोटी खाऐंगे, अखिलेश को जितायेंगे. वहीं कमल की तान हैं, ‘दिल्ली में भाजपा का झण्डा फिर लहराई, बुआ-बबुआ-राहुल जी के गठबंधन बिखर जाई. कव्वाली जोरों पर है. ढोलकें गमक रही. मंजीरे ठुनक रहे. सिक्के खटक रहे. कोंच रहे सवाल दर जवाब, ‘बुआ और बबुआ का मेल हो गइल. मोदी के गणित सब फेल हो गइल.’
अब बचे खुचे हाथों में नीले से काले पड़ते धब्बे जनतंत्र की पहचान को वापस चमड़ी के रंग में लाने की बाट जोह रहे. अपना-अपना सभी बो चुके. एकल कटुओं के साथ सामूहिक जुताई की तैयार जमीन तप रही. बीज घुसेड दिए अब समतलीकरण हो रहा. गरम हवा और लू के थपेड़ों के बीच धूलधक्कड़ का अंधड है. प्रश्न जितने बढ़ रहे घट रहे उतने जवाब. मोतीचूर की बूंदिया सिक रही. चाशनी में डूब छन गपागप भकोसी जाऐंगे या गंगलोड़े से चुभेंगी? चिंताओं के भवसागर में है पंचतन्त्र.
जो पांच साल में हो चुका क्या वह अधिनायकवाद था? क्या यही था वो रास्ता जिस पर दुनिया भर में बदनाम सूरमा चले? अब यदि यह है लोकतंत्र तो भले ही इसका फार्म कितना ही आइडियल क्यों न हो इस तानाशाही से तो हजार लाख गुना बेहतर है. डेमोक्रेसी का विकृत रूप. हमारे यहां कुकुरियोल के रूप में दिखा. यह हर नागरिक को हर संभव अवसर उसकी क्षमताओं के अनुसार देने का दंभ भरती थी.यह अच्छी हो सकती थी पर बहुत खराब दिखी. इन सबके बावजूद इसका कम्पेरिजन गर्वनंस के दूसरे किसी भी सिस्टम के साथ नहीं किया जा सकता.
अब ये कैसा इनवायरनमेंट क्रिएट हो गया जहां डेमोक्रेसी नान इवोल्यूशनरी हो गई. ये तो राष्ट्रीय रोग है. तिलतिल कर मारने वाला. पहले बाल गायब फिर खाल. धीरे-धीरे हर धमनी हर शिरा में बहता खून, सफेद लाल कण, प्लेटलेट्स, हिंसा घृणा आतंक से पोषित हर जिस्म खुद से लड़ रहा , दूसरे से लड़ने को मजबूर रहा. यह क्या?
मई का महिना.चार मई को इकोफिलोसोफी दिवस था. इसके पुरोधा रहे नरिक स्कोलियोवस्की को समर्पित. जिसने कहा था कि कभी तो अपनी नजर से दुनिया के बढ़ने संवरने सजने की कल्पना करो. अपनी प्रकृति के बचे रहने, हरियाली बने रहने आसमान में इंद्रधनुष टंगने की सोचो. सुनामी फेनी तो आऐंगे, डराऐंगे. बहुत कुछ बरबाद कर जाऐंगे. चुनाव आऐंगे, क्या कुछ उलट पुलट कर पाऐंगे?
कास्मिक लेवल पर लोकतंत्र को देखने का समय है अब यही गवरनेंस करेगी. तय करेगी बहुत कुछ. इसे कोस्मोक्रेसी कहते हैं. इको डेमोक्रेसी का विस्तार है यह. इसे विकास की राजनीति में हमेशा हाशिये पर रखा गया.
चुनाव में विकास वृद्धि, प्रगति आधुनिकीकरण के मुद्दे उठे भी थे क्या? जो लोकतंत्र के मसीहा बने उन्होंने जात धर्म वर्ण वंश एक तरफ और देश की सुरक्षा के बांट दूसरी तरफ रख तराजू तान दी. अब्राहम लिंकन ने परिभाषा दी थी कि, ‘डेमोक्रेसी है गर्वमेंट आफ दि पिपुल, बाइ दि पीपुल, फार दी पीपुल. जहां जीवन के अनार्थिक घटकों, नान ह्यूमन फार्म का कोई स्थान नहीं. पीपुल, पीपुल और पीपुल के नाम पर रो बिसूर रेवड़ियां पकड़ाए जाओ.
शायद अब यह सब मिले और तुम समझो कि जीवन का लोकतंत्र ‘आदमी के द्वारा जीवन के लिए’. ‘डेमोक्रेसी आफ लाइफ बाई द पीपुल फार लाइफ.’ यही ‘इकोडेमोक्रेसी’ है. और अपने डिजाइन और न निहितार्थ में अभी अपनी शैशवावस्था में है. चुनावी भवसागर में विष भी और अमृत भी. देखते हैं हमने क्या चुना! कौन सा प्रतिफल ?
(जारी)
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