उस बार कोसी नदी की घाटी में जब सरसों की पीली फसल को लहलहाते तथा दूर जंगलों में खिलते बुरांश के लाल फूलों को देखा तो गांव की फागुनी होली के विविध दृश्य एक-एक कर मानस पटल पर उभरने लगे. बसन्त पंचमी के दिन से होली की तैयारियां प्रारम्भ होने लग जाती. गांव के चम्फाखाव में बुजुर्गों की बैठक होती. पुराने ढोलकों में नयी खाल मढ़वायी जाती, गांव भर से अच्छे मजीरों व करतालों की खोज की जाती शिवरात्रि के पूर्व से उस स्थान पर सायं रोज बैठ होली गायी जाती थी. बुजर्गां के मुंह से सुना था कि कभी पूरे सतराली के होलियार शिवरात्री के पर्व पर, बागनाथ मन्दिर के आहाते पर होली गाया करते थे. उस समय मोटर गाड़ियों के अभाव में 14-15 मील का सफर करना आश्चर्य ही लगता है.
फाल्गुन एकादशी से पुरुषों की खड़ी तथा स्त्रियों की बैठकी होली प्रारम्भ होने लगती. विशेष मुहूर्त में श्वेत परिधानों पर सतरंगी छीटें डाले जाते और फिर इन्तजार रहता, सांय काल को चम्फाखाव की उस रसीली होली का. उधर गांव के रेबू जिठबाज्यू की हथेलियां दिन भर कड़ाहियों पर ही घूमती रहती; छोटी-छोटी थालियों में सजे रहते जलेबियां और पकौड़े. पूरनदा की सन्दूकनुमा पेटी में सजायी रंग-बिरंगी मीठी गालियां रहती जिनका स्वाद हम बड़े चाव से लिया करते. बगल में ईश्वरीका के लकड़ी के तख्तों पर लाल कपड़ों के ऊपर तेज कत्थे से रंगे पान सजे रहते.
जून निकलते ही इकठ्ठा की हुई लकडियों की धूनीपर आग जलाई जाती. तभी होली के कर्ता-धर्ता बालदत्तज्यू का कड़ाई से आदेश होता, सब धूनी के चारों ओर वृत्ताकार परिधि में खड़े हो जाते. फिर सबको उत्सुकता होती तभी शास्त्रीज्यू के मुख से ‘ब्रह्माऽऽऽ जी ऽ वांऽऽ धे चीरऽऽऽ…’ की गूंज उठती तो उधर के भुवनका के हाथ में रखे डन्डे की चोट ढोलक पर पड़ती तो पूरा वातावरण सजीव हो उठता. एक अजीब सी सिहरन पैदा हो जाती. सब कदम से कदम मिला कर ढोलक, मजीरे व करताल की मिश्रित संगीत ध्वनि में लयबद्धता से होली गाने में अलमस्त हो जाते.
उस समय उन तमाम होलियों का अर्थ न जानते हुए भी, हमें उन सुखद जुनैली रातों की एक अपूर्व अनुभूमि प्राप्त होती थी. रह-रह कर केलों की पत्तियां चन्द्र किरणों से चमक उठती थी. कभी-कभार बीच में पास के सरसों तथा चम्फाखाव में लगे दाड़िम के पेड़ के लाल फूलों से आती भीनी सुगन्ध हमारे नथुनों में प्रविष्ट करती तो एक नयी ताजगी का अहसास होता… द्वादशी से त्रियोदशी तक गाँव के प्रत्येक मुहल्ले/घर में होलियारों की टोली जाती. शुरुआत होती नीचे देवीथान से फिर तल्लाखाव पर आखिरी समाप्ति होती थी, थलार हीरबल्लभ के म्वाव पर. प्रत्येक घर में होलियारों की सर्वप्रथम आवभगत होती थी, नवेली भौजियों द्वारा डाले गये रंगों से. फिर क्रमशः चांवर, खमाज, तिलंग व अनेक रागों में होलियों के बोल गाए जाते. बीच में होलियारों को सुगन्धित मसालों से युक्त पान दिया जाता. सबके माथे पर अबीर-गुलाल लगाने में पुरखीका बड़े कुशल थे. तब हम उच्छृखंलतावश उछलकर कर उनके सारे मुंंह को पोत, बन्दर के मुख की तरह लाल बनाकर अपूर्व आनन्द की प्राप्ति किया करते. होलियारों की गोलाकार परिधि के बीच, भुवनका अपने पावों पर आगे-पीछे उचक कर बड़ी तन्मयता से ढोलक बजाकर होलियारों का उत्साह बढ़ाते थे. इधर दूसरी ओर स्त्रियों की बैठकी होली कुछ और ही रंगीली होती थी. गोदावरी व पार्वती जेड़जा के सुन्दर रसीले बोल ‘मेरी नथ गढ़ि दै छैला सुनारा…’ बड़ी मादकता लिये होते तो दूसरी ओर पुष्पा व बसन्ती भौजियों के मुख के यह बोल ‘तू करिले अपनी ब्याह देवर…’ बड़ी गुदगुदाने वाली होती. उधर हमारे खांकर मुहल्ले की देवकी भौजी अपने विचित्र हाव-भाव के स्वागों द्वारा हंसते-हंसाते लोट-पोट कर देती थी, चाहे वह स्वांग तलधर गजराधर पंडितज्यू का हो या खोलतिरी के शास्त्रीज्यू का. स्त्रियों की बैठक होली में बनने वाले चटपटे आलू के गुटकों व घी में निर्मित चावल के हलवे का स्वाद भी हम तब खूब लिया करते थे.
चतुर्दशी के दिन गांव के चम्फाखाव का महत्व कुछ और ही बढ़ जाता; पूरे सात गांवों के होलियार वहीं पर एकत्रित होते रेबू जिठ्बाज्यू के जलेबी के थाल उस दिन ज्यादा ही भरे दीखते, उधर गांव के कुछ उजड्ड लड़के उनको पीठ पर पिचकारी मार कर, जलेबियों पर हाथ साफ करने के मौके पर रहते. यह सब उतनी सफाई से होता कि रेबू जिठ्बाज्यू को इसकी तनिक भी भनक न मिल पाती.
निश्चित समय पर प्रतियोगिता आरम्भ हो जाती थी. निर्णायक नियुक्त रहते थे. सभी गांवों के होलियार अलग-अलग स्थान पर अपनी उत्तेजक आवाजों में होली गाने में व्यस्त रहा करते. बीच में कई होलियारों को ढोल फूट जाने की वजह से प्रतियोगिता से बाहर होना पड़ता था. अन्त में होलियारों की केवल दो टोलियां रह जाती, जिनमें फिर कड़ा मुकाबला रहता था; आखिर में सर्वश्रेष्ठ वाद्य-वादन व गायन पर, बिना पुरस्कार का वह अमूल्य प्रथम स्थान, उनमें से एक गांव को दिया जाता. फिर की जाती अबीर गुलाल व रंगों की बौछार.
दूसरे दिन पूर्णिमा को ताकुला पर भी सभी गांवों के होलियारों के मुख से बरबस यही बोल निकल पड़ते ‘शिव के मन मांहि बसे काशी…’ फिर सांयकाल को चम्फाखाव में होली की चीर जलायी जाती व विभिन्न मंत्रोचार के बीच होम व हवन किया जाता. गांव के वर्ष भर सुखी रहने की कामना की जाती. प्रत्येक के कपड़े पर एक-एक चीर बांधा जाता था, जो कि चिर स्वास्थ्य व मंगल का प्रतीक माना जाता.
छलड़ी के दिन कुछ और ही रंगीला माहौल देखते बनता था. रंगों की बौछार अबीर-गुलाल से पुते हुए चेहरे देखने को मिलते. निश्चित समय पश्चात सभी लोग नहा-धोकर नवीन वस्त्र धारण करते थे. टीके के दिन सब लोग आपस में गले मिलते. उस दिन यदि गांव में किसी से कोई लाग रखता तो गले मिलकर वह वैमनस्य की खाई अश्रुधाराओं से पट जाती थी. बरबस सब के मुंह से ‘जीरौं लाख सौ बरीस……’ के बोल निकल पड़ते थे.
यह सब सोच कर मैं, तब नैनीताल से घर पहुंच जाता हूँ और बहुत ही खुश होता हूँ. रास्ते में यह सोचता हूँ कि वह सब पूर्व की भांति देखने को मिलेगा. भौजियों के वह रसीले मादकता लिए हुए स्वर, शास्त्रीज्यू का उत्साह, बालदत्त ज्यू व पुरखीका का अनुशासन पर गांव जाकर वह सब मिथ्या से लगते हैं. सुनता हूं कि गांव दो फड़ों में विभक्त हो गया है. बहुत निराशा होती है, मन को.
अगले दिन होलियारां में वही पुराने परिचित चेहरे खोजने की कोशिश करता हूँं. पर कोई नहीं दीखता ? पता चलता है कि उनमें से कई एक होलियार नहीं रहे. स्त्रियों की उस पूर्व की तरह रंगीली मादकता लिए होलियों का अहसास नहीं होता. उधर विचित्र स्वांग करने वाली देवकी भौजी भी इस दुनिया से चल बसीं और यह भी सुना कि गणनाथ में वह अप्रतिम प्रतियोगिता भी न होगी, क्योंकि पार साल कइयों के सिर लहुलुहान जो हुये थे. दाड़िम, कैंरूवा सरसों, किलमड़, प्योली, बुरांश के फूल जरूर खिले हैं पर उनमें वह पहले की जैसी चमक दमक व भीनी सुगन्ध का अहसास कतई नहीं होता है. चम्फाखाव में तेल की वह सुस्वाद जलेबियां देखने को अब कहां मिलती हैं?
वहां पर दिखते है सिर्फ नशे में धुत्त कुछ नवयुवक. छोटे बच्चों में वह पहले जैसी उच्छृखंलता के दर्शन भी नहीं होते. हां कुछ बच्चे अवश्य बीड़ी के ठुड्डे मुंह में लगाये दीख पड़ते हैं तभी बाजारू रंग की एक बौछार मेरे कपड़ों पर पड़ती है लेकिन पहले जैसा वह चमकीला रंग अब नहीं. चारों ओर अश्लीलतायुक्त होलियों के स्वर कानों पर पड़ते हैं. छरड़ी व टीके पर भी पहले जैसा माहौल नजर नहीं आता.
बरबस, वही दिन, वही होलियां वही फूलों की सुगन्ध, भौजियों की रसीली होलियां, रेबू जिठबाज्यू की तेल की जलेबियां, पुरखीका का बन्दर सा बना लाल चेहरा गणनाथ पर वह होली प्रतियोगिता, सभी मेरे मानस पटल पर फिर धुंधले प्रतिबिम्ब में एक-एक कर तिर जाते हैं. तभी पटांगण में धूप निकल आयी है. दाड़िम के लाल-लाल फूलों पर भौंरें गुंजन करने लग गये हैं लेकिन अब यह सब बिल्कुल अच्छा नहीं लगता. सोचता हूँ काश! वे दिन फिर आयेंगे?
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