पापमुक्ति – –शैलेश मटियानी Paap Mukti Story Shailesh Matiyani
घी-संक्रांति के त्यौहार में अब सिर्फ दो ही दिन शेष रह गए हैं और त्यौहार निबटते ही ललिता अपने घर, यानी अपनी बड़ी दीदी नंदी के मायके को लौट जाएगी – लेकिन इस बार का उसका लौटना कितना रहस्मय हो सकता है? हो सकता है, कुछ ही दिनों बाद माँ आ पहुँचे कि नंदी, ललिता को तेरे यहाँ हमने इसी काम के लिए भेजा था? इस प्रश्न को सोचते-सोचते, नंदी और ज्यादा थक आई. एक बार आँखें पूरी उधाड़कर उसने दौण में बँधी हाल ही में ब्याई भैंसे, उसकी छोटी-सी थोरी और रसोई के कमरे की ओर देखा. फिर नीचे घाटी में बिखरे अछोर खेतों और घाटी के पार के घने लंगल को देखती रह गई. Paap Mukti Story Shailesh Matiyani
जबसे ललिता आ गई, तब से खेत-वन के सारे काम वही सँभाल रही है और नंदी घर पर ही रह जाती है. खाना पकाने के अलावा सिर्फ पानी भरने और भैंस की टहल करने का ही काम उसके जिम्मे रह गया है. दोपहर ढलने तक नंदी काम निबटाकर, खा-पीकर खेलने-कूदने के बाद थकी, अपनी छोटी बेटी कुरी को छाती से लगाकर, आराम से सो जाती है. फिर तीसरे पहर उठकर, देली से नीचे पाँवों को झूलता हुआ छोड़, बैठी-बैठी, किसनिया की प्रतीक्षा करने लगती है. यों अब दूसरी बार की भारी कोख है मगर फिर भी किसनिया के समीप पहुँचते-पहुँचते तक शरमाकर, अपने पाँव देती से ऊपर समेटती, कुरी को बीच गोद में बैठा लेती है. ललिता बड़ी चंट है. कुछ दिन पहले आई थी, तो उसी रात कह बैठी थी कि ‘दीदी, इस बार तो तेरी कोख अभी से भारी हो आई. बेटा ही होने वाला, शायद!’ Paap Mukti Story Shailesh Matiyani
छि, छि, आजकल की छोरियाँ शादी से पहले ही सारे लक्षणों को जानती हैं. ललिता तो किसनिया का भी लिहाज नहीं करती. रिश्ते में साली लगती है, सो किसनिया भी मजाक करते नहीं चूकता और आपसी मजाक के बाद खिलखिलाती दोनों की हँसी गुल्ली में ऐंठकर बटी जा रही रस्सी के रेशों की तरह आपस में लिपटती चली जाती है तो कभी-कभी नंदी का मन कुछ तीता भी हो आता है. आमने-सामने बैठकर बिखेरी साली-जीजा की हँसी उसे ऐसी लगने लगती है, जैसे फसल-कटे खत में सर्पों की जोड़ी फन नचा रही हो. …और परतिमा सासू कहती हैं कि गर्भिणी औरत को आपस में जुड़े नाग नहीं देखने चाहिए.
सगी सास नहीं. ननद नहीं, देवरानी-जेठानी कोई नहीं है. केले की फली-जैसा अकेला किसनिया जन्मा था, फिर कोख ही नहीं भरी. अब कहीं जाके किसनिया की गृहस्थी केले की फली-जैसी उधड़ती जा रही है. चार बरस तक अकेला किसनिया था और अब तीन जनों का कुटुंब है. तीन-चार महीने बाद एक और बढ़ जाएगा और फिर बरसों तक यही क्रम… यही सोचते-सोचते, नंदी को अपनी गृहस्थी में सास-ननद-देवरानी-जिठानी का अभाव खलने लगता है. परतिमा ककिया सास है. कभी-कभार कुछ कह-सुन जाती है. उसी के कहे को आँवले के दाने की तरह अपने अंदर लुढ़काती रहती है. सपने में भी… और परतिमा सासू कहती हैं कि – गर्भिणी को जुड़े हुए नाग नहीं देखने चाहिए. पाप लगता है.
देली से नीचे लटकाए हुए पाँव आपस में लिपटते-से लगे तो नंदी ने अपने पाँवों को समेट लिया.
आज कुरी अभी तक नहीं उठी थी. नंदी ने आँखों को नीचे घाटी में फैले खेतों की ओर झुकाया, तो लगा कि उसकी दीठ चील की तरह आकाश की ओर उड़ गई है और वहाँ से झुक-झुक कर धान के खेतों में काम कर रहे किसनिया और ललिता को ढूँढ़ रही है. फसल से खेत भरे हुए हैं. नंदी खुद गर्भिणी है. ऐसे में कही कमर से ऊपर उठ आए धान के खेतों के बीच में किसनिया और ललिता की जोड़ी आपस में मगन दिखाई दे गई, तो…?
‘छि, छि, आजकल मेरे मन में भी बहुत पाप भर गया.’ नंदी को अपने प्रति ही वितृष्णा हो आई. कल्पना में यों चील की आँखों में चमकते सर्प जोड़े जैसे संशय से उसकी घाटी की आरे एकटक लगी आँखें अपने-आप भर आईं. उसे लगा, पाँव फिर अपने-आप देली के नीचे लटक गए हैं.
बड़ी देर तक वह अपने-आप झूलते पाँवों को देखती और अपने-आप से ही सहमती रही. उसने अनुभव किया, किसनिया और ललिता के सहज हँसी-मजाक के संबंध को वह खुद बहुत आगे तक बढ़ा लाई है. और… और अब यदि वास्तविक रूप में भी उन दोनों का संबंध इस सीमा तक बढ़ आया, जहाँ कि वह अपनी गिद्ध-दृष्टि से आई है, तो कोई आश्चर्य नहीं. सहसा वह कोई विरोध भी नहीं कर पाएगी. सिर्फ इतना ही उसे लगेगा कि आकाश में उड़ती चील की तरह खेत में खेलते साँपों के जोड़े को देख रही है.
अनजाने ही आज पास के ऊँचे टीले तक बढ़ आई नंदी. तलहटी तक ढलान वाली घाटी चौमासे की हरियाली में डूबी है. ऐसे में, किसनिया ललिता के दिखाई दे सकने की कोई गुंजाइश नहीं. मगर, व्यर्थता के अहसास के बावजूद आज नंदी अपनी आँखों को नियंत्रित नहीं कर पा रही. न-जाने कब तक वह टीले पर ही खड़ी रहती कि घर से कुरी के रोने की आवाज सुनाई दे गई.
लौटी, तो देखा, गुदड़ी बिगाड़ चुकी है. कुरी को चुप करा कर, गुदड़ी को बाहर चबूतरे पर लाकर मुठिया-मुठिया कर धोते हुए, नंदी फिर सोचती चली गई. इस बार वह अनायास ही यह सोचती चली गई कि जबसे ललिता आई, तब से उसे कितना आराम हो गया है. ललिता के आने से पहले, घर के सारे कामों से लेकर खेत और जंगल तक उसे जाना पड़ता था और अथक परिश्रम के कारण देह एकदम टूट-टूट जाती थी. मन होता था, हलकी होने तक के लिए अगर मायके जाने देता उसे किसनिया, तो कितनी राहत मिलती उसे, मगर किसनिया घर-गृहस्थी सँभाले और वह मायके में पड़ी रहे, यह संभव नहीं था.
ऐसे में उसने अपनी माँ के पास संदेश भेजकर, छोटी बहन ललिता को सहारे के लिए भेज देने को कहा था और संक्रांति के त्यौहार तक के लिए ललिता यहाँ आ गई थी. पिछले दिनों बाहर के सारे काम वही निबटा रही थी, मगर अभी पूरी फसल कटी नहीं है और संक्रांति के कुल दो ही दिन शेष रह गए हैं.
गुदड़ी मुठियाते-मुठियाते, नंदी का मन अपनी छोटी बहन के प्रति कुछ कृतज्ञ-सा हो आया और अपने प्रति कुछ क्रुद्धता कि वह तो अपनी ही बहन के सिर्फ हँसी-मजाक के सुख को भी नहीं झेल पा रही. अब दो दिन और रहेगी, चली जाएगी. फिर न जाने कब आए. जल्दी ही उसका विवाह हो जाएगा और तब तो कभी वर्षों में संयोग से भेंट हो पाएगी.
नंदी को याद आया, गए-चैत में जब पिता उसे भेंटने आए थे, तो उसने कहा था, यदि ललिता का संबंध भी कहीं इसी गाँव में तय कर देते, तो अच्छा रहता. ऐसा कहते समय उसने यह भी अनुभव किया था कि अगर कोई देवर होता, तो उसके लिए बात चला देती, मगर इस घर में तो अकेला किसनिया है… और ललिता किसनिया के ही घर रह जाए, तो बहन की जगह सौत बन जाएगी. …हालाँकि दो क्या, तीन शादियों तक का चलन है और अंग्रेजों का राज.
एक हल्की-सी हँसी नंदी के होंठों पर फैल आई. न ललिता की ओर से, न किसनिया की ओर से – कहीं से भी तो ऐसा कोई प्रत्यक्ष संकेत नहीं. वह तो कल्पना में ही इस प्रकार के संबंध तय करती है और फिर खुद ही कुढ़ रही है. दो ही दिन बाद ललिता वापस जाने लगेगी. नंदी उसके ललाट के बीच नासिका के छोर तक रोली की पतली रेखा खींचेगी और दही में भिगोए अक्षत माथे पर टिकाएगी, तो ललिता के पाँवों में झुकने-झुकने तक तो खुद वही बिलख कर रो पड़ेगी.
पीठ-पीछे की बहन है. जब भी आई है, विदा करती बेला नंदी की आँखों में आँसुओं की बूँद-बूँद में अतीत का एक-एक क्षण उभर आया है. चार साल छोटी है. गोद में भी सँभाल रखी है. बार-बार गिर पड़ती थी, फिर रोती थी और नंदी उसे सँभाल नहीं पाती. उसे विदा करते-करते खुद रोती रहती है.
पहले ललिता की उपस्थिति में ऐसी तीखी अनुभूति नहीं होती थी. हँसी-ठिठोली तब भी करती थी ललिता, मगर तब आँखों की तरलता इतनी गाढ़ी नहीं होती थी. अब किसनिया के हँसने-बोलने में भी आसक्ति छलकती लगती है. नंदी को यह आसक्ति सामने आँगन में लुढ़के पीतल के कलश से छलकते पानी की तरह बजती हुई एकदम अलग सुनाई दे जाती है. Paap Mukti Story Shailesh Matiyani
पिछले सात-आठ दिनों से नंदी अनुभव कर रही है, किसनिया की चेष्टाएँ ललिता से बोलते समय ठीक वैसी ही हो आती हैं, जैसी शादी के साल नंदी से बोलते-बोलते हो आती थीं. पिछले सात-आठ दिनों से ही, किसनिया-ललिता के खेतों में जाने के बाद से, खुद नंदी तरह-तरह की कल्पनाएँ करती और फिर खुद ही अपनी शंकाओं को दो सर्पों की तरह समांतर खड़ी करती चली आ रही है. और परतिमा सासू कहती हैं…
“प्रेमचंद और रेणु से बड़ी प्रतिभा थे शैलेश मटियानी” – राजेन्द्र यादव
धीरे-धीरे साँझ हो आई है. किसनिया-ललिता अभी तक नहीं लौटे हैं. छोटी कुरी फिर सो गई है. निरंतर लंबी होती प्रतीक्षा से ऊबकर, नंदी भैंस हथियाने बैठ गई. दूध दुहने-दुहने तक किसनिया भी घर पहुँच गया, मगर अकेला ही.
‘क्यों हो, ललिता कहाँ रह गई?’ पूछते हुए नंदी ने अनुभव किया, ललिता के बारे में बताने का अधिकार किसनिया को उसी ने तो दे रखा है. खुद खेतों में काम करने जाती होती, तो यों पूछने की नौबत ही नहीं आती. इस पूछने के साथ यों तो यह भी पूछने को मन हो आता है कि आखिर आज दिन-भर दोनों साली-जीजा आपस में क्या-क्या बातें करते रहे? घास काटने को झुकते हुए ललिता की कुर्ती गले के आस-पास अपने-आप ज्यादा उघड़ जाती है और नंदी महसूस करती है कि बात करते-करते आजकल किसकी दीठ नीचे को शायद जरूरत से ज्यादा ही झुकी रहती है. यही सब सोचते-सोचते, नंदी का मन चील की तरह उड़ने लगता है. उड़ते-उड़ते ऐसा लगता है, जैसे उन दोनों को बार-बार साँपों की तरह खेलते देख रही है.
किसनिया ने बताया कि आज वह दो घड़ी पहली ही कस्बे की ओर चला गया था. वह तो यही सोच रहा था कि ललिता घास का गट्ठर लेकर घर भी पहुँच चुकी होगी. संशय की मनःस्थिति से उबरने पर, अब नंदी को चिंता हो आई. अँधेरा होने को आया है. अंदर से लालटेन जलाकर ले आने के बाद बोली – ‘आज तो बहुत अँधेरी रात है. जरा तुम जाओ तो सही. कहीं नदी पार करते समय ललिता छोरी डरेगी, तो छल-बिद्दर न लग जाय.’
धान के खेत नदी-पार पड़ते हैं. लौटते समय ललिता को अकेले ही नदी पार करनी पड़ेगी. नदी तो आजकल बाढ़ पर नहीं, मगर जहाँ से नदी पार करनी होती है, वहाँ बहुत गहरा काला ताल बँधा हुआ है. उस मसानताल में तरह-तरह के भूत-प्रेत होने की बातें गाँव भर में कही जाती हैं. रात-अधरात नदी पार करने वालों के साथ मसान भी लग आता है और देवता जगाने, रखवाली करने के बाद ही पिंड छोड़ता है.
नंदी का घरवाला किसनिया खुद रखवाली करने में सिद्ध है! पास-पड़ोस के गाँवों में भी उसे बुलाया जाता है. बहुत जीवट वाला है. आधी-आधी रात अकेला आता-जाता लौटता है.
इस समय नंदी कुछ खींझ गई कि किसनिया सामने होता तो वह कह बैठती कि तुम खुद रात-अधरात के भूत जैसे अकेले आते-जाते हो, वैसा ही निडर औरों को भी समझते हो. उस नादान छोरी को इस साँझ की वेला अकेली छोड़ कर दुकानदारी करने निकल जाते शर्म नहीं आई तुम्हें?’
किसनिया को गए भी काफी देर हो गई, तो एक बार नंदी पड़ोस में पूछने को जाने को हो आई कि कहीं गाँव की दूसरी औरतों के साथ तो नहीं लौट रही. तभी किसनिया और ललिता, दोनों आते दिखाई दे गए. नंदी ने देखा, घास का गट्ठर किसनिया ने अपने सिर पर रखा है और एक हाथ से ललिता का हाथ और लालटेन, दोनों पकड़े चला आ रहा है. नंदी आशंकित हो आई, कहीं ललिता फिसल तो नहीं पड़ी अँधेरे में!
गट्ठर उतारकर, बाहर के कमरे के एक कोने में ललिता को बिठाकर, किसनिया अंदर रसोई में चला गया. नंदी कुछ पूछे, तक तक किसनिया एक मुट्ठी गरम राख की ले आया और दूर से ही ललिता के मुँह पर फटकारता चिल्ला उठा – निकल्ल-निकल्ल-निकल्ल…’
लालटेन ठीक से पकड़कर, नंदी आगे बढ़ आई. ललिता को अजीब भयावने स्वर में कुछ बिलबिलाते उसने सुना. राख से पुता उसका चेहरा देख नंदी को भी रोमांच हो आया. पास ही सोई कुरी जागकर रो पड़ी. उसे उठाकर, नंदी अंदर चूल्हे के पास चली गई. एक जलती लकड़ी कुरी के सिर पर से घुमाकर, पानी में डुबोने के बाद, नंदी ने फिर बाहर की तरफ कान लगा दिए. कुरी को ‘औचक’ के भय से खुद रसोई में ही बैठी रही.
थोड़ी ही देर में, किसनिया अंदर आया. बोला – ‘ललिता को तो मसान लग गया. नदी पार करते में फिसल गई होगी, ‘अचक’ लग गया. ‘रखवाली’ करनी पड़ेगी. मसान बड़ी मुश्किल से छूटता. तू उरद, चावल, नमक और पाँच पुराने ताँबे के पैसे निकाल दे. एक अँगीठी में कोयले सुलगा दे… आज तू वहीं चूल्हे के कमरे में सोई रहेगी, तो कैसा रहेगा? बाहर के कमरे में कुरी छोरी को नींद नहीं आएगी.’
छोटा-सा घर है. नीचे दो गोठ हैं. एक में भैंस रहती है, दूसरे में बैल. ऊपर एक कमरा रसोई का है, एक बाहर का. और दिनों नंदी, कुरी और किसनिया बाहर के बड़े कमरे में सोते थे, ललिता अंदर रसोई वाले कमरे में सोती थी.
नंदी को किसनिया की बात ठीक ही लगी. बोली – ‘हाँ, हाँ, मैं अंदर ही सो जाऊँगी. तुम बाहर के ही कमरे में सोओगे क्या? ऐसे में उसको अकेले छोड़ना भी तो ठीक नहीं होगा?’
‘अं…अं…ठीक कह रही है तू.’ किसनिया की आवाज थोड़ा-सा लटपटा गई – ‘मेरे लिए तू इधर वाले दूसरे कोने में बिछा देना. रखवाली करने के बाद, मैं वहीं सो जाऊँगा. रात में डरेगी तो उठकर भभूत लगा दूँगा.’ Paap Mukti Story Shailesh Matiyani
लगभग आधी रात बीतने तक किसनिया की ‘रखवाली’ की, मसान हाँकने की ऊँची आवाज सुनाई देती रही. पड़ोस के आए हुए लोग भी लौट चुके, तब कहीं ‘रखवाली’ की विधि पूरी हो पाई. हथेलियों में भभूत रगड़कर, ललिता के कपाल और कपोलों में मलते किसनिया को नंदी देखती रही. राख मलते में काँपता ललिता का चेहरा देख-देखकर वह सहम उठती थी. अँगीठी में बाँज की लकड़ी के अंगार दहक रहे थे और उनकी आँच ललिता की आँखों तक में दिखाई दे रही थी. फैलकर बड़ी-बड़ी और भयानक हो आई थीं उसकी आँखें. जैसे लाल-लाल धतूरे फूल आए हों उसकी आँखों में. बुरूँश के फूल उग आए हों जैसे. लाल लाल अंगार-जैसे फूल!
‘रखवाली’ निबटने तक, नंदी की आँखें नींद से बोझिल हो आई थीं. ललिता के प्रति उसे बार-बार मोह उमड़ आ रहा था कि उसके यहाँ आकर सिर्फ दुख ही भोगा! एक ओर इतना काम करती रही छोरी और ऊपर से मसान लग गया. परतिमा सासू बताया करती हैं कि मसान लगी कुँआरी लड़कियों को शादी के बाद संतान नहीं होती है. होती भी है, तो बचती नहीं. मगर उसने महसूस किया कि इस सबके बावजूद यह जिज्ञासा भी उसे लगातार जगाए रही कि किसनिया ‘रखवाली’ कर चुकने के बाद कमरे के दूसरे कोने में जाकर सोता है, या नहीं.
रसोई के कमरे और बाहर के कमरे के बीच जो किवाड़ है, उनकी दरास से बाहर के कमरे के कोने दिखाई नहीं पड़ते. किवाड़ खुद नंदी ने ही बंद किए थे, किसनिया सिर्फ बाहर से साँकल चढ़ा गया. पतली-सी दरार से नंदी सिर्फ दरवाजे की सीध में पड़ने वाली देली तक देख पा रही थी और, अंदर अँधेरा होने से, दहकती अँगीठी साफ दिखाई दे रही थी. रखवाली के उरद-चावल बाहर फेंकने को देली से बाहर जाता और फिर लौटता हुआ किसनिया तो उसे दिखाई दे गया, मगर ललिता वाले कोने से इस ओर के कोने को जाता हुआ नहीं. Paap Mukti Story Shailesh Matiyani
नंदी एकाएक बिस्तरे पर से उठ आई. तिरछे बैठकर, उसने आँख को दरवाजे की दरार से लगा दिया, तो उसे लगा, जैसे वह जमीन से बहुत ऊँचे उठ गई है. लालटेन को धीमी करते-करते बुझाने के बाद ललिता के बिछौने बाहर खींची हुई कोयले की रेखा के भीतर जाता हुआ किसनिया उसे साफ-साफ दिखाई दे गया. फिर रात-भर क्रुद्ध नंदी अंदर किसी आहत चीत की तरह फड़फड़ाती रही. ललिता के ही बिस्तर पर सोया हुआ किसनिया उसे एक भयानक अजगर की सी प्रतीति कराने लगा और वह घृणा में अँगीठी की तरह सुलगती रही. सो नहीं पाई ठीक से.
बाहर के कमरे में सुलगे हुए अंगार, ललिता की आँखों में फूले लाल-लाल सपने, धीरे-धीरे बुझते चले गए, मगर नंदी की आँखें रात-भर सुलगती रह गईं. उसका मन दरवाजा तोड़कर बाहर जाने और दोनों को धिक्कारने को हो आया. उसने चुपचाप सोई हुई कुरी को जोस से चिकोटी काट कर रुला दिया और फिर उसे लताड़ती रही. जोर-जोर से डाँटती रही – ‘अभी, तुझ नीयतखोर की नीयत पर थू पड़ जाए. ‘छि रातभर’ झिझोड़ती रहती है. ढाँट हो गई है, फिर भी शरम नहीं आती. ऐसी ही कमनियत है, तो कहीं और क्यों नहीं जा मरती…!’
…और उस परतिमा सासू की बात याद आती रही – गर्भिणी को जुड़े हुए साँप नहीं देखना चाहिए.
कुरी को प्रताड़ित करते हुए, नंदी को यही लगता रहा कि वह ललिता को प्रताड़ित कर रही है. उसे आशा थी, उसके इस प्रयत्न से किसनिया ललिता के पास से हट आएगा मगर किसनिया और भी साँस दबाकर सो गया. नंदी को ज्यादा कुढ़न इस बात से हो रही थी कि ललिता के प्रतिवाद का स्वर कहीं नहीं सुनाई देता था. उसे ठीक याद नहीं कि कब तक वह अपनी आँखों को घायल सर्पिणी की जीभ की तरह दरवाजे की दरार से सटाए रही और आखिर कब वहीं पर सो गई. उजाला होने से पहले-पहले किसनिया के पाँवों की आहट सुनी तो लगा, नाग अलग हो आया है. Paap Mukti Story Shailesh Matiyani
मारे क्रोध के वह फट पड़ने को हो रही थी कि अचानक ही ध्यान आया कि अगर अब उसने उन दोनों को प्रताड़ित किया, तो सिर्फ इतना ही होगा कि पहले दोनों सिटपिटाएँगे और फिर ललिता रो पड़ेगी. ललिता के रोते ही गुस्सैल किसनिया एकदम निर्लज्ज होकर बौखला जाएगा और संभव है, साफ-साफ कह दे कि ‘ललिता तो अब मेरी ही होकर रहेगी, तुझसे नहीं सहा जाता, तो जहाँ मर्जी आए, चली जा.’
और तब वह अपने दर्प की रक्षा कैसे कर पाएगी?
थोड़ी ही देर में किसनिया की आवाज सुनाई दी – ‘नंदी चाय चढ़ा दी तूने? अरे, यहाँ सिगड़ी एकदम बुझ चुकी. थोड़े से अंगार और गरम राख एक कलछी में लेती आ तो…
रात के बरतन जूठे ही पड़े थे. नंदी ने चिमटे से ही दो बड़े-बड़े कोयले पकड़े. किसनिया की आवाज की कृत्रिमता और छलने की कोशिश से फिर मन घृणा से बिफर आया और वह थोड़ी देर चिमटे को हाथ में पकड़े ही रह गई, मगर बाहर आने पर ललिता की एकदम झुकी-झुकी और शर्म से बोझिल आँखों को देखते-देखते मन शांत हो गया. Paap Mukti Story Shailesh Matiyani
किसनिया ने चिमटे से कोयले लेकर अपनी हथेली पर उछालते हुए, फिर ‘रखवाली’ करने की मुद्रा बना ली तो नंदी को हँसी आ गई. और जब किसनिया ने ‘होर्त्त-होर्त्त’ चीखते हुए, ललिता के कपाल में भभूत लगाने के लिए हाथ से कोयले सिगड़ी में डालने की कोशिश की, तो कोयले जमीन पर ही गिर गए. राख भी बिखर गई. जमीन पर से ही राख की चुटकी भर कर किसनिया ने ललिता के कपाल में टीका लगाकर, फिर जोर ले ‘होर्त्त’ कहा तो नंदी से रहा नहीं गया और जोर-जोर से हँस पड़ी.
किसनिया चौंक कर, देखता रह गया. ललिता के सिर पर हाथ फिराती व्यंग्यपूर्वक बोली – ‘हँ हो, बेकार में भभूत क्यों चुपोड़ते हो बेचारी ललिता के कपाल में अब? कितना गोरा कपाल है इसका? आँखें कितनी सुंदर हैं इसकी. और सुनो, तुम अब अपनी यह दिखावटी रखवाली छोड़ दो. इसका मसान तो राख का नहीं बल्कि सिंदूर का टीका कपाल में लगाने से उतरेगा…!
…और वाक्य को समाप्त करते-करते नंदी को लगा, खुद उसके अंदर दहकती घृणा के अंगार भी ओठों से नीचे गिरकर जमीन पर ठीक वैसे ही बिखर गए हैं, जैसे किसनिया की हथेली पर के कोयले गिर गए थे.
…और उसे लगा, इतना सब कुछ कह लेने के बाद, अब वह आपस में लिपटे सर्पों को देखने पर गर्भिणी को लगने वाले पाप से भी मुक्त हो गई है.
हिन्दी के मूर्धन्य कथाकार-उपन्यासकार शैलेश मटियानी (Shailesh Matiyani) अल्मोड़ा जिले के बाड़ेछीना में 14 अक्टूबर 1931 को जन्मे थे. सतत संघर्ष से भरा उनका प्रेरक जीवन भैंसियाछाना, अल्मोड़ा, इलाहाबाद और बंबई जैसे पड़ावों से गुजरता हुआ अंततः हल्द्वानी में थमा जहाँ 24 अप्रैल 2001 को उनका देहांत हुआ. शैलेश मटियानी का रचनाकर्म बहुत बड़ा है. उन्होंने तीस से अधिक उपन्यास लिखे और लगभग दो दर्ज़न कहानी संग्रह प्रकशित किये. आंचलिक रंगों में पगी विषयवस्तु की विविधता उनकी रचनाओं में अटी पड़ी है. वे सही मायनों में पहाड़ के प्रतिनिधि रचनाकार हैं.
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ग्रामीण परिवेश की एक अच्छी कहानी पढ़ने मिली