शंभू राणा

अल्मोड़ा से बीबीसी रेडियो की भीनी-भीनी यादें

शम्भू राणा का यह लेख नैनीताल समाचार में वर्ष 2011 में तब छपा था जब हिंदी समेत कई भाषाओं में बीबीसी रेडियो के बंद होने की खबरें आई थी. शंभू राणा का यह लेख नैनीताल समाचार से साभार लिया गया है : संपादक (Memories of BBC Radio from Almora)

लोग बीबीसी इसलिए सुनते हैं कि उसमें सच्ची खबरें प्रसारित होती हैं. बीबीसी जो कहता है वह सच के सिवा कुछ नहीं होता क्योंकि बीबीसी पर न कोई बन्धन है न दबाव. आम जन मानस में इस संस्था की यही छवि है. लेकिन इन दिनों बीबीसी पर एक ऐसी सूचना प्रसारित की जा रही है जिसे सुन कर दिल मना रहा है कि हे ईश्वर, यह खबर झूठी हो. अप्रैल फूलनुमा कोई मजाक हो. बीबीसी खुद अपनी मौत की तिथि बता रहा है. हिन्दी सहित कई भाषाओं के प्रसारण बन्द किए जा रहे हैं.

बीबीसी से 20-21 साल पुराना नाता है. यह रिश्ता बाकायदा जरा देर से बन पाया. क्योंकि घर में रेडियो नहीं था. मेरी जिद के कारण पिताजी ने जो पहला रेडियो खरीदा, उसका नाम मुन्ना मर्फी था. और न जाने कैसे उसका गारन्टी-कार्ड आज भी मेरे पास पड़ा है. उसमें तारीख लिखी है – 19.1.1991 और दुकान की मुहर लगी है – टाइम एण्ड ट्यून, नियर कोर्ट, अल्मोड़ा. खाड़ी युद्ध शुरू हुए ज्यादा दिन नहीं हुए थे.

सद्दाम हुसैन किसी अज्ञात स्थान पर बने अभेद्य बंकर से युद्ध का संचालन कर रहे थे. उनके विदेश मंत्री तारिक अजीज यूएनओ में भाषण दे रहे थे. हर आदमी सद्दाम के साथ था और अमेरिका को गरिया रहा था. जिस किसी का नाम ‘स’ से शुरू होता वह उन दिनों सद्दाम के नाम से पुकारा जा रहा था. ट्रक ड्राईवरों ने डीजल की टंकी में खुराक मंत्री की जगह ईराक का पानी लिखवा लिया था. हर आदमी खाड़ी युद्ध की खबरें सुनने को इतना बेताब था कि वश चलता तो रेडियो में घुस जाता या रेडियो ही को कान में ठूँस लेता.

तब से बीबीसी के साथ जो रिश्ता बना, वह आज तक है. बीबीसी रोजमर्रा की जिन्दगी का एक हिस्सा-सा बन के रह गया. एक आदत सी, एक जरूरत सी. कभी खयाल भी नहीं आया कि एक दिन बीबीसी का हिन्दी प्रसारण रेडियो पर सुनाई देना बन्द हो जाएगा. शार्ट वेव 19, 25, 31 और 41 मीटर बैन्ड पर उँगलियाँ उसे कई दिनों तक तलाशती रहेंगी. इतने सालों से आदत जो है.

बीबीसी सुनना एक आदत सी बन गई. हालाँकि इसमें पिछले कुछ सालों से वह बात नहीं रह गई जो एक समय हुआ करती थी. अब यह विशुद्ध न्यूज चैनल हो के रह गया है. पर एक समय ऐसा नहीं था. समाचारों के अतिरिक्त बीबीसी में बच्चों के लिए कार्यक्रम हुआ करते थे. साहित्य के लिए जगह थी और हास्य-व्यंग के स्तरीय कार्यक्रम भी हुआ करते थे. उद्घोषक भी अब वैसे नहीं रहे कि जिनके साथ एक नाता सा बन जाता था. जिन्हें ओंकारनाथ श्रीवास्तव की याद होगी वो मेरी बात से सहमत होंगे. ओंकारनाथ श्रीवास्तव द्वारा प्रस्तुत समाचार विश्लेषण का कार्यक्रम सुनते हुए मुझे शास्त्रीय गायन सुनने की सी अनुभूति हुआ करती थी. श्रीवास्तव साहब एक जमाने में कथा-कहानी भी लिखते थे. उनकी एक कहानी ‘बुंदे और बाली’ कभी खासी चर्चित रही थी-ऐसा कहीं पढ़ा था. (Closure of BBC Hindi Radio Service)

कई ऐतिहासिक महत्व रखने वाली घटनाओं की जानकारी मुझे पहले पहल बीबीसी से ही मिली. मसलन, एक सुबह बीबीसी खोला, खबर सुन कर सन्न रह गया. खबर थी कि कल देर रात श्रीपेरम्बदूर में भारत के पूर्व प्रधान मंत्री एक आत्मघाती हमले में मारे गए.

इसी तरह उन्मादी भीड़ द्वारा बाबरी मस्जिद ढहाए जाने का समाचार भी शायद बीबीसी ने ही दिया. ठीक-ठीक याद नहीं. लेकिन हाँ, यह अच्छी तरह याद है कि उस समय भारत में बीबीसी के संवाददाता मार्क टुली थे. मार्क साहब ने जान की बाजी लगा कर अयोध्या से सीधे उस अश्लील घटना का ब्यौरा श्रोताओं तक पहुँचाया था. वे शायद घटनास्थल के करीब ही कहीं छिपे थे. मार्क टुली कुछ इस तरह बोलते थे- ‘‘माहौल में बहुत तनाव हाइ… कल्याण सिंह ने अपना रिसपॉन्सिबिलिटी बोल कर इस्तीफा दे दिया हाइ…’’ मार्क टुली के समकालीन एक और साहब बीबीसी में थे, उनका नाम सतीश जैकब था.

उस समय आज की तरह चौबीसों घंटे चलने वाले अनगिनत चौनल नहीं थे. दूरदर्शन और आकाशवाणी ही हुआ करते थे, जिनकी खबरों पर लोग ज्यादा भरोसा नहीं करते थे. किसी दुर्घटना में 50 लोगों के हताहत होने की खबर आकाशवाणी देता तो लोग कहते – डेढ़-दो सौ मरे होंगे. इस साले सरकारी भोंपू का भरोसा मत करो. सच शाम को बीबीसी बताएगा.

अखबार में छपा एक कार्टून याद आ रहा है. एक नेताजी अपने चेले-चाँटों के साथ कमरे के भीतर हैं. बाहर कुछ गड़बड़ है, शायद पार्टी में बगावत हो गई है. किसी को कुछ पता नहीं. नेताजी कहते हैं – भई बीबीसी लगाओ, अभी पता चल जाएगा.

आज इतने सारे हर वक्त चलने वाले समाचार चैनलों और उन पर आए दिन होने वाले स्टिंग ऑपरेशनों के बावजूद लोग बीबीसी के समाचारों पर ज्यादा भरोसा करते हैं.

एक समय बीबीसी के पास संसार के सर्वश्रेष्ठ उद्घोषक हुआ करते थे. आवाज के जादूगर. उनकी आवाज में अजब सम्मोहन था. क्या गजब की आवाजें थीं. क्या लोग थे! रत्नाकर भारती, ओंकारनाथ श्रीवास्तव, परवेज आलम, पाहवा साहब, सफी नकी जामी और कैलाश बधवार…

सफी साहब यूँ तो उर्दू सर्विस में थे पर कभी-कभार एकाध रिपोर्ट हिन्दी में भी पढ़ जाया करते थे. फिर बाद में हिन्दी सर्विस में चले आए थे. शायद अपने पड़ोसी थे – पाकिस्तान के. उनकी दो खूबियों के लिए उन्हें सदा याद रखूँगा. कम समय में लंबे मैटर को बड़ी तेजी के साथ सुस्पष्ट उच्चारण के साथ पढ़ना. दूसरी खूबी उनमें ये थी कि जब वे किसी बॉक्सिंग के मुकाबले का ब्यौरा सुनाते तो श्रोताओं को यूँ महसूस होता मानो वे उस मुकाबले को अपनी आँखों से देख रहे हों. (Memories of BBC Radio from Almora)

कैलाश बुधवार की आवाज धीर-गंभीर थी. थम-थम के बोलते थे. माइक पर कम ही आये थे. वे शायद हिन्दी सेवा के प्रमुख थे जो कि बाद में डॉ. अचला शर्मा बनीं. एक ब्रिटिश महिला संवाददाता की भी धुँधली-सी याद है. उन्होंने कई वर्षों तक हिन्दुस्तान में रिर्पोटिंग की. नाम उनका भूल गया. अगर गलत नहीं हूँ तो उन्होंने श्रीलाल शुक्ल के ‘राग दरबारी’ का अंग्रेजी अनुवाद किया था. एक कार्यक्रम में पाहवा साहब उनसे पूछ रहे थे- अच्छा ये बताइए, उपन्यास में एक पंक्ति आती है कि ‘अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है,’ आपने इसका अनुवाद किस तरह किया? (Memories of BBC Radio from Almora)

एक बार बीबीसी ने अपने रात्रिकालीन प्रसारण के आखिरी 15 मिनटों में एक कार्यक्रम वर्षों तक प्रस्तुत किया- अपनी लाइब्रेरी में मौजूद मशहूर हस्तियों के इन्टरव्यू का पुनर्प्रसारण. न जाने किन-किन के इन्टरव्यू सुनने को मिले. अब याद नहीं ठीक से. भगवती चरण वर्मा, अमृतलाल नागर, एक इज्राइली नागरिक जो कभी भारतीय थे और उन्होंने कई हिन्दी फिल्मों में कोई वाद्य यंत्र बजाया था, हबीब तनवीर, अमिताभ-जया बच्चन, मोहम्मद रफी.

कहीं ऐसा न हो मोहम्मद रफी का यह एकमात्र रेडियो इन्टरव्यू हो. बेहद कमगो और उससे भी ज्यादा विनम्र रफी उस इन्टरव्यू में कहते हैं- ‘‘हाँ जी, मुझे अपना वो गाना सबसे ज्यादा पसंद है – सुहानी रात ढल चुकी…’’

बीबीसी सुनते हुए एक बार मुझे बड़ा ही विचित्र अनुभव हुआ. होता क्या था कि जब कभी अचला शर्मा माइक पर कहतीं – ये बीबीसी लंदन है तो मेरी रीढ़ में बिजली का करेंट-सा दौड़ता और तेजी से उठता हुआ गरदन में कहीं समा जाता. पूरा शरीर झनझना उठता. पलकें अनायास ही मुँद जाती. पल भर तन-मन एक अकथनीय आनन्द से नहा उठता. हजारों मील दूर बैठे एक अनदेखे-अनजान व्यक्ति की आवाज ऐसा भी असर कर सकती है, बिना अनुभव के यकीन करना संभव नहीं. वह विचित्र अनुभूति बस कुछ ही दिनों तक हुई. आज तक नहीं समझ पाया हूँ कि उस आवाज में ऐसा क्या था, उसे क्या नाम दूँ और ऐसा क्यों हुआ करता था? चाहे महिला हो या पुरुष, अगर वह शब्दों का स्पष्ट उच्चारण न करता हो या बिना कोमा, फुलस्टॉप के पटर-पटर बोलता हो, मुझे आकर्षित नहीं कर पाता. फिर शकल उसकी चाहे जितनी भली हो. सुन्दरता मेरे लिए आवाज और सौन्दर्यबोध से शुरू होती है.

किसने सोचा था कि बीबीसी एक दिन यूँ बेवफा हो जाएगी. लाखों दिल तोड़ेगी. मायूस करेगी. किसी एक की याद में जिन्दगी भर रोना तो कोई समझदारी नहीं. बेवफाई का बेहतरीन जवाब यही है कि दिल को रफू करके फिर लगा दो, किसी और से इश्क कर लो. व्यावहारिकता यही है. दिमाग यही राय देता है. मगर यह जो एक अदद दिल है, इसे क्या देकर बहलाया जाए ? इसे तो सड़े हुए जुराब फेंकने में भी दिक्कत होती है! एक बात और भी है, ऐसा आदमी मिलना बड़ा मुश्किल होता है जिसे दिल दे दिया जाए. न्यूज चैनल की तो बात ही जाने दें. और वो भी ‘पेड न्यूज’ के इस युग में!

भई बीबीसी, शायद तुम्हें पता न हो, तुम्हारे दो नाम और भी हैं जो स्रोताओं ने तुम्हें प्यार से दिए हैं- ब्रजभूषण चतुर्वेदी और बच-बच के चलना. अच्छा भई, ठीक है, अलविदा.

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शम्भू राणा विलक्षण प्रतिभा के व्यंगकार हैं. नितांत यायावर जीवन जीने वाले शंभू राणा की लेखनी परसाई की परंपरा को आगे बढ़ाती है. शंभू राणा के आलीशान लेखों की किताब ‘माफ़ करना हे पिता’  प्रकाशित हो चुकी  है. शम्भू अल्मोड़ा में रहते हैं और उनकी रचनाएं समय समय पर मुख्यतः कबाड़खाना ब्लॉग और नैनीताल समाचार में छपती रहती हैं.

नैनीताल समाचार से साभार

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