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‘नशा नहीं रोजगार दो’ के 35 बरस

आज ‘नशा नहीं रोजगार दो’ आन्दोलन को पूरे 35 साल हो चुके हैं. इस आंदोलन पर नैनीताल समाचार ने 1 सितम्बर, 1984 को “पहाड़ आंदोलित है” शीर्षक से एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की थी. शराब आज उत्तराखंड सरकार के राजस्व का न केवल सबसे बड़ा स्रोत है बल्कि यह उत्तराखंड में त्रासदी का भी सबसे बड़ा कारण है. 1984 में छपी यह रिपोर्ट आज भी उतनी ही प्रासंगिक है.- सम्पादक

उत्तराखण्ड का इतिहास बताता है कि 1815 तक इस क्षेत्र में शराब का आम जनता के बीच प्रचार-प्रसार लगभग नहीं के बराबर था. इस क्षेत्र में शौक, जोहारी, जाड़, मार्छा, जौनसारी, थारु, बुक्सा जनजातियों में ही शराब परम्परागत रुप से जुड़ी होने के बावजूद अंग्रेज काल से पूर्व यहां शराब का चलन बहुत कम था. ब्रिटिश काल में 1880 के बाद सरकारी शराब की दुकानें खुलने के साथ ही यहां पर शराब का प्रचलन शुरु हुआ.

पहाड़ों में छावनियों, हिल स्टेशनों की स्थापना के बाद इस प्रक्रिया को गति मिली, फिर भी उत्तराखण्ड के तीन-चार शहरों-कस्बों को छोड़कर शराब का प्रचलन नहीं बढ़ा. 1822-23 में कुमाऊं (तत्कालीन सम्पूर्ण उत्तराखण्ड) से शराब, दवाओं और अफीम का सम्मिलित राजस्व 534 रुपया था, 1837 में 1300 रुपया, 1872 में 18,673 रुपया और 1882 में 29,013 रुपया तक गया. 1882 में जब यह कहा जाने कि यहां पर शराब का प्रचलन बढ़ने लगा है तो तत्कालीन कमिश्नर रामजे ने लिखा था कि “ग्रामीण क्षेत्रों में शराब का प्रयोग बिल्कुल नहीं होता है और मुझे आशा है कि यह कभी नहीं होगा, मुख्य स्टेशनों के अलावा शराब की दुकानें अन्यत्र खुलने नहीं दी जायेंगी”. इससे पहले 1863-73 की अपनी रिपोर्ट में बैकेट ने लिखा था कि कुमाऊं में शराब पीने का प्रचलन नहीं है.

ब्रिटिश काल में शराब का प्रचलन बढ़ने के साथ ही शराब को एक आवश्यक बुराई मान कर इस क्षेत्र में शराब के खिलाफ बराबर प्रतिरोध भी होता रहा. जिला समाचार, अल्मोड़ा नें 1 जून, 1925 के अपने सम्पादकीय में लिखा कि “हमें बड़े शोक के साथ लिखना पड़ता है कि कुमाऊं प्रान्त में दिन पर दिन शराब का प्रचार बढ़ता जाता है, ९० प्रतिशत लोग इसके दास बन गये हैं, सरकार अपनी आमदनी नहीं छोड़ सकती है और दुकानदार अपनी रोजी नहीं छोड़ सकते, तो क्या लोग अपनी आदत नहीं छोड़ सकते? छोड़ सकते हैं, छुड़वाये जा सकते हैं.

अल्मोड़ा अखबार 2 जनवरी, 1893 ने लिखा “जो लोग शराब के लती हैं, वे तुरन्त ही अपना स्वास्थ्य व सम्पत्ति खोने लगते हैं, यहां तक कि वे चोरी, हत्या तथा अन्य अपराध भी करते हैं, सरकार को लानत है कि वह सिर्फ आबकारी रेवेन्यू की प्राप्ति के लिये इस तरह की स्थिति को शह दे रही है. यह सिफारिश की जाती है कि सभी नशीले पेय और दवाओं पर पूरी तरह रोक लगे”.

स्वतंत्रता संग्राम में देश के अन्य भागों की तरह यहां पर भी शराब के खिलाफ आन्दोलन चलते रहे, 1965-67 में सर्वोदय कार्यकर्ताओं द्वारा टिहरी, पौड़ी, अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ तक शराब के विरोध में आन्दोलन चलाया, परिणाम स्वरुप कई शराब की भट्टियां बंद कर दी गईं.

1 अप्रैल, 1969 को सरकार ने सीमान्त जनपद उत्तरकाशी, चमोली, पिथौरागढ में शराबबंदी लागू कर दी. 1970 में टिहरी और पौड़ी गढ़वाल में भी शराबबंदी कर दी गई, पर 14 अप्रैल, 1971 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस शराबबंदी को अवैध घोषित कर दिया और उत्तर प्रदेश सरकार मे उच्च्तम न्यायालय में इसके विरुद्ध कुछ करने के बजाय या आबकारी कानून में यथोचित परिवर्तन करने के फौरन शराब के नये लाइसेंस जारी कर दिये. जनता ने इसका तुरन्त विरोध किया. सरला बहन जैसे लोग आगे आये. 20 नवम्बर, 1971 को टिहरी में विराट प्रदर्शन हुआ, गिरफ्तारियां हुई. अन्ततः सरकार ने झुक कर अप्रैल, 1972 से पहाड के पांच जिलों में फिर से शराबबंदी कर दी.

मुख्य रुप से इस क्षेत्र में तीन तरह के एल्कोहालिक नशे प्रचलित हैं- देशी-अंग्रेजी शराब मिलिट्री रम, छंग, चकती आदि, कच्ची शराब व सुरा, बायो टानिक, टिंचर, पुदीन हरा, एवोफास आदि, एल्कोहालिक आयुर्वेदिक और एलोपैथिक दवाइयां. फरवरी, 1984 में किये गये एक सर्वेक्षण के अनुसार अकेले अल्मोड़ा जनपद (पुरुष जनसंख्या लगभग चार लाख) में प्रति माह मिलिट्री रम 30 हजार बोतलों की खपत है. साथ ही अंग्रेजी व देशी शराब की दुकानों से प्रतिमाह 50 लाख रुपये की अंग्रेजी और देशी शराब बेची जाती है.

कच्ची शराब कुटीर उद्योग के रुप में फैल चुकी है, पिथौरागढ़, उत्तरकाशी, चमोली आदि जनपदों में भोटान्तिक जनजातियों के अधिकांश लोगों ने तिब्बत से व्यापार बन्द होने के बाद कच्ची शराब के धन्धे को अपना मुख्य व्यवसाय बना लिया है. इस धन्धे को बखूबी चलने देने के लिये वे पुलिस व आबकारी वालों की इच्छानुसार पैसा खिलाते हैं. कच्ची के धन्धे को नेपाल से भारत में आकर जंगलों, बगीचों आदि में काम करने वाले नेपाली मजदूर भी खूब चलाते हैं.

लेकिन इन दोनों किस्मों की शराब से कहीं अधिक घातक और विनाशकारी है, दवाइयों के नाम पर बिक रही शराब, उदाहरणॊं के लिये डाबर कम्पनी का पुदीन हरा, जो मैदानी भागों में गर्मी के मौसम हेतु जरुरी औषधि है. सुरा, जो गर्भवती महिलाओं की दवा है और अशोका लिक्विड, जो महिलाओं के मासिक स्राव को नियंत्रित करने की एलोपैथिक दवा है, यहां पर शराब की तरह बेची जा रही है. आश्चर्य का विषय है कि इसमें 40 से 90 प्रतिशत तक एल्कोहल मौजूद रहता है. सरकार को राजस्व के रुप में इस व्यापार से एक धेला भी नहीं मिलता पर अधिक मुनाफे के लालच में हर छोटा-बड़ा दुकानदार इसमें लिप्त होता जा रहा है. जहां एक ओर इस जहरीले व्यापार से जुड़ी आतंक व हिंसा की संस्कृति पहाड़ों में फैल रही है, वहीं दूसरी ओर इसके पीने वाले आर्थिक, सामाजिक रुप से खोखले होने के साथ-साथ सिरोसिस, नपुंसकता, अंधापन, गुर्दे व फेफड़े की बीमारियों से ग्रस्त होते जा रहे हैं.

1978 में जनता पार्टी का शासन होने पर उ०प्र० ने आठों पर्वतीय जनपदों में पूर्ण मद्यनिषेध लागू कर दिया था, पर सरकारी तंत्र में शराब बंदी के प्रति कोई आस्था न होने के परिणामस्वरुप शराब बंदी के स्थान पर पहाड़ के गांवों में सुरा, लिक्विड आदि मादक द्रव्य फैल गये और पहाड़ की बर्बादी का एक नया व्यापार शुरु हो गया. 1980 में इंका सरकार द्वारा नैनीताल, अल्मोड़ा, देहरादून में शराब पूरी तरह खोल दी गयी, टिहरी, पिथौरागढ़ और पौड़ी में परमिट के आधार पर अंग्रेजी शराब उपलब्ध कराये जाने के बावजूद गांव-गांव तक फैला सुरा का व्यापार बंद नहीं हुआ.

नवां दशक शुरु होने तक हालात बहुत खराब हो चुके थे, सुरा जैसे व्यापक जहरीले द्रव्यों का पहाड़ों में व्यापक प्रसार हो गया और साथ ही सैकड़ों परिवार तबाह हो गये. एक ही परिवार की तीन-तीन पीढियां एक साथ सुरा-शराब की लती हो गई. परिवारों की आमदनी का बड़ा हिस्सा इन नशों के लिये अधिक खर्च होने लगा. पेंशन, मनीआर्डर, सरकारी अनुदान, यहां तक कि औरतों के गहने, जेवर, व घर के भांडे-बर्तन बेचकर भी सुरा-शराब पीने की घटनायें सामने आने लगीं. आसन्न मृत्यु की छाया पहाड़ के स्वस्थ समझे जाने वाले युवकों के चेहरों पर प्रत्यक्ष दिखाई देने लगी, ऎसी अनेकों मौतें भी हुई.

शादी-विवाह, अन्य पर्व-त्योहारों में शराब पीकर धुत्त होना, एक सामान्य सी घटना बन गया और इसके साथ मारपीट और औरतों के साथ बदतमीजी करना भी शुरु होता चला गया. पहाड़ सी सामाजिक जिंदगी से औरतों का आतंकित होकर कटना शुरु हो गया. ड्राइवरों का नशे में धुत्त होकर कई मोटर दुर्घटनाओं से होने से भी आक्रोश जगा.

ऎसी स्थितियों में छुटपुट विरोध का होना भी स्वाभाविक था, उत्तरकाशी की महिलाओं ने उच्च न्यायालय में जहरीले पदार्थों के ऊपर याचिका दर्ज की. अगस्त 81 में कौसानी में छात्रों ने जीप में से शराब पकड़ी, मार्च 82 में उफरैंखाल में नवयुवकों ने कच्ची शराब के अड्डे नष्ट किये. इसी तरह अन्य घटनायें भी शुरु हुंई. लेकिन सुरा-शराब को मुद्दा बनाकर कोई राजनैतिक दल आंदोलन शुरु नहीं कर सका, क्योंकि सुरा-शराब का धन राजनीति व चुनावों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है.

अन्ततः 23-24 अप्रैल को अल्मोड़ा में आयोजित चन्द्र सिंह गढ़वाली स्मृति स्मारोह में उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी ने जंगलों और खनन के साथ सुरा-शराब की समस्याओं का सवाल उठाने का भी फैसला किया. इस मुद्दे को लेकर जनांदोलन शीघ्र नहीं हो सका. हालांकि जनता इस बुराई को आजमा चुकी थी. सितम्बर, 1983 में अल्मोड़ा की शराब लाबी द्वारा एक युवक की हत्या किये जाने से कस्बाती जनता में हलचल उत्पन्न हुई और आंदोलन की बात कुछ आगे बढी़. जनवरी 1984 में “जागर” की सांस्कृतिक टोली ने भवाली से लेकर श्रीनगर तक पदयात्रा की और सुरा-शराब का षडयंत्र जनता को समझाया. 1 फरवरी, 1984 को चौखुटिया में जनता ने आबकारी निरीक्षक को अपनी जीप में शराब ले जाते पकड़ा और इसके खिलाफ जनता का सुरा-शराब के पीछे इतने दिनों का गुस्सा एक साथ फूट पड़ा. एक आंदोलन की शुरुआत हुई, 2 फरवरी, 84 को ग्राम सभा बसभीड़ा में उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी ने एक जनसभा में इस आंदोलन की प्रत्यक्ष घोषणा कर दी. फरवरी के अंत में चौखुटिया में हुये प्रदर्शनों में 5 से 20 हजार जनता ने हिस्सेदारी की.

इसके बाद आंदोलन असाधारण तेजी से फैला और मासी, भिकियासैंण, स्याल्गे, चौखुटिया, द्वाराहाट, गगास, सोमेश्वर, ताड़ीखेत, कफड़ा, गरुड़, बैजनाथ होते-होते यह आंदोलन अल्मोड़ा जिले की सीमा भी पार कर गया. जगह-जगह जनता ने सुरा-शराब के अड्डों पर छापा मारा या सड़को-पुलों पर जगह-जगह गाड़ी रोक कर करोड़ों रुपयों की सुरा-शराब पकड़वाई. इस जहरीले व्यापार में लिप्त लोगों का मुंह काला किया गया, प्रदर्शन, नुक्कड़ नाटक, सभायें होती रहीं. पहाड़ के एक बहुत बड़े हिस्से में जनता में उत्साह और सुरा-शराब के व्यापारियों में आतंक छा गया. सुरा-शराब की खपत में असाधारण रुप से गिरावट आई. महिलाओं ने निडर होकर घर से बाहर निकलना शुरु किया, सन 84 की होलियां बहुत सालों बाद इन गांवों के महिलाओं व पुरुषों ने एक साथ बड़े उत्साह से महाई, पहाड़ के ताजा इतिहास में शायद पहली बार किसी आंदोलन में महिलाओं को इतना समर्थन मिला, क्योंकि सुरा-शराब से सबसे ज्यादा महिलायें प्रभावित हो रहीं थीं.

उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी, जो सुरा-शराब के खिलाफ चल रहे आन्दोलन की अगुवा है, का शुरु से ही मानना है कि यह एक सुधारवादी आंदोलन नहीं है, बल्कि जनचेतना को विकसित करने और उसे अन्य लड़ाईयों से जोड़ने का आंदोलन है. इसलिये जब 20-21 मार्च को अल्मोड़ा में शराब की नीलामी की घोषणा हुई तो, दो माह तक देहात की उर्वरा भूमि में सफलतापूर्वक आंदोलन चलाने के बाद उ०सं०वा० ने सुरा-शराब लाबी से प्रभावित सरकार और उसके प्रशासन से दो-दो हाथ करने की ठानी. 20 मार्च, 84 को अल्मोड़ा में जनता का ढोल-नगाड़ो-निशाणॊम का विशाल प्रदर्शन अद्भुत प्रभाव छोड़ गया, इस जन दबाव के डर से प्रशासन ने नीलामी 26-27 मार्च तक टाल दी. 26 मार्च को अल्मोड़ा बंद रहा. नीलामी का विरोध करने पर 15 लोगों को गिरफ्तार कर लिया ग्या. 27 मार्च को एक महिला ग्राम प्रधान के प्रदर्शन ने दोबारा भी नीलामी नहीं होने दी. तीन कुख्यात शराब व्यापारियों को गरमपानी की जनता ने अल्मोड़ में मुंह काला करके घुमाया. इससे सिर्फ सुरा-शराब व्यापारी ही नहीं, बल्कि पुलिस व शासन भी डर गया. अंततः सरकाने ने गुपचुप तरीके से टैंडरों के द्वारा नीलामी करवाई.

शराब के ठेके शुरु हुये तो धरने भी शुरु हुये, अल्मोड़ा, रानीखेत, भवाली और रामगढ़ में भट्टियों के आगे ऎसे धरने हुये. लेकिन अब आंदोलनकारी देहात से निकलकर नगरों और कस्बों में आ गये. आंदोलन की दृष्टि से यह विवेकपूर्ण निर्णय नहीं था. सरकार-प्रशासन के लिये कालापानी जैसे देहाती क्षेत्रों मॆं जनता अपने मन की कर सकती थी, लेकिन नगरों और कस्बों में पुलिस-प्रशासन भी था, उसके द्वारा समर्थित गुंडे और सुरा-शराब के पैसों पर पलने वाले, उठा-पटक में निष्णात राजनीतिक दल भी , आंदोलनकारियों की दिक्कत बढ़ाने लगे.

5 अप्रैल को अल्मोड़ा में धरना देती महिलाओं पर गुंडों द्वारा हाकी चलाई गई, 12 अप्रैल को सोमेश्वर में शर्मनाक तरीके से पी.ए.सी. ने दमन किया और आठ लोगों को गिरफ्तार किया. इसी दिन भवाली में भट्टी के बाहर रामायण पढ़ रही महिलाओं को गुंडों ने खदेड़ दिया.

इधर आंदोलन अपने संकटों से गुजर रहा था, उधर 20 अप्रैल, को प्रदेश सरकार ने अल्मोड़ा जनपद में एक अस्पष्ट सी शराबबंदी लागू कर दी. जेल में बंद 33 आंदोलनकारियों को छोड़ दिया गया, इस घटना से आंदोलनकारियों का उत्साह बढ़ गया और नैनीताल जिले में आंदोलन का प्रसार होने लगा. रामगढ़, भवाली और नैनीताल में आंदोलन की गति तेज होने लगी. नैनीताल में घनी आबादी के बीचोंचीच स्थित भट्टी को बंद करवाने में जनता कामयाब हुई, नैनीताल में प्रदर्शनों का लम्बा सिलसिला प्रारम्भ हो गया, जिसे छात्र-छात्राओं, अनेक ट्रेड यूनियनों और अध्यापकों का भी समर्थन प्राप्त था.

इसी बीच आंदोलनकारियों ने नैनीताल मुख्यालय में क्रमिक और आमरण अनशन करने का निर्णय लिया. आजादी के बाद के वर्षों में आंदोलन का घिसा पिटा तरीका अपनी अपील खो चुका था और जनता के बीच अपनी गहरी पैठ रखने वाले आंदोलनकारियों के लिये अचूक अस्त्र कभी नहीं माना जा सकता था. अनशन के नौवें दिन 3 पुरुष और 2 महिला अनशनकारियों को गिरफ्तार कर लिया ग्या. जिनपर लगाये गये अभियोग दो माह बाद वापस ले लिये गये, अनशन कुछ दिन और जारी रहा, पर्वतीय विकास मंत्री, उ०प्र० के आमंत्रण पर अनशनकारी लखनऊ गये, लेकिन कोई ठोस आश्वासन नहीं मिल पाया. यह भी बहुत अधिक स्पष्ट नहीं हो सका कि प्रदेश सरकार और आंदोलनकारियों के बीच क्या-क्या बातें हुई?

इस बीच पर्यटन की आड़ लेकर सुरा-शराब लाबी ने नैनीताल में आंदोलन का अप्रत्यक्ष रुप से विरोध शुरु करवा दिया. सत्ताधारी कांग्रेस(ई) द्वारा समर्थित एक विपरीत आंदोलन एक ट्रैवल एजेंसी के माध्यम से उजागर हुआ. 15 जून को शराब के पक्ष में एक बचकाना प्रदर्शन तथा आम सभा हुई, जिसे तीसरे दशक में शराब की दुकानों पर पिकेटिंग कर चुके एक वृद्ध नेता, जो हाल ही में दलबदल कर कांग्रेस में आये हैं, ने सम्बोधित किया. दो दिन बाद 17 जून, 84 को मूसलाधार वर्षा के बीच संघर्ष वाहिनी के आह्वान पर एक ऎतिहासिक प्रदर्शन नैनीताल में हुआ, जिसमें ढोल-नगाड़ों, निशाणॊं के साथ पहाड़ के कोने-कोने से आये हजारों लोगों ने भागीदारी दी.

आंदोलन अभी जारी है, उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी इन दिनों, सुरा, बायोटानिक जैसे 10 प्रतिशत से अधिक नशीले द्रव्यों के खिलाफ लाखों लोगों के हस्ताक्षर लेकर सुप्रीम कोर्ट जाने की तैयारी कर रही है और साथ ही जहां-जहां सम्भव हो, नगरों में, देहात में, मेलों मॆं, लोक शिक्षण का कार्यक्रम भी चला रही है.

संघर्ष वाहिनी इस आंदोलन को सिर्फ सुरा-शराब के खिलाफ लड़ाई बनाकर नहीं रखना चाहती, “शराब नहीं रोजगार दो” “कमाने वाला खायेगा-लूटने वाला जायेगा” “फौज-पुलिस-संसद-सरकार, इनका पेशा अत्याचार” जैसे नारे यही बतलाते हैं, दूसरी ओर जनता पूरे उत्साह के साथ इस आंदोलन में शिरकत कर रही हजारों-हजार जनता फिलहाल सुरा-शराब के अभिशाप से मुक्त होने से ज्यादा कुछ नहीं चाहती. उसे राजनैतिक दृष्टि से इससे अधिक सचेत होने में अभी वक्त लगेगा. इस कारण कभी-कभी एक संवादहीनता की सी स्थिति पैदा हो जाती है, जिससे आंदोलन में ठहराव सा दिखाई देने लगता है. (शमशेर बिष्ट का एक और आत्मीय संस्मरण)

चुनाव के लिये सुरा-शराब के बड़े व्यापारियों से पैसा जुटाने वाले तमाम राजनैतिक दल इस आंदोलन में आने से कतराते हैं, क्षेत्रीय दल, उत्तराखण्ड क्रान्ति दल, जिसका एक्मात्र विधायक प्रदेश की विधानसभा में है, एक अपवाद है. उ.सं.वा. ने भी कोई विशेष तवज्जो राजनैतिक दलों को नहीं दी है, वाहिनी द्वारा चुनावी राजनैतिक दलों को निरर्थक घोषित करने के बाद ऎसी आशा धूमिल हो जाती है कि चुनावी राजनैतिक दल झूठे मन से भी अपने सहयोग का हाथ आगे बढ़ायेंगे. बावजूद इसके कि इस तरह के प्रचंड जनांदोलन से उनके अस्तित्व पर संकट आ पड़ा है.

सबसे ज्यादा असमंजस सत्ताधारी दल कांग्रेस (ई) को है, सुरा-शराब के खिलाफ जन भावना की जानकारी राजनैतिक दलों की तरह कांग्रेस को भी थी. लेकिन उसकी ओर से समस्या के निराकरण की कोई कोशिश नहीं की गई, लेकिन एक बार आंदोलन शुरु हुआ तो कांग्रेस भी हरकत में आ गई. पहले उसने आरोप लगया कि वाहिनी तो सुरा वालों की एजेन्ट है, शराबबंदी कांग्रेस ने लागू करवाई है और वह इस आंदोलन को आगे बढायेगी. सुरा के खिलाफ आंदोलन बढ़ा तो उसने पैंतरा बदला और खुलेआम कहना शुरु कर दिया कि “शराब दो-वोट लो”. नैनीतल में उसने पर्यटन की आड़ ली, उधर कांग्रेस के अल्मोड़ा सांसद का कहना है कि उग्रवादियों ने आंदोलन हथिया लिया है, वे क्यों नहीं हथिया सके? इस बारे में संभवतः वह कुछ नहीं कह सके, इस बीच अनुभवी राजनेता नारायण दत्त तिवारी को मुख्यमंत्री बनाकर उ०प्र० भेज दिया गया है, वे पहाड़ में आंदोलन को निष्क्रिय बनाने का हर संभव प्रयास करेंगे, क्योंकि आगामी चुनावों को दृष्टिगत रखते हुये कोई जोखिम लेना वो पसंद नहीं करेंगे.

ऎसे प्रयास भी हो रहें है, अल्मोड़ा नगर में कांग्रेस के युवा तत्वों को प्रशासन द्वारा पूरी छूट दी गई है कि वो आंदोलन का हरसंभव विरोध करें. सत्ताधारी दल की रणनीति यही है कि सारे मामले को घपले में डाल दिया जाय, ताकि आंदोलन में जनता किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाये तथा सुरा-शराब लाबी पहले की तरह शक्तिशाली हो जाये. इस स्थिति में उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी और उसके सहयोगी संगठनों के लिये यह जरुरी हो जाता है कि वे आंदोलन की रणनीति बनाने में सावधानी बरतें. जनप्रतिनिधियों से बहस में उलझने के बजाय जनाधार मजबूत करें, राष्ट्रीय-अंर्तराष्ट्रीय और व्यवस्था परिवर्तन संबंधी समस्याओं को फिलहाल पीछे रखकर सुरा-शराब आंदोलन को ही आगे बढ़ाये. यदि वे सुरा-शराब को गौंण कर रातों-रात जनता की राजनैतिक चेतना विकसित करने का विचार रखते हैं तो वे गलत हैं. क्योंकि इससे देहात की हजारों-हजार जनता आंदोलन से उदासीन होती चली जायेगी और शहरों के पढ़े-लिखे बेरोजगार नौजवान ही आंदोलन में साथ रह जायेंगे. यह उन्हें मानना होगा कि जबसे उन्होंने देहात की जमीन छोड़ी है और धरने-अनशन के रुप में नगरों में ज्यादा ध्यान दिया है, उन्होंने अपनी शक्ति क्षीण ही की है. क्योंकि उनकी आधी ताकत तो निहित स्वार्थों के प्रतिरोध में ही नष्ट हो रही है. इसमें दो राय नहीं है कि यह आजादी के बाद पहाड़ में सर्वाधिक सशक्त आंदोलन है और इसकी सफलता-असफलता ही काफी हद तक पहाड़ के भविष्य के निर्माण में सहायक होगी.

नैनीताल समाचार से साभार.

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Girish Lohani

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