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पीहू की कहानियाँ – 2

जब लगा कि अब पीहू नहीं बन सकती …

कहानी और पीहू दोनों मिल चुकी थी. प्रोड्यूसर मिलना बाक़ी था. एक और बेहद मुश्किल काम. मुंबई में अलग अलग स्टूडियोज़ और प्रोड्यूसर से मिलना – बात करना शुरू किया. जो जवाब मिलते थे , वो कुछ इस तरह के थे.
“ अरे नहीं विनोद… ये subject ठीक नहीं है ”
“ स्टार के बिना फ़िल्म को कौन देखेगा ? ”
“ आइडिया तो यूनिक है पर सिर्फ आइडिया यूनिक होने से ही फ़िल्म नहीं बन जाती ”
“ दो साल की बच्ची एक्टिंग कैसे करेगी ? असंभव !! ”
“ एक किरदार और वो भी दो साल की बच्ची के साथ फ़िल्म बनना असंभव है.”

और फिर आई एक ऐसी टिपप्णी जिसने मुझे बहुत कुछ सोचने को मजबूर किया. एक स्टूडियो ने कहा :

“ मान लो कि आप ने फ़िल्म बना भी ली लेकिन एक दो साल की अकेली बच्ची के साथ 100 मिनट या दो घंटे की जो ये फ़िल्म बनेगी , वो बहुत बोरिंग होगी. इतनी देर तक कोई भी फिल्मकार एक किरदार के साथ दर्शकों की फ़िल्म में रूचि बना कर कैसे रख सकता है ? ”

मुझे यक़ीन था कि पीहू की कहानी पूरे 100 मिनट तक दर्शकों को बाँध के रख सकती है लेकिन मेरे यक़ीन पर यक़ीन करने को कोई भी तैयार नहीं था. मेरी दूसरी चिंता ये थी कि हर दिन गुज़रने के साथ पीहू बड़ी होती जा रही थी. वो अब दो साल और तीन महीने की हो चुकी थी और किसी भी सूरत में पीहू की उम्र ढाई साल होने से पहले मैं इस फ़िल्म की शूटिंग कर लेना चाहता था. उसकी एकमात्र वजह ये थी कि ढाई-तीन साल की उम्र के बाद बच्चों में कुछ समझ आने लगती है , वो उतने मासूम नहीं रहते जितने डेढ़ दो साल की उम्र में होते हैं.

मुझे बहुत ख़ूब एहसास था कि पीहू अगर ढाई साल से ऊपर हो गई तो फिर उसके साथ ये फ़िल्म नहीं हो सकती है.

मुझे फ़िल्म के लिये सिर्फ 90 लाख रूपए चाहिए थे. पर मेरे ऊपर या इस कहानी के ऊपर ये दाँव खेलने को कोई तैयार नहीं था. प्रोड्यूसर ढूँढने की कोशिश में एक महीना और निकल गया. पीहू अब दो साल चार महीने की हो चुकी थी. ऐसे में एक दिन मैंने अपने CA दोस्त किशन कुमार से बात की. किशन पहले भी दो फ़िल्मों में हाथ जला चुके थे. किशन को कहानी बहुत पसंद आई और उन्होंने दो दिन का वक्त माँगा. दो दिन का इंतज़ार दो सदियों के इंतज़ार से कम नहीं था. कभी कभी ये ख़्याल भी आता था कि पीहू फ़िल्म बनाने का सपना कहीं सिर्फ सपना ही ना रह जाए क्योंकि मुझे एहसास था कि इस पीहू के अलावा शायद ये फ़िल्म मैं किसी के साथ कभी ना बना पाऊँ.

आख़िरकार किशन का फ़ोन आया और उन्होंने बताया कि वो फ़िल्म तो करना चाहते हैं लेकिन फ़िलहाल उनके पास 46 लाख रूपए की ही व्यवस्था हो पा रही है और वो भी दो तीन हफ़्ते बाद. मैंने पूछा कि तीन हफ़्ते बाद तो हो जाएगी ना ? किशन ने पूरा भरोसा दिलाया.

बस फिर क्या था. शूटिंग की तैयारी शुरू कर दी गई. अनूप दास , DOP योगेश जानी, आर्ट डायरेक्टर असीम चक्रवर्ती, साउंड डिज़ायनर सुभाष साहू सबसे बात की और सबको बताया फ़िल्म के बजट के बारे में .. इन सबने अपनी अपनी फ़ीस 50% से 70% तक घटा दी और कहा कि कुछ भी हो ये फ़िल्म बननी चाहिंए. मिस टनकपुर में एसोसिएट डायरेक्टर रह चुके अम्बुज को फ़िल्म की शूटिंग के बारे में पता चला तो उसने मुझे फ़ोन करके नाराज़गी ज़ाहिर की कि आपने मुझे बुलाया क्यों नहीं ? मैंने उसे बताया कि बजट बहुत ही कम है , इसलिए हम बहुत ही छोटी टीम के साथ फ़िल्म कर रहे हैं. अम्बुज का जवाब मैं कभी नहीं भूल सकता. उसने कहा कि भले ही मुझे एक भी पैसा ना मिले पर ये फ़िल्म मुझे करनी ही करनी है. आप मुझे बस शूटिंग की तारीख बताइए , मैं हर हाल में आऊँगा. पूरी टीम को पहले दिन से कहानी पर बहुत विश्वास था . कई मौक़ों पर तो मुझ से भी ज़्यादा . जब ऐसी टीम हो और किशन जैसा दोस्त हो तो छोटी सी पीहू को अब आगे बढ़ने से कौन रोक सकता था ? ( जारी )

अगले हिस्से में :
पीहू के साथ रिसर्च के दौरान बिताए गए कुछ वीडियो और मेरा एक ब्लंडर जो पीहू ने ठीक किया .

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Girish Lohani

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