कहो देबी, कथा कहो – 44
पिछली कड़ी – तोर मोनेर कथा एकला बोलो रे
सांझ ढल गई थी और अंधेरा घिरने के साथ-साथ ट्रेन से दिखाई देते गांवों और नगरों में बिजली की बत्तियां जगमगाने लगीं. शताब्दी ट्रेन तेजी से चंडीगढ़ की दिशा में भाग रही थी. नियति ने तो शायद बहुत पहले ही मेरा चंडीगढ़ आना तय किया हुआ था, मैं ही लखनऊ से इस शहर में तब नहीं आ पाया था. लेकिन, अब प्रमोशन ने फिर चंडीगढ़ में मेरा आबो-दाना तय कर दिया था. हालांकि अब भी परिस्थितियां बहुत नहीं बदली थीं. आबो-हवा का यह बदलाव भी शायद मेरी मानसिक और शारीरिक सेहत के लिए जरूरी था. नाक के आपरेशन के बाद डाक्टर ने कहा भी था कि धूल और प्रदूषण से बचूं. बच्चे प्रोफेशन कोर्स पढ़ रहे. इसलिए परिवार को चंडीगढ़ ले जाना अब भी संभव नहीं था.
यही सब सोचते-सोचते चंडीगढ़ रेलवे स्टेशन आ गया. चंडीगढ़! यानी सोच-समझ कर, योजनाबद्ध तरीके से रचा गया दुनिया के आधुनिक चंद चुनिंदा शहरों में से एक प्यारा शहर. प्रख्यात वास्तुविद ले कारबूजिए की कल्पना का शहर. स्टेशन पर उतरते ही सैकड़ों चहचहाती मैनाओं ने स्वागत किया. ओह कितने वर्षों बाद मैंने एक साथ इतनी चिड़ियों का कलरव सुना. वे स्टेशन के भीतर खंभों के ऊपर और छत से लगे लोहे के शहतीरों पर बैठी थीं. उनका रैन बसेरा था वह.
स्टेशन पर जनसंपर्क के मैनेजर सुरेश दत्त शर्मा मिले. वे मेरे पूर्व परिचित थे और संयोग से कभी बैंकिंग भर्ती बोर्ड को भेजने के लिए उनके इस पद का विज्ञापन मेरे ही हाथों से तैयार हुआ था. उन्होंने फूलों का बुके देकर स्वागत किया और बताया कि ठहरने की व्यवस्था फिलहाल क्षेत्रीय स्टाफ कालेज, पंचकूला में की गई है. वहां से चंडीगढ़ में बैंक का अंचल कार्यालय केवल चार-पांच किलोमीटर दूर था. क्षेत्रीय स्टाफ कालेज के आसपास खूबसूरत हरे-भरे पार्क थे- टोपियरी पार्क, निर्झर वाटिका, शताब्दी पार्क, कैक्टस पार्क, टाउन पार्क वगैरह. सुबह-सुबह सैर करने के लिए इससे खुशनुमा जगह और कहां मिल सकती थी?
अगले दिन अंचल कार्यालय, चंडीगढ़ में ड्यूटी ज्वाइन की. आला अफसर खुश भी हुए और चौंके भी कि जनसंपर्क तथा प्रचार में भी चीफ मैनेजर! बोले, “चलिए, स्वागत है.” मैं समझ गया कि उनका भी बैंकिंग का वही पुराना परंपरागत सोच है जबकि आज बैंकों के बीच कड़ी प्रतियोगिता चल रही है और बैंक की छवि का बैंक के व्यवसाय से सीधा संबंध है. खैर, उन्होंने मुझे शाखाओं के दौरे पर भेजना शुरू किया. एक पुरानी मारूति कार भी मिल गई. पहले तक चीफ को कार के साथ चालक की सुविधा भी मिलती थी लेकिन अब केवल कार की सुविधा का नियम बन गया. साथियों ने मेरे लिए चालक रविंदर भी खोज दिया.
कुछ दिनों बाद पंचकूला के हरे-भरे शांत-एकांत इलाके में घर भी मिल गया. मेजर शफीक के घर की पहली मंजिल मेरा आशियाना बनी. सामने लंबी-चौड़ी छत थी जहां से दाहिनी ओर दूर शिवालिक की नीली पहाड़ियां दिखाई देती थीं. कुछ दूर दुबली-पतली घग्घर नदी बहती थी. घर में साजो-सामान की व्यवस्था हो जाने के बाद एक दिन क्षेत्रीय स्टाफ कालेज से नए आशियाने में शिफ्ट हो गया. मैंने तय किया था, खाना घर पर खुद ही बनाऊंगा. लेकिन, अभी रसोई की चीजों का इंतजाम करना बाकी था. इसलिए सुबह उठ कर दूर किसी पेड़ के नीचे चाय बनाते चाय वाले के पास जाकर चाय पी आता. खाते-पीते लोगों का सैक्टर था, इसलिए वहां आसपास चाय की कोई छोटी-मोटी दुकान भी नहीं थी. पेड़ के नीचे सुबह-सवेरे काम पर निकल रहे कामगार चाय पीने आ जाते थे. उनकी बदौलत वह अस्थाई चाय की दुकान चल जाती. कुछ दिन बाद दिल्ली जाकर गैस का कनैक्शन पंचकूला ट्रांसफर करा लिया.
नए आशियाने में मेरी वह पहली रात थी. दफ्तर से लौटते समय ‘अमृतसरी नान’ के ढाबे से दो नान और सब्जी पैक करा लाया था. कमरे में आकर चुपचाप खाना खाया और देर रात तक छत पर कुर्सी लगा कर बैठे-बैठे उस पार अंधेरे में शिवालिक की पहाड़ियों के ऊपर जगमगाते तारों और आधे चांद को देखता रहा. रिटायर्ड लोगों की उस बस्ती में शाम को बत्तियां जलने के बाद से ही सन्नाटा छा गया. पता लगा था, वह अधिकांश रिटायर्ड लोगों की बस्ती है जिनके बच्चे देश के किसी दूसरे शहर या विदेश में नौकरी करते हैं. यहां ज्यादातर बुजुर्ग पति-पत्नी अपने वफादार डॉगी के साथ रहते हैं जो सुबह-शाम उन्हें आसपास ही सैर करा लाता है.
जब मैं सोने के लिए कमरे में गया तब तक बस्ती पर नीम खामोशी तारी हो चुकी थी. मैं उसी नीम खामोशी में बिस्तर पर लेटा. आंखों में नींद नहीं थी. मन में विचारों का तूफान उठने लगा और कुछ ही देर बाद मैं फफक कर रो पड़ा. कि आखिर मुझे क्यों इस निपट एकांत की सजा दी गई है? मैंने क्या अपराध किया? पूरी नौकरी में, सदा निष्ठा के साथ नियत समय से अधिक काम करता रहा. इस कारण? घर, परिवार और सामाजिक गतिविधियों तक के लिए पूरा समय न दे सका. फिर भी मेरे लिए यह एकांतवास? काफी देर तक अंधेरे में रोता रहा, फिर जाने कब नींद आ गई. एकांतवास के उन दिनों में ऐसा कई बार हुआ. कभी-कभी गालिब भी याद हो आते कि:
रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहां कोई न हो
हम सुखन कोई न हो और हम ज़बां कोई न हो.
अब मेरे पास कार थी और चालक भी था. सुबह तैयार होकर चालक रविंदर के साथ दफ्तर के लिए निकला. उसने हरे-भरे इलाके से जाने के लिए पंचकूला से किशनगढ़, गोल्फ फील्ड और राजभवन के पास का रास्ता चुना. मैं अपनी कार में पीछे बैठा जग का मुजरा देख कर हैरान था. मैं वही था जो कल तक था, वही कर्मचारी, लेकिन आज कार में बैठा दिया गया था. चेहरे पर मुस्कराहट आ रही थी लेकिन सामने शीशे में रविंदर की आंखें दिख रही थीं, इसलिए इधर-उधर देखने लगा. मुस्कराहट इसलिए भी आ रही थी कि आदमी ओहदे के साथ-साथ शायद इसी तरह अलग होकर बदलता होगा. कुछ खास और ऊंचे ओहदे पर पहुंचते ही दूसरों से कुछ अलग होने का गुमान हो जाता होगा. फिर ऊंचे उठते ओहदे के साथ-साथ वह गुमान भी बढ़ता जाता होगा, रहन-सहन और व्यवहार बदलता होगा. कानों में गूंजता होगा, ‘नाउ बिहेव एज अ सीनियर आफीसर’ (अब सीनियर आफीसर की तरह व्यवहार करो). लेकिन, मेरे कानों में तो ‘सगीना’ फिल्म का गीत गूंज रहा था, ‘साला मैं तो साहब बन गया.’
खैर, सतारा सैक्टर में अपने अंचल कार्यालय पहुंचा. वहां मेरे लिए अलग केबिन तैयार था, उसमें अलग ए.सी लगा हुआ था, साफ-सुथरी मेज-कुर्सी, पानी भरा गिलास और मेज के किनारे फूलदान में ताजा फूल. मैं वहां कुर्सी पर विराजमान हुआ. एक लड़के ने आकर बताया, “जब भी कोई जरूरत हो, फाइल भेजनी हो तो मेज के नीचे लगी घंटी का बटन दबा दीजिए. चपरासी आ जाएगा.” तो, इस तरह मेरा चीफ मैनेजर के रूप में बपतिस्मा हो गया.
साल 2000 शुरू हुआ. उसी बीच बैंक के नए प्रमोट हुए मेरे बैच के वरिष्ठ अधिकारियों के लिए सप्ताह भर के ‘डेवलपमेंट एक्जिक्यूटिव प्रोग्राम’ के आदेश आ गए. इस विशेष प्रशिक्षण के लिए बैंक के केन्द्रीय स्टाफ कालेज, दिल्ली में जनवरी के पहले सप्ताह में रिपोर्ट करना था. मुझे भी अंचल कार्यालय, चंडीगढ़ से इस प्रोग्राम में भाग लेने के लिए भेज दिया गया.
ट्रेन से दिल्ली की ओर जाते समय मेरे पिछले इंटरव्यू के जख्म खुल गए. वे काले दिन और वे कटु अनुभव फिर याद हो आए. उस ज़लालत के बाद अब यह मौका मिला था. ट्रेन में यही सब सोचता हुआ मैं उत्तरी दिल्ली की अंडर हिल रोड पर बैंक के केन्द्रीय स्टाफ कालेज में पहुंचा. वहां से नोएडा जाकर परिवार से मिलना संभव नहीं था. चंडीगढ़ से लक्ष्मी को फोन कर दिया था कि मैं सप्ताह भर कालेज में रहूंगा.
कालेज में केवल एक जनरल फोन बाहर लॉबी में था, जिस पर सभी साथी खाली समय में फोन करने की कोशिश करते रहते. मोबाइल फोन तब था नहीं. इसलिए परिवार के साथ फोन से संपर्क करना कठिन होता था. प्रोग्राम में शामिल हुए पांच-छह दिन हो चुके थे. एक दिन घर पर फोन किया तो पता लगा, गांव में बड़े ददा नहीं रहे. साल के आखिरी दिन उनका निधन हो गया. यह बहुत बड़ा आघात था. सुन कर दिमाग शून्य हो गया. कुछ नहीं सोच पा रहा था. सिर्फ यह याद आ रहा था कि वहां घर में वे थे और उनकी करीब सात साल की बिटिया थी. वह अकेली रह गई होगी. बिटिया को जल्द से जल्द दिल्ली लाना होगा. चार बच्चे हैं, अब पांच हो जाएंगे. मैं तो ददा और बिटिया को कुछ साल पहले ही दिल्ली ले आया था, यह सोच कर कि अब वे साथ ही रहेंगे. लेकिन, दो साल तो गर्मियों में पहाड़ लौट गए थे, उसके बाद नहीं आ पाए.
प्रशिक्षण प्रोग्राम पूरा हो जाने पर मैं कालेज से वापस चंडीगढ़ लौटा और ड्यूटी ज्वाइन की. अजीब उदेख (उदासी) से घिर गया था. छोटे ददा के विदा हो जाने के बाद जिस तरह की उदासी ने आ घेरा था, वैसी ही उदासी और निराशा फिर घेर रही थी. लगता, जीवन में जैसे कुछ भी नहीं है. उधर गांव में ईजा (मां) गई, छोटे ददा गए, दीदी चली गई, दो-दो बड़ी भौजियां चली गईं, प्यारी बिटिया मोहनी चली गई, बाज्यू (पिताजी) चले गए और अब घर को आबाद रखने वाले एकमात्र बड़े ददा भी चले गए. उन सबका स्वप्न मैं शहर में अपनी ही जिंदगी की जद्दोजहद में उलझा हुआ हूं. क्या करूं, कुछ समझ में नहीं आ रहा था.
पत्नी लक्ष्मी से पता लगा, गुड़गांव में रह रहा मेरा भतीजा मोहन, भाभी मां और बहू सोनिया के साथ नैनीताल गए हैं, वहां से गांव जाएंगे. बेटे मोहन ने बाद में बताया था, “नैनीताल से ईजा (मां) के साथ गांव को चला. कड़ाके की ठंड थी और धानाचूली से आगे बढ़ते-बढ़ते बर्फ गिरने लगी. गांव पहुंचे तो घर के आसपास सन्नाटा था. भीतर रौंण (बड़ा चूल्हा) में आग जलाई हुई थी. दो-तीन लोग उसी के पास बैठ कर आग ताप रहे थे. छोटी बिटिया भी वहीं साथ में बैठी थी. तभी उसके बारे में बातचीत शुरू हुई. जैंत सिंह चचा ने कहा, “दो ही रास्ते हैं. या तो बिटिया को ले जाओ और वहीं पालो-पोषो. या फिर, गांव में ही रहे, यहीं पले-बढ़े कहते हो तो ऐसा भी हो सकता है. उस हालत में बिटिया को हम पालेंगे, खर्चा-पानी तुम भेजोगे. जैसा कहते हो.”
मैंने कहा, “नहीं बच्ची को यहां गांव में नहीं छोड़ेंगे, मैं अपने साथ ले जाऊंगा. उसे कार और बस की आदत नहीं थी. इसलिए गाड़ी देखते ही डर कर भागने लगती. हम बच्ची को नैनीताल नरेश नेगी जीजा जी के घर में ले आए. नैनीताल लाकर मैंने बिटिया अपनी पत्नी सोनिया को सौंप दी. अगले दिन दिल्ली को चले. शाम को स्वास्थ्य विहार मेरी ससुराल में पहुंचे. वह लोहड़ी का दिन था. ससुर एस. के. मेहता जी भी बच्ची को देख कर बहुत भावुक हो गए थे. उन्होंने सोनिया को बुला कर कहा, “बेटी, आज तक मैंने जो कुछ कहा, तूने वह काम पूरा किया. आज तुम्हें एक और काम सौंपता हूं. तुम्हें इस बच्ची को पालना है. यह कह कर उन्होंने बच्ची का हाथ सोनिया के हाथ में पकड़ा दिया. सुबह हम उसे लेकर गुड़गांव घर पर आ गए.”
इस तरह बिटिया भी आ गई. अब वहां गांव में अकेला, इंतजार करता घर रह गया. उसकी चाबी चचेरे छोटे भाई जैंत सिंह को सौंप आए. घर के पास के खेत भी खेती करने के लिए उसे सौंप दिए. वह कहता रहता, मैं इस जायदाद का बस पहरेदार हूं. जब तक मैं हूं, कोई गड़बड़ नहीं होगी. मेरा वह चचेरा भाई मुझसे उम्र में छह माह छोटा है और बचपन से मेरा छोटा भाई ही नहीं, अभिन्न दोस्त भी रहा है. मेरी पुस्तक ‘मेरी यादों का पहाड़’ में मेरे-उसके बचपन का अटूट संग-साथ देखा जा सकता है.
मैंने घर के किसी भी सदस्य को विदा होते नहीं देखा, इसलिए मेरी यादों में आज भी वे जीवित हैं और मुझे सदा लगता है वे सभी गांव और घर में आज भी मौजूद हैं.
नई जगह, नई नौकरी में उन्हीं दिनों वह हादसा घटा जो मेरे लिए एक नई परीक्षा की घड़ी साबित हुआ. चंडीगढ़ में नौकरी करने के वे शुरूआती दिन ही थे. बैंक की राज्यस्तरीय बैठक के सिलसिले में एक वरिष्ठ महाप्रबंधक चंडीगढ़ आ रहे थे. यह जनसंपर्क का काम होने के कारण हम तीन लोगों को उनका स्वागत करने और होटल तक पहुंचाने की जिम्मेदारी दी गई. वे दिल्ली से सड़क मार्ग से आ रहे थे. मेरे साथ जिस युवा साथी को रहना चाहिए था, वह मुझे चंडीगढ़ मार्ग पर एक जगह अकेला छोड़ कर दफ्तर के दूसरे करीबी साथी के पास जाने की जिद करने लगा. मैं चंडीगढ़ में नया था और रास्तों तथा होटल की स्थिति से परिचित नहीं था. न कार चलाना जानता था. मैंने उसे समझाया, लेकिन युवा साथी तकरार करने लगा.
तभी पता लगा महाप्रबंधक सीधे होटल पहुंच गए हैं. हम वहां गए और उनसे मिल कर लौट आए. साथी मेरी कार चला रहा था. रास्ते भर इसी बात पर चर्चा होती रही कि उसे ऐसे मौकों पर मेरे साथ रहना चाहिए क्योंकि मैं चंडीगढ़ में नया आया हूं और अभी शहर में तमाम जगहों से परिचित नहीं हूं. तबादले पर आए आदमी का साथ देना चाहिए. जब किसी का भी कहीं भी तबादला होता है तो उसे नई जगह में परेशानियों का सामना करना पड़ता है. हम बैंक सेवा में हैं, ऐसे मौके हमारे जीवन में आ ही सकते हैं.
बातें करते-करते हम पंचकूला में मेरे घर के पास तक पहुंच गए. सामने घर दिख रहा था. युवा साथी को अचानक न जाने क्या हुआ कि वह भड़क उठा. कार से बाहर निकल कर बोला, “क्या समझते हो अपने आप को? तब से बक-बक सुन रहा हूं. क्या कर लोगे? आओ, लड़ कर देख लो.”
मैं हैरान कि अचानक इसे क्या हो गया है? न कोई अपशब्द कहा, न गलत व्यवहार किया. फिर उम्र का भी इतना फर्क है. यह क्यों बौखला गया है? उसका वह व्यवहार देख कर मैंने कहा, “थैंक्यू वेरी मच. नाऊ प्लीज गो.” (धन्यवाद, अब आप जाइए). वह कार में बैठा और उसे मेरे घर की पार्किंग में लगा कर, चाबी मुझे थमाई, अपना स्कूटर उठाया और चलता बना.
मैं भी गुस्से और अपमान से भरा कमरे में पहुंचा. बहुत तनाव में था. काफी देर तक सोफे पर बैठ कर एकांत में सोचता रहा कि ऐसा क्यों हुआ? उस साथी ने ऐसा दुर्व्यवहार क्यों किया? तभी मुझे लगा, यह नई जगह में मेरी नई विकट परीक्षा भी तो हो सकती है? मेरे मन से कलुष धोने की परीक्षा. यह विचार मन में आते ही मैंने शांत मन से एक निर्णय लिया. हाथ जोड़ कर प्रार्थना की मुद्रा में बैठा और प्रार्थना की, “हे ईश्वर, हे मां प्रकृति, मुझे सकारात्मक सोच की यह शक्ति दो कि मैं इस युवा साथी के लिए कुछ भी बुरा न सोचूं, न बुरा करूं. जितना हो सके, इसकी भलाई के लिए सोचूं और इसकी इतनी मदद करूं कि एक दिन इसे खुद अहसास हो कि इसने गलत व्यवहार किया. हे ईश्वर, हे मां, जिस दिन यह स्वयं अपनी गलती को स्वीकार कर लेगा, मैं समझ लूंगा कि मेरी प्रार्थना आपने सुन ली है.”
मेरे लिए यह प्रार्थना भी थी और एक नया प्रयोग भी. प्रार्थना करने के बाद मन से सारा कलुष निकल गया और चित्त बहुत शांत और स्थिर हो गया. उसी समय से मेरा प्रयोग शुरू हो गया. किसी को भी खबर नहीं थी कि कहीं कुछ हुआ और न आगे खबर हुई. यह तो केवल मुझे और मेरे युवा साथी को पता था. हमीं दोनों थे इसके राजदार.
उन्हीं दिनों हरियाणा के पर्यटक गृह रेडबिशप के पास उस सिख युवक से भेंट हो गई जो दिल्ली में किसी विज्ञापन एजेंसी से दो-तीन बार मुझसे मिलने आया था. दिल्ली शायद रास नहीं आई, इसलिए चंडीगढ़ लौट आया होगा. दो युवतियों के साथ लंबी कार में बैठे उस युवक ने मुझे पहचान लिया और खिड़की से सिर बाहर निकाल कर कहा, “हाई सर! क्या आप यहां आ गए? चंडीगढ़?”
मैंने ‘हां’ कहा तो बोला, “मोस्ट वेलकम. यहां आपको बहुत अच्छा लगेगा. चडीगढ़, पंचकूला आर सो ब्यूटिफुल. यू विल इनजॉय इट.” (चंडीगढ़, पंचकूला बहुत सुंदर हैं. यहां आनंद आएगा आपको). फिर हंसते हुए बोला, “बस, एक बात याद रखिएगा जो जनाब बशीर बद्र के शेर में, उनसे मुआफी के साथ जरा-सी तब्दीली करके पेश कर रहा हूं:
कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये पत्थरों का शहर है जरा फासले से मिला करो.
और हां, स्टोन गार्डन भी यहीं है सर!” यह कह कर वह हंसता हुआ चला गया, लेकिन उसकी बात याद रह गई.
कुछ समय बाद अंचल के आला अफसर का तबादला हो गया. जो नए आला अफसर यू.एस. भार्गव जी आए, वे जनसंपर्क और प्रचार के हिमायती थे. वे चाहते थे कि बैंक में जो भी व्यक्ति जिस काम के लिए नियुक्त हुआ है, उससे उस विषय पर काम लिया जाना चाहिए.
आला अफसर बदले तो मौसम बदला. वह बैंक की छवि और बेहतर ग्राहक सेवा को बेहद जरूरी मानते थे. इसलिए क्षेत्रीय कार्यालयों और शाखाओं में जाकर अक्सर इस बारे में व्याख्यान दिया करते थे. बैंक कर्मियों को आगाह करते हुए कहते थे, “बैंकिंग उद्योग में कठिन प्रतिस्पद्र्धा चल रही है. प्राइवेट बैंक बेहतर सेवा देकर राष्ट्रीयकृत बैंकों के पच्चीस-तीस प्रतिशत से भी अधिक बिजनेस पर कब्जा कर चुके हैं. हमने अपनी ग्राहक सेवा में सुधार नहीं किया तो हम बिजनेस खोते चले जाएंगे.” भावुक होकर कहते, “अगर यही हाल रहा तो सोचो कल हमारे-आपके बच्चे, यानी नई पीढ़ी बैंकिंग के क्षेत्र में कैसे आ पाएगी? हम बैंक की छवि बना रहे हैं, आप बेहतर सेवा दीजिए तो अपने-आप बैंक का बिजनेस बढ़ेगा. नया ग्राहक बैंक की छवि के बारे में सुन कर बड़ी आशा के साथ शाखा में आता है. वहां उसे अच्छी सेवा मिलनी चाहिए अन्यथा वह किसी भी दूसरे बैंक में जा सकता है.”
बैंक की छवि के लिए उन्होंने मुझे सभी क्षेत्रीय कार्यालयों में जाकर व्याख्यान देने को कहा ताकि बैंक के लोग समझ सकें कि छवि का बिजनेस से कितना अटूट संबंध है. उस दौरान मैंने दूर-दराज क्षेत्रीय कार्यालयों के दौरे किए और इस जागरूकता अभियान की अलख जगाई. अंचल में ग्राहकों की शिकायतें फोन पर सुनने, समझने और उन पर तत्काल कार्यवाही के लिए मुझे ‘चीफ होस्ट’ की जिम्मेदारी भी सौंप दी गई. इस जिम्मेदारी के तहत कई अनोखे अनुभव हुए. किसी युवती ने फोन पर बताया कि उसके पिता का निधन हो गया था. उसी बदहवासी में उसने छोटे भाई को हमारी बैंक शाखा में भेजा. वहां उससे चैक कहीं गिर गया. हमने ‘स्टाप पेमेंट’ की अर्जी लिख कर दी लेकिन शाम तक चैक का किसी को भुगतान हो गया. रिपोर्ट की लेकिन कोई हल नहीं निकला. फिर कंज्यूमर कोर्ट में अपील की. तारीखों पर तारीखें लगती रहीं. कई साल हो गए.
वे तंग आ चुके थे. मैंने उनकी बात सुन कर शाखा से पता लगाया और फिर बैंक तथा ग्राहक के बीच समझौता करा दिया गया. एक दिन फोन मिला, “ठाकुर बोल रही हूं. मां साथ में बैठी हैं. जिस केस में इतने वर्षों से परेशान थे, वह आपकी पहल से फोन पर ही हल हो गया. हमने आपको देखा भी नहीं है. आपको बहुत धन्यवाद देना चाहते हैं.
इसी तरह अंबाला से एक महिला का फोन आया कि उसके पति के निधन के बाद बड़ा भाई उसके एकाउंट की धनराशि पर अपना हक जता रहा है. हमारे पास बच्चे पालने के लिए कुछ नहीं है. वह पैसा उसके बच्चों को यानी हमें मिलना चाहिए. शाखा में हमारी सुनवाई नहीं हो रही है. मैंने बड़े भाई से बात की और काफी समझाया. समझ में न आने पर मैंने उससे कहा कि आज जब अरदास करो तो वाहे गुरू से पूछना कि क्या तुम ठीक कर रहे हो? और, यह भी कि छोटे भाई के बेसहारा बच्चे कैसे पलेंगे? वाहे गुरू तुम्हें मन में जरूर जवाब देंगे. बाद में क्षेत्रीय कार्यालय से बात करके वह मामला सुलझा लिया गया.
एक दिन फतेहाबाद के किसी गांव के तीन किसान मेरे कमरे में आ गए. उन्होंने अपने जमीन के सारे कागजात दिखाए और कहा कि इनके आधार पर शाखा से हमें कुछ कर्जा चाहिए. लेकिन, कर्जा नहीं मिल पा रहा है. फिर फोन से क्षेत्रीय कार्यालय के जरिए शाखा में बातचीत हुई तो यह मामला भी सुलझ गया. वे किसान धन्यवाद देने के लिए फिर दफ्तर में आ गए. मैंने उन्हें बताया कि वहां तक आने की तकलीफ उन्हें नहीं करनी चाहिए थी और चाय पिला कर उन्हें वापस भेज दिया. वे तहेदिल से आशीर्वाद दे गए. ऐसे तमाम केस चीफ होस्ट के पास आते थे जिन्हें जहां तक संभव हो सका, हल करने की कोशिश की.
आला अफसर को बैंकिंग की सामाजिक जिम्मेदारी का भी अहसास था. इसलिए उन दिनों हमने कई सामाजिक कामों में भागीदारी की. जुविनाइल होम में पुस्तकालय खोला, वरिष्ठ नागरिकों के लिए फिजियोथेरेपी की मशीनें जुटाईं, नारी निकेतन में कूलर और अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराईं, स्कूली बच्चों को बस्ता और किताबें मुहिया कराईं. नाडा साहब गुरुद्धारा, मनसा देवी मंदिर और ज्वालादेवी मंदिर में हर रोज आने वाले हजारों लोगों के लिए एक्वागार्ड सहित वाटर कूलर लगा कर शुद्ध पानी की व्यवस्था की. आला अफसर सहित दफ्तर के हम सभी लोग जाकर सुखना झील में जमी गाद की सफाई भी करते थे.
उसी दौर में अवकाश के दिन बैंक के परिवारों संग पिकनिक मनाने की शुरूआत भी की. वह आपसी समझ और सहयोग बढ़ाने की एक कोशिश थी. इस कोशिश में पिंजौर गार्डन सहित कुछ अन्य वाटिकाओं में पिकनिकें मनाई गईं.
मेरे लिए वे जनसंपर्क और प्रचार का मनचाहा काम करने के दिन थे. लंबे अरसे बाद लगता था, नौकरी में पहली बार शायद उजले दिन आ गए हैं.
एक बार फिर मौसम बदला. नए आला अफसर सरदार हरवंत सिंह आ गए. वे बैंक के लंदन आफिस में भी काफी समय तक रह चुके थे. उन्होंने ऑफिस आर्डर जारी करके वरिष्ठ अधिकारियों को नई जिम्मेदारियां सौंप दीं. मुझे भी कई महत्वपूर्ण विभाग मिल गए- जी.ए.डी. यानी संपत्ति विभाग, सूचना प्रौद्योगिकी, गवर्नमेंट बिजनेस, सुरक्षा, राजभाषा आदि. जनसंपर्क तथा प्रचार तो हुआ ही. इस नए आदेश से कुछ लोग चैंके, कुछ भृकुतियां तनीं, कुछ कानाफूसियां हुईं और न रह सके तो पता लगा मेरी अनुपस्थिति में एक साथी चीफ मैनेजर ने सुबह की चाय पर आला अफसर से कह भी दिया, “सर, मेवाड़ी तो टैक्निकल ऑफिसर हैं. उन्हें आई.टी. और जीएडी जैसे विभाग दे दिए गए हैं. वे कैसे देखेंगे? ये विभाग तो हम देख लेते.”
सुना आला अफसर ने कहा, “ही इज अ क्वालिफाइड एंड एक्सपीरिएस्ड मैन (वह एक सुशिक्षित और अनुभवी व्यक्ति हैं.) काम दिया जाएगा, तभी करेंगे न? यों तो आप लोग कहते हैं, उनके पास पब्लिक रिलेशंस के अलावा कोई दूसरा काम नहीं है? अब क्या हो गया? यू विल सी हिज वर्क” (उनका काम दिखेगा आपको.) क्या कहते? बात खत्म हो गई.
लेकिन, मेरी तो परीक्षा शुरू हो गई. मुझे सौंपे गए विभागों की एक के बाद एक फाइलें आने लगीं. और, तभी हमारे बैंक की अखिल भारतीय सांस्कृतिक प्रतियोगिताओं की खबर आ गई. मुझे शिद्दत से अपना संकल्प याद आया कि मैं एक दिन नाटक में जरूर भाग लूंगा. लेकिन, सोचा इतनी जिम्मेदारियों के बाद भी क्या मुझे अनुमति मिल पाएगी? वे यह बात सुन कर भड़क सकते थे. फिर भी मैंने एक दिन आला अफसर से बात की.
“बात की? तो क्या कहा उन्होंने?”
“बताऊं?”
“ओं”
(जारी)
और भी थे इम्तिहां
समय के थपेड़े
देबी के बाज्यू की चिट्ठियां
वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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हमेशा की तरह जीवन के नये-नये अनुभवाे व घटनाआें रूवरू करता पूरा लेख दाे बार पढ़ा। परिजनाें से विछुड़ने में दिल काे गहरे तक सालने वाली घड़ी , सहकर्मियाे का निंदनीय व्यवहार, कंकरीट के जंगल में भी अकेलेपन के गहरे अहसास के बीच संकल्प शक्ति व परिस्थितियाें से दाे-दाे हाथ करने का माद्दा आपकाे निरंतर आपने मार्ग पर आगे बढ़ने की राह दिखाता रहा है। इसी अद्भुत आत्मशक्ति ने आपकाे यहां पहुंचाया है। अभी कई मंजिलें जाे पलक पावड़े बिछा कर आपकी राह देख रही हैं।