अंग्रेजी हुकूमत से भारत को आजादी मिलने के बाद वर्ष 1955 में रूस दौरे पर गए भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने जब रूस में महर्षि कण्व ऋषि की तपस्थली और चक्रवर्ती सम्राट भरत की जन्मस्थली कण्वाश्रम के बारे में सुना तो उनको इस ऐतिहासिक स्थल को जानने की जिज्ञासा हुई. (Kanwashram Garhwal Uttarakhand)
हुआ यूं कि प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू1955 में रूस यात्रा पर गए थे. उस दौरान उनके स्वागत में रूसी कलाकारों ने महाकवि कालिदास रचित ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ की नृत्य नाटिका प्रस्तुत की. जिससे उन्हें भी इस ऐतिसासिक स्थल के बारे में जानने की जिज्ञासा हुई.
वापस भारत लौटते ही पं. नेहरू ने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. संपूर्णानंद को कण्वाश्रम की खोज का दायित्व सौंपा. 1956 में प्रधानमंत्री पं. नेहरू और उप्र के मुख्यमंत्री डॉ. संपूर्णानंद के निर्देश पर तत्कालीन वन मंत्री जगमोहन सिंह नेगी कोटद्वार पहुंचे और कण्वाश्रम में राजा भरत का स्मारक बनाया, जो आज भी मौजूद है. जगमोहन सिंह नेगी मूल रूप से कोटद्वार के थे, जो अभिभाजित उत्तर प्रदेश में वन मंत्री थे. 1954 से 1960 तक यूपी के मुख्यमंत्री रहे डा. सम्पूर्णानंद और तत्कालीन वन मंत्री जगमोहन सिंह नेगी ने इसकी रिपोर्ट बनाकर भारत सरकार को भेजी, और प्रधानमंत्री को बताया कि यूपी के कोटद्वार क्षेत्र में मालनी नदी के तट पर कण्वाश्रम है. 1956 में लगाया गया शिलापट आज भी वहीं मौजूद है.
उसके बाद उत्तराखंड का गठन हुआ. कई सरकारें आई और गई लेकिन कण्वाश्रम आज भी उपेक्षित है. बसंत पंचमी पर हर साल कण्वाश्रम में तीन दिन के मेले का आयोजन होता है. इस दौरान कई बार उत्तराखंड के मुख्यमंत्री और अन्य मंत्री कार्यक्रम में जाकर कई घोषणाएं कर चुके हैं. वर्ष 2018 में पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज ने कण्वाश्रम को राष्ट्रीय धरोहर बनाने की घोषणा की थी. हाल में ही कोटद्वार का नाम कण्वनगरी कोटद्वार किया गया है. लेकिन भारत का नामी देवस्थल आज भी अपने ऐतिहासिक वैभव को संजो नहीं पा रहा है.
कण्वाश्रम एक ऐतिहासिक स्थल है, जिसका प्राचीन और समृद्ध इतिहास रहा है. महर्षि कण्व के काल में कण्वाश्रम शिक्षा का प्रमुख केंद्र हुआ करता था. उस समय वहां दस हजार छात्र शिक्षा लेते थे. वैदिक काल में कण्वाश्रम शिक्षा और संस्कृति कर बड़ा गढ़ था. आज भी वहां पर एक संस्कृत महाविद्यालय संचालित होता है. लेकिन जिसमें छात्र संख्या बहुत कम है. कण्वाश्रम के पास ही कुछ साल पहले बड़ी मात्रा में बेसकीमती मूर्तियां बारिश के दौरान लोगों को मिली थी.
कण्वाश्रम के विकास के लिए कई योजनाएं बनी , लेकिन कण्वाश्रम में पसरा अंधेरा राजनैतिक गलियारों तक ही सिमट कर रह गया. आजादी के बाद कण्वाश्रम की खोज तो हुई पर विकास के नाम पर केवल कोरी घोषणाएं. मालन नदी के तट पर बसे कण्वाश्रम जो प्राचीन काल में शिक्षा और समृद्धि का प्रतीक था आज अपनी पहचान का मोहताज बना हुआ है. कण्वाश्रम में पर्यटन और तीर्थाटन की असीम सम्भावनाएं है, जरूरत है तो ठोस केवल पहल करने की. कुछ साल पहले बारिश में इस क्षेत्र में प्राचीन संस्कृति और सभ्यता के कई अवशेष भी मिले. जिसमें कई बेसकीमती मूर्तियां थी जो आज गायब हैं.
वरिष्ठ पत्रकार विजय भट्ट देहरादून में रहते हैं. इतिहास में गहरी दिलचस्पी के साथ घुमक्कड़ी का उनका शौक उनकी रिपोर्ट में ताजगी भरता है.
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कणवाश्रम् की खोज में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका प्रसिद्ध लेखक श्रीनिधि सिद्धांतालंकार की रही है और इसका समावेश उन्होंने अपने यात्रावृतांत "शिवालिक की घाटियों में" किया है. तत्कालीन मुख्यमंत्री ने इसी के आधार पर वर्तमान चौकीघाटा को कणवाश्रम के रूप में मान्यता दी थी. मुझे यह बात किंचित अखरी कि इस लेख में आप श्रीनिधि सिद्धांतालंकार जी का उल्लेख करना भूल गये हैं