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पहली बार नैनीताल देखने के बाद अंग्रेजों ने क्या लिखा

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31 दिसम्बर के कलकत्ता इंग्लिशमैन में छपी एक खबर कि अलमोड़ा के निकट एक झील को खोजा गया है, पर संयोगवश ही मेरी नजर पड़ी. संभवतः इस दिलचस्प जगह को देखने वाले हम तीन साथियों में किसी ने अखबार के संपादक को इस बात की जानकारी दी होगी. मैं चाहता हूँ कि इस स्थान के बारे में कुछ विस्तार से बताऊँ और उन दो एक गलतियों को भी सुधार दूँ जो अखबार की खबर में आ गई है. मेरा इरादा था कि इस यात्रा पर पूरे विस्तार से लिखूं, लेकिन दुर्भाग्यवश में आपको निराश कर रहा हूँ. मेरी यात्रा के इस हिस्से के मूल नोट्स खो गये हैं. इसलिए अब आपको इस सक्षिप्त विवरण से ही संतोष करना पड़ेगा.
(Nainital History Hindi)

मैदानों के ऊपर लगभग टिकी हुई सी गागर पर्वत श्रृंखला पर यह झील स्थित है. यह जगह अलमोड़ा से करीब 35 मील की दूरी और समुद्रतल से 6200 फीट ऊँचाई पर है. मैंने धर्मामीटर को उबलते पानी में डालकर कई प्रेक्षण लिए और यहाँ पानी का उवाल बिन्दु 202 फारेनहाइट आया. झील हल्का सा घुमाव लिए हुए है और लम्बाई में लगभग सवा से डेढ़ मील तथा चौड़ाई में अधिकतम तीन चौथाई मील होगी. यहां मैं बताना चाहूंगा कि पहाड़ी इलाकों में पैमाइश या कहिए कि दूरियों का हिसाब बड़ा भ्रामक होता है. झील का पानी क्रिस्टल की तरह साफ है. एक सुंदर जलधारा पहाड़ की ऊंचाइयों से आकर इसमें मिलती है. और वैसी ही छोटी धारा दूसरी ओर से बाहर निकल जाती है. झील काफी गहरी मालूम पड़ती है, क्योंकि इसके किनारे पानी की सतह से लगभग लम्बवत् गहराइयों में खो जाते हैं. दरअसल झील के चारों ओर पहाड़ों की ढलाने डूबती चली गयी है.

झील का पानी कठोर चट्टानों के बने सकरे तंग पाटी (गौर्ज) से बाहर निकलता है जो झील के जन्म के बाद सदियों से मजबूती से खड़ा है. समय की मार ने पानी के मार्ग को गहरे रोख में तब्दील कर दिया है जिसे पहाड़ी इलाके में खड़ कहा जाता है. इस विशाल एम्फीथियेटर के दूसरे छोर पर लगभग एक मील लम्बा खूबसूरत एवं लगभग समतल ढलान फैला हुआ है जो एक आकाश को घूमती पहाड़ी के चरणों में समाप्त होता है. कहीं-कहीं इसमें बाँज, साइप्रस और दूसरी प्रजातियों के सुन्दर दरख्त है. झील के दोनों ओर के किनारे भी विशाल पहाड़ियों और चोटियों से घिरे हैं, जिनमें बिखरे हुए घने वन झील की सतह को चूमते हुए निकल जाते हैं. एक ओर की पहाड़ी में आपको तीर की तरह सीधे साइप्रस के विशालकाय दरख्त सजे हुए दिखाई देते हैं, जिनमें कई तो डेढ़ सौ फीट तक ऊंचे हैं. टहनियाँ धरती की ओर इस तरह झुकी हुई हैं कि वृक्ष शंकु का आकार से लेते हैं. इसके एक गिरे हुए अपेक्षाकृत छोटे वृक्ष की लम्बाई मैंने एक सौ दो फीट नापी सबसे ऊँची पहाड़ी और झील के बीच के ढलवा मैदान में किसी रेसकोर्स या क्रिकेट का मैदान बनाने की या हर दिशा में मकान बना कर छोटा-मोटा शहर बसा लेने की भरपूर गुंजाइश है. झील की परिधि में चारों ओर घुड़सवारी या गाड़ी चलाने लायक सुंदर सड़कें आसानी से बनाई जा सकती है और इसके पानी में हजारों नौकाएं लगातार विहार कर सकती है. झील की दक्षिणी चोटियों से दिखाई पड़ने वाले मैदानों से मुश्किल से एक दिन के सफर में यहाँ तक पहुँचा जा सकता है.

बिल्कुल वैसे ही, जैसे मसूरी से दून दिखाई देता है. मेरे इंजीनियर दोस्त वैलर मुझे एक पहाड़ी की चोटी तक ले कर गए. इससे नीचे की ओर जाने वाला मार्ग अपेक्षाकृत आसान था. लेकिन आगे रचाई मील के बाद यह दुर्गम होता चला गया. जिस मार्ग से हम खेरना नदी तक उतरे थे, वह दूसरे पहाड़ी मार्गों जैसा ही बुरा था. रामगढ़ बंगले से होकर जाने वाला दूसरा मार्ग, जिससे में अलमोड़ा वापस लौटा था, और भी बुरा है. अलमोड़ा वाले रास्ते के बनिस्बत तराई की ओर जाने वाला रास्ता ज्यादा सुविधाजनक है और यदि आप कोटा व चिल्किया होते हुए मुरादाबाद जिले में प्रवेश करें तो यह रास्ता भी पिंजौर दून और देहरा दून की तरह साल भर चलने लायक बन सकता है. झील के ऊपर उठी हुई कुछ श्रृंखलाएँ तो 9 हजार फीट से भी ज्यादा ऊँची होंगी और वह इतनी विशाल दिखाई पड़ती हैं कि आप स्वयं को बर्फीली चोटियों पर महसूस कर सकते हैं. यह धारणा यहाँ के स्थानीय निवासियों की भी थी. हमारा एक चपरासी जो कैमो के शिकार की संभावनाएं तलाशने गया था, लौट कर बोला कि ये वही इफरात में तो है, लेकिन इन ऊँचे पहाड़ों में छोटा सा मैदान तलाशने में कई दिन लगेंगे और हिमालय के बर्फीले पर्वतों के अलावा ऐसा भूगोल उसे कहीं नहीं दिखाई दिया. चारों ओर घने जंगल फैले हुए हैं जिनमें हिरनों के अनगिनत झुंडों ने अपने रास्ते बनाए हैं. जड़ी, कैमो और दूसरे जानवरों के झुंड के झुंड दिखाई पड़ते हैं. अनेक जड़ी तो इतने बड़े पदचिन्ह छोड़ गये हैं कि उनके दानवाकार होने में कोई संदेह नहीं रह जाता फीजेन्ट्स की क्या कहें. हमें अपने तम्बुओं के आस-पास से उन्हें लगभग हांकना पड़ता है.
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इस झील का नाम नैनीताल है और जैसा कि मैंने कहा, किसी के भी दिमाग में यह सवाल आ सकता है, लंढौर व मसुरी की नंगी पहाड़ियों के बजाय इस पर्वत श्रृंखला को सेनेटोरियम के लिए क्यों नहीं चुना होगा? लकड़ी की बहुतायत, शुद्ध पानी मैदान व बड़ी संख्या में भवनों के निर्माण के लिए आवश्यक सुविधाएँ. घुड़सवारी और गाड़ी के मतलब की मीलों लम्बी सड़क बनाने की गुंजाइश, जिसकी हिमालय में कहीं भी जरूरत महसूस होती है. पानी की जबर्दस्त उपस्थिति, जो खूबसूरती और जरूरत, दोनों के लिहाज से मौजूद है और जिसमें चप्पू व पाल नौकायन की कई किस्में संभव है. यह सब बातें इस क्षेत्र को अतुलनीय बना देती है. लेकिन हैरत की बात है कि मेरे यहां आने से पहले तक यह क्षेत्र गुमनामी के अंधेरे में हुवा हुआ था. कुमाऊँ में रहने वाले किसी अंग्रेज ने इसे नहीं देखा था यहाँ तक कि इस प्रदेश के अंग्रेजी प्रशासन में आने के बाद से मैं तीन से अधिक को नहीं खोज पाया जो यहां की यात्रा कर चुके थे. हो सकता है, दो-एक और को लेकिन इसकी संभावना कम ही है.

स्थानीय निवासी यह कह इस झील तक ले जाने से कतराते रहे कि इस इलाके के बारे में उन्हें जानकारी नहीं है. लेकिन उन्हें इसके बारे में निश्चित तौर पर सब कुछ पता था. झील के निकट पहुंचने पर हमें मालूम पड़ा कि इससे लगे हुए मैदान में हर वर्ष एक मेला जुटता है. जिस स्थान पर बाज़ार लगता था, उसके ठीक बीच में एक विशाल झुला खड़ा किया हुआ था, जिसमें लोहे की भारी जंजीरें लटक रही थीं में जान नहीं पाया कि इस स्थान पर मेला क्यों लगता है. नैनीताल से सम्बंधित किसी भी चीज के बारे में सभी पहाड़ी रहस्यमय चुप्पी साथ लेते थे.

अलमोड़ा लौट कर मैने इस बाबत और जानकारी हासिल करने का प्रयास किया लेकिन कोई सफलता हाथ नहीं लगी. पहाड़ी लोगों व संसाधनों के गहरे जानकार प्रशासनिक अधिकारी और मेरे मित्र बेटन साहब, जिनकी सहृदयता और मदद के लिए मैं हमेशा कृतज्ञ रहूंगा, का विश्वास था कि यहां के निवासियों में झीलों के लिए बड़ा श्रद्धा भाव रहता है. उनके अनुसार वे लोग नैनीताल को अत्यन्त पवित्र मानते हैं और अपवित्र कर दिए जाने के डर से किसी को इसके अस्तित्व के बारे में नहीं बताते. हमें ऐसा लगा कि स्थानीय लोग इस जगह पर कोई गुप्त अनुष्ठान करते हो और इसी कारण सरकार के स्थानीय अधिकारियों की नजर से इसे छुपाना चाहते हो बेटन साहब के अनुसार इस गुत्थी का एक और हल हो सकता है. कुमाऊँ के पिछले कमिश्नर ट्रेल के बारे में कहा जाता है कि वर्षों पहले उन्होंने इस झील की यात्रा की थी. वे स्थानीय निवासियों में अत्यन्त लोकप्रिय प्रशासक के रूप में जाने जाते थे. लेकिन वे यह कतई नहीं चाहते थे कि यूरोपियन यात्री इस प्रदेश में आयें.

यह दुर्भावना उनमें कूट-कूट कर भरी हुई थी. इसलिए मेरा और मेरे जैसे बहुत से लोगों का यह मानना है कि निश्चित तौर पर ट्रेल साहब ने पूरी कोशिश की होगी कि यूरोपियनों को नैनीताल के बारे में पता न लगे. वे जानते थे कि उन्हें इस स्थान के बारे में पता चल गया तो सेनेटोरियम हेतु सर्वाधिक उपयुक्त स्थान के रूप में इसे चुन लिया जाएगा. जो कोई भी ट्रेल के प्रशासनिक तौर-तरीकों से परिचित हैं, वे मेरी बात को आसानी से समझ सकते हैं कि उनके लिए इस झील के अस्तित्व को यूरोपियनों से छुपाना कितना आसान था. मैंने यूरोपियन यात्रियों के प्रति ट्रेल की दुर्भावना के अनेक किस्से सुने हैं. कभी-कभी तो लगता है कि उनका यह रवैया चीनियों से भी ज्यादा तीखा है. देहरादून के तत्कालीन प्रशासक स्व. शोर साहब भी इसी मिजाज के आदमी थे. मसूरी और लंढोर में यूरोपियनों की बढ़ती आवाजाही को उन्होंने ‘मानवीय आपदा’ और ‘पिडारियों का हमला’ जैसी उपमाओं से नवाजा सौभाग्यवश अब यह प्रवृत्ति समाप्त हो चुकी है. यात्राओं के दौरान मुझे कुमाऊँ का प्रशासन भारत के दूसरे हिस्सों की तुलना में उदार प्रतीत हुआ.
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जैसा कि मैंने पहले बताया, नैनीताल यात्रा में हमारे गाइड का रवैया निहायत असयोगपूर्ण था. वह धोखा न दे सके इसके लिए हमें कुछ जोर-जबर्दस्ती भी करनी पड़ी. रास्ता नहीं पता जैसे बहाने पहाड़ी लोग खूब बनाते हैं. खास तौर पर जब आपको कुछ कुलियों की जरूरत हो, ये बहाना बनाएंगे और घर से बाहर नहीं निकलेंगे. हम हिमालय में इतना घूम चुके थे कि पहाड़ों के बीच झील की मौजूदगी के बारे में हमें बेवकूफ बनाना आसान न था और फिर पहाड़ों से उत्तर रही जल धाराएं हमारा निर्देशन कर रही थीं. गाइड जहां तक संभव था हमें गलत दिशा की ओर ले गया. जब हमें यह आभास हो गया कि वह धोखा दे रहा है तो हमने एक चाल चली. उसके सिर पर एक भारी पत्थर रख दिया और कहा कि मंजिल पर पहुँचने पर की इसे उतारा जाएगा. उसके पास मंजिल तक जाने के अलावा कोई और चारा नहीं था. पहाड़ी लोग आम तौर पर बड़े सोधे होते है और आप बड़ी आसानी से उन्हें बेवकूफ बना सकते हैं. यदि आप ऐसे गाइड के साथ नैनीताल जा रहे हों जो रास्ता नहीं जानने का बहाना बना रहा हो, यह तरकीब बड़े काम की है. एक बड़ा पत्थर उसके सर पर रख कहिए कि इसे नैनीताल तक पहुँचाना है, क्योंकि वहाँ पत्थर नहीं हैं. यह भी बताएं कि पत्थर गिरे या टूटे नहीं और आपको इस पत्थर की नैनीताल में बड़ी जरूरत है. भारी बोझ को ढोने की चिंता में वह जरूर कह बैठेगा कि साहब वहाँ पत्थरों की क्या कमी है और यह बात भला नैनीताल देखे बिना कोई कैसे कह सकता है. हमने भी करीब एक मील चलने के बाद उस भले मानुस के सर का बोझ हटा दिया क्योंकि उसे रास्ता याद आ चुका था .

नैनीताल के चारों ओर की सुन्दर दृश्यावली की खोज करने में हमें लगभग एक महीना लगा. यह हिमालय की लगभग 1500 मील लम्बी मेरी यात्रा का सबसे सुन्दर पड़ाव था. मेरी स्मृतियों में इसके चित्र इतने विविधतापूर्ण और असरदार हैं कि अपनी अगली नैनीताल यात्रा में भी मैं पिछली बार के मुकाबले शायद ही जल्दबाजी कर सकूँ.
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19 दिसम्बर 1842 को मैं खूबसूरत झील की ओर जाने के लिए बरेली से होकर गुजरा. लगभग आधी रात को हम घास और वृक्षों से भरे जंगल के बीच थे जो पहाड़ों की तलहटी में फैले हुए थे. इस हिस्से को तराई बल्कि अधिक दुर्गम या भयानक तराई के नाम से जाना जाता है. शायद इसलिए कि इसकी बीस मील चौड़ी पट्टी में पानी की बूँद भी मयस्सर नहीं. न तो नदी-नालों में और न ही कुंओं में, चाहे आप 3 फीट खोदें या 400 फीट. इस क्षेत्र को अस्वास्थ्यकर ठहराए जाने की निष्पक्ष पड़ताल की जानी आवश्यक है. इस दिशा में सोचता हूँ मैं भी प्रयास करूंगा. रात्रि में पालकी पर चलने वाले यात्री के लिहाज से सड़क बेहद खस्ताहाल थी. मुझे लगता मेरा वाहन टुकड़ों में बिखर जाएगा. कहार हर दस मिनट में डगमगाते या गिर पड़ते थे. रास्ते की लीक गहरी और पत्थरों से आधी भरी थी, जिन्हें घास ने ढक लिया था. बेचारे कहार बार-बार फिसल जाते. उनमें से एक तो बुरी तरह जख्मी हो गया. अगली बार मैं या तो दिन में सफर करूंगा या टाचों की संख्या अच्छी-खासी होगी. सुबह होते-होते मैंने खुद को सुरक्षित बमौरी बंगले में पाया. यह अलमोड़ा वाले रास्ते में बलिया दर्रे के निकट है. सामान और नौकर हल्द्वानी मंडी में पीछे छूट गए थे. अब भला साहब को पालकी में जगाने की हिमाकत कौन करे! जाहिर है मुझे हल्द्वानी उतारने के बजाय चार-पाँच मील आगे पहुँचा दिया गया. नौकर और सामान भी जल्दी ही बमौरी पहुँच गए. अब मैं भी यहाँ रुकने का इच्छुक नहीं था. मेरे मित्र 9 मील आगे भीमताल में मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे और मुझे भी उनसे मिलने की जल्दी थी. मैंने हफ्ते भर पहले इस इरादे से एक 20 फीट लम्बी दो चप्पुओं वाली नाव भी रवाना करवा दी थी कि संभव हुआ तो इसे नैनीताल में उतारा जाएगा. गागर की पहाड़ियों में रास्तों की मौजूदा हालत को देखते हुए यह कोई आसान काम नहीं था. बमौरी से भीमताल तक ले जाने के लिए साठ पहाड़ी मजदूरों को तैयार किया गया. पूरे इंतजाम के बाद कि किसी किस्म की दुर्घटना न हो, मैंने इसे रवाना किया.

मैं कहारों से यह कहना भूल ही गया कि रात में पालकी के सफर में सोना मुश्किल से हो पाता है. इसलिए वे ऊँची आवाज में चिल्ला कर बोलें ताकि जंगल में बहुतायत में मौजूद शेरों को भयाक्रांत किया जा सके. पौ फटने पर उनके गाने की आवाजें रुक गयीं और अंतिम आवाज आते-आते दूर पहाड़ों की कतारें साफ दिखाई देने लगी थीं. वे गंगा में चलने वाली फेरी नावों के यात्रियों की तरह अलग-अलग स्वरों में ‘ऐ काली पर्वती वाला’ गा रहे थे.

करीब तीन घण्टे के सफर के बाद जब मैं भीमताल बंगले पर पहुँचा तो मेरी खुशी का पारावार न रहा- इंजीनियर्स का मेरा दोस्त वैलर, बैटन साहब के साथ वहाँ मौजूद था. नैनीताल की पहली यात्रा के अपने साथी से अचानक फिर भेंट हो जाना कोई मामूली बात नहीं थी. इन बारह महीनों के छोटे से अंतराल में उस इलाके के भविष्य के लिहाज से बड़े परिवर्तन हो चुके थे और हम एक रहस्यमय अनजानी जगह को बहुचर्चित बनाने की जाने कितनी योजनाएं बना चुके थे. आज भी हमारी बातचीत का मसला यही था.

1842 में वर्ष भर कई यात्री नैनीताल का दौरा कर चुके थे और सभी एकमत थे कि इस जगह की खूबसूरती के बारे में मेरा विवरण वास्तविकता से कहीं कम है. भीमताल का पटवारी बमौरी से मेरे साथ था. बातचीत का रुख उसने कुमाऊँ की राजनीति और सांख्यिकी की ओर मोड़ दिया. वह पूर्ववर्ती गोरखा राज से अंग्रेजी प्रशासन की तुलना कर रहा था, जिस बेचैन कबीले का आक्रमण करीब तीस वर्ष पहले इस क्षेत्र को झेलना पड़ा था. पर्वतीय क्षेत्र का पटवारी मैदान जैसा नहीं होता. यहाँ वह एक तरह का तहसीलदार है जिसे सरकार की ओर से पाँच रुपये महीना पगार दी जाती है. वह अपने क्षेत्र के मालगुजारों से 3,000 रु. तक की रकम वसूलता है, रसद व कुलियों को इकट्ठा करता है और मामलों की तहकीकात का काम करता है. पूरे कुमाऊँ में 52 पटवारी नियुक्त हैं.

मैं कभी भीमताल नहीं गया था. इसलिए इस झील के बारे में मैंने पटवारी से पूछताछ की. नैनीताल की अप्रतिम सुन्दरता ने मेरे भीतर भीमताल के बारे में एक तरह से उपेक्षा का भाव पैदा कर दिया था. पटवारी ने बड़ी विनम्रता से दोनों झीलों की विशेषताओं का उल्लेख किया और मुझे बताया कि नैनीताल के प्रति मेरी आसक्ति सामान्य किस्म के आकर्षण का परिणाम है. उसका मानना था कि मैं भीमताल को इसलिए भी कमतर मान रहा हूँ क्योंकि मैंने उसे अभी देखा नहीं है. ये पहाड़ी कई मौकों पर बड़ा खुल कर बोलते हैं. अबकी बार पटवारी ने बड़ी अनाड़ी चाल चली. जब भीमताल का हल्का नजारा दिखाई देने लगा तो वह मेरे आगे-आगे इस तरह चलने लगा कि वहाँ मेरी नजर न पड़े. वह चाहता था कि मैं ऐसी जगह से झील का नजारा लूँ जहाँ से पूरा दृश्य भव्यता के साथ उजागर होता हो. लेकिन मैंने तेजी से कदम बढ़ाए और दूर चमकती झील के पानी की सतह को देख लिया. पटवारी ने अपनी चालाकी को स्वीकार किया कि वह चाहता था कि मैं भीमताल के बारे में सकारात्मक धारणा बनाऊँ. वह यह जानने के लिए उत्सुक था कि पहली नजर में इस झील ने मुझ पर क्या असर डाला. मेरे मुँह से ‘कितनी सुंदर है’ जैसा उद्बोधन सुन कर उसके चेहरे की चमक लौट आई.
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पहाड़ी लोग झीलों को बड़ा ऊँचा दर्जा देते हैं और उनके बारे में धार्मिक श्रद्धा के साथ बात करते हैं. दोस्तों से मिलने पर पता चला कि दूसरे दिन नैनीताल रवाना होने की पूरी तैयारी हो चुकी है. हमने नाव को भीमताल में डाल चारों ओर का चक्कर काटा. 10 दिन लगातार पानी से बाहर धूप में रहने के कारण नाव इतनी रिसने लगी थी कि पानी उलीचने के लिए अपने साथ एक पहाड़ी की सेवाएं लेनी पड़ीं. उसने अपने जूते से यह काम सम्पन्न किया. वह बेचारा बुरी तरह डरा हुआ था. अपने जीवन में उसने पहले कभी नाव नहीं देखी थी और वह हमें बता रहा था कि झील बहुत गहरी है. यह आदमी बिल्कुल उस आदमी जैसा था, जिसको विशप हेवर ने ईसाई बन जाने के लिए पैसे देने चाहे थे. मुझे विश्वास है उस आदमी ने पैसे जरूर जमीन पर पटक दिए होंगे. विशप क्या मानव स्वभाव से इतने अनभिज्ञ थे? मैं समझता हूँ उन्होंने जानबूझ कर परखने के लिए यह अभिनय किया होगा. मेरे दोस्त का कैम्प इस क्षेत्र में शिकार की प्रचुर संभावनाओं के प्रमाण दे रहा था. सांभर के सींग, घुरड़ और काकड़ की ताजी उतरी खालें, बेहतरीन रात्रि भोज की उम्मीदें जताते थे. इनका आकर्षण कम नहीं था जबकि मैंने पिछले छब्बीस घण्टे से कुछ खाया नहीं था .

पहाड़ी लोग आम तौर पर एक के प्रति निष्ठा का प्रदर्शन करते हैं. बैटन साहब (जो उनके जज, कलक्टर और मजिस्ट्रेट थे) के नाव से उतरते ही भीड़ ने बच्चों की तरह उन्हें घेर लिया और बड़ी गंभीरता से झील से सुरक्षित नौकायन कर वापस आ जाने पर बधाई देने लगे. यदि उनका अपना बच्चा भी इस वक्त नाव से उतरा होता तो शायद उसे इतना प्रेम नहीं मिला होता जितना बैटन साहब को मिल रहा था. उन लोगों की मान्यता थी कि यह साहब लोगों की खासियत है कि नाव चलाने जैसा मशक्कत का काम खुद कर रहे हैं, जबकि इसके लिए नौकर रखे जा सकते थे.

भीमताल के 10-12 मील के दायरे में कई और झीलें भी हैं. लेकिन मैं नैनीताल को देख चुका था और उसकी तुलना में ये झीलें कहीं नहीं टिकती थीं, इसलिए उन्हें देखने का मन बना ही नहीं. बैटन साहब ने मुझे तसल्ली दी कि विशप हेबर ने अलमोड़ा जाते वक्त भीमताल को काफी खूबसूरत बताया था. लेकिन यदि रास्ता होता और उन्हें नैनीताल देखने का मौका मिलता तो शायद बात कुछ और होती. अगले अप्रैल तक यह शिमला या मसूरी की तरह आसानी से जाने लायक हो जाएगा और वह भी कहीं आसान रास्ते से .

सुबह जल्दी नाश्ता लेकर हम नैनीताल की ओर चल पड़े. बीस पहाड़ी मजदूर नाव लेकर पहले ही जा चुके थे. नैनीताल की पहली यात्रा मैंने खैरना नदी की घाटी से गुजरने वाले बड़े दुर्गम मार्ग से की थी. इस बार हम भीमताल से पश्चिम की ओर गागर पर्वत श्रृंखला पर चढ़े. रास्ता अपेक्षाकृत आसान था और चढ़ाई 3000 से 4000 फीट व उतार 1000 फीट से ज्यादा नहीं रहा होगा. दोपहर में शेर का डांडा की चोटी पर पहुँचते ही अचानक मुझे झील का पूरा विस्तार दिखाई दिया. यह जगह झील की सतह से लगभग 200-300 फीट की ऊँचाई पर है. मेरी स्मृतियों में मौजूद जंगल, जो कुछ समय पहले दूर से दिखाई पड़ रहा था, अचानक मेरे सामने था. इसका आधा हिस्सा धूप से नहाया हुआ आग की तरह चमक रहा था, जबकि दूसरा विशालकाय अयारपटिया पहाड़ी की छाया से ढका हुआ स्याही की तरह काला किंतु संगमरमर की तरह चमकदार दिखाई पड़ रहा था. इसकी खूबसूरती और भव्यता मुझे पिछली यात्रा से भी अधिक प्रभावित कर रही थी. पिछली बार मैं दो महीने हिमालय के महान बर्फीले विस्तार से गुजरता हुआ यहाँ पहुँचा था तो शायद नैनीताल की भव्यता का अहसास नहीं कर सका. इस बार मैदानों के एकरस दृश्यों के पसमंजर में यह अनुभव नैनीताल का वास्तविक चित्र उकेर रहा था.
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‘पिलग्रिम्स वंडरिंग्स इन द हिमाला’ का यह अनुवाद आशुतोष उपाध्याय द्वारा किया गया है. यह अनुवाद हिमालयी सरोकारों से जुड़ी प्रतिष्ठित पत्रिका ‘पहाड़’ से साभार लिया गया है. पहाड़ हिमालयी समाज,संस्कृति, इतिहास और पर्यावरण पर केन्द्रित भारत की सबसे महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में है जिसका सम्पादन मशहूर पर्यावरणविद और इतिहासकार प्रोफ़ेसर शेखर पाठक द्वारा  किया जाता है.

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