Featured

दो हजार साल पहले पिथौरागढ़ के तीन ओर था एक सरोवर

वह सरोवर

बचपन में अपने “मुलुक’ (Pithoragarh) के बारे में पूछता था तो दादी बताती थीं एक ऐसे मैदान के बाबत, जिसमें मीलों तक पत्थर दिखते ही न थे. पहली बार सोर घाटी देखी तो लगा कि दादी ने अतिशयोक्ति की थी. वर्षों घूमा, सर्वेक्षण किया, अध्ययन किया, किन्तु मैदान न दिखा. दिखे पहाड़ ही पहाड़, पत्थर ही पत्थर. थल-सेनाध्यक्ष जनरल विपिन चन्द्र जोशी के आग्रह पर पानी की तलाश में एक बार निकला तो अकस्मात् दादी अम्मा का बताया मैदान  पहचान लिया.

वह था एक सरोवर के अंचल में संचित काली-भूरी-चिकनी-चिपचिपी मिट्टी का बना सपाट मैदान ठुलिगाड़ की घाटी में. सन् 1993 की यह एक महत्वपूर्ण खोज थी. काली-भूरी मिट्टी का मैदान वस्तुतः एक ऐसे सरोवर के अस्तित्व की गवाही देता है जो कभी नगर पिथौरागढ़ को तीन ओर से अपनी बाहों में समेटे हुए था. किन्तु वह सरोवर विलुप्त हो गया, सूख गया लगभग दो हजार वर्ष पूर्व और रह गया एक मैदान जो उसके अंचल में विकसित हुआ था.

फोटो: साभार ‘पहाड़’

सोर सरोवर का विस्तार

काली-भूरी-चिकनी-चिपचिपी मिट्टी के बने मैदान का विस्तार देखें तो ज्ञात होगा कि ठुलिगाड़ और उसकी सहायक सरिताओं की घाटियों में भरा हुआ था सरोवर का जल. मानचित्र में तो चिकनी मिट्टी के मैदान की केवल सीमा ही दिखायी गयी है. जलाशय इस मैदान से कहीं बड़ा रहा होगा. उत्तर में सातसिलिंग-जाजरदेवल के निकट तक, पश्चिमोत्तर में धनौड़ा के पास तक, पश्चिम में हुड़ेती-कुजौली के समीप तक और दक्षिण पूर्व में चैपखिया के पास तक फैला हुआ था वह सरोवर.

कोटली से सातसिलिंग के पास तक ग्यारह किलोमीटर और चैपखिया से लेकर कुजौलीं तक सोलह किलोमीटर विस्तार रहा होगा उस सरोवर का. दुलिगाड़, रईगाड़, रन्धौला गाड़, चन्द्रभागा गाड़ आदि सारी सरिताएँ पानी में डूबी हुई थीं. सरोवर की अधिकतम गहराई (15-16 मीटर) कोटली-हुड्काना-वड्डा क्षेत्र में थी. उत्तर में जाजरदेवल-मड़ के पास, पश्चिमोत्तर में धनौड़ा के समीप और पश्चिम में कुजौली के निकट सरोवर की गहराई सात मीटर से कम रही होगी.

कैसे बना वह सरोवर

सरोवर की उत्पत्ति होती है किसी नदी के बहते पानी के रुक जाने से, ठहर जाने से. आज से चालीस से छत्तीस हजार वर्ष पूर्व ठुलिगाड़ का जल-प्रवाह अवरुद्ध हो गया. घाटी में एक ऐसी बाधा उत्पन्न हुई कि सरिता का बहना रुक गया. कोटली के निकट घाटी में एक प्राकृतिक बांध विकसित हुआ. हुआ यह कि कोटली गाँव के पास से होते हुए पूर्व से पश्चिम तक फैले एक भ्रंश-दरार पर ऐसी हरकत हुई कि दक्षिण में सूवाकोट-बमनधौन-ऐंचोली पर्वत श्रेणी उभर उठी.

फलतः नदी का प्रवाह थम गया. न केवल ठुलिगाड़, का वरन उसकी सहायक सरिताएँ रन्धौलागाड़, रईगाड़ और हुड़कानागाड़ का बहना भी रुक गया. इसी प्रकार वड्डा के दक्षिण पूर्व में क्वीतड़-पन्त्यूडी श्रेणी के उभरने-उठने से मसानीगाड़ थम गयी. दोनों ओर से सरिताएँ अवरुद्ध हुई तो विकसित हुआ एक विस्तृत सरोवर.

फोटो: साभार ‘पहाड़’

भौमिक हलचलें

सरोवर के बेसिन में संचित बजरी-रेता-मिट्टी के अनुक्रम का अध्ययन करने से पता चला कि जलाशय के जीवन के आरम्भ और अन्त दोनों में कुछ ऐसी भौमिक हलचलें हुई, जिनके कारण बड़े पैमाने पर पर्वतीय ढलानों पर भूस्खलन हुए. संभवतः तब भारी वर्षा भी हुआ करती थी. फलतः मलबे की प्रचुर मात्रा सरोवर में एकत्र हो गयी.

हो सकता है कि भूस्खलनों का सम्बन्ध भूकम्पों से हो. भूकम्प होता है धरती के फटने से. जब दरारें (भ्रंश) खिलती हैं और खण्डित भूखण्ड अकस्मात् सरक जाते हैं. पुरानी दरारों के सक्रिय होने और प्रचण्डता से विस्थापित होने से भी भूचाल उत्पन्न होते हैं. ऐसा लगता है कि कोटली से होते हुए पूर्व से पश्चिम तक विस्तीर्ण भ्रंश (दरार) के खिलने अथवा उसके पुनः सक्रिय होने के फलस्वरूप सूवाकोट-बमनधौन-ऐंचोली श्रेणी उठ गयी- ऊँची हो गयी, और ठुलीगाड़ का प्रवाह अवरुद्ध हो गया.

इस भूसंचलन के परिणामस्वरूप न केवल सरिताओं का बहना रुक गया, वरन पर्वत-ढलानों पर बड़े-बड़े भूस्खलन भी हुए. भूस्खलनों का मलबा सरोवर के नितल में संचित हो गया.

बदलती जलवायु का लेखा

 सोर सरोवर के जीवन के आरम्भ में परवर्ती पहाड़ों में चीड़-सरीखे ऐसे वृक्ष थे जो ज्वलनशील रहे होंगे. शुष्क जलवायु के ये पादप ग्रीष्मकाल में बार-बार दावाग्नि के शिकार होते थे. जंगल की आग के सूचक हैं लकड़ी के कोयले के टुकड़े, जिनकी प्रचुर मात्रा जलाशय की बजरी-रेती में मिलती है. तले की काली मिट्टी और इन कोयलों की अवस्था (उम्र) है लगभग छत्तीस हजार वर्ष.

इस सूखे के बाद चैंतीस से बत्तीस हजार साल के दर्मियान और तदनन्तर 31 से 29 हजार वर्ष की अवधि में जलवायु और आद्र्र हो गयी. सारे पहाड़ और सारी घाटियाँ घनी और चैड़ी पत्तियों वाले वनस्पति से ढक गयीं. पेड़ों में आरार या जूनिपर भी सम्मिलित हैं. कहीं-कहीं दलदली परिस्थिति भी विकसित हुई.

उमस-भरे गर्म वातावरण में पेड़-पत्तियों के सड़ने और उनके जलाशय में एकत्र होने के फलस्वरूप सरोवर की मिट्टी का रंग काला हो गया. इन परिस्थितियों के साक्ष्य या सूचक हैं सरोवर की मिट्टी में समाधिस्थ पराग और बीजाणु.

31 से 29 हजार वर्ष पूर्व की अवधि में सूखे का एक संक्षिप्त दौर आया जब चीड़ और समरी वृक्ष बहुत फैल गये. उसके पश्चात् उन्तीस से बाइस हजार वर्ष के काल में जलवायु शुष्क ही रही परन्तु शीतल हो गयी. चीड़ और अधिक प्रभावी हो गये.

22 से 18 हजार वर्ष पूर्व तक पुनः ऊष्ण-आर्द्र जलवायु प्रभावी हुई. देवलगांव के निकट एक वृक्ष की टहनी की अवस्था बीस हजार वर्ष निर्धारित हुई. किन्तु दस-साढ़े दस हजार वर्ष पूर्व सारे भारतीय भूखंड में भारी वर्षा का दौर शुरू हुआ. कहना न होगा कि सोर घाटी भारी वर्षा के प्रभावों से अछूती न रही होगी.

फोटो: साभार ‘पहाड़’

सोर सरोवर का अंत

सरोवर के अन्तिम काल में बड़े पैमाने पर भौमिक हलचलें हुईं. भारी वर्षा तो हो ही रही थी, अस्थिर ढलानों पर भूस्खलन भी होने लगे. मलवे की विपुल राशि वर्षाजल में बहकर कुछ सरोवर तट में एकत्र हो गयी और कुछ सरोवर में समा गयी. सम्भवतः सरोवरमिट्टी से पट-सा गया, और उसके पानी का बहुत बड़ा भाग निकल गया. जहाँ एक विशाल सरोवर था वहाँ छोटे-छोटे तड़ाग रह गये.

यह घटना लगभग दस हजार वर्ष पूर्व हुई. और उस समय हुई जब समग्र भारतीय महाद्वीप अधिक वर्षा की चपेट में था.

भौमिक हलचलें होती रहीं. नयी दरारें खिलीं, पुरानी दरारें पुनः सक्रिय हुईं. भूकम्प उठे और भूस्खलन होते रहे. लगभग दो हजार वर्ष पूर्व एक क्रान्तिक घटना में अवशिष्ट तड़ागों का भी लोप हो गया. सोर सरोवर का संपूर्ण जल निकल गया. मध्य में ठुलीगाड़ और पूर्व में मनानीगाड़ के रास्ते. उभर गया काली-भूरी चिकनी-चिपचिपी मिट्टी का बना सपाट मैदान.

कालान्तर में हुई हलचलों ने इस मैदान का रूप-स्वरूप बदल डाला. चहर और पण्डा के निकट से होते हुए एक भ्रंश पर ऐसी हरकत हुई कि न केवल पश्चिम भूभाग कुछ उठ गया. वरन वह विस्तृत मैदान भी खंडों में विभाजित हो गया.

किवदंतियों से पता चलता है कि सोर सरोवर के जीवन के अन्तिम दिनों में सोर घाटी में मनुष्य का पदार्पण हो गया था.

प्रो. खड्ग सिंह वाल्दिया

मशहूर भूवैज्ञानिक प्रो. खड्ग सिंह वाल्दिया का यह महत्वपूर्ण आलेख हमें पिथौरागढ़ की सोर घाटी की एक महत्वपूर्ण भौमिक उथलपुथल से अवगत कराता है. इसे हमने ‘पहाड़’ के अंक 16-17 से साभार यहाँ प्रकाशित किया है.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

View Comments

  • बहुत अच्छा भौगोलिक चित्रण किया गया है. सार्वजनिक करने के लिए साभार !!

Recent Posts

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

11 hours ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

12 hours ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

5 days ago

साधो ! देखो ये जग बौराना

पिछली कड़ी : उसके इशारे मुझको यहां ले आये मोहन निवास में अपने कागजातों के…

1 week ago

कफ़न चोर: धर्मवीर भारती की लघुकथा

सकीना की बुख़ार से जलती हुई पलकों पर एक आंसू चू पड़ा. (Kafan Chor Hindi Story…

1 week ago

कहानी : फर्क

राकेश ने बस स्टेशन पहुँच कर टिकट काउंटर से टिकट लिया, हालाँकि टिकट लेने में…

1 week ago