भारत रत्न पं. गोबिन्द बल्लभ पन्त की कर्मभूमि एवं उनके सुपुत्र स्व. कृष्ण चन्द्र पन्त की जन्मस्थली का गौरव हासिल करने से परोक्ष रूप से भवाली को पहचान तो अवश्य मिली लेकिन मुझे यह कहने में तनिक संकोच नहीं कि देश के लिए भले इन दोनों का योगदान अविस्मरणीय है, लेकिन भवाली के लिए सिवाय पन्त इस्टेट व जी.बी.पन्त इ.का. के कोई ऐसी प्रत्यक्ष उपलब्धि उनके हिस्से नहीं आती. हां, नगर के प्रथम नागरिक की हैसियत से पहले नोटिफाइड एरिया और फिर नगरपालिका के चेयरमैन के नाते अब तक जो भी रहे, अपने हिस्से का योगदान करने में किसी ने कोई कसर नहीं छोड़ी. आज भी पुरानी पीढ़ी के लोगों से यदि भवाली के विकास की बात छेड़ी जाय तो उनकी जुबां पर एक ही नाम अक्सर आता है – पूर्व चेयरमैन स्व. बृजमोहनजोशी का.
(Lalli ki Kabr History of Bhowali)
पिछली सदी के साठ के अन्तिम व सत्तर के प्रारंभिक वर्षों के विकास का ही परिणाम है, कि आज भवाली अपने वर्तमान स्वरूप में विकसित हुआ है. दरअसल देश व प्रदेश के विकास में जिस तरह सरकारों की भूमिका होती है, स्थानीय स्तर पर नगर व कस्बे के विकास में स्थानीय निकायों की सक्रियता पर ही नगर के विकास का पूरा दारोमदार रहता है. नगर का प्रथम नागरिक यानि स्थानीय निकाय का मुखिया यदि जनता की सेवा में समर्पित भाव से कार्य करे और सरकारें भी उसकी ही राजनैतिक विचारधारा की हों तो नगर अथवा कस्बे के विकास के लिए सुखद संयोग बनता है.
1960 के अन्तिम दशक में मोहन सिंह बिष्ट नोटिफाइड एरिया कमेटी भवाली के अध्यक्ष हुआ करते थे और बृज मोहन कपिल उपाध्यक्ष का पद संभाले थे. मोहन सिंह बिष्ट की नगर के विकास के प्रति उदासीनता से बोर्ड में असंतोष था. अन्ततः बोर्ड ने मोहन सिंह बिष्ट के प्रति अविश्वास प्रस्ताव पारित किया और वे पद से हट गये. उसके बाद शेष कार्यकाल के लिए उपाध्यक्ष बृजमोहन कपिल को अध्यक्ष की जिम्मेदारी मिली. इस कार्यकाल की समाप्ति के बाद जब पुनः चुनाव हुए तो कस्बे की जनता ने स्व. कपिल के पिछले कार्यकाल को देखते हुए पुनः बृजमोहन कपिल को ही अध्यक्ष की बागडोर सौंपी. यह भी सुखद संयोग था कि बृजमोहन कपिल जिस राजनैतिक विचारधारा से ताल्लुक रखते थे, तब उसी राजनैतिक दल यानि कांग्रेस का देश व प्रदेश में वर्चस्व था. परिणामस्वरूप बृजमोहन कपिल का राजनैतिक रसूख रंग लाया और कस्बे व जनता के हित में चेयरमैन द्वारा जो भी निर्णय लिये गये, सूबे की सरकार से उनकी स्वीकृति मिलती गयी.
इसमें दो राय नहीं कि भवाली कस्बे के गरीब तपके को बसाने में जो काम स्व. बृजमोहन कपिल द्वारा किया गया, शायद ही कभी किया गया हो. नैनीताल की ओर से भवाली शहर में प्रवेश करते समय थाने के गधेरे से रोडवेज स्टेशन के गेट तक बाईं ओर पैराफिट व नाले के बीच जो खाली जगह थी, उसे बृजमोहन कपिल द्वारा सरकार से कमेटी के पक्ष में आवण्टित करवाकर उसके छोटे-छोटे प्लाटों को जरूररतमन्द स्थानीय लोगों को आवण्टित करवाया. वहीं स्टेशन गेट के सामने रानीखेत रोड पर दाईं ओर नाले व सड़क के बीच की पतली सी पट्टी को भी सरकार से आबाण्टित करवाया गया तथा छोटे-छोटे 15-16 प्लाटों में जब लीज पर आवण्टन की बात आई तो बोर्ड के कई सदस्यों ने इस पर एतराज जताया. अन्त में आम सहमति बनी कि इन प्लाटों को बोर्ड सदस्यों के बीच ही लाटरी पद्धति से आवंटित किया जाय. जिसके नाम जो प्लाट लॉटरी में निकला बाद में उनके द्वारा उसे अन्य को बेच दिया गया.
इस प्रकार थाने के गधेरे से लेकर एमईएस के गेट तक जो बाजार विकसित हुई वह पूर्व चेयरमैन स्व. बृज मोहन कपिल के प्रयासोंका ही नतीजा है. यहीं नहीं पन्त स्टेट के पीछे दुगई की ढलान तथा रेहड़ क्षेत्र में भी स्व. कपिल द्वारा गरीबों को लीज पर भूमि आवंटित की गयी. बाद में लीज पर आवंटित इस भूमि को फ्री होल्ड करवाया गया. इस प्रकार भवाली की बसासत के एक बड़े हिस्से को बसाने में स्व. बृजमोहन कपिल का योगदान रहा. जिन्हें आज भी लोग सम्मान के साथ याद करते हैं.
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स्व. कपिल के अभिन्न सहयोगी नगर के व्यवसायी कुंवर मिष्ठान्न भण्डार के चन्दन सिंह बिष्ट व सामाजिक कार्यकर्ता व व्यवसायी घनश्याम सिंह बिष्ट हुआ करते थे. घनश्याम सिंह बिष्ट उनके सहपाठी भी रहे और उन्हीं के सहयोग से यह जानकारी एकत्रित की गयी है. यह भी बताना यहां पर आवश्यक समझॅूगा कि उनके भाई रमेश चन्द्र कपिल का भी इन कार्यों में भरपूर सहयोग मिला. बताते है कि स्व. बृजमोहन कपिल के पिता स्व. भोलादत्त कपिल भवाली के पुराने वाशिन्दों में से थे.
मेरे कहने आशय यह नहीं है कि नोटिफाइड एरिया अथवा नगरपालिका के अन्य अध्यक्षों के कार्यकाल में विकास नहीं हुआ. सभी का अपने-अपने हिस्से का योगदान नगर को वर्तमान स्वरूप दिलाने में निश्चय ही स्तुत्य है, स्व. बृजमोहन कपिल के प्रति स्थानीय जनमानस में जो सम्मान है, उसी की परिणिति में उनका विशेष उल्लेख होना स्वाभाविक है. वर्तमान दौर में नगरपालिका के चेयरमैन संजय वर्मा भी जिस जोश-खरोश के साथ नागरिक सुविधाओं के विस्तार में लगे हैं तथा सूबे की सरकार द्वारा भी उन्हें सहयोग मिल रहा है, भवाली के विकास के लिए शुभलक्षण है.
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भवाली कस्बे की साठ के दशक की चर्चा हो रही हो और मल्ली बाजार जाने वाले रास्ते के बाई ओर शेखर दा की सोडा वाटर की दुकान कैसे भूली जा सकती है. तब आज की तरह कोल्ड ड्रिंक बाजार में नही थे. गर्मियों में हलक की ठण्डाई के लिए या तो सोडा वाटर हुआ करता अथवा लस्सी. सोडा वाटर बनाने की उनकी एक मशीन हुआ करती थी, लगभग कुछ वैसी ही जैसी कॉफी बनाने की होती है. जहां तक मुझे याद है, तब दो आने में सोडा की बोतल मिला करती थी. बोतल के मुंह पर कांच की गोली लगी होती थी, सोडा वाटर की पहली घूंट गले से उतरने पर जो अहसास होता, वह आज भी याद है.
मल्लीबाजार की ओर चढ़ाई में चढ़ते वक्त डॅूगर सिंह अधिकारी के होटल के बाद पढालनी की दुकान तक सड़क के किनारे कोई भवन व दुकान नहीं थे. मल्ली बाजार को चढ़ने वाली रोड व भीमताल रोड के बीच चिल्ड्रन पार्क विशेष आकर्षण का केन्द्र हुआ करता था. जिसमें झूले, सी-सौ व चर्खी में सुबह-शाम बच्चों की चहलकदमी रहती. उसी से लगते भूमि पर रामकिशन मोची के आवास का टिन शेड हुआ करता. देखरेख के अभाव में बाद में यह पार्क भी अतिक्रमण की भेंट चढ़ गया. चित्र में मल्ली बाजार को चढ़ती रोड व भीमताल रोड के बीच चिल्ड्रन पार्क साफ नजर आ रहा है.
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मल्ली बाजार में डॉ. स्ट्रीट का भवन ब्रिटिश काल का बताया जाता है, जिसमें वर्तमान में एक छोर पर तारा दत्त जोशी की दुकान तथा दूसरी छोर पर रैस्टोरेन्ट है. मल्लीबाजार क्षेत्र में यह सबसे पुराना भवन है, जो जीर्ण-शीर्ण हो चुका है.
भीमताल रोड पर देवी मन्दिर से लेकर रामगढ़ रोड तक कोई दुकानें नहीं थी. मल्लीबाजार के पीछे की ओर भीमताल रोड कभी ऐसी भी थी, आज की पीढ़ी को देखकर आश्चर्य होगा. चित्र में दिख रहा यह स्थान वर्तमान धनुष पार्क के पास की रोड है.
इससे थोड़ा आगे बढ़ने प़र भीमताल रोड को मल्लीबाजार से जोड़ने वाली पुल कालीपुल कहलाती थी. कालीपुल नाम क्यों पड़ा यह तो नहीं पता, लेकिन पहले यहाॅ पर लकड़ी की काले रंग के रैंलिंग वाली पुल हुआ करती थी और विशेष रूप से बच्चे इस पुल से गुजरने में डरते थे, कहा जाता था कि रात के वक्त यहाॅ से गुजरने पर बच्चों को बुरी आत्माऐं परेशान करती थी. लेकिन आज इस स्थान पर भव्य काली मन्दिर का निर्माण हो चुका है.
साठ के दशक तक यहाॅ पर केवल पुल हुआ करती थी, जहाॅ से लल्ली कब्र की छतरी साफ नजर आती थी. बीच में एकाध मकान तथा पुराना जीजीआईसी भवन ही दिखता था तथा उसके नीचे श्यामखेत से आने वाली शिप्रा नदी के किनारे पनचक्की हुआ करती, जिसका एक कोना चित्र में दिख रहा है. अब यह स्थान दुकानों में तब्दील हो चुका है.
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लल्ली कब्र के नाम का शुद्धीकरण कर अब लल्ली मन्दिर बोला जाता है. यह कब्र किसकी थी और कब बनी, इसके इतिहास के बारे में भवाली निवासी तथा वर्तमान में सोहार विश्वविद्यालय के प्रोफेसर राकेश बेलवाल ने भवाली ऑफ़ लाइन में अपनी फेसबुक वाॅल पर जानकारी साझा की है, जिसे शब्दशः उद्धरित किया जा रहा है –
लल्ली कबर, लल्ली मन्दिर, लल्ली छतरी नाम से जानी जाने वाली भवाली की यह धरोहर असल में बीकानेर के राठौर वंश के राजघराने की महराजकुमारी श्री चन्दकॅवर बैसा साहिब (पुत्री रानावत जी महारानी) की याद में बनाई गयी है, जिनका जन्म 1 जुलाई 1899 को जूनागढ़ बीकानेर में हुआ और मृत्यु मात्र सोलह वर्ष की आयु में भवाली सेनेटोरियम में 31 जुलाई 1915 को हुई. यह स्थल असल में उनकी समाधि है. महाराजकुमारी (लल्ली) जनरल हिज हाईनेस राज राजेश्वर महाराजाधिराज नरेन्द्र महाराज शिरोमणि श्री गंगा सिहं बहादुर महाराजा ऑफ़ बीकानेर की पुत्री थी. महाराजा की लल्ली की माताजी रानावत जी महारानी के अलावा दूसरी शादी भटियानजी महारानी से हुई थी. महाराजा की दोनों से चार पुत्र व दो पुत्रियां थी. यह साफ है कि कबर का निर्माण अगस्त 1915 के बाद कुछ एक दो सालों के अन्तराल में हो गया होगा.
एक समय ऐसा था कि यह स्थल भी पर्यटकों व स्थानीय लोगों का आकर्षण का केन्द्र हुआ करता था, इसके सामने बाग-बगीचा था, लेकिन आज इसके चारों ओर का स्थान कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो चुका है और कब्र की छतरी ढॅूढने पर भी नजर नहीं आती.
(Lalli ki Kabr History of Bhowali)
इसी के ठीक सामने रामगढ़ रोड की बांई ओर, जहाॅ आज आन सिंह मार्केट है, काकू (वानस्पतिक नाम डायओसपाइरोस) का एक बगीचा हुआ करता था. जिसमें अक्टूबर-नवम्बर के महीनों में नांरगी रंग के काकू के फल लदे रहते. घोडाखाल में जहाॅ पर खाल (तालाब)हुआ करता था, जिसके नाम से ही यह इलाका घोड़ाखाल कहलाया, उसके आस-पास भी काकू के बगीचे थे. पहाड़ में काकू का फल मुख्यतः भवाली के आस-पास के क्षेत्रों में ही ज्यादा पाया जाता है. इसे जापानी पर्सीमौन,काकी पार्सीमौन और एशियन पर्सीमौन के नाम से भी जाना जाता है. इसमें ग्लूकोज,प्रोटीन,टैनिन, फाइबर, कार्बोहाइड्रेड फैट,विटामिन आदि प्रचुर मात्रा में बताये जाते हैं.
बताते हैं कि उद्योगों के नाम पर भवाली में उन्नीसवीं सदी के अन्त के दशक में (वर्ष 1895 से 1897 के बीच) तारपीन तेल की फैक्टरी खोली गयी, जो भवाली में लकड़ी टाल के पास थी, यह भवन भवाली के पुराने रामलीला मैदान के सामने अब भी विद्यमान है तथा भवाली के पुराने भवनों में शुमार किया जाता है. कस्बे के विकास की दिशा में व स्थानीय लोगों को रोजगार दिलाने में इसने भी अपनी सकारात्मक भूमिका अवश्य निभाई होगी, बाद में संभवतः यह फैक्टरी बरेली स्थानान्तरित हो गयी.
इसी भवन के आगे के मैदान पर भवाली की रामलीला वर्षों तक मंचित होती रही, पिछले कुछ वर्षों से रामलीला का मंचन पुराने जीजीआईसी भवन के पास होने से यह स्थान कार पार्किग में तब्दील हो चुका है. वर्तमान में यहीं पर भवाली का सांस्कृतिक मंच भी बन चुका है, जिसमें नन्दादेवी मेले तथा अन्य पर्वों पर सांस्कृतिक कार्यक्रम व प्रतियोगिताऐं आयोजित की जाती हैं. इसी के ठीक ऊपर सत्तर-अस्सी के दशक तक उमेद सिंह अधिकारी की आरा मशीन हुआ करती थी. आरा मशीन वाला यह भवन भी दशकों पूर्व आग के हवाले हो गया.
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पिछली कड़ी: जिनके बिना भवाली का इतिहास अधूरा है
भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.
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