केशव भट्ट

बागेश्वर के मोहन जोशी की बांसुरी का सफ़र

बचपन में यदा-कदा बुड़-माकोट (पिताजी के ननिहाल) जाना होता था. वहां बगल के पाथरनुमा दोमंजिले घर की खिड़की पर रिश्ते के छोटे चाचा बांसुरी बजाते दिखाई देते. उन्हें सुनता तो मैं हैरत में पड़ जाता. पहाड़ी गानों की धुनें को बेहद मीठे स्वरों में हू-ब-हू निकालने में वह माहिर थे. हम बच्चे उनसे और सुनाने की ज़िद करते और वह भी हमें कभी निराश नहीं करते. वह खुश होकर हमें ढेर सारे गानों की धुन बजाकर सुनाते. कभी कभार उनकी धुनों पर हम नाच भी लेते. रामलीला के दिनों में गांव के बाजार-कठपुड़िया से हम बच्चे पचास पैसे की बांसुरी खरीद लाते और चाचा की तरह बजाने की असफल कोशिश में लगे रहते. कुछेक टूं… टूं… पीं… पीं… कर आधा-अधूरा गाना बजाकर संतुष्ट हो लेते लेकिन हमसे वह भी नहीं हो पाता था और कुछ दिनों बाद बांसुरी भी शहीद हो जाती. बांसुरी को हमारी फूंक और उंगलियों का तालमेल नहीं समझना था तो नहीं ही समझी और हमने भी उससे दूर रहने में ही भलाई समझी.
(Mohan Joshi Bageshwar)

कोई दस साल पहले एक आधे-अधूरे परिचित अकसर एक लम्बी सी पेटी दुकान में रख जाते और फिर हफ़्ते-दो हफ़्ते बाद उसे अपने झोले में डालकर कुछ दिनों के लिए गायब हो जाते. लगभग तीस साल का वह सवा छह फीट लंबा हंसमुख शख्स कब मित्र बनते चला गया पता ही नहीं चला. उसका मुस्कुराता हुआ चेहरा बरबस अपनी ओर खींचता. एक बार जब वह अपना संदूक लेने आया तो मैं पूछ ही बैठा कि इस पिटारे में क्या है? मुस्कुराते हुए जब उसने अपना पिटारा खोला तो मैं भौचक्का रह गया. संदूक से उसने बड़ी-छोटी छह-सात बांसुरियां बाहर निकाली. मुझे सहसा अपना बचपन याद आ गया. मैंने पूछा- मैंने आज तक एक ही तरह की बांसुरी देखी थी, सीधे मुंह में डालकर बजाने वाली, ये अलग जैसी क्यों हैं? उसने मुस्कुराते हुए एक बांसुरी को अपने होंठों से तिरछा लगाया और एक राग बजाना शुरू कर दिया. मैं मंत्रमुग्ध हो गया.

पहली बार इतने मीठे स्वर सामने से सुनने को मिले. ‘बाकी बांसुरियों का क्या काम होने वाला हुआ?’ पूछने पर मोहन ने बताया कि भजन और गीतों के स्वरों के उतार-चढ़ाव में ये काम आती हैं. हर बांसुरी के अलग-अलग स्वर होते हैं. यह कहकर उसने बड़ी बांसुरी से एक गीत बजाना शुरू कर दिया. चढ़ाव और अंतरे के लिए उसने तुरंत दूसरी बांसुरी अपने होंठों पर लगा ली. इन सारी बांसुरियों की कीमत पूछने पर हंसते हुए उसने बताया- यही कोई तीस हजार रुपयों की हैं. यहां मिलती नहीं हैं इसलिए दिल्ली से लानी पड़ती हैं. कीमत सुन चौंकते हुए मैंने कहा- अरे! मैं तो इसे टूल बॉक्स समझता रहा आज तक. अब संभालकर रखनी पड़ेगी यह अमानत.

‘बस चलने लगी है, अभी हल्द्वानी जा रहा हूं एक भागवत का कार्यक्रम है वहां. अगले हफ़्ते आता हूं.’ यह कह कर उसने अपना पिटारा संभाला और लंबे डग भरता हुआ बस की ओर चला गया. मैं काफी देर तक उसकी धुन में खोया रहा. बागेश्वर बाजार के गोमती पुल से नदीगांव वाली सड़क आगे अमसरकोट से दो जगहों को फटती है. एक गिरेछिना होते हुए सोमेश्वर को और दूसरी भयेड़ी गांव समेत अन्य गांवों को जाती है. इसी भयेड़ी गांव का हुआ मोहन जोशी. धीरे-धीरे मैं उसके आने का बेसब्री से इंतजार करने लगा. कुछेक मुलाक़ातों के बाद वह और भी खुलता चला गया. इन मुलाकातों के दौरान उसने अपनी जो गाथा सुनाई उसे यहां कलमबंद करने का प्रयास कर रहा हूं.
(Mohan Joshi Bageshwar)

1995 की उत्तरायणी में दीदी के साथ वह मेला घूमने आया था तो उसकी जिद्द पर दो रुपये वाली बांसुरी दीदी ने उसे दिला दी तो उसका मेले का सपना जैसे सच हो गया. बांसुरी के प्रति उसकी दीवानगी देख घर-गांव वाले कहा करते थे कि अपने बूबू पर गया है, इसके बूबू भी जौयां बांसुरी बजाया करते थे. लेकिन बच्चों का बजाना ठीक नहीं हुआ. बूबू प्यार तो खूब करते थे लेकिन उन्होंने कभी बांसुरी बजाई नहीं मेरे सामने. बूबू के जाने के बाद एक बार घर में बक्सा खोला तो उसमें बूबू की जौयां बांसुरी मिल गई. बांसुरी बहुत अच्छी थी. लेकिन दो-एक दिन में ही मेरे नन्हें हाथों ने बांसुरी की उम्र पूरी करा दी.

मोहन बताते हैं कि पहले टाट से बने झोले के किनारे बांस के मजबूत डंडे से बने होते थे. एक बार झोले का बांस निकाल आग में उसे गर्मकर खुद ही बांसुरी बना ली. बांसुरी की ऐसी दीवानगी छाई कि गांव में जब भी जानवरों को लेकर ग्वाला जाता तो दिनभर बांसुरी की धुन बजाने में लगा रहता था. ग्वाले साथी खुश होते तो मुझे भी खुशी मिलती. गांव की होली में पहाड़ी गानों की धुन भी बजा लेता था. उत्तरायणी के मेले में जाने का फितूर हर बार रहता था. तब उत्तरायणी मेले के सांस्कृतिक कार्यक्रम में कलाकारों को मैं ध्यान से सुनता था. मन होता था कि काश मैं भी इनके साथ बांसुरी बजाता. खाली वक्त में वे कलाकार अपने कमरे में रियाज करते थे. वो कलाकार कर्मी गांव के थे और उन कलाकारों ने ‘खर्कटम्टा’ नाम से अपना ग्रुप बनाया था. मैं भी चुपचाप उनके कमरे में उनके रियाज को देखने चले जाता था. धीरे-धीरे कर्मी गांव के एक कलाकार से मेरी दोस्ती हो गई. मैं बांसुरी बजाता हूं सुन उन्होंने मुझे भी अपने रियाज में शामिल कर लिया. स्वरों में मेरी पकड़ देख उन्होंने मुझे अपने आगामी कार्यक्रमों में आने का न्यौता दे दिया तो मैं काफी खुश हो गया. हांलाकि उनके साथ कमाई का कुछ भी नहीं था. बाद में दो-एक साल सूचना विभाग के जनता के जागरूकता वाले प्रोग्रामों में भी काम किया. कुछ समय बाद ‘झंकार सांस्कृतिक मंच’ के साथ गया तो पता चला कि इस बांसुरी से काम नहीं चलेगा. इस पर देहरादून भागा और आठ सौ में चार बांसुरी खरीद लाया. एक बार अल्मोड़ा में ‘हिमालय लोक कला केन्द्र’ के डायरेक्टर गोकुल बिष्ट ने मुझे बांसुरी बजाते देखा तो उन्होंने अपने साथ काम करने की पेशकश की. उनके साथ काम करने पर मुझे बांसुरी के सुर की गहराई समझ में आई. वहां मुझे हर सुर की बांसुरी के बारे में बताया गया. गोकुल बिष्टजी ने मुझे अल्मोड़ा में भारतखंडे संगीत विद्यालय में प्रवेश के लिए प्रेरित किया तो वहां चार साल तक, ‘यमन, बागेश्वरी, भूपाली, तोड़ी’ समेत अन्य रागों की शिक्षा ली.

मेरे घरवाले बहुत सीधे हैं लेकिन उन्हें मेरे भविष्य की चिंता सताती रहती थी. वे हमेशा कहा करते थे कि तू कहीं कुछ नौकरी कर लेता. क्या होगा इस बांसुरी को बजाकर. घरवालों की बात पर मैंने बागेश्वर में कम्प्यूटर का कोर्स किया तो मुझे एक सी.एस. सी. सेंटर में छह हजार रुपये महीने की नौकरी मिल गई. छह महिने वहां काम करने के बाद मन नहीं लगा तो मैं वहां से भाग खड़ा हुआ. रुद्रपुर में टीवीएस कंपनी में एप्लाई किया तो वहां एकाउंट सेक्शन में नौकरी लग गई. वहां से भी बीच-बीच में बहाने बनाकर संगीत के कार्यक्रमों में चला जाता था. नौकरी करते वक्त कुछ पैसा बचा तो मैं दिल्ली भागा बांसुरी लेने. वहां प्रोफेसनल बांसुरी की कीमत तीनेक हजार से शुरू थी और मेरे पास थे महज ढाई हजार रुपये. मन मसोम कर वापस आया और बाद में दोबारा गया और दो बांसुरियां ले आया. प्रोफेशनल बांसुरी मिलने से संगीत में लय आ गई. दो साल यहां काम करने के बाद नौकरी छोड़ दी और बांसुरी को ही लक्ष्य बना लिया. हिमालय लोक कला केन्द्र के साथ अन्य राज्यों की यात्रा शुरू हुई तो अन्य टीमों के बांसुरी वादकों से काफी कुछ सीखने का मौका मिला. उनसे पता चला कि बांसुरी का असली गढ़ तो पीलीभीत ठहरा. फिर क्या था, वहां जाकर बारह बांसुरियों का पूरा सैट खरीद लाया.
(Mohan Joshi Bageshwar)

घरवालों की किच-किच से परेशान होकर मैं दो-एक बार फौज में भर्ती होने के इरादे से रानीखेत भी गया. भर्ती के दौरान रातें सड़कों पर बितानी पडीं. रात में एक बार तो कुत्तों का झुंड ही पीछे पड़ गया, बमुश्किल जान बची. फौज में लेफट-राइट का सपना भी ‘थम’ होकर रह गया.  आकाशवाणी के कार्यक्रम में हुड़का वादन का काम करने वाले मित्र चंदन बोरा एक बार बतौर संगतकर्ता मुझे अपने साथ रामपुर ले गए. वहां केन्द्र के उद्घोषक राजेश्वरी ने बताया कि आप स्वर परीक्षा के लिए आवेदन करिए. इस पर मैंने स्वर परीक्षा का टेस्ट दिया और पास हो गया. मुझे बी ग्रेड का प्रमाण पत्र मिल गया है जो मेरे लिए बड़ी खुशी की बात थी. आवेदन में मैंने अपना पता हल्द्वानी का लिखाया था. घर का पता बताने में मजबूरी थी. वहां का केन्द्र आकाशवाणी अल्मोड़ा था और वहां से प्रोग्राम कम मिलते थे. अब आकाशवाणी केन्द्र रामपुर से मुझे बुलावे आने लगे. मेरे एक मित्र गिरीश जोशी भागवत की भजन मंडली में थे. एक बार वह भी मुझे अपने साथ ले गए. हारमोनियम, तबले की थाप के साथ जब मैंने बांसुरी के राग छेड़े तो समां ही बंध गया.

भागवतों की भजन मंडलियों में बजाने का सिलसिला जारी रहा. इन कार्यक्रमों से आमदनी होने लगी तो घरवालों ने इसे ही मेरी नियती मानकर चुप्पी साध ली. उस दौर में कई सरकारी सांस्कृतिक प्रतियोगिताओं में भी मैं अव्वल आया. एक बार फेसबुक से पता चला कि दुबई में उत्तराखंड कल्चरल नाइट होने वाली है. बागेश्वर जिले के लौंबाज निवासी देवेन्द्र सिंह कोरंगा इसे दुबई में करवा रहे हैं. मैंने उनसे संपर्क किया और अपने बांसुरी वादन के बारे में बताया. उनका जबाब दिया कि बांसुरी वादन के लिए तो किसी से बात हो गई है. हां, मशकबीन बजा सकते हो तो उसके कुछ वीडियो भेज दो. इस पर मुझे याद आया कि एक बारात में मैंने मशकबीन बजा रहे प्रकाश राम से बाजा लिया और उसकी धुन में पहाड़ी गाने बजाने शुरू किए तो घराती और बराती सभी झूम उठे थे. कइयों ने तो मेरी कमीज की जेब में पैसे भी ठूंस दिए थे, जो मैंने प्रकाश को ही दे दिए थे.
(Mohan Joshi Bageshwar)

प्रकाश राम का घर रतेड़ गांव से नीचे घटगाड़ में था. बीनबाजा ही उसकी रोजी-रोटी का जरिया था. उसे मैंने बताया कि मुझे बीनबाजा बजाते हुए वीडियो बनाकर भेजना है तो वह बहुत खुश हो गया. हम दोनों गांव से दूर जंगल में गए ताकि ठीक से रिकार्डिंग हो सके. बीनबाजा बजाते हुए मैंने मोबाइल से वीडियो बनाया और उसे दुबई में कोरंगाजी को भेज दिया. मैं उनके जबाब का इंतजार कर ही रहा था कि दिल्ली से एक भागवत में बुलावा आ गया. वहां शिव दत्त पंतजी से मुलाकात हुई. मैंने उन्हें बांसुरी में राग सुनाए तो वह भाव-विभोर हो उठे. उसी पल दुबई से कोरंगाजी का भी सकारात्मक जबाब मिल गया.

दुबई कैसे जाते होंगे? इस सवाल पर शिव दत्तजी ने पूछा, ‘पासपोर्ट तो होगा न तुम्हारे पास..?’ मुझे तो यह भी पता नहीं था कि पासपोर्ट होता क्या है, और बनता कहां है? अब पासपोर्ट बनाने के लिए भागमभाग शुरू हुई. बड़ी मुश्किल से पासपोर्ट बना. मन में विदेश जाने के आशंकाओं से मैं काफी डर भी रहा था. आखिरकार एक सूटकेस में सामान भरा और दुबई जाने वाले साथियों के भरोसे हो लिया. दिल्ली में एक बार फिर से शिव दत्त पंतजी के घर में ही एक दिन पहले डेरा डाल लिया. शिव दत्त पंतजी दिल्ली में पुरातत्व विभाग में नौकरी करने वाले हुए. हंसमुख स्वभाव के शिवदत्तजी पहाड़ी कलाकारों की ख़ूब मदद करते रहने वाले हुए.

हवाई यात्रा के दिन हम सब तीन घंटा पहले ही पालम हवाई अड्डे पहुंच गए. मैं तो बस रोबोट की तरह साथियों से चिपका हुआ था. तमाम औपचारिकताओं को पूरा करने के बाद हम आखिरकार हवाई जहाज में बैठ गये. अंदर देखा तो अपनी हैरानी को मैं छुपा नहीं सका. ‘बब्बा हो… इमे तो सार बागश्यर ए जाने भे हो..’ मेरी बात सुन साथी हंस पड़े. मेरी सीट बीच में थी और खिड़की की ओर एक अंग्रेज बैठे थे. कुछ पलों बाद जहाज ने उड़ान भरी तो बाहर के नज़ारे देखने के लिए मैं अंग्रेज की गोद में पसर जैसा गया. हड़बड़ाते हुए उसने मुझ पर चिल्लाते हुए अंग्रेजी में कुछ बोला, जो मुझे समझ में नही आया. हांलाकि मैं चुपचाप सीधे बैठ गया. लेकिन कुछ पलों बाद बाहर के दृश्य मुझे फिर खिड़की की ओर खींच लेते. अंग्रेज फिर भुनभुना उठता. इस पर एक साथी ने अपनी खिड़की की सीट मुझे दे दी. बाद में साथियों ने बताया कि अंग्रेज झल्लाते हुए कह रहा था कि, ‘खिड़की का इतना ही शौक था तो खिड़की की सीट क्यों नहीं बुक करा ली.’
(Mohan Joshi Bageshwar)

दुबई हवाई अड्डे पर पहुंचने पर हम सबका जो स्वागत हुआ, वे पल मुझे आज भी याद आते हैं. कोरंगाजी बहुत ही आत्मीयता से मिले. दुबई में भारतीय दूतावास के ऑडिटोरियम में सांस्कृतिक संध्या हुई. हजारों लोग उस प्रोग्राम में आए थे. उत्तराखंड के हम दस कलाकारों ने जब कुमाउनी-गढ़वाली गानों से समां बांधा तो हर कोई झूम उठा. बाद में कोरंगाजी ने हमें दुबई घुमाया और वापसी में मोटी रकम और ढेर सारे उपहार दिये. उनकी बदौलत मैं दो बार दुबई में कार्यक्रम पेश कर चुका हूं. इसके अलावा नरेन्द्र सिंह नेगीजी की ‘बाटूली संस्था’ के साथ न्यूजीलैंड के ऑकलेंड और बेलिंगटन में भी अपने कार्यक्रम दे चुका हूं.

अब तक मोहन जोशी को प्रयाग संगीत समिति (इलाहाबाद) से ‘संगीत-प्रभाकर’ की उपाधि भी मिल चुकी है. अब उनकी बांसुरी की धुन, दूरदर्शन के अलावा आस्था, श्रद्धा आदि चैनलों में भी प्रसारित होती रहती है. लोक एवं शास्त्रीय संगीत के साथ-साथ अब वह ‘भजन संगीत’ से भी जुड़े हुए हैं. कोरोना काल से पहले हल्द्वानी समेत कई बड़े शहरों में वह लाइव कन्सर्ट (इंस्टूमेंटल शोज़) कर चुके हैं. लाइव कन्सर्ट में सभी प्रकार के संगीत, बालीवुड, रेट्रो, भजन, सूफी, फ्यूज़न संगीत की धुनें शामिल होती हैं. अभी वर्तमान में वो उत्तराखंडी संगीत और भजनों पर रिकॉर्डिंग का कार्य कर रहे हैं, जिसमें देहरादून के सुप्रसिद्ध संगीतकार रंजीत सिंह का उन्हें रिकॉर्डिंग बारीकियों को समझाया. मोहन के कई रूप हैं. बांसुरी से प्रेम हुआ तो आठ साल पहले इस बारे में ढूंढ खोज करनी शुरू कर दी कि प्रोफेसनल बांसुरी बनती कैसे है. इस पर असम और दिल्ली से बांस मंगाए और उसे बनाने के औजार लेकर घर में ही बांसुरी बनाना शुरू कर दिया.
(Mohan Joshi Bageshwar)

मोहन की मेहनत रंग लाने लगी और अब वह प्रोफेशनल बांसुरी भी बना लेते हैं. जिनकी कीमत आठ सौ से साढ़े तीन हजार रुपये तक की है. इसके साथ ही उसके साथी कलाकारों ने अच्छे हुड़के न मिल पाने या मंहगे मिलने की समस्या बताई. इस पर मोहन ने हुड़के की नाल बनाने वालों से संपर्क कर उनसे खिन, खमार और गोगिड़ की नाल ली और उन्हें ऐसे सांचे में ढालकर जब अपने साथियों को दिया तो वे मोहन की हाथों की जादुगरी देख हैरान हो गए. अब नए कलाकार बांसुरी के साथ-साथ मोहन से हुड़के की भी मांग करते रहते हैं. मोहन के बनाए हुड़के अब अमेरिका में भी बज रहे हैं. लोकगीत हों या भजन की रिकार्डिंग, संगतकर्ता के रूप में मोहन हर जगह मौजूद रहते हैं.

‘कैसा लगता है?’ पूछने पर हंसते हुए मोहन कहते हैं, ‘संगीत का यह सफ़र अब मेरे मन के सुकून की वजह है.’
(Mohan Joshi Bageshwar)

केशव भट्ट 

बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं.

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