मध्यकाल में अपनी खनिज संपदा के लिए प्रसिद्ध कुमाऊं राज्य के तराई व भाबर क्षेत्र अत्यधिक ऊपजाऊ होने के कारण प्रचुर मात्रा में राजस्व प्रदान करते थे. मध्यकाल में मुस्लिम शासक यह समझते थे कि कुमाऊं में अत्यधिक दौलत है. फ़रिश्ता अपनी किताब के अंत में लिखता है कि कुमाऊं के राजा के पास विशाल भू-भाग है और वहाँ की पहाड़ियों से मिट्टी को धोकर सोना निकाला जाता, वहाँ की पहाडियों में तांबा भी है. उसका राज उत्तर में तिब्बत से लेकर संभल्ल तक है जो हिन्दुस्तान में पड़ता है. कुमाऊं के राजा के पास 80,000 घुड़सवार और पैदल सेना है तथा दिल्ली का बादशाह भी इस राजा की बड़ी इज्ज़त करता है. उसका खजाना बहुत बड़ा है.
(Mughals in Kumaon)
कुछ धन संपदा के लोभ में और कुछ विद्रोहियों के छुपने की सर्वोतम जगह होने के कारण, कुमाऊं दिल्ली सल्तनत व मुग़ल शासकों के अनेक सैनिक अभियानों का आक्रमण स्थल रहा. महुम्मद बिन तुगलक का कराचिल अभियान दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों की कुमाऊं में पर्याप्त रूचि के संकेत देता है.
मुग़ल काल में अकबर के समय से हम कुमाऊं-मुग़ल संबंधों को विकसित होते हुए पाते हैं. कुमाऊं के राजा मुग़ल शासकों को दिल्ली का राजा कहते थे और उन्हें सैनिक सहायता, राजस्व अदायगी के साथ-साथ उपहार देने व पाने जैसे कार्य अधीनस्थ मनसबदारों की भाँति सम्पादित करते हुए पाए जाते हैं.
मुग़लकाल के प्रारम्भ में कुमाऊं चंद वंशीय शासकों के अधीन था. कुमाऊं के राजा ताराचंद(1517-1533), माणिकचंद (1533-42), कल्याण चंद (1542-1551 ) एवं पूर्णचंद (1551-1555 ) मुग़ल सम्राट बाबर व हुमायूं के समकालीन थे. उस समय कुमाऊं मुग़ल संबंधों की कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है. ये राजा मुग़ल सत्ता से स्वतंत्र प्रतीत होते है.
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अकबर के समयकाल में भी कुमाऊं में चंद वंशीय राजाओं का ही शासन था. अकबर के आरंभिक वर्षो में भी ये राजा स्वतंत्र ही रहे. कुमाऊं के बारे में किवदंतियां प्रसिद्ध थी कि कुमाऊं में सोने की खाने है तथा वहां के मंदिरों की ईटें तक सोने की है. इन्ही किवदंतियों से प्रभावित होकर अकबर के राज्यारोहण के तीसरे वर्ष में मुग़ल सेनानायक हसन खां टूकुडिया जो काठ व गोला का नवाब तथा उस समय दिल्ली का सूबेदार था, ने कुमाऊं पर आक्रमण किया किन्तु असफल रहा.
बदाँयूनी अपनी किताब ‘मुन्ताखब–उल–तवारीख’ में उसके दूसरे आक्रमण (1575-76 ई. ) को भी असफल बताता है. इन विजयों से कुमाऊं का राजा विजय-उन्माद से ग्रसित गया और उसने एक अरब मुग़ल विद्रोही को शरण दे दी. ये अपराध भारत में विजय पताका फहराने वाले मुग़ल बादशाह की दृष्टि में क्षमा योग्य न था. अत: आइन-ए-अकबरी तथा अकबरनामा के अनुसार सुल्तान इब्राहीम के नेतृत्व में मुग़ल सेना ने तराई भाबर क्षेत्र को जीत लिया जो कि कुमाऊं के राजा की आय का मुख्य साधन थी. इसी कारण यह भू क्षेत्र माल कहलाता था.
अब कुमाऊं के राजा का दिल्ली दरबार में पेश होना जरुरी हो गया. 1588 में तत्कालीन राजा रूद्रचन्द्र अकबर के दरबार में उपस्थित हुआ. एटकिन्सन इस बारे में स्थानीय किवदंतियों के हवाले से कहता है कि अकबर ने कुमाऊं के राजा को नागौर में कब्जे हेतु भेजा. उसकी वीरता से प्रभावित होकर अकबर ने उसे चौरासीमाल परगना (तराई) उपहार स्वरुप दिया तथा जीवनभर दरबार में आने से मुक्ति देदी. बद्री दत्त पाण्डेय उपरोक्त कथन में खिलअत और जोड़ देते है.
कुछ इतिहासकार अकबर द्वारा राजा के पूर्वजों का राज्य इकता के रूप में, 100 घोड़े व तराई के कुछ परगनों व अन्य उपहार देने की बात कहते है. अत: यह स्पष्ट है कि राजा तराई के कुछ परगने अपने लिए प्राप्त करने में सफल रहा. शेष जिलों को कुमाऊं सरकार के अंतर्गत रखा गया. राजा की बादशाह से मुलाकात की पुष्टि बदाँयूनी, अब्दुल कादिर तथा बादशाह जहाँगीर के विवरणों से होती है.
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आइन-ए-अकबरी में कुमाऊं सरकार के अंतर्गत 21 महाल का वर्णन है, जिनमें से 5 महालों से कोई राजस्व नहीं मिलता. 16 महालों से मिलने वाली राशि 202121885 रूपये है. आइन-ए-अकबरी के अनुसार पूरी सरकार पर 3000 घुड़सवारों तथा 5000 पैदल सैनिकों की व्यवस्था का काम था. तराई के जिस हिस्से को राजा रुद्रचंद ने प्राप्त किया वो हिस्सा 9 लखिया माल भी कहलाता था क्योकि उससे 9 लाख रूपया राजस्व वसूला जाता था.
रूद्र चन्द्र के बाद उसके पुत्र लक्ष्मीचंद की अपने राज्यारोहण के 7वे वर्ष मुग़ल दरबार में पेशी की बात पर जहाँगीर अपने संस्मरण में लिखता है: कुमाऊं का राजा लक्ष्मी चंद मुग़ल दरबार में उपस्थित हुआ, वह एत्माउदौला के पुत्र के साथ दरबार में उपस्थित हुआ. लक्ष्मी चंद सम्राट को भेंट करने के लिए अपने पर्वतीय प्रदेश की कतिपय दुर्लभ वस्तुएं साथ लाया था, उनमें सुंदर स्वस्थ टटटू थे जो गुंट कहलाते थे. इसके अतिरिक्त वह कस्तूरी के गुटके, कस्तूरी मृग की खाले, छोटी तलवारें (खंडा) आदि भी लाया था. जहांगीर यह भी लिखता है कि वह सबसे अधिक धनवान पहाड़ी राजा कहा जाता है और उसके इलाके में सोने की खानें हैं. लक्ष्मी चन्द ने केवल मुग़लों से संबंधों को यथावत बनाये रखा, यदयपि अपने राज्य में प्रशासनिक व राजस्व सम्बन्धी सुधार किये.
इसके बाद कुमाऊं के शासकों के विषय में मुग़ल दरबारी इतिहासकार मौन है, कुमाऊं के इतिहासकारों ने इसका कारण राजाओ का आतंरिक झगड़ो में उलझे रहना बताया है.
इसके बाद कुमाऊं के जिस राजा का वर्णन मुग़ल इतिहासकार करते है वो बाज बहादुर चंद है, जो कि मुग़ल शासक शाहजहां और औरंगजेब दोनों के समकालीन था. शाहजहां की गढ़वाल अधिनिकरण की योजना (1653-55) को सफल 28 जुलुस, 1086 हिज़री (मई 1654) को शाहजहां द्वारा जारी फरमान से ज्ञात होता है की शाहजहां ने गढ़वाल पर निर्णायक विजय प्राप्त होने पर गढ़वाल के पूर्वी भू-भाग को राजा को देने का आश्वासन दिया.
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इसलिए वर्षा ऋतु के कारण जब मुग़ल सेना दून घाटी जीत कर वर्षा ऋतु की प्रतीक्षा करने लगी तब भी राजा ने अपने पर्वतीय प्रदेशो के सैनिको के साथ अभियान जारी रखा. शाहजहांनामा के अनुसार गढ़वाल युद्ध के पश्चात राजा बाज खलीउल्ला के साथ दरबार में उपस्थित हुआ , वहां उसे युद्ध में असीम वीरता के लिए बहादुर की उपाधि मिली तथा यह अधिकार दिया की विशेष अवसरों पर उसके आगे नगाड़ा बज सकेगा. शाहजहां ने उसे तराई प्रदेश 1200000 दाम वार्षिक राजस्व के दो परगने दिए.
औरंगजेब के आरभिक काल में औरंगजेब के उत्तराधिकारी के युद्ध में हारे हुए शहजादे दारा शिकोह को शरण न देने के कारण औरंगजेब बाजबहादुर से प्रसन्न था. उसने गढ़वाल के अभियान (1658-60) में शाही पक्ष लिया किन्तु बाद में गढ़वाल के राजा के शिकोह को सौंप देने तथा मेदनिशाह को मंसब प्राप्त हो जाने से बाजबहादुर की स्थिति घट गयी. एटकिन्सन के अनुसार बाज बहादुर ने अपने राज्य में औरंगजेब को प्रसन्न करने हेतु व्यक्ति कर या जजिया कर भी लगाया था. बी.डी. पांडे भी उसके कथन से सहमत है.
अपनी स्थिति घट जाने के रोष में बाज बहादुर ने 1662 में गढ़वाल पर आक्रमण किया. गढ़वाल के शासक ने बादशाह से शिकायत कर दी, बादशाह ने फरमान जारी कर एक मुग़ल सेना भेजी, बाजबहादुर ने परिस्थितियों को देखते हुए क्षमा मांग ली किन्तु उसने एक बार फिर सतनामियों के विद्रोह के समय विद्रोह किया. उस समय भी उसके विरुद्ध सैनिक अभियान हुआ. उसने समर्पण कर दिया और वह एक बार फिर क्षमा पाने में सफल हुआ. उसके बाद के सभी राजा मुगलों के लिए स्वामिभक्त रहे. एक चंद राजा के मुग़ल शासक की पानीपत के तीसरे युद्ध में सहायता करने के उल्लेख है.
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