पमपम बैंड मास्टर की बारात इस वक्त एक सुनसान बग्गड़ के बीच से होकर गुजर रही है. बग्गड़ गंगलोड़ पत्थरों से भरा है और उसके पूरे पाट में जगह-जगह उभर आए मिट्टी के गूमड़ों पर सूखी घास, हिंसर या जलतूंगों की झाड़ियां उग आई हैं. ऊबड़-खाबड़ पेटे में कई जगह चट्टानों के पनालों पर आड़े-तिरछे दाँत कट आए हैं. रास्ता कई जगह इन्हीं दाँतदार चट्टानी पनालों से होकर गुजरता है. मूसलाधार बरसात के मौसम में तेज पानी की धार वाली यह गाड़ (छोटी नदी) मई के इन सूखे गरम दिनों में पगडंडी का काम देती है. इस पगडंडी में सावन-भादों की बाढ़ में बह आए पेड़ों के सूखे तने, उखड़ी जड़ें मरे हुए पशुओं की हड्डियां व पंजर भी यत्र-तत्र अटके-फंसे पड़े हैं. कुछ सूखी जड़ें आबनूस की तरह एकदम काली और चिकनी, कुछ मटमैली, कुछ सफेद-चितकबरी और कुछ कत्थई हो गई है. इनमें से बहुत सारी जड़ों के तुड़े-मुड़े आकार अमूर्त और अद्भुत हैं.
(Mohan Thapliyal Story)
आदिम सभ्यता से लेकर आज तक के ऐतिहासिक स्वरूप को इन आकारों में ढूंढा-पहचाना जा सकता है. परमेश्वर से लेकर शैतान तक के रूपाकार इनमें तलाशे जा सकते हैं. इन जड़ों को टीपकर जहाँ एक ओर यहां के बाशिंदे चूल्हे में झोंककर अपने टिक्कड़ सेंक लेते हैं, वहीं किसी शहरी घर के ड्राइंगरूम में इनकी उपस्थिति कला का बेहतरीन नमूना भी सिद्ध हो सकती हैं.
उखड़ी हुई जड़ों, गंगलोड़ पत्थरों और गाय-बैलों के पंजरों के बीच से गुजरते हुए पमपम बैंड मास्टर की बारात सूनी पगडंडी पर आगे बढ़ रही है. ऊपर पहाड़ की चोटी से देखने पर यह पगडंडी एक ऐसे सांप की तरह नजर आती है, जिसे मारकर पीठ के बल लिटा दिया गया हो.
इसी मरे हुए सांप के पेट पर आहिस्ता-आहिस्ता अपनी छायाओं को कुचलते हुए सात आदमी मई की खुश्क दोपहर में आगे बढ़ रहे हैं. सबके बदन पसीने से तरबतर हैं. सभी का ध्यान बग्गड़ से काफी दूर और गाड के पल्ली-पार खड़े पीपल के उस पेड़ पर है, जिसकी दूरी तय करने में अभी इन्हें कम से कम आधा-पौन घंटा और लगना है.
वह जगह जहाँ पीपल का पेड़ और उसकी इर्द-गिर्द पत्थरों की एक पक्की चौंथरी बनी है, मछकुंड पार के नाम से जानी जाती है. नाम पड़ने का आधार भौगोलिक है. दरअसल इस स्थान पर सपाट बग्गड़ खत्म होकर आगे की ओर एक चट्टानी ढाल में तबदील हो जाता है. यह तीखा ढाल बरसात में झरने की शक्ल ले लेता है. झरने के नीचे एक गहरा कुंड है, जिसमें बारहों महीने पानी और मछलियां मिला करती हैं. इसी कुंड का नाम मछकुंड है. गर्मियों के दिनों में और खासकर जाड़े के ठंडे महीनों में आसपास के लोग इस कुंड में मछलियां मारा करते हैं.
मछलियां पकड़ने के लिए ऊपर से या तो जाल फेंका जाता है या फिर डायनामाइट का प्रयोग किया जाता है. डायनामाइट चोरी-छिपे पी.डब्ल्यू.डी. के गोदामों से सड़क के ठेकेदारों के पास और फिर गाँव वालों के हाथों तक पहुंचते हैं. डायनामाइट से कई बार मछलियों के बजाय मछेरों के हाथ ही साफ़ हो जाते हैं. इन हाथ उड़े लोगों को अपना इलाज बहुत सावधानीपूर्वक और चोरी-छिपे कराना पड़ता है, क्योंकि पूरा मामला गैरकानूनी होने की वजह से भुक्तभोगी काफी डरा-सहमा रहता है.
मछकुंड में नहाने का साहस भी कोई नहीं करता है, क्योंकि अथाह गहराई के साथ-साथ इसकी अवस्थिति भी उतनी ही भयानक और बीहड़ समझी जाती है. झरने की चट्टानी पीठ को काटते हुए यह कुंड काफी गहराई पर है और इसके दोनों ओर खड़े चट्टानों के पाख गिद्ध के डैनों की तरह ऊपर उठ आए हैं. इन डैनों की वजह से कुंड में पड़ने वाली सूरज की रोशनी का रंग नीले अंधेरे में तब्दील हो जाता है. खुली आँख ऊपर से झांकने पर पहली नजर में नीचे नीले अंधेरे के सिवाय कुछ नहीं दिखता है. हाँ, कुछ देर तक आँखें मीचे रहने पर या आँखों पर हथेलियों की ओट बनाकर देखने से नीचे कुछ कुंड में भरा हुआ जल दिखने लगता है. इस पानी में इतना ऊपर से प्रतिबिंब देखना मुश्किल है. सिर्फ यह अहसास लग जाता है कि नीचे कोई चीज उछल-मचल-थिरक रही है. यह अहसास देखने वाले के बदन को भी कंपित कर देता है. बरसात और बादलों के मौसम में कुंड की गहराई से एक ऐसा अजीब शोर घुमड़ता है, जिसे सुनकर कोई भी आदमी बौरा सकता है. बीते स्याह अंधेरे के बीच लगातार गिरती हुई पानी की असंख्य दूधिया डोरियों की ताबड़तोड़ मार कुंड की सतह पर शोर के अलावा चौमुखा फेन भी उलीचती है. यह सफेद झागदार फेन भी आदमी को डराता है. मछकुंड के भीतर अहर्निश व्याप्त इस नीले अंधेरे से डरने का एक और कारण भी है. साल के अलग-अलग मौसमों में अपमों में अपने अलग-अलग तरह के दुख और कष्टों से तंग आकर कई औरतें इस कुंड में छलांग लगाकर अपनी जान गंवा देती हैं. सावन-भादों के घटाटोप दिनों में ऐसे हादसे अक्सर सुनने को मिलते हैं.
भूख का बोलबाला भी सावन-भादों के दिनों में ही अधिक रहता है. गरीब घरों में अनाज के टोकरे या कनस्तर खाली हो चुके होते हैं. फसल पकने-पकने को होती है, लेकिन पेट की पहुँच से करीब डेढ़-दो माह और दूर. खेतों के बीच से गुजरते हुए अनाज की खुशबू भूख की ज्वाला को और तेज कर देती है. यह भूख कई घरों में कई तरह के कलह उत्पन्न करती है. मछकुंड के नीले अंधेरे का शोर उन जवान औरतों का अवसाद भी व्यक्त करता है, जिनके लिए उनके पति, बच्चे, माँ-बाप, भाई-बहन या देवर-ननदों का संसार बेरहम और निष्ठुर हो चुका होता है.
कहा जाता है कि एक जवान दुल्हन आधी रात में सुहाग का बिस्तर छोड़कर गहनों से लदी-फंदी और आंसुओं में भीगती हुई सीधे मछकुंड में आकर समा गई थी. पता चला कि वह एक गरीब बाप की ऐसी बेटी थी, जिसका ब्याह रुपयों के लालच में एक बूढ़े आदमी से कर दिया गया था.
– अपने पतियों, सास-ससुरों और जेठ-देवरों के अमानुषिक अत्याचारों से पीड़ित होकर एक देवरानी और जिठानी ने अपनी चाँदी की झालरदार करधानियों से एक-दूसरे को बाँधकर इस कुंड में एक साथ छलांग लगा दी थी. इस घटना के कुछ वर्षों बाद मछकुंड के ठीक ऊपर भीमल के जो जुड़वां पेड़ उग आए थे, उनका नाम यहां के लोगों की जुबान पर अपने आप ही यूरानी-जिठानी’ चढ़ गया था.
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इस तरह के कई किस्से हैं, जो इस कुंड के बारे में कालातीत से चले आ रहे हैं. इनमें से कुछ किस्से सच्चे हैं, कुछ आधा सच्चे और कुछ मनगढंत. मनगढंत किस्सों में एक का नमूना इस प्रकार है:
‘अमावस्या की रातों में मछकुंड के ऊपर वाले टीले पर कुछ अंछरियां (परियों के लिए प्रयुक्त स्थानीय शब्द) आकर झुमैलो गाती हैं. नाचते हुए इन अंछरियों के वस्त्राभूषण वही सब होते हैं, जिन्हें पहनकर यहाँ की औरतों ने कभी मछकुंड में अपनी जान दी होगी… .
इस दुनिया की बदहाल और भूखी औरतें एकाएक अमावस्या की रातों में खुशहाल और मदमस्त होकर अंछरियां बनकर झूम गा सकती हैं- यह लोगों के मनगढंत खयाल नहीं तो और क्या है? हाँ, ये किस्से सच हों या मनगढंत, दोनों की जड़ में एक वजह भूख या अतृप्त प्रेम जरूर होती है.
वैसे मछकुंड में कूदकर जान देने वाली सभी औरतों की लाशें गुम नहीं होती है. यह सही है कि कुछ लाशों को सियार या जंगली जानवर उठा ले हैं और कुछ लाशें अंदर के कोटरों में फसकर सड़-गलकर मछलियों का आहार बन जाती हैं, लेकिन कभी-कभार स्थानीय पटवारी के हाथ ऐसी फूली लाश भी लग जाती है, जिसकी अस्पताल में चीर-फाड़ होने के बाद यह पता चलता है कि यह मामला हराम-हमल (अवैध गर्भ) का था. फिर जिला कचहरी में सालों-साल मुकदमा खिंचता चलता है और पीड़ित परिवार के सदस्यों से तगड़ी घूस ऐंठी जाती है. अदालत से बाहर उस औरत के बारे में अटकले लगती रहती है कि उसके पेट में पल रहा हमल किस आदमी का था? उसके श्वसुर का, खास देवर का या घुंघराले बाल और गठीले बदन वाले उस हरिजन हलिया रीठू का, जिसके साथ बोलते-बतियाते या सुध-बुध खोते हुए कई लोगों ने उसे देखा था?
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पमपम बैंड मास्टर की बारात अब मछकुंड पार के पीपल पर पहुँचने वाली है. इस बारात में सबसे आगे तेरह साल का एक लड़का है, जो अपने गले में डमाऊ लटकाए हुए है और अपनी दोनों मुट्ठियों में उसके डमाऊ को पीटने के लिए लाकुड़ें थामी हुई है. लाकुड़ों की चोट डमाऊ के चमड़े पर मारकर वह डंग-डंग की आवाज निकाल रहा है. डमाऊ वह बेमन से पीट रहा है, इसीलिए आवाज में न समरसता है और न सुरीलापन. वह डमाऊ को कभी सिर्फ एक लाकुड़ से पीटता है, कभी दोनों से और कभी पागलों की तरह दोनों हाथों से ताबड़तोड़ पीटने लगता है. कभी वह सहसा चुप हो जाता है. कुल मिलाकर वह 13 साल का लड़का डमाऊ के साथ एक अजीब छेड़खानी जैसी हरकत कर रहा है.
खबड़चिया रास्ता आने पर वह डमाऊ का बोझ मुश्किल से थाम पाता है. पसीना तेज-तेज चूने लगता है और तब वह लाकड़ों का इस्तेमाल माथे का पसीना चुआने में करने लगता है या पीठ पर जम आए मैल की खुजली मिटाने में. डमाऊ के उलटे पेंदे की चोट कभी उसके घुटने की हड्डी को दुखा देती है, लेकिन इस चोट से उसके चेहरे पर जो पीड़ा और गुस्सा बिफरता है, उसे अन्य बाराती नहीं देख पाते, क्योंकि बाकी छः लोग कुछ हटकर उसके पीछे चल रहे हैं. वह 13 साल का लड़का हरिजन है और अपनी उम्र के हिसाब से उसे इस बारात से कोई लेना देना नहीं है. उसका एकमात्र लालच यही है कि ग्यारह मील का सफर तय करने के बाद उसे पमपम की ससुराल में खस्सी बकरे का मांस और तेल में भुनी हुई लाल मिर्च के साथ भरपेट छकने को कचबोली (भुना हुआ मांस) मिल जाएगी.
बारात में दूसरा आदमी बामदेव बामन है. उसके एक हाथ में दही का परोठी है, जिसका मुँह उसने मालू के पत्तों से ढककर लाल सूत के धागे से कसकर बाँधा हुआ है. बामदेव बामन के दूसरे हाथ में बारह सींकों वाला छाता है. यह छाता बहुत पुराना है. छाते के कपड़े पर कई पैबन्द लगे हैं और उसका असली काला रंग छूटकर अब राख जैसा हो गया है. बामदेव बामन को यह छाता करीब सत्रह वर्ष पूर्व शम्भू नामक एक जजमान ने दिया था, जो धर्मतल्ला स्ट्रीट, कलकत्ता की एक दुकान में नौकरी करता था. कंधे पर बामदेव बामन ने एक झोला फंसाया हुआ है, जिसमें पूजा की हलकी-फुलकी सामग्री, फलित ज्योतिष और कर्मकांड की एक-एक किताब, मेदनीधर वाला पंचांग और एक मर्दाना धोती लुसी हुई है. बामदेव बामन ने जो मिरजई पहनी हुई हैं, उसकी जेब में एक थोड़ी-सी सौंफ, दो-चार इलायची, कुछ सुपारी के टुकड़े और ऊपरली जेब में एक मिट्टी की चिलम, बटुवानुमा कपड़े की थौली में थोड़ा-सा कोरा तंबाकू और इसी थैली के दूसरे खीसे में तर्पण देने के काम में आने वाला शालिग्राम पत्थर भी है.
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तीसरा आदमी पमपम बैंड मास्टर का बाप घेपल्या उर्फ मुकंदी है. बंदोबस्ती कागजों में भी उसका यही नाम चढ़ा है. घेपल्या उर्फ मुकंदी ने गढ़वाल रायफल्स के एक जवान से मंगनी की कमीज और हॉफ पैंट पहनी हुई है. कमीज की जेबों को घेपल्या ने बटन लगाकर बंद किया हुआ है. पैंसठ साल की दुबली काया पर गढ़वाल रायफल्स के जवान की झकमाझोल कमीज और हॉफ पैंट पमपम के बाप को फालतू आदमी ही सिद्ध कर रही है, लेकिन पांवों पर कसे हुए मिलिट्री के लाँग बूट और उनके तलुवों पर ठुकी हुई लोहे की नाल और ठोकरों की आवाज से जब रास्ते के पत्थर खनकते हैं, तब नहीं लगता कि वह फालतू या निकम्मा आदमी होगा. टिहरी रियासत के एक मुलाजिम ने कभी पमपम के बाप को मैनचेस्टर के सर्ज की बनी एक नौ इंच बाढ़ वाली काली टोपी पहनने को दी थी, वह टोपी घेपल्या ने आज भी पहनी हुई है. मुलाजिम ने पमपम के बाप को बताया था कि उस टोपी को पहनकर वह बोलांदा बदरीनाथ’ (महाराजा टिहरी) के दरबार में गया हुआ है और एक बार इसी टोपी को पहनकर वह राजपरिवार की एक बारात में नहान स्टेट भी गया था, जहाँ नहान के राजा ने बारातियों को एक ऐसा लड्डू खिलाया था, जिसका वजन आधा सेर से कुछ ही कम रहा होगा और जिसमें काजू, किशमिश, छुहारे, बादाम, गरी, इलायची, पिस्ता, चिरौंजी काली मिर्च, केसर, सौंफ और न जाने क्या-क्या भरा हुआ था. मुलाजिम इसी टोपी को पहनकर एक बार कुंभ के मेले में राजा के साथ हरिद्वार भी गया था.
मुलाजिम के मुँह से यह जानकारी पाकर घेपल्या बहुत खुश हुआ था. जिस टोपी ने कभी राजदरबार की शोभा बढ़ाई थी, वही आज उसके सिर पर ताज के रूप में विराजमान है. उसने उसी क्षण यह फैसला ले लिया था कि इस टोपी को वह ताउम्र सुरक्षित रखेगा. वर्षों पहले जिस दिन उसने पहली बार टोपी को सिर पर पहना था, अकस्मात् ही उसके होंठ बुदबुदा उठे थे-‘जय रक्षत बोलांदा बदरी’ (हे बोलते हुए बदरीनाथ यानी महाराजा टिहरी, तेरी जय हो!).
लेकिन उसका यह बुदबुदाना टिहरी के राजा की रक्षा नहीं कर सका था. सैंतालीस में सुराज आ गया था और उसी के दो वर्ष बाद 1949 में टिहरी रियासत का भारत संघ में विलीनीकरण हो गया था. राजा के हाथ से पूरा राजपाट छिन गया. उसकी पेंशन बँध गई.
अब घेपल्या के सिर पर सर्ज की वह काली टोपी चीकट और लिसलिसी हो गई है. पसीने के मैल से बाढ़ का कपड़ा जगह-जगह फटकर झड़ चुका है. अंदर बारीक टाट का अस्तर भी सड़कर काला व भद्दा पड़ चुका है. स्टेट मर्ज होने के नाम पर राजा के साथ भले ही भद्दा मजाक न हुआ हो, लेकिन रियासत जाने के आठ साल बाद आजाद देश की प्रजा के नाम पर घेपल्या के साथ जो भद्दा मजाक चल रहा है, उस पर वह इस वक्त हँस भी कैसे सकता है. राजा तो चुनाव जीतकर फिर राजा बन गया था, लेकिन घेपल्या उर्फ मुकंदी की बढ़ती गरीबी का राज क्या था, इसे न तो राजा के किसी कारिंदे ने उसे बताया था और न ही प्रजातंत्र के किसी झंडाबरदार ने.
पमपम बैंड मास्टर की बारात में चौथा आदमी उसका चाचा है, जिसकी पीठ पर टीन का एक छोटा संदूक है. टीन के इस पुराने संदूक पर कभी बहुत सुंदर रंग चढ़ा था. नीले रंग के पानी में पीले रंग की तैरती हुई बत्तखें थीं. अब पूरा संदूक बदरंग हो चुका है. रंग उखड़कर टीन पर पील पड़ चुके हैं. इस संदूक में शादी की रस्म से जुड़ा हुआ कुछ जरूरी सामान, थोड़ा कलेवा, घोड़ा छाप बीड़ी के कुछ बंडल, दो-चार दिया-सलाई और एक बटुवे में तेईस सौ रूपयों की गड्डी है, जिन्हें चुकता करने के बाद पमपम का बाप घेपल्या नई बहू को अपने घर लाएगा. इस संदूक पर एक छोटा पीतल का ताला लगा है, जिसकी चाबी पमपम के बाप ने मिलिट्री वाली कमीज के भीतर पहनी हुई रेबदार बंडी की जेब में काफी तजवीज के साथ संभालकर रखी हुई है.
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पमपम के चाचा के बाद इस बारात में पमपम का जीजा डबल सिंह, पमपम का मामा घूरा और सातवां आदमी पड़ोसी गाँव किलमोड़ी का कर्त्या है, जो इस इलाके में भेड़-बकरियों का तगड़ा व्यापारी है. किलमोड़ी का कर्त्या बकरियों का सौदा पटाने के अलावा शादी-ब्याह के मौकों पर जरूरतमंद लोगों को गंठखुलाई (ब्याज) पर रुपया कर्ज भी देता है. इस मौके पर पमपम के बाप को कर्त्या ने ही 23 सौ रुपए गंठखुलाई पर कर्ज दिए हैं. पमपम की ससुराल में बारातियों की दावत के लिए जो खस्सी बकरा काटा जाएगा, उसे भी कर्त्या ने ही चार बीसी पांच (85 रुपए) रुपयों में लड़की के बाप बिंदरू को बेचा है. घेपल्या जब बिंदरू को 23 सौ रुपए अदा करेगा, उसी वक्त का बिंदरू से अपने बकरे की कीमत वसूल लेगा. इस तरह कर्त्या ने एक ओर पमपम के लिए लड़की का सौदा पटाने में घेपल्या को चूसा है और दूसरी ओर लड़की के बाप से भारी मुनाफा डकारकर बकरे का सौदा भी पटाया है.
पमपम बैंड मास्टर की बारात अब मछकुंड-पार वाले पीपल की चौंथरी पर आकर बैठ गई है. बामदेव बामन ने अपनी चिलम भरकर हल्का कश खींचना शुरू कर दिया है. घेपल्या के पास चिलम नहीं है, इसलिए उसने अपने लिए पतबीड़ी (पत्ते को मोड़कर बनाई गई चिलम) पर तंबाकू भरा है. बामदेव बामन को छोड़कर बाकी लोग इसी पतबीड़ी से सुट्टा खींच रहे हैं. घेपल्या से पतबीड़ी लेकर कर्त्या ने एक लंबा कश खींचकर खस्सी बकरे का बखान शुरू कर दिया है- “अखरोटी रंग का बदन है, लेकिन घुटनों से नीचे, कानों के अगल-बगल और पेट की पट्टी पर बीचों-बीच दूधिया रंग की छोटी-छोटी बूंदियां हैं, जिससे उसकी खूबसूरती और छैलापन अलग नजर आता है. उसकी मांसल गर्दन की ऐंठ और रानों का उभार तो और भी ललचाता है. उसके सींगों की मरोड़ पेच वाली कील की तरह है. हिम्मती इतना है कि सांड़ से भी भिड़ जाता है. किसी की क्या मजाल कि उसकी दाढ़ी मुट्ठी में ले ले. चर्बी इतनी भरी है कि अलग से घी-तेल की जरूरत नहीं पड़ेगी. तीन महीने पहले ही उत्यासू (गाँव) के कल्या से यह बकरा मैंने पाँच कम तीन बीसी (55 रुपए) में नकद देकर खरीदा था. बकरों की डार में यदि वह साथ है तो सियार का खौफ बिलकुल नहीं रहता. कोई माई का लाल यदि एक ही चोट में उसकी गर्दन अलग छनका दे तो मैं पूरी कीमत उसे लौटा सकता हूँ. देखना, उसकी बोटियां चबाने में जितना मजा आएगा, उससे कहीं अधिक उसकी हड्डियां चूसने और शोरबा गटकने में आएगा.”
मछकुंड-पार के बाद पमपम बैंड मास्टर की बारात अब सीधी चढ़ाई पर है. इस पहाड़ पर बांज, बुरांस का छितरा जंगल शुरू हो गया है, जो चोटी के करीब घना होकर दूसरी तरफ की ढाल पर तीन फर्लाग नीचे तक फैला हुआ है. इस खडी पगडंडी पर चढ़ते हुए सातों बारातियों के दम खुश्क हो रहे हैं. ऊपर की धार में एक बहुत पुराना बांज का पेड़ है, जहाँ पर इस ओर का आखिरी पड़ाव है. इसी पेड़ के पास पानी का एक स्रोत है, जिसकी धार पर दोनों हथेलियों से छमोटा बाँधकर मुसाफिर बांज की जड़ों का ठंडा पानी पीते हैं.
बांज का पेड़ अति प्राचीन है. आधा लूंठ और आधा सब्ज. अपनी छाया में भूत-प्रेत और देवी-देवता सभी को आश्रय दिए हुए. जड़ों के आसपास आदिम जमाने से जमे हुए पत्थर ही बैठने का काम देते हैं. गाँव की औरतें इन्हीं पत्थरों पर हथियारों की धार भी तेज करती हैं. इसी पेड़ से कुछ आगे पमपम की ससुराल यानी किमसारी गाँव का मरघट है- एक छोटा सा गोल तप्पड़ (मैदान), जिसमें अधजली लकड़ियों के मुरगुंड, बुझे कोयले, राख और जलाए गए मुर्दो की कुछ ऐसी हड्डियां यत्र-तत्र बिखरी पड़ी हैं, जो ठंड, बरसात और पाले से छीजकर चितकबरी हो गई हैं.
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मरघट के इस काले गोलाकार तप्पड़ से कुछ आगे तक पगडंडी धार-धार आगे बढ़ती है. रास्ते में बिच्छू के आकार का एक तालाब पड़ता है, जिसमें गर्मियों के दिनों में सिर्फ कीचड़ और दलदल भरा रहता है. चौमासे के दिनों में जब यह पानी से लबालब भरा होता है, तब इसमें डूबती-तैरती भैंसों के सींग ही सींग और पीठ ही पीठ नजर आती हैं. पूरे तालाब में सींग ही सींग और पीठ ही पीठ. तालाब जहाँ खत्म होता है, वहाँ से किमसारी गाँव के खेत और इक्के-दुक्के मकान दिखने शुरू हो जाते हैं.
बारात बांज की डाली से आगे बढ़ चुकी है. डमाऊ की आवाज रूक रूककर अब मरघट के सन्नाटे को तोड़ रही है. डूबते सूरज की झांई सिर्फ ऊँची चोटियों पर ही हल्की-सी बची है. उतराई पर किमसारी गाँव की घसियारिनें और डंगर भी बारातियों को मिलते हैं. पमपम की दुल्हन तमाली को भी यह बारात रास्ते में मिलती है, जो घास लेकर घर जा रही है. तमाली अब लपका कदमों से जल्दी-जल्दी बारात को पीछे छोड़कर छोटा रास्ता पकड़ लेती है. घर पहुँचकर उसे बारातियों के लिए पानी लेने नवाला जाना है, भैंस दुहनी है, चाय, कलेवा, हुक्का-पानी, साग-पात और बिस्तर-कपड़े जुटाने तक के काम भी उसे ही निपटाने हैं.
गाँव के करीब पहुँचने पर पमपम बैंड मास्टर की बारात उस घर की तरफ बढ़ गई है, जिधर से बकरे की भुन्याण आ रही है. सात बारातियों की खातिरदारी लायक हलकी-सी चहल-पहल बिंदरू के घर पर है. हलवे की गंध और कड़ाही के इर्द-गिर्द कुछ छोटे बच्चे हैं, जिनकी नाक और लार दोनों ही टपक रही हैं. चरखू दादा और घुत्या काका के मजाक हैं. रात में पांडव नाचने और बारातियों के लिए दो तमलेट कच्ची दारू का इंतजाम भी पक्का है.
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तमाली यानी पमपम की दुल्हन हर छोटा-बड़ा काम निपटाने में लगी है. बारातियों में उसके हाथ की बहुत तारीफ हो रही है. टीका-पानी करके बामदेव बामन दारू की घुटकी लगाकर सो गया है. तमाली को दरअसल दुल्हन की भूमिका में रहना भी नहीं है. इस शादी में न द्वाराचार होना है, न मंगल गीत गाए जाने हैं, न फेरे लगने हैं, न कन्यादान की रस्म होनी है और न ही गोदान होना है. यह खर्च की शादी है- उठाखड़ी की बारात. इसमें सिर्फ लड़की के बाप को रुपयों की अदायगी होनी है और अगले दिन तमाली को अपनी ससुराल चल देना है. ससुराल पहुँचकर फिर उसे काम पर जुट जाना है. घास, पानी, खेत, जंगल, झाडू-बुहार, कूटना-पीसना, चौका-बर्तन, कटाई-मंड़ाई जैसे छोटे-बड़े कामों में सुबह से लेकर रात तक उसे ही खटना है.
हकीकत यह है कि पमपम बैंड मास्टर की इस बारात में पमपम शुरू से ही शामिल नहीं है. वह नई दिल्ली के हौजखास गाँव से कुछ आगे अधचिनी मोड़ पर इलाहीबख्श बैंड मास्टर के यहाँ ड्रम बजाता है. इलाहीबख्श की अभी पक्की दुकान नहीं बनी है. सिर्फ बाँस की खपच्चियों का टट्टर उसने खड़ा किया है. इस इलाके में आम-ओ-दरफ्त अभी काफी कम है. सफदरजंग अस्पताल से आगे बढ़ना रात आठ बजे के बाद खतरनाक समझा जाता है. इलाहीबख्श को बहुत ढूँढ-ढूँढ़कर शादियों के ऑर्डर बुक करने होते हैं.
लेकिन पमपम को इतना जरूर मालूम है कि 23 सौ रूपए चुकता कर तमाली उसके घर आ जाएगी और अब एक-एक रुपया जोड़कर उसे तेईस सौ रुपयों का कर्ज चुकाना होगा.
पमपम कब घर आएगा, यह उसकी दुल्हन तमाली को मालूम नहीं है. तमाली को यह भी नहीं मालूम है कि पमपम का असली नाम पिरम है. पमपम नाम तो उस दिन से चल पड़ा था, जिस दिन पिरमू की यह चिट्ठी गाँव में पहुँची थी कि उसे दिल्ली में बैंड बजाने का काम मिल गया है. घेपल्या ने उसी दिन पूरे गाँव में यह खबर फैला दी थी कि उसका लड़का वर्दी-टोपी लगाकर बैंड मास्टर बन गया है.
और गाँव वालों की जुबान पर पता नहीं क्यों उसी दिन से पिरम के बदले पमपम बैंड मास्टर का नाम चढ़ गया था. घेपल्या के लिए जब भी पिरम् की चिट्ठी आती, गाँव वालों के लिए वह पमपम बैंड मास्टर की चिट्ठी होती.
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बहरहाल क्योंकि पमपम बैंड मास्टर अपनी बारात में शामिल नहीं है, लौटते हुए तमाली की इस बारात में डमाऊ की डंग-डंग के साथ तमाली के पाँवों में बँधे चाँदी के झिंवरों की छणक भी शामिल हो गई है. बाकी सब कुछ वैसा ही सन्नाटा-भरा और एकरस है, ठक-ठक बजती लाठी, छतरी और चढ़ाई पर गले से निकल रही खम-खम खाँसी की आवाज के साथ-नौ आदमियों की एक छोटी-सी कतार.
नौवां आदमी इस बारात में तमाली का छोटा भाई है, जिसकी पीठ पर कलेवे की एक छोटी-सी कंडी है और जिसे पूरे रास्ते-भर में मछकुंड देखने को बड़ी ललक है. वह बार-बार तमाली से मछकुंड के बारे में पूछता रहता है, लेकिन तमाली उसे हर बार मछकुंड के बारे में सही-सही और ठीक-ठीक कुछ भी नहीं बतलाना चाहती है.
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–मोहन थपियाल
मोहन थपियाल उत्तराखंड के वरिष्ठ लेखक हैं. उनका जन्म टिहरी में 14 अक्टूबर 1942 को हुआ था. 1983 में उनका पहला कहानी संग्रह सालोमन ग्रुंडे और अन्य कहानियां प्रकाशित हुआ था. मोहन थपियाल द्वारा 1994 में लिखी गयी पमपम बैंड मास्टर की बारात कहानी समय साक्ष्य द्वारा प्रकाशित मोहन थपियाल की सम्पूर्ण कहानियां किताब से साभार ली गयी है.
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अद्भुत चरित्र चित्रण, परिवेश तो सजीव कर दिया। बिम्ब उभारे हैं नए नवीन, वाह।