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कहो देबी, कथा कहो – 2

पिछली कड़ी

वे संगी-साथी

हां तो सुनो, कक्षा में मेरे एक-दो दोस्त बन गए, लेकिन निवास पर मैं अलग-थलग-सा पड़ गया. भीतर के कमरे के सीनियर कुछ अलग जैसे रहते थे. उनके और मेरे कमरे के बीच कांच लगी एक खुली-अधखुली खिड़की थी. मैं कालेज से लौट कर थोड़ा पढ़ता था और फिर शाम को खाना खाने के बाद. लेकिन, शाम को कई बार बिजली चली जाती थी. मेरी खिड़की के पास लगा बल्ब बुझ जाता और मुझे सोना पड़ता था. तब खिड़की के भीतर सीनियर गप्पें मारते रहते. अक्सर बगल के सेट के सीनियर लक्ष्मण सिंह चले आते और उनकी गप-शप में वे भी शामिल हो जाते. उनका एक साथी आनंद भी था. वे दोनों एम.एस-सी. (गणित) में पढ़ रहे थे.

एक दिन मेरे कमरे के भीतर के मुखिया सीनियर ने मुझे आवाज दी. मैंने खिड़की से देखा. वे बोले, भीतर आना जरा. भीतर गया. वे सभी सामने किताब रख कर रजाइयों की खोह में बैठे हुए थे. मुखिया ने कहा, “जाओ, हमारे लिए चाय बना कर लाओ.”

मैंने चौंक कर कहा, “चाय?”

“और क्या? हम तुम्हारे सीनियर हैं. सुबह-शाम तुमने हमें चाय बना कर पिलानी चाहिए. तुमने अब तक मिठाई भी नहीं खिलाई? हमने तुम्हें रहने की जगह दी. ऐसे ही थोड़ी मिल जाती है यहां रहने की जगह. जाओ, चाय बना कर लाओ.”

मैं हैरान और परेशान. सोच में पड़ गया कि यह क्या हो रहा है. चाय बनाने का अभ्यास भी नहीं था. खैर जैसे-तैसे चाय बना दी और गिलासों में डाल दी. उन्हें बताया कि चाय बन गई. बोले, हमें दे दो. यह मैं कतई नहीं करना चाहता था. नहीं किया और चुपचाप अपने बिस्तर पर आकर बैठ गया. मैं चाय पीता नहीं था. मुखिया ने थोड़ी देर बाद ऊंची आवाज में ‘सुना नहीं तुमने?’ कहा लेकिन में अपनी किताब के पन्ने पलटता रहा. उन्होंने खुद उठ कर चाय ले ली.

चाय पीने के बाद मुखिया ने कहा, “इस तरह यहां नहीं रह पावोगे बच्चू. अपने लिए कहीं और जगह ढूंढ लो.”

उनका यह रंग देख कर मैं परेशान हो गया. और जगह कहां? मैं तो उस शहर में किसी को भी जानता नहीं था. कहां जाऊं? मुझे अपने पुराने संगी-साथी याद आए. अपना गांव याद आया. चुपचाप सिसकता हुआ सो गया.

उस दिन के बाद दिक्कतें बढ़ती गईं. एक दिन कालेज से आया और आते ही कोट उतार कर बाथरूम में चला गया. उस दिन फीस जमा की थी. ददा हर महीने 100 रूपए भेजते थे. तनखा कम होने के कारण खुद उनके लिए शायद इतने पैसे नहीं बचते थे. इसलिए मैं एक-एक पैसा बहुत सोच-समझ कर खर्च करता था. हर महीने सात-आठ रूपए मेरे व्यक्तिगत खर्च के लिए बच जाते थे. वही बचे हुए पैसे उस दिन मेरे कोट की जेब में थे. मैं बाथरूम से आया. पड़ोसी सीनियर को निकलते हुए देखा. उन्होंने पूछा, “ये लोग आए नहीं अभी तक?”

मैंने कहा, “नहीं.” और, वे चले गए. पैसे संभालने के लिए जेब में हाथ डाला तो उसमें कुछ नहीं था. मैंने सारी जेबें टटोल डालीं. इधर-उधर देखा. कहीं कुछ नहीं था. मैं चुपचाप रोने लगा. पूरा महीना पड़ा था और मेरी जेब में अब एक भी पैसा नहीं था. किसी चीज की जरूरत पड़ी तो क्या करूंगा? यह सोच-सोच कर बहुत परेशान हो गया. लेकिन, अब क्या हो सकता था? मुखिया सीनियर आए तो मैंने उन्हें बताया. वे बोले, “ऐसा कैसे हो सकता है? कोई आया था यहां? ” मैंने बताया “कि पड़ोसी सीनियर आए थे आप लोगों को पूछने.”

“अरे, तो वे थोड़ी निकालेंगे तुम्हारे पैसे,” कह कर उन्होंने बात खत्म कर दी और मैं खाली हाथ पूरा महीना काटने के लिए अपने मन को समझाने लगा.

एक दिन मुखिया सीनियर पड़ोसी के कमरे में बैठे थे. वहीं से मुझे आवाज देकर बुलाया. वहां गया तो वे बोले, “एक अद्धा शराब ले आओ, बाजार से.”

मैं आसमान से गिरा, “शराब?”

“हां शराब. फटाफट जाओ और लेकर आओ. ये रहे पैसे,” उन्होंने कुछ रुपए दिए.

“मुझे तो पता ही नहीं है शराब की दूकान का.”

“खरीदोगे तो पता लग जाएगा. डाट के पास सामने ही बी.दास एंड संस की दूकान है. बस वहीं चले जाना और पूछ लेना. एक अद्धा लाना है ह्निस्की का. ह्निस्की दो कहना.”

मैंने विरोध किया, “मैं नहीं जावूंगा. वहां पर लोग मुझे पहचानेंगे और कहेंगे मेवाड़ी मास्साब का भाई शराब खरीद रहा है. घर तक बात पहुंचेगी. नहीं, मैं नहीं जावूंगा,” तो पड़ोसी सीनियर ने मुखिया से कहा, “ये लो, मैंने कहा था ना कि ये नहीं जाएगा. देख लो अब!”

मुखिया सीनियर ने गुस्से में भड़क कर कहा, “जाओगे कैसे नहीं, जाना पड़ेगा. नहीं तो अभी कमरा छोड़ कर चले जाओ, अभी. मैं तुम्हारा सामान बाहर फैंक देता हूं.“

पड़ोसी सीनियर ने पुचकार कर कहा, “जा भाऊ ले आ. इतनी रात को बोरिया-बिस्तरा लेकर कहां जाएगा, हैं?”

मेरी रूह कांपी कि लोग मुझे पहचान लेंगे. इसलिए मायूस होकर फिर कहा, “वहां डाट में पहचान के लोग घूमते रहते हैं.”

पड़ोसी बोला, “कोई नहीं पहचानेगा. तुम हमारे कपड़े पहन कर जावोगे. लाओ रे, कोट पैंट दो. हमारे तो छोटे पड़ जाएंगे, आनंद के दे दो. टोपी और मफलर भी ले आना.”

वे जिद पर अड़ गए. मेरे पास उस देर शाम को अंधेरे में कोई और रास्ता नहीं था. उनका कोट-पेंट और मफलर पहना. कोट के आस्तीन हाथों से बाहर निकल रहे थे. उन्होंने पेंट के पांयचे ऊपर मोड़े, सिर पर ऊनी टोपी पहनाई, कंधे में झोला लटकाया और मुझे शराब लेने के लिए रवाना कर दिया.

मैं दूकान पर गया और डरते-डरते कहा, “एक ह्निस्की का अद्धा चाहिए.”

“कौन-सी?”

“पता नहीं,” मेरे मुंह से निकला.

वे समझ गए होंगे कोई नौसिखिया है. उन्होंने एक अद्धा और बचे हुए पैसे पकड़ाए. मैंने अद्धा झोले में डाला और आंखें नीची किए हुए चुपचाप चला आया.

लेकिन, बात शायद अभी खत्म नहीं हुई थी. मैं कपड़े बदल कर पढ़ने को बैठा ही था कि बगल से फिर बुलावा आ गया. मुखिया ने आवाज देकर बुलाया. दूसरे सीनियर साथियों से भी आने को कहा. हम पड़ोसी सीनियर के कमरे में पहुंचे. वहां मेज पर चार-छह गिलास रखे थे. आदेश हुआ, सब लोग पिएंगे. पड़ोसी सीनियर ने एक गिलास में शराब की कुछ बूंदे टपका कर पानी भरा और मुझे पकड़ा कर कहा, “लो पी ओ”. मैंने कहा, “मैं शराब नहीं पीता.”

उस सीनियर ने कहा, “अब ये तो पीना ही पड़ेगा. सोच लो.”

बाकी लोगों ने भी अपने गिलास पकड़े और एक-एक घूंट भरी.

“तो चलो, अब चलें?” पड़ोसी सीनियर ने मुखिया से कहा तो मुखिया ने जवाब दिया, “हां, हां चलो.”

पड़ोसी सीनियर ने अब बताया, “भाई लोगो, अब पिक्चर देखने का मन हो रहा है. सब लोग अपने-अपने टिकट के पैसे दो. हम लोग ‘अशोक’ में ‘सीमा’ पिक्चर देखेंगे, नाइट शो में. उसमें बलराज साहनी और नूतन हैं. चलो, निकालो पैसे… ”

मेरे पास तो कुछ था नहीं, “इसलिए बोला, मेरे पास तो पैसे है. नहीं. मैं नहीं चलूंगा.”

पड़ोसी सीनियर ने कहा, “अरे नहीं, तुमसे तो मांग ही नहीं रहे हैं. तुम्हें तो हम दिखाएंगे.”

उन्होंने पैसे जमा किए. फिर सब लोग रोहिला लाज से ‘अशोक’ सिनेमा हाल तक पैदल गए. वहां उन्होंने मुझसे कहा, “लाइन में खड़े हो जाओ और टिकट खरीदो. हमारे मुंह से शराब की गंध आ रही है.”

मैंने कहा, “मेरे मुंह से भी तो आ रही होगी?”

वे बोले, “तुम्हारे मुंह से नहीं आ रही है. तुम्हें चक्कर आ रहा है क्या?”

मैंने कहा, चक्कर तो नहीं आ रहा है. तब उन्होंने मुझे पैसे दिए और खिड़की पर लाइन में खड़ा कर दिया. दो-चार आदमियों के बाद मेरा नंबर आ गया. 9 से 12 बजे रात के सात टिकट मांगे. पैसे दिए. खिड़की से टिकट मिल गए.

‘सीमा’ बहुत अच्छी पिक्चर थी. उसमें बलराज साहनी, नूतन और शुभा खोटे थी. ‘तू प्यार का सागर है, तेरी बूंद के प्यासे हम’ गाने में मेरी आंखें भर आईं. पिक्चर की खलनायिका एक जगह व्यंग्य से कहती है, “हमने तुमको क्या से क्या बना दिया!” पिक्चर खत्म होने के बाद हम वापस लौटे तो रास्ते में मेरी पीठ पर धौल मारते हुए पड़ोसी सीनियर ने कहा, “हमने तुमको क्या से क्या बना दिया! तुम शराब भी पीते हो, पिक्चर भी देखते हो. तुम्हें नैनीताल की हवा लग गई है. तुम्हारे भाई साब ये जान कर बहुत खुश होंगे. है ना? ” मेरा माथा ठनका. यानी, इनकी, ‘अपनों ही’ की इतनी बड़ी योजना है. ये मुझे दबाना चाहते हैं. मैं न गिड़गिड़ाया, न कुछ कहा.

एक दिन वे फिर पीछे पड़ गए. पड़ोसी सीनियर के ही कमरे में बैठ कर उन्होंने कहा, “आज फिर पीने का मन हो रहा है. लाओ रे, पैसे जमा करो.”

पैसे शायद कम जमा हुए. बोले, “आज देशी ले आओ.”

मैंने कहा, “मैं नहीं जानता देशी-वेशी कहां मिलती है.”

“अशोक होटल से ठीक पहले नीचे को सीढ़ियां उतरना. वहीं पर है.”

वे अब तक कई बार कह चुके थे कि अपना डेरा बदल लो. हमारे साथ नहीं रह सकते. कहीं और देखो. जाडों की छुट्टियों के बाद यहां मत आना, वगैरह. उसी तनाव और दबाब में मैं एक बार फिर शराब लेने गया.

ठेके की खिड़की पर पहुंच कर एक बोतल ‘संतरा’ या ऐसा ही कुछ जो बताया था, कहा. बोतल लेकर झोले में डाली ही थी कि बगल से लटपटाती हुई आवाज आई, “अरे, आप आए हो? मैंने तो पहचाना ही नहीं था….आइए, थोड़ी हमारे साथ भी लीजिए….”

एक पुलिसवाला था जो मेरे दोस्त और सहपाठी नवीन को जानता था. नवीन के बड़े भाई पुलिस में ही थे. यह पुलिसवाला एक दिन चलते-चलते सड़क पर मिल गया था और नवीन ने मेरा परिचय करा दिया था.

मैंने कहा, “मैं नहीं पीता. किसी ने मंगाई है.”

“कोई बात नहीं, दो घूंट हमारे साथ भी ले लो.”

वह पीछे ही पड़ गया. मैं समझाता रहा कि में नहीं पीता, लेकिन वह सुनने को तैयार ही नहीं था. मैंने गुस्से में आकर कहा, “मैं नहीं पीता कह रहा हूं, तुम्हारी समझ में नहीं आता?”

वह कहने लगा, “अरे, दो घूंट से क्या होता है? पढ़-लिख रहे हो. कल बड़े अफसर बन जाओगे तो मैं भी कहूंगा, मैंने इनके साथ पी थी.”
मैं गुस्से में पल्ला छुड़ा कर तेजी से बाहर निकल आया.

कुछ दिन बाद एक और घटना ने मुझे हैरान और परेशान कर दिया. मैं खाना खाकर लौट आया था और पढ़ रहा था. सीनियर भी भीतर अपनी-अपनी चारपाई पर बैठे बातें कर रहे थे. अचानक लाइट आफ हो गई. काफी देर तक लाइट आने का इंतजार किया. फिर वैसे ही नींद आ गई. मुखिया की आवाज से नींद खुली. वे फ्यूज ठीक करने की बात कर रहे थे और मेरे लिए कह रहे थे कि सो चुका है. मैं सोचने लगा- मेरे सोने से इनका क्या मतलब? फिर वे चर्चा करने लगे, “तुम्हें फ्यूज उड़ाने में डर नहीं लगता? बल्ब के पीछे सिक्का रखने पर कभी करंट लग गया तो?”

“अरे, कुछ नहीं होता. मुझे तो आदत पड़ गई है.”

“यह तो हर समय पढ़ता रहता है.”

“रिकार्ड तोड़ेगा यह, पहले साल ही पास हो जाएगा,” कह कर कोई खीं-खीं करके हंसा.

“इसके भाई का तो कहना है- मेरा भाई बहुत सीधा-सादा है.”

“अभी नैनीताल की हवा नहीं लगी है. लग जाएगी, तब पता लगेगा.”

“इसके भाई तक इसकी खबर भेजनी चाहिए.”

ददा तक अपने सूत्रों से उन्होंने खबर भिजवाई भी. किसी ने मुझे बताया कि ददा कह रहे थे, “मुझे अपने भाई पर भरोसा है. वह जो कुछ भी करेगा, अपना अच्छा बुरा समझ कर ही करेगा.”

मुझे इस बात से बड़ी ताकत मिली और मैंने तय कर लिया कि अब मैं इनके साथ नहीं रहूंगा. अब पढ़ूंगा और वह सब करके भी दिखाऊंगा जो ये सोच भी नहीं सकते. देखी जाएगी.

“बताओ, ठीक किया मैंने?”

“ठीक ही किया होगा. तो फिर क्या हुआ?”

( जारी )

वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.

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Girish Lohani

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