मोहिनीदी से फिर मुलाकात की उम्मीद कम होती जा रही है. अब कहां भेंट होगी! हमसे गांव कबके छूट गया. वह भी क्या करने जाएगी गांव. उसकी ईजा, हमारी जेड़जा, जिंदा थी तो वर्षों में कभी एक चक्कर लगा लेती थी. कभी चिट्ठी भेजती थी. अब न वह जेड़जा रहीं, न परिवार का कोई और गांव में बचा है. क्या करने जाएगी वहां. वैसे भी, अब क्या माया-मोह बचा होगा उसमें. मुश्किल ही है मुलाकात.
फिर भी, एक क्षीण-सी आशा सिर उठा लेती है. कभी किसी शहर में अचानक भेंट हो जाए या उसकी कोई खबर मिल जाए.
मोहिनी दी के बारे में लिखना कहां से शुरू करूं! कितना कम जानता हूँ उसके बारे में. कितना कम रहा हूँ मैं अपने गांव में और मोहिनीदी के साथ तो बहुत ही कम. जो कुछ चित्र हैं स्मृति में वे बहुत पुराने, बचपन के दिनों के हैं. तब की कुछ यादें चलचित्र की तरह अक्सर सामने आ जाती हैं. ऐसा लगता है जैसे मैं अपनी उम्र की खिड़की से कूद कर बचपन के उन दिनों में चला आया हूँ.
ऐसा ही एक स्मृति-चित्र है. हमारी बाखली के ठीक पीछे थोड़ी सी ऊंचाई पर ग्राम देवता छुरमल का मंदिर है. विशाल बांज-वृक्ष के नीचे छोटा-सा मंदिर भवन और उसकी बाईं तरफ एक मण्या. मण्या माने शरणस्थली, यात्रियों, खासकर जोगियों के वास्ते. जोगी तो शायद ही कभी वहां आते. वह मण्या हम बच्चों का अड्डा था.
तो, इस चित्र में उसी मण्या के पास मंदिर परिसर की दीवार पर हम कुछ बच्चे खड़े हैं और दम साधे नीचे देख रहे हैं. थोड़ा-सा नीचे, दो घरों की बाखली के एक तरफ अखरोट के पेड़ के नीचे महिलाओं का मजमा लगा है. वे सब बड़ी ममता से, शिबौ-भाव से एक छोटी लड़की को घेरे खड़ी हैं जिसके सिर के बाल जड़ से साफ किये जा रहे हैं. लड़की रो रही है. विरोध कर रही है. बाल नहीं काटने दे रही. मगर दो-चार लोगों ने उसे पकड़ रखा है. एक आदमी ब्लेड से उसका सिर मूंड़ रहा है.
वह लड़की हमारी मोहिनीदी है. दूसरी पीढ़ी की हमारी बहन. ‘मुहन्दी’ कहते थे हम उसे. बड़े लोग कहते- ‘ओ, मुहनि’.
मोहिनीदी के साथ वह बाल काटने वाली अजूबी घटना नहीं हुई होती तो शायद उसका होना-न होना मेरे लिए कोई खास मायने नहीं रखता, जैसे उसके साथ की और लड़कियों से हमारा कोई वास्ता नहीं था. उस उम्र के लगभग सारे लड़के याद आते हैं लेकिन लड़कियों में सिर्फ मोहिनीदी. अगर यह घटना नहीं हुई होती तो मोहिनीदी भी मेरे लिए याद रखने लायक नाम न होता.
गांव में उस अखरोट के पेड़ के नीचे जब मोहिनीदी का जबरन मुण्डन हो रहा था तब शायद वह दसेक साल की और हम पांच-छह वर्ष के आस-पास रहे होंगे. तो, मंदिर की दीवार से नीचे यह तमाशा देखते हुए हम सब हंस रहे हैं, मोहिनीदी को चिढ़ा रहे हैं और उसका रोना तेज होता जा रहा है. आठ-दस साल की लड़की के बाल जड़ से साफ किये जा रहे हों तो उसे कैसा लगेगा! वह दहाड़ मार कर रोएगी नहीं क्या! उस समाज में, जहां उपनयन संस्कार होने तक लड़कों के भी बाल नहीं काटे जाते, एक लड़की का सिर जबरन साफ किया जा रहा था. घोर अपशकुन! इसलिए हमें डांटा जा रहा है.
बात यह थी कि मोहिनीदी के सिर में इतनी ज्यादा जूं हो गई थीं कि दूर से नजर आ जाती थीं और बालों से होकर उसके पूरे शरीर में और जमीन पर टपका करती थीं. वह जहां बैठ जाती, वहीं जूं रेंगती दिखाई देतीं. उसके दोनों हाथ हर वक्त सिर खुजलाने में लगे रहते थे. कोई उसकी जूं नहीं बीन देता था. वे इतनी ज्यादा थीं कि बीनी ही नहीं जा सकती थीं. लोग उसके पास बैठने से कतराते थे. वह रोनी सूरत बनाए इधर-उधर घूमा करती और दुरदुराई जाती थी.
हमारी जेड़जा, मोहिनीदी की ईजा लगभग अंधी थी. कोई रोग था उसकी आंखों में जिसने उसकी रोशनी छीन ली थी. सफेद पर्दा-सा पड़ गया था उसकी आंखों में. उसे चीजें झिलमिल-झिलमिल यानी छाया जैसी दिखती थीं. आंखों में हर वक्त कीचड़ लगा रहता था. कोई टोकता तो धोती के पल्लू से पोछ लेती. उस सुदूर पहाड़ी गांव में इलाज की कोई व्यवस्था न थी. मोटर सड़क ही करीब दस मील दूर काण्डा में थी. आंख का अस्पताल जाने कितनी दूर रहा होगा. उसके पति यानी हमारे जेठबाज्यू जीवित नहीं थे. कौन इलाज कराता.
इलाज के नाम से बचपन की दो कटु स्मृतियां कौंध जाती हैं. हमारे एक जेठबाज्यू (ताऊजी) बीमार पड़े. बहुत जोर का पेट दर्द हुआ उन्हें. तड़पते-चीखते थे. कभी सिसौंण (बिच्छू घास) थपोड़ा जाता, कभी डाम (लोहा गरम कर पेट दागना) डालते. उनके दोनों बेटे फौज में थे. किसी ने सलाह दी कि रम रखी होगी घर में, थोड़ी पिला दो. जेड़जा ने बक्सा खोल कर रम की बोतल निकाली. किसी ने गिलास में ढाल कर पिला दी. जेठबाज्यू थोड़ी देर में शांत हो गये. प्राण शेष रहते होते तो दर्द होता!
दूसरी याद और भी डरावनी और कारुणिक है. हमारे विस्तारित परिवार में चंद दिन का एक नन्हा शिशु बीमार पड़ा. उलटी-दस्त से पस्त. मां का दूध पीना भी उसने छोड़ दिया था. जिसने जो बताया, वैसा किया गया. बच्चे की उखड़ती सांसें देख किसी ने नायाब दवा बतायी. हम बच्चों को बाड़े की मिट्टी खोद कर कुर्मू (मिट्टी के भीतर रहने वाला काला-सफेद मोटा कीड़ा) ढूंढने को कहा गया. हम फौरन चार-पांच कुर्मू खोद लाये. कुर्मू को मारकर उसकी लुगदी बच्चे के होंठ पर लगायी गयी. कुछ ही देर में स्त्रियों का विलाप गांव की चोटियों से टकरा कर गूंजने लगा. वह चीत्कार आज भी दिमाग में गूंजती है तो कंपकंपी होने लगती है.
सन 2017 में भी इलाज की कोई व्यवस्था नहीं ठहरी उन बीहड़ गांवों में. मैं तो आपको सन 1960 का किस्सा बता रहा हूँ.
तो, मामूली ही रोग रहा होगा और बिना इलाज हमारी वह जेड़जा आंखों की रोशनी खो बैठी. अंदाजे से घर-बाहर आती-जाती, सारे काम करती. थोड़ी खेती-बारी भी कर लेती. सार पड़ गयी थी उसे. धान गोड़ने बैठती तो मजाल है कि घास की बजाय धान का एक भी पौधा उखड़ जाए! महिलाएं मजाक करतीं- ‘परुली की ईजा, तुमने तो सब धान उखाड़ कर फेंक दिये!’ वह जवाब देतीं- ‘तो ले जाकर अपने खेत में रोप लो. बढ़िया नानि-धानि का बीज है!’
तीन लड़कियां थीं जेड़जा की. बड़ी परुली का तब ब्याह हो चुका होगा और छोटी भागुली को हमने अपने बड़े होने पर देखा-जाना. मैंने कहा न कि अपने हम उम्र लड़कों के अलावा मुझे औरों की खास याद नहीं. उन्हें बड़े होने पर ही जाना-पहचाना.
तो, बेहिसाब जूं से निजात पाने के सारे सम्भव घरेलू नुस्खे बेकार हो गये होंगे. तभी कुछ लोगों ने मंत्रणा कर मोहिनीदी का मुण्डन कर देने का फैसला किया होगा. इस फैसले का विरोध भी जरूर हुआ होगा. बड़ी अपशकुनी बात ठहरी लड़की के बाल काटना. मगर कोई चारा न देख अंतत: उसका मुण्डन कर दिया गया.
मुण्डन होने के बाद मोहिनीदी कैसी लग रही थी, यह बिल्कुल याद नहीं. क्या गंजी मोहिनीदी को हमने चिढ़ाया था? आज दिमाग पर बहुत जोर डालने के बाद भी कुछ याद नहीं पड़ता. उस स्मृति-चित्र में और कुछ दर्ज नहीं. वह चित्र बाल मूंड़े जाने के क्लोज-अप तक सीमित है. उसी पल में ठहरा हुआ. स्वाभाविक ही है कि मोहिनीदी को जूं से निजात मिल गयी होगी. बाल ही नहीं रहे तो जूं कहां रहतीं. धीरे-धीरे नये बाल निकल आये होंगे. शायद लम्बे-घने या क्या पता!
उसी के एक-डेढ़ साल में गांव मुझसे छूट गया. गांव से बहुत दूर था स्कूल जहां कई बच्चे जाते थे लेकिन अति-सतर्क ईजा ने मुझे वहां नहीं भेजा. बाबू के साथ लखनऊ पठा दिया. गांव छूटा तो बहुत कुछ पीछे रह गया. गांव की, ईजा की, दोस्तों की नराई लगती थी लेकिन लखनऊ का नया, पहाड़ से बहुत भिन्न संसार आकर्षित भी करता था. उस उम्र में मन बहुत तेजी से आगे भागता है. पीछे देखना ही नहीं चाहता. लखनऊ में मेरी नयी दुनिया बन गयी. नये लोग, नये दोस्त, नये खेल और स्कूल. जैसे पंख उग आये हों. गांव बहुत पीछे रह गया. अब गांव से उतना ही रिश्ता रह गया जितना स्कूल का गर्मी की छुट्टियों से होता है.
गर्मियों का डेढ़-दो महीना गांव में बीतता. हम आजाद पंछी की तरह उड़ते रहते. दिन भर धमाचौकड़ी और जंगल में भटकना. हिसालू-काफल-किल्मोड़ा-बेड़ू और जाने क्या-क्या. गांव की जीवन धारा से जैसे हमारा कोई वास्ता ही न था. खाना खाने की अनेकानेक पुकार भी हम अनसुना कर देते. ऐसे में मोहिनीदी क्या, कोई भी हमारे राडार में नहीं था. किसी की शादी हो तो जरूर हम बच्चे अपना कौशल दिखाते. रंगीन कागज की पताकाएं बनाकर आंगन सजाते और ‘दूल्हे के बाप को चूतिया’ घोषित करने वाले गीत की कुछ लाइनें दिन भर गाते रहते और डांट खाते. हाँ, पोस्टमैन के गांव आने पर हमारी पूछ बढ़ जाती. हमें चिट्ठियां पढ़ कर सुनानी होतीं और कहे मुताबिक लिख देनी होतीं.
पता नहीं कितनी गर्मियां बीती होंगी, लेकिन बहुत ज्यादा नहीं क्योंकि हमारे कैशोर्य ने बचपन को पूरी तरह विदा नहीं किया था. वह जेठ की एक दोपहर थी जब लोग खेतों और जंगल का काम जल्दी निपटाने के बाद भात खाकर कुछ घड़ी आराम कर रहे होते हैं. कोई घर के भीतर और कोई मक्खियों से बचने के लिए छुरमल के मंदिर में शिलंग और बांज के पेड़ की छाया तले. हम उस वक्त भी काफल के पेड़ों की डालियों में बंदरों की मानिंद उछल-कूद करते. ऐसे में गांव में चिट्ठीरसेन आया. वह महीने-बीस दिन में एक चक्कर लगाया करता था. बारी-बारी कई गांवों में जाना होता था उसे. लोग मनी-ऑर्डर एवं चिट्ठियों का इंतजार करते. आतुर महिलाओं की निगाह गांव के रास्ते पर लगी रहती. चिट्ठीरसेन आता दिखता तो गांव में हाँका-सा पड़ जाता.
उस दोपहर भी चिट्ठीरसेन आता दिखाई दिया तो हल्ला मच गया. प्रत्याशा में हमारी पुकार शुरू हो गयी- ‘झट्ट से आओ रे नानतिनो, चिट्ठीसेन आ गया.’ हम दौड़ते हुए पहुंचे. छुरमल के मंदिर-प्रांगण में सब जुट गये. मनी-ऑर्डर पर गवाह के रूप में दस्तखत कर सकने वाले, चिट्ठी पढ़ और लिख देने वाले, लिखवाई हुई चिट्ठी लेकर कबसे इंतजार करने वाले, सब. पोस्टमैन ठीक से बैठ भी नहीं पाया था कि चारों तरफ से उस पर सवालों की बौछार होने लगी- ‘हमारी चिट्ठी आयी?’ ‘हमारे इनकी तो आयी होगी, ना?’, ‘मनीआडर आया है?’, ‘हमारे तो बच्चों ने कबसे कुशल नहीं दी. आज तो आयी होगी?’
सबकी आतुरता और बेचैनी समझता था पोस्टमैन. सबसे पहले वह मनी-ऑर्डर की सूचना देता- ‘तुम्हारा, तुम्हारा, तुम्हारा आया है. तुम्हारा तो नहीं पहुंचा अभी. आता होगा.’ उनका उदास मंह देख सात्वना भी देता- ‘उस तरफ की सड़क टूटी है बल, डाक नहीं आ पा रही. धैर्य रखो.’ फिर वह चिट्ठियां निकालता. सबको अच्छी तरह जानता था वह. चिट्ठी पाने वाले को और भेजने वाले को भी. पाने वाले के नाम कभी-कभार एक ही होते तो भेजने वाले के नाम से पता चल जाता कि किसकी है वह चिट्ठी.
उस दिन सबसे अंत में पोस्टमैन ने थैले से एक अंतर्देशीय पत्र और निकाला था. खुद अचम्भित-से उसने पूछा – ‘मगर ये अन्तर्देशीय किसका होगा? मिले बसंती देवी, भेजने वाले महेश गिरि?’
-‘हैं? महेश गिरि? यहां तो कोई नहीं हुआ महेश गिरि किसी को चिट्ठी भेजने वाला! बसंती देवी तो हुईं तीन-चार.’ सब आश्चर्य में पड़ गये.
एक-कर बसंती देवी की पहचान की गयी. एक हुई पार रम्मू की ईजा. दया की घरवाली का नाम भी बसंती हुआ. और, हां, गोविंदी की ईजा भी हुई बसंती.
आज ख्याल आता है कि ऐसे ही मौकों पर गांव की उन स्त्रियों के नाम याद किये जाते थे. वर्ना पूरा पहाड़ अपनी पीठ पर ढोने वाली वे महिलाएं सदा ‘दुरुली की ईजा’, ‘भुवन की ईजा’, ‘कांतिबल्लभ की घरवाली’ वगैरह-वगैरह ही ठहरीं. कोई-कोई चिट्ठी और मनी-ऑर्डर ‘मिले भवानी दत्त की घरवाली को’ या ‘मिले धार में वाले रमेश की माता जी को’ के नाम भी आने वाले ठहरे. शकुनाखर हों या चिट्ठी-मनी-ऑर्डर, उन महिलाओं की पहचान ऐसे ही होने वाली हुई. नाम गुम हो जाने वाला ठहरा उनका.
खैर, उस दिन हर बसंती देवी से खोद-खोद कर पूछा गया कि है कोई महेश गिरि, तुम्हें चिट्ठी भेजने वाला? याद करो तो!
‘न-न जी, कोई नहीं है हमारा इस नाम का.’ किसी ने अक्ल लगाई- भेजने वाले महेश गिरि हैं कहां के? यह तो देखो. लिखा होगा.
मैं माना जाता था होशियार लड़का. सो, वह अंतर्देशीय मुझे पकड़ाया गया. मैंने जोर से पढ़ा था- ‘भेजने वाले महेश गिरि. महंत …. का आश्रम.’ आश्रम का नाम अब याद नहीं रहा.
आश्रम के नाम ने भ्रम और बढ़ा दिया था. ‘नहीं जी, यहां किसी की नहीं है यह चिट्ठी. गलत आ पड़ी होगी.’ लेकिन ‘मिले बसंती देवी’ के आगे सही-सही और पूरा पता हमारे ही गांव का था.
-‘खोल कर पढ़ लो, पता चल जाएगा.’ इस पर सहमति बन गयी थी.’
मुझे ही आदेश हुआ अंतर्देशीय खोल कर पढ़ने का. याद है कि अंतर्देशीय खोलते हुए अजीब घबराहट-सी महसूस हुई थी. सब के सब दम साधे चिट्ठी पढ़े जाने का इंतजार कर रहे थे.
मैं चिट्ठी पढ़ता जाता और वहां बैठी सभी स्त्रियों के आंचल भीगते जाते. कई बार उनकी सिसकियां मेरी आवाज से ऊंची हो जातीं तो मुझे रुकना पड़ता. फिर-फिर पढ़नी पड़ती कई लाइनें. उस दिन और उसके बाद भी दसियों बार वह चिट्ठी मुझे पढ़नी पड़ी थी. जो आता वही पूरी सुनाने को कहता और जो सुनता वही चला आता.
उसके शब्द याद नहीं हैं लेकिन उनका दर्द याद है. एक-एक शब्द दर्द का पुलिंदा था. उस दर्द को उतनी तीव्रता से अपने शब्दों में भर पाना मेरे वश की बात नहीं.
‘नमोनारायण’ से शुरू हुई थी वह चिट्ठी. उस चिट्ठी का चित्र हू-ब-हू याद है मुझे, जैसे मोहिनीदी की याद है, जब उसके बाल काटे गये थे.
हां, वह चिट्ठी मोहिनीदी की थी. मोहिनीदी ने नहीं लिखी थी. कैसे लिखती, कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा था उसने. बोल कर लिखवायी थी उसने. उसकी ईजा, हमारी जेड़जा का नाम बसंती था, यह हमने उसी दिन जाना.
यह भी मैंने उसी दिन जाना कि कोई साल-सवा साल पहले मोहिनीदी की शादी हो गयी थी. तब हम लखनऊ रहे होंगे. ईजा ने चिट्ठी में लिखा होगा तो मुझे याद न था. उन सुदूर गांवों के गरीब परिवारों में लड़कियों का ब्याह बड़ी समस्या होता था. कोई हाथ मांगने आ गया तो कुल-गोत्र अच्छा सुन कर ही खुश हो जाते और बिना ज्यादा पूछ-ताछ के लड़की ब्याह दी जाती. नेत्रहीन मां की बेटी और पितृहीन मोहिनीदी का रिश्ता भी ऐसे ही कहीं हो गया होगा.
चिट्ठी बता रही थी कि मोहिनी अब महेश गिरि हो गयी थी, बल्कि बना दी गयी थी. महेश गिरि ने लिखा था- ” ईजा, अब मैं तुम्हारी बेटी नहीं हूँ. किसी की बेटी, बहन, पत्नी या बहू, कुछ नहीं हूँ. मैं अब जोगिया वस्त्र पहनने वाली, अलख जगाने वाली महेश गिरि हूँ…. मुझे तुम्हें ईजा भी नहीं कहना चाहिए. जोग्याणी की कोई ईजा नहीं होती. पर क्या करूं. तुम्हें ईजा कह कर गले लगाने को मन करता है. खूब रोने का मन करता है.
“मैं महेश गिरि कैसे बनी, यह किस्सा कहने का अब कोई अर्थ नहीं है. पर ईजा, यह जान ले कि अपनी बेटी को दुल्हन बना कर तूने जिस आदमी के साथ विदा किया था, वह आदमी नहीं व्यापारी निकला. तेरी देहली से दुल्हन बन कर निकली मोहिनी उसके घर पहुंच कर जानवर भी नहीं रही. उसने चार दिन मोहिनी का शरीर नोचा, फिर उसके गहने छीने, मारा-पीटा और एक दिन इस आश्रम में लाकर जबरदस्ती गुरु मंत्र दिलवा दिया. महेश गिरि रख दिया गया मेरा नाम. यह मुझे बाद में पता चला कि वह पहले भी एक शादी कर चुका था. उसकी पहली वाली भी यहीं मेरे साथ आश्रम में है.
“मैं आश्रम में नहीं आना चाहती थी. कौन लड़की अपने मन से आना चाहेगी यहां! मुझे कितना मारा-पीटा-सताया, अब क्या बताऊं. यह सब बताना अब बेकार है, मगर एक बार मन था तुझे बताने का. अब कुछ हो भी नहीं सकता. उस हैवान के पास कागज हैं कि मैंने अपनी मर्जी से गुरु मंत्र लिया है. तब बहुत रोयी, बिलखी और तड़पी थी. जोगिया वस्त्र काट खाते थे. सोचती कि मेरा कोई आकर मुझे यहां से ले जाता. तुम कहोगी, मुझे खबर क्यों नहीं की. कैसे करती! कितनी कोशिश की मैंने. तब पहली बार इस बात का अफसोस हुआ था कि मुझे लिखना क्यों नहीं आता. आश्रम से बाहर जाने की इजाजत नहीं थी . जेल जैसी थी शुरू में. आश्रम में जिससे भी लिख देने को कहती वही मना कर देता. सबको मना कर रखा था. गुरुमंत्र लेने के बाद एक साल तक कहीं भी सम्पर्क करने की सख्त मनाही थी.
“अब मैं एक माता हूँ, महेश गिरि. एक जोग्याणी. अब यही मेरा जीवन है, बाकी किसी से कोई रिश्ता नहीं. सब कुछ हरि चरणों में. मेरा दुख, मेरी माया मत करना. सोचना, मोहिनी मर गयी….”
छुरमल के मंदिर-प्रांगण में जितने भी थे उस समय, सब के सब रो रहे थे. मोहिनीदी की ईजा का रो-रोकर बुरा हाल हो गया था. उसे सम्भालने की कोशिश होती तो वह और भी दहाड़ मारने लगती. पोस्टमैन की भी आंखें भीग आयी थीं और मेरे गले में कुछ अटक-सा गया था. चिट्ठी पढ़ते-पढ़ते गला भर गया था. यह शायद पहली घटना थी जिसने मेरे किशोर मन की सम्वेदना को गहरे छुआ था. खेतों-जंगलों में काम करते लोग विलाप सुन कर दौड़े आये थे. मुझे कई बार चिट्ठी पढ़ कर सुनानी पड़ी थी और हर बार उन शब्दों का दर्द गहरा होता जाता. सब स्तब्ध थे और रो रहे थे. अगर कोई नहीं रोया तो वह छुरमल देवता थे.
-‘शिब-शिब! बाप जिंदा होता तो कुछ खोज-खबर लेता बेचारी की.’ महिलाएं कह रही थीं.
-‘मां अंधी ठहरी. कोई जाए भी तो कहां जाए? किससे क्या कहे?’
-‘इतनी बड़ी दुनिया में कोई तो होता जो मेरी मोहिनी को मेरे पास पहुंचा देता. उन दुष्टों को नहीं रखना था तो यहां भेज देते. सीधे जोग्याणी कैसे बना दिया. नाश हो उनका, एक न रहे उनका!’ मोहिनी दी की ईजा का विलाप थमता न था.
-‘शिबौ, बेचारी के साथ बचपन ही में अशगुन हो गया था. लड़की के सिर में भी कोई ब्लेड लगाता है!’ लोगों को तब याद आया कि बहुत छोटी उम्र में अत्यधिक जूं हो जाने के कारण मोहिनीदी के बाल उतार दिये गये थे.
कई दिन तक यह दुख गांव पर छाया रहा. उसकी मां तो हर वक्त विलाप ही करती रहती. सयानी औरतें उसे समझातीं- ‘अब चुप हो जा. इतना रोने से बिल्कुल ही फूट जाएंगी तेरी आंखें.’
छुट्टियां बीतीं तो हम वापस लखनऊ आ गये और पढ़ाई-खेल-कूद में मस्त हो गये. मगर ईजा को कभी चिट्ठी लिखता तो मोहिनीदी के बारे में पूछना नहीं भूलता. जवाब आता कि फिर उसकी कोई चिट्ठी नहीं आयी. अगली या उसकी अगली गर्मियों में हम गांव पहुंचे तो पता चला कि मोहिनीदी की चिट्ठी कुछ दिन पहले आयी थी. उसने लिखा था कि अब वह मंदिरों-मठों-गांवों में घूमती है. मौका निकाल कर कभी गांव आएगी. पता नहीं क्यों मैं मोहिनीदी का इंतजार करने लगा था. मनाता कि वह मेरे गांव में रहते ही आ जाए. ईजा से उसके बारे में इतनी बार पूछा कि डांट तक सुननी पड़ी थी.
जल्दी ही एक दोपहर सामने की पहाड़ी से गांव को आने वाली पगडण्डी पर कोई गेरुआ वस्त्रधारी नमूदार हुआ.
-‘कोई जोगी आ रहा शायद आज.’ लोगों ने कहा.
-‘अरे, मोहिनी तो नहीं आ रही!’ किसी को याद आया कि उसने आने को लिखा था. सुनते ही मैं दौड़ पड़ा. मेरे पीछे कुछ और बच्चे भी दौड़े. हमारे साथ शेरू कुत्ता भी भौंकते हुआ दौड़ा और काफी आगे निकल गया.
वह मोहिनीदी ही थी. हमने देखा शेरू भौंकना बंद कर पूंछ हिला रहा है और वह उसे पुचकार रही है. मुझे मोहिनीदी का चेहरा याद नहीं था. वैसे भी उसे उन भगवा वस्त्रों में पहचान पाना आसान नहीं होता. पूरे तन पर गेरुआ वस्त्र, माथे से पीछे गरदन तक बालों को बांधे गेरुआ कपड़ा. हाथ में कमण्डल, कंधे में लम्बा गेरुआ झोला. गले में माला, रुदाक्ष की. माथे पर चंदन और रोली का तिलक.
अनायास मेरे हाथ जुड़ गये- ‘मोहिनीदी, नमस्कार.’
-‘नमोनारायण’ उसने कहा- ‘कब आया तू लखनऊ से?’ मुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि उसने मुझे पहचान लिया- ‘तूने पहचान लिया मुझे!’
उसने मेरा हाथ पकड़ लिया- ‘अपने घर-गांव के बच्चों को कौन नहीं पहचानेगा रे!’ मोहिनीदी का हाथ मैंने रास्ते भर नहीं छोड़ा. घर पहुंचते ही उसे महिलाओं ने घेर लिया और रोना-धोना मच गया तो मुझे वहां से हटना पड़ा.
मोहिनीदी ने किसी से ‘पैलागा’ नहीं कहा. किसी-किसी ने उसे गले लगाना चाहा लेकिन उसने ‘भौत कै’ भी नहीं कहा. ‘नमोनारायण’ कहते हुए वह चाख में खिड़की के पास बैठ गयी. उसकी मां दहाड़ मार कर रोने लगी- ‘कैसी सुंदर दुल्हन बन कर गयी थी और कैसे भेष में लौटी है!’ सभी औरतों के आंचल आंखों से लग गये. कोई उसके हाल-चाल पूछ रहा था, कोई जानना चाह रहा था कि ससुराल में हुआ क्या था. मोहिनीदी के भीतर कोई तूफान चल रहा होगा तो भी वह शांत बनी रही. तब तक वह अपने संन्यासी जीवन को पूरी तरह स्वीकार कर चुकी होगी. बस, बीच-बीच में कह उठती- ‘जैसी हरि इच्छा!’ या ‘हरि इच्छा बलवान!’ सभी के अभिवादन का उसके पास एक ही प्रत्युत्तर था- ‘नमोनारायण.’
जितने दिन मोहिनीदी गांव में रही मेरा ज्यादातर समय उसी के साथ बीतता. उसके साथ ही लगा रहता. पता नहीं उससे कैसा मोह हो गया था.
मैं पूछता- ‘मोहिनीदी तुम धोती क्यों नहीं पहनती?’
वह बताती- ‘हमारे लिए यही कपड़े हैं, रे!’
-‘हमेशा यही पहनोगी?’
-‘हां’
उसका कमण्डल हाथ में लेकर पूछता- ‘इससे क्या करते हैं?’
-‘गांव-गांव घूम कर इसमें भिक्षा मांगते हैं.’
-‘तुम मांग कर खाती हो मोहिनीदी?’ तो वह हंस देती. एक दिन हम छुरमल के मंदिर में बैठे थे. मैंने कहा- ‘मोहिनीदी, अब तू यहीं रह जा.’
कहने लगी- ‘जोग्याणी एक जगह नहीं रह सकती.’ मैंने कहा था- ‘तू जोग्याणी मत बन. ये कपड़े छोड़ दे.’ वह चुप रही. कुछ देर बाद बोली थी- ‘तू मुझे मोहिनीदी क्यों कहता है? मैं महेश गिरि हूँ. जोग्याणी किसी की दीदी नहीं होती. वह माता होती है सबके लिए. मैं माता हूँ. माता महेश गिरि.’ मगर मैं उसे माता नहीं कह सका, महेश गिरि दीदी भी नहीं.
उस दिन वह मुझे एकटक देखती रही थी. उसके भरे-भरे मुख पर कई भाव आये-गये. पहली बार मुझे वह सुंदर भी लगी थी. मालूम नहीं, वह क्या सोच रही थी. फिर अचानक ही ‘नमोनारायण’ कहते हुए उठ खड़ी हो गयी.
-‘अरे, सोलह की थी जब शादी हुई. अभी बीस की भी नहीं हुई है. इसकी उम्र की लड़कियों के घर बच्चे जनम रहे हैं. कैसे दान किये होंगे इस अभागी ने!’ महिलाएं उसके पीछे कहतीं. कभी उसके सामने भी. सुन कर वह ‘नमोनारायण’ के अलावा और कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करती.
मोहिनीदी ने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा था मगर महेश गिरि बन कर उसने तमाम भजन-कीर्तन और संस्कृत के कई श्लोक कंठस्थ कर लिये थे. सुबह-शाम व श्लोक पढ़ती, भजन गाती और आंखें बंद करके माला जपती. उसकी उम्र की गांव की महिलाएं दिन भर घर-बाहर के काम करतीं, बोलतीं-हंसती-झगड़तीं, अपने बच्चों को दूध पिलातीं-पुचकारतीं. मोहिनीदी शायद ही कभी खुलकर हंसती थी. बहुत गम्भीर हो गयी थी वह. उसे देख कर मन उदास हो जाया करता था.
जैसे वह गांव आयी थी वैसे ही एक दिन चली गयी, अपना झोला-कमण्डल लटकाए और सबसे ‘नमोनारायण’ कहते हुए. बहुत सारे लोग उसे गांव की सीमा तक छोड़ने गये थे. उनमें मैं भी शामिल था. उस दिन भी मैंने उसका हाथ पकड़ रखा था. जाने से पहले अपने झोले से निकाल कर उसने मुझे रुद्राक्ष का एक दाना दिया था. वह रुद्राक्ष आज भी मेरे पास सुरक्षित रखा है.
उस पहाड़ी पर खड़े सब लोग उसे जाते देखते और रोते रहे. उसकी ईजा की सिसकियां थमती न थीं.
-‘ऐसे ही आते रहना, मोहिनी!’ रोती महिलाओं ने उस जाती हुई जोग्याणी से कहा था- ‘अपनी मां से मिलने जरूर आना.’ उसने सुना होगा पर कोई जवाब नहीं दिया. पीछे मुड़ कर भी नहीं देखा. धीरे से ‘जैसी हरि इच्छा’ या ‘नमोनारायण’ कहा भी होगा तो किसी को सुनाई नहीं दिया था.
साल भर लखनऊ में पढ़ाई और गर्मी की छुट्टियों में गांव जाने का हमारा सिलसिला चलता रहा. गांव के तमाम लोगों के हाल-चाल हमें तभी हमें मिलते. कैशौर्य की चंचलता जाने के साथ हमारा गांव के लोगों से मिलना-बतियाना, सुख-दुख पूछना, वगैरह शुरू हो गया था. किसी साल पता चलता कि मोहिनीदी की चिट्ठी आयी थी. कभी सुनने को मिलता- ‘कहां चिट्ठी-पत्री! अब क्या माया-मोह रह गया होगा उसे.’
एक बार चौंकाने वाली खबर सुनी. कोई बटोही बता गया था बल, कि इस गांव की लड़की जो जोग्याणी बन गयी थी, किसी के साथ भाग गयी, बल!
इस पर सभी महिलाओं ने उसे कोसा. भला-बुरा कहा- ‘अरे, बना दिया था जोग्याणी तो उसे ही निभाती. पता नहीं किसके साथ किया मुंह काला.’
-‘ये तो एक दिन होना ही था. भरी-पूरी जवान उमर. कब तक नहीं फिसलती. आसान जो क्या हुआ संन्यास निभाना!’
-’मेरी तरफ से तो मर ही गयी’ उसकी ईजा ने भी रोते हुए कहा था.
सच कहता हूँ, यह खबर सुन कर मुझे बहुत अच्छा लगा था. मेरी कल्पना में मोहिनीदी साड़ी पहन कर घूमने लगी थी. जोगिया वस्त्रों में वह मुझे बिल्कुल अच्छी नहीं लगती थी और उसका ‘नमोनारायण’ कहना तो जैसे काट खाता था.
इसके बाद मोहिनीदी की चर्चा नहीं ही होती थी. मैं भी उसे भूलने लगा था. कभी उसका दिया रुद्राक्ष दिख जाता तो याद आती. यह सोच कर संतोष जैसा होता कि अब तो वह घर-गृहस्थी वाली होगी.
इसके चंद बरस बाद ‘मिले बसंती देवी’ और ‘भेजने वाले महेश गिरि’ करके फिर उसकी चिट्ठी आयी तो सब चौंके. ‘नमोनारायण’ के बाद उसने लिखवाया था- ‘इधर कुछ साल से हम पूरे देश में घूम रहे थे. बहुत सारी जगहों और तीर्थों में गये- गंगा सागर, रामेश्वर, उज्जैन, प्रयाग, हरद्वार, काशी, बहुत जगह. नासिक के कुम्भ में भी गये.’
उस चिट्ठी में तीर्थों की महत्ता का विस्तार से वर्णन था. ईश्वर-महात्म्य का बखान था. अपनी ईजा की कुशल की कामना की थी और उससे भी ईश्वर भजन करने की अपेक्षा की थी. यह भी लिखा था कि वह ईजा के लिए धोती-पेटीकोट-ब्लाउज का पार्सल अलग से भेज रही है. पंद्रह रुपए का मनी ऑर्डर भी.
मोहिनीदी के किसी आदमी के साथ भाग जाने की खबर सुनाने वाले उस बटोही को गांव की महिलाओं गालियां दीं. उसकी ईजा ने दसियों बार कहा- ‘उस बदमाश के मुंह में कीड़े पड़ जाएं.’ मोहिनीदी के प्रति उन सबके मन में श्रद्धा भर आयी. उसके जालिम पति को कोसते हुए वे कहते- ‘उस राक्षस ने तो उसका जनम बिगाड़ना चाहा था, मगर मोहिनी ने अपना लोक-परलोक सुधार लिया. खूब पुण्य कमा रही है.’
उसकी खबर आने में लम्बा अंतराल हो जाता तो चिंता करने की बजाय कहा जाता कि कहीं आश्रम में या तीर्थों में तपस्या में लगी होगी. माया-मोह से दूर पक्की जोग्याणी हुई अब.
फिर हमसे गांव छूट गया. ईजा भी हमारे साथ लखनऊ आ गयी. गांव से कभी-कभार आने वाली चिट्ठियां कई खबरें लातीं. धीरे-धीरे लोग गांव छोड़ रहे थे. मोहिनीदी की छोटी बहन भागुली की शादी हो गयी. कुछ समय बाद वह अपनी ईजा को भी अपने साथ ले गयी. दिल्ली में कहीं उसकी आखें दिखाईं, बल. कुछ रोशनी लौटी, बल. सुनी-सुनाई खबरें.
मोहिनीदी की फिर कोई खबर मुझे नहीं मिली. मेरे पास सुरक्षित वह रुद्राक्ष उसकी याद दिलाता रहता है. सन 2000 के प्रयाग कुम्भ की कवरेज के लिए मैं एक हफ्ता कुम्भ नगरी के शिविर में रहा. वहां ‘माताओं’ को देख कर मोहिनीदी याद आती. मैं रोज देर रात तक गंगा पार झूंसी में लगे अखाड़ों-महंतों के आश्रमों में घूमता. इण्टरव्यू करता. कभी सोचता, क्या पता मोहिनीदी भी यहां हो. क्या पता, कहीं मिल जाए! अब वह कैसी दिखती होगी? कई संन्यासिनियों को गौर से देखता. फिर सोचता, कहीं हो भी तो क्या मैं उसे पहचान पाऊंगा? वही क्या मुझे पहचान सकेगी? हरद्वार के कुम्भ में भी एक बार में इस उधेड़बुन से गुजरा था.
बहुत साल पहले जब किसी बटोही ने उसके भाग जाने की खबर सुनाई थी, तब मैंने मोहिनीदी पर एक कहानी लिखी थी. ‘माता’ शीर्षक से प्रकाशित इस कहानी में कई बातें सच थीं और कुछ कल्पित भी. कहानी का अंत इस प्रकार है- “मन करता है देश के किसी शहर, किसी कस्बे, किसी गांव में मोहिनीदी से भेंट हो जाए. मेरी ‘नमस्ते’ के जवाब में वह ‘नमोनारायण’ न कहे. मुझे अपने घर ले जाए, जहां एक आदमी से मिलाते हुए वह कहे- ‘ये तेरे जीजाजी हैं’ और तभी एक बच्चा दौड़ता हुआ आकर उसकी गोद में चढ़ जाए.
“काश, ऐसा हो!
“और, इस कहानी में कम से कम यह झूठ न हो!”
यह मेरे एक कहानी-संग्रह में शामिल एक कथा ही रह गयी. अब भेंट होने की आशा बहुत क्षीण ही है.
एक मासूम किशोरी से जबरन भक्तिन बना दी गयी हमारी मोहिनीदी को मोक्ष मिल गया हो, तो भी कैसे पता चले.
नवीन जोशी ‘हिन्दुस्तान’ समाचारपत्र के सम्पादक रह चुके हैं. देश के वरिष्ठतम पत्रकार-संपादकों में गिने जाने वाले नवीन जोशी उत्तराखंड के सवालों को बहुत गंभीरता के साथ उठाते रहे हैं. चिपको आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर लिखा उनका उपन्यास ‘दावानल’ अपनी शैली और विषयवस्तु के लिए बहुत चर्चित रहा था. नवीनदा लखनऊ में रहते हैं.
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