एथलेटिक्स में भारत को पहली बार विश्वस्तरीय ऊंचाइयों पर पहुंचाने का श्रेय पी टी ऊषा को जाता है. ओलिम्पिक्स और विश्व एथलेटिक्स मीट जैसे आयोजनों में श्रेष्ठ प्रदर्शन कर देश के युवाओं को खेलों के इस अपेक्षाकृत कम लोकप्रिय फील्ड की तरफ जाने की प्रेरणा मिली थी. आज विश्व एथलेटिक्स में भारत जहाँ भी है उसकी नींव इस महान खिलाड़ी ने ही डाली थी.
पी टी ऊषा को कविता का विषय बनाने का वीरेन डंगवाल जैसे साहसी कवि में ही हो सकता था. समाज के विद्रूप को उघाड़ते हुए उन्होंने इस खिलाड़ी के बहाने एक वाकई बेहतरीन कविता लिखी थी. आज पी टी ऊषा का जन्मदिन है. वे 1964 में आज ही दिन केरल के पय्योली नामक गाँव में जन्मी थीं. उन्हें बधाई देते हुए हम वीरेन डंगवाल की यह कविता आपके सामने पेश कर रहे हैं.
पी टी ऊषा
वीरेन डंगवाल
काली तरुण हिरनी अपनी लम्बी चपल टांगों पर
उड़ती है
मेरे ग़रीब देश की बेटी
आंखों की चमक में जीवित है अभी
भूख को पहचानने वाली
विनम्रता
इसीलिए चेहरे पर नहीं है
सुनील गावस्कर की-सी छटा
मत बैठना पी टी ऊषा
इनाम में मिली उस मारुति कार पर
मन में भी इतराते हुए
बल्कि हवाई जहाज में जाओ
तो पैर भी रख लेना गद्दी पर
खाते हुए
मुँह से चपचप की आवाज़ होती है ?
कोई ग़म नहीं
वे जो मानते हैं बेआवाज़ जबड़े को सभ्यता
दुनिया के
सबसे खतरनाक खाऊ लोग हैं.
धरती मिट्टी का ढेर नहीं है अबे गधे
किसने आख़िर ऐसा समाज रच डाला है
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कहने को तो वीरेन डंगवाल हिंदी के एम.ए.पीएच.डी और लोकप्रिय, बढ़िया प्राध्यापक थे, एक बड़े दैनिक के सम्पादक भी रहे, लेकिन इस सब से जो एक चश्मुट छद्म-गंभीर छवि उभरती है उससे वह अपने जीवन और कृतित्व में कोसों दूर थे. उनकी कविता की एक अद्भुत विशेषता यह है कि मंचीय मूर्ख हास्य-कवियों से नितांत अलग वह बिना सस्ती या फूहड़ हुए इतने ‘आधुनिक’ खिलंदड़ेपन, हास-परिहास,भाषायी क्रीड़ा और कौतुक से भरी हुई हैं कि प्रबुद्धतम श्रोताओं को दुहरा कर देती थी. इसमें भी वह हिंदी के लगभग एकमात्र कवि दिखाई देते हैं और लोकप्रियता तथा सार्थकता के बीच की दीवार तोड़ देते हैं.
– विष्णु खरे
वीरेन डंगवाल (1947-2015)
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