कराची और लाहौर में इलेक्ट्रोनिक्स के सामान की दुकान चलाने वाले फतेहचंद रामसिंघानिया को बंटवारे के चलते अपना कारोबार बंद कर 1947 में बम्बई आना पड़ा. फतेहचंद के सात बेटे थे – कुमार, केशू, तुलसी, करन, श्याम, गंगू और अर्जुन. बम्बई आकर उन्होंने लैमिंगटन रोड पर फिर से इलेक्ट्रोनिक्स के सामान का धंधा शुरू किया. व्यापार बहुत सफल था और हर सफल बम्बइया कारोबारी की तरह फतेहचंद ने भी फिल्म-निर्माण के क्षेत्र में हाथ आजमाया. 1954 में प्रेम अदीब, स्मृति बिस्वास और जॉनी वॉकर को लेकर बनी उनकी उनकी पहली फिल्म ‘शहीदे-आज़म भगत सिंह’ बुरी तरह फ्लॉप हुई लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और फ़िल्में बनाना जारी रखा और सन सत्तर तक फ्लॉप फिल्मों को बनाने का सिलसिला जारी रखा जिनमें थोड़ा सा नाम कमा चुकी ‘रुस्तम सोहराब’ (1963) और ‘एक नन्ही मुन्नी लड़की थी’ (1970) शामिल थीं.
‘एक नन्ही मुन्नी लड़की थी’ (1970) के बनाने तक फतेहचंद और उनके बेटे दीवालिया होने की कगार पर आ चुके थे. ‘एक नन्ही मुन्नी लड़की थी’ के एक सीन में पृथ्वीराज कपूर राक्षस का मुखौटा पहन कर मुमताज को डराने के अलावा बैंक लूटने का कारनामा भी करते हैं. यहीं से उन्हें एक आइडिया आया और भारतीय फिल्मों का हॉरर युग शुरू हुआ.
रामसिंघानिया को छोटा कर रैमसे कर दिया गया था और कुल साढ़े तीन लाख की लागत से बनी उनके प्रोडक्शन की फिल्म ‘दो गज जमीन के नीचे’ (1971) पहले शो से हाउसफुल रही. उस ज़माने में एक फिल्म के निर्माण में औसतन पचास लाख रूपये खर्च होते थे. छोटे-मोटे कलाकारों और फिल्म क्रू और सभी सदस्यों की पत्नियों की टीम को बसों में लाद कर रैमसे भाई महाबलेश्वर के एक सरकारी गेस्टहाउस पहुंचे. कुल 12 रूपये रोज़ के किराए पर आठ कमरे लिए गये और चालीस दिन में पूरी फिल्म शूट की गई. सेट्स पर कोई खर्चा नहीं किया गया क्योंकि पूरी फिल्म लोकेशन पर शूट की गयी थी. कॉस्टयूम खुद कलाकारों और क्रू और उनकी बीवियों के सूटकेसों से निकाल कर छांटे गए. कैमरे दोस्तों से उधार लिए गए थे. निर्देशन से लेकर कैमरा और साउंड से लेकर एडिटिंग तक फिल्म निर्माण के सारे विभाग रैमसे भाइयों ने सम्हाले.
फिल्म ने पहले हफ्ते में 45 लाख कमा डाले. इसके बाद उन्होंने सत्तर और अस्सी के दशकों में कुल तीन दर्ज़न हॉरर फ़िल्में बनाईं.
मुझे अपने बचपन की याद है. 1978 में जब मैं रामनगर में बचपन गुज़ार रहा था हम पिद्दी दोस्तों के बीच अफवाहें चला करती थीं थी कि मुरादाबाद में एक बहुत भयंकर फिल्म लगी है जिसे पूरे हॉल में अकेले देखने वाले को दस हज़ार रुपये का इनाम दिए जाने का चैलेन्ज है और यह भी कि उसे देखकर कई दर्ज़न लोग बेहोश हो चुके हैं. असल में इन फिल्मों की पब्लिसिटी के लिए रेडियो पर आधे-आधे घंटे के विज्ञापन शोज़ हुआ करते थे जिसके चलते ऐसी भयभीत कर देने वाली ख़बरों का बाज़ार गर्म हो जाया करता. ऊपर बताया गया वाकया उसी साल रिलीज हुई ‘दरवाजा’ के बारे में था. उसके बाद उन्होंने ‘गेस्टहाउस,’ ‘पुराना मंदिर,’ ‘पुरानी हवेली’ और ‘बंद दरवाजा’ जैसे सुपरहिट शाहकार पेश किये.’
मुंह पर ऊलजलूल प्लास्टर ऑफ़ पेरिस पोते हुए राजा मुराद टाइप के भूतों, अतिनाटकीय अंधेरी हवेलियों, अमूमन कम कपड़े पहनने वाली नायिकाओं का खून पीने का शौक रखने वाले शैतानों और हवा में तैरने वाली कंजी आँखों वाली चुड़ैलों को देखकर दर्शको की घिग्घी बंध जाया करती थी और रैमसे ब्रदर्स की तिजोरियों में नोट भरते जाते. अस्सी का दशक आते आते उन्होंने अपनी फिल्मों में खूब सारा सड़ियल सेक्स भी परोसा. इस स्ट्रेटेजी से हॉल में डरे बैठे दर्शकों को चटखारे मारने का सुखपूर्ण अंतराल भी मुहैया हुआ जिससे रैमसे भाइयों की आमदनी और बढ़ी.
हिन्दी सिनेमा में रैमसे ब्रदर्स को एक कल्ट के तौर पर स्थापित करने वाले इन्हीं में से एक प्रोड्यूसर भाई तुलसी रैमसे का आज बंबई में देहांत हो गया. उनकी फिल्मों ने भारतीय जनमानस के अतीव घटिया सौन्दर्य और कला बोध को किस कदर प्रभावित किया इसकी मिसाल देखनी हो तो पिछले बारह-पंद्रह सालों में हिन्दी के न्यूज चैनलों के सबसे हिट प्रोग्राम्स पर नज़र डाली जानी चाहिए.
तुलसी रैमसे को इतनी श्रद्धांजलि तो बनती है!
-अशोक पाण्डे
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