संध्या का समय था. डॉक्टर चड्ढा गोल्फ़ खेलने के लिए तैयार हो रहे थे. मोटर द्वार के सामने खड़ी थी कि दो कहार एक डोली लिये आते दिखाई दिए. डोली के पीछे एक बूढ़ा लाठी टेकता चला आता था. डोली औषाधालय के सामने आकर रुक गई. बूढ़े ने धीरे-धीरे आकर द्वार पर पड़ी हुई चिक से झांका. ऐसी साफ-सुथरी ज़मीन पर पैर रखते हुए भय हो रहा था कि कोई घुड़क न बैठे. डॉक्टर साहब को खड़े देख कर भी उसे कुछ कहने का साहस न हुआ. डॉक्टर साहब ने चिक के अंदर से गरज कर कहा — कौन है? क्या चाहता है? (Kahani Mantra by Munshi Premchand)
डॉक्टर साहब ने हाथ जोड़कर कहा — हुजूर बड़ा ग़रीब आदमी हूं. मेरा लड़का कई दिन से…
डॉक्टर साहब ने सिगार जला कर कहा—कल सबेरे आओ, कल सबेरे, हम इस वक़्त मरीजों को नहीं देखते.
बूढ़े ने घुटने टेक कर ज़मीन पर सिर रख दिया और बोला—दुहाई है सरकार की, लड़का मर जाएगा! हुजूर, चार दिन से आंखें नहीं…
डॉक्टर चड्ढा ने कलाई पर नज़र डाली. केवल दस मिनट समय और बाकी था. गोल्फ़-स्टिक खूंटी से उतारने हुए बोले—कल सबेरे आओ, कल सबेरे; यह हमारे खेलने का समय है.
बूढ़े ने पगड़ी उतार कर चौखट पर रख दी और रो कर बोला—हूजुर, एक निगाह देख लें. बस, एक निगाह! लड़का हाथ से चला जाएगा हुजूर, सात लड़कों में यही एक बच रहा है, हुजूर. हम दोनों आदमी रो-रोकर मर जाएंगे, सरकार! आपकी बढ़ती होय, दीनबंधु!
ऐसे उजड़ड देहाती यहां प्राय: रोज आया करते थे. डॉक्टर साहब उनके स्वभाव से ख़ूब परिचित थे. कोई कितना ही कुछ कहे; पर वे अपनी ही रट लगाते जाएंगे. किसी की सुनेंगे नहीं. धीरे से चिक उठाई और बाहर निकल कर मोटर की तरफ़ चले. बूढ़ा यह कहता हुआ उनके पीछे दौड़ा — सरकार, बड़ा धरम होगा. हुजूर, दया कीजिए, बड़ा दीन-दुखी हूं; संसार में कोई और नहीं है, बाबू जी!
मगर डॉक्टर साहब ने उसकी ओर मुंह फेर कर देखा तक नहीं. मोटर पर बैठ कर बोले—कल सबेरे आना.
मोटर चली गई. बूढ़ा कई मिनट तक मूर्ति की भांति निश्चल खड़ा रहा. संसार में ऐसे मनुष्य भी होते हैं, जो अपने आमोद-प्रमोद के आगे किसी की जान की भी परवाह नहीं करते, शायद इसका उसे अब भी विश्वास न आता था. सभ्य संसार इतना निर्मम, इतना कठोर है, इसका ऐसा मर्मभेदी अनुभव अब तक न हुआ था. वह उन पुराने जमाने की जीवों में था, जो लगी हुई आग को बुझाने, मुर्दे को कंधा देने, किसी के छप्पर को उठाने और किसी कलह को शांत करने के लिए सदैव तैयार रहते थे. जब तक बूढ़े को मोटर दिखाई दी, वह खड़ा टकटकी लगाए उस ओर ताकता रहा. शायद उसे अब भी डॉक्टर साहब के लौट आने की आशा थी. फिर उसने कहारों से डोली उठाने को कहा. डोली जिधर से आई थी, उधर ही चली गई. चारों ओर से निराश हो कर वह डॉक्टर चड्ढा के पास आया था. इनकी बड़ी तारीफ़ सुनी थी. यहां से निराश हो कर फिर वह किसी दूसरे डॉक्टर के पास न गया. क़िस्मत ठोक ली!
उसी रात उसका हंसता-खेलता सात साल का बालक अपनी बाल-लीला समाप्त करके इस संसार से सिधार गया. बूढ़े मां-बाप के जीवन का यही एक आधार था. इसी का मुंह देख कर जीते थे. इस दीपक के बुझते ही जीवन की अंधेरी रात भांय-भांय करने लगी. बुढ़ापे की विशाल ममता टूटे हुए हृदय से निकल कर अंधकार आर्त्त-स्वर से रोने लगी.
कई साल गुज़र गए. डॉक्टर चड्ढा ने ख़ूब यश और धन कमाया; लेकिन इसके साथ ही अपने स्वास्थ्य की रक्षा भी की, जो एक साधारण बात थी. यह उनके नियमित जीवन का आर्शीवाद था कि पचास वर्ष की अवस्था में उनकी चुस्ती और फुर्ती युवकों को भी लज्जित करती थी. उनके हर एक काम का समय नियत था, इस नियम से वह जौ-भर भी न टलते थे. बहुधा लोग स्वास्थ्य के नियमों का पालन उस समय करते हैं, जब रोगी हो जाते हैं. डॉक्टर चड्ढा उपचार और संयम का रहस्य ख़ूब समझते थे. उनकी संतान-संध्या भी इसी नियम के अधीन थी. उनके केवल दो बच्चे हुए, एक लड़का और एक लड़की. तीसरी संतान न हुई, इसीलिए श्रीमती चड्ढा भी अभी जवान मालूम होती थीं. लड़की का तो विवाह हो चुका था. लड़का कॉलेज में पढ़ता था. वही माता-पिता के जीवन का आधार था. शील और विनय का पुतला, बड़ा ही रसिक, बड़ा ही उदार, विद्यालय का गौरव, युवक-समाज की शोभा. मुखमंडल से तेज की छटा-सी निकलती थी. आज उसकी बीसवीं सालगिरह थी.
संध्या का समय था. हरी-हरी घास पर कुर्सियां बिछी हुई थी. शहर के रईस और हुक्काम एक तरफ़, कॉलेज के छात्र दूसरी तरफ़ बैठे भोजन कर रहे थे. बिजली के प्रकाश से सारा मैंदान जगमगा रहा था. आमोद-प्रमोद का सामान भी जमा था. छोटा-सा प्रहसन खेलने की तैयारी थी. प्रहसन स्वयं कैलाशनाथ ने लिखा था. वही मुख्य ऐक्टर भी था. इस समय वह एक रेशमी कमीज पहने, नंगे सिर, नंगे पांव, इधर से उधर मित्रों की आव भगत में लगा हुआ था. कोई पुकारता — कैलाश, ज़रा इधर आना; कोई उधर से बुलाता — कैलाश, क्या उधर ही रहोगे? सभी उसे छोड़ते थे, चुहलें करते थे, बेचारे को ज़रा दम मारने का अवकाश न मिलता था. सहसा एक रमणी ने उसके पास आकर पूछा—क्यों कैलाश, तुम्हारे सांप कहां हैं? ज़रा मुझे दिखा दो.
कैलाश ने उससे हाथ मिला कर कहा—मृणालिनी, इस वक़्त क्षमा करो, कल दिखा दूंगा.
मृणालिनी ने आग्रह किया — जी नहीं, तुम्हें दिखाना पड़ेगा, मैं आज नहीं मानने की. तुम रोज़ ‘कल-कल’ करते हो. मृणालिनी और कैलाश दोनों सहपाठी थे ओर एक-दूसरे के प्रेम में पगे हुए. कैलाश को सांपों के पालने, खेलाने और नचाने का शौक़ था. तरह-तरह के सांप पाल रखे थे. उनके स्वभाव और चरित्र की परीक्षा करता रहता था. थोड़े दिन हुए, उसने विद्यालय में ‘सांपों’ पर एक मार्के का व्याख्यान दिया था. सांपों को नचा कर दिखाया भी था! प्राणिशास्त्र के बड़े-बड़े पंडित भी यह व्याख्यान सुन कर दंग रह गए थे! यह विद्या उसने एक बड़े संपेरे से सीखी थी. सांपों की जड़ी-बूटियां जमा करने का उसे मरज था. इतना पता भर मिल जाय कि किसी व्यक्ति के पास कोई अच्छी जड़ी है, फिर उसे चैन न आता था. उसे लेकर ही छोड़ता था. यही व्यसन था. इस पर हज़ारों रुपए फूंक चुका था. मृणालिनी कई बार आ चुकी थी; पर कभी सांपों को देखने के लिए इतनी उत्सुक न हुई थी. कह नहीं सकते, आज उसकी उत्सुकता सचमुच जाग गई थी, या वह कैलाश पर उपने अधिकार का प्रदर्शन करना चाहती थी; पर उसका आग्रह बेमौक़ा था. उस कोठरी में कितनी भीड़ लग जाएगी, भीड़ को देख कर सांप कितने चौकेंगें और रात के समय उन्हें छेड़ा जाना कितना बुरा लगेगा, इन बातों का उसे ज़रा भी ध्यान न आया.
कैलाश ने कहा—नहीं, कल ज़रूर दिखा दूंगा. इस वक़्त अच्छी तरह दिखा भी तो न सकूंगा, कमरे में तिल रखने को भी जगह न मिलेगी.
एक महाशय ने छेड़ कर कहा—दिखा क्यों नहीं देते, ज़रा-सी बात के लिए इतना टाल-मटोल कर रहे हो? मिस गोविंद, हर्गिज न मानना. देखें कैसे नहीं दिखाते!
दूसरे महाशय ने और रद्दा चढ़ाया—मिस गोविंद इतनी सीधी और भोली हैं, तभी आप इतना मिजाज करते हैं; दूसरे सुंदरी होती, तो इसी बात पर बिगड़ खड़ी होती.
तीसरे साहब ने मज़ाक उड़ाया — अजी बोलना छोड़ देती. भला, कोई बात है! इस पर आपका दावा है कि मृणालिनी के लिए जान हाजिर है.
मृणालिनी ने देखा कि ये शोहदे उसे रंग पर चढ़ा रहे हैं, तो बोली — आप लोग मेरी वकालत न करें, मैं खुद अपनी वकालत कर लूंगी. मैं इस वक़्त सांपों का तमाशा नहीं देखना चाहती. चलो, छुट्टी हुई.
इस पर मित्रों ने ठट्टा लगाया. एक साहब बोले — देखना तो आप सब कुछ चाहें, पर दिखाए भी तो?
कैलाश को मृणालिनी की झेंपी हुई सूरत को देखकर मालूम हुआ कि इस वक़्त उनका इनकार वास्तव में उसे बुरा लगा है. ज्यों ही प्रीति-भोज समाप्त हुआ और गाना शुरू हुआ, उसने मृणालिनी और अन्य मित्रों को सांपों के दरबे के सामने ले जाकर महुअर बजाना शुरू किया. फिर एक-एक खाना खोलकर एक-एक सांप को निकालने लगा. वाह! क्या कमाल था! ऐसा जान पड़ता था कि वे कीड़े उसकी एक-एक बात, उसके मन का एक-एक भाव समझते हैं. किसी को उठा लिया, किसी को गरदन में डाल लिया, किसी को हाथ में लपेट लिया. मृणालिनी बार-बार मना करती कि इन्हें गर्दन में न डालों, दूर ही से दिखा दो. बस, ज़रा नचा दो. कैलाश की गरदन में सांपों को लिपटते देख कर उसकी जान निकली जाती थी. पछता रही थी कि मैंने व्यर्थ ही इनसे सांप दिखाने को कहा; मगर कैलाश एक न सुनता था. प्रेमिका के सम्मुख अपने सर्प-कला-प्रदर्शन का ऐसा अवसर पाकर वह कब चूकता! एक मित्र ने टीका की — दांत तोड़ डाले होंगे. कैलाश हंसकर बोला —दांत तोड़ डालना मदारियों का काम है. किसी के दांत नहीं तोड़ गए. कहिए तो दिखा दूं? कह कर उसने एक काले सांप को पकड़ लिया और बोला—’मेरे पास इससे बड़ा और ज़हरीला सांप दूसरा नहीं है, अगर किसी को काट ले, तो आदमी आनन-फानन में मर जाए. लहर भी न आए. इसके काटे पर मन्त्र नहीं. इसके दांत दिखा दूं?’
मृणालिनी ने उसका हाथ पकड़कर कहा — नहीं-नहीं, कैलाश, ईश्वर के लिए इसे छोड़ दो. तुम्हारे पैरों पड़ती हूं.
इस पर एक-दूसरे मित्र बोले — मुझे तो विश्वास नहीं आता, लेकिन तुम कहते हो, तो मान लूंगा.
कैलाश ने सांप की गरदन पकड़कर कहा — नहीं साहब, आप आंखों से देख कर मानिए. दांत तोड़कर वश में किया, तो क्या. सांप बड़ा समझदार होता हैं! अगर उसे विश्वास हो जाए कि इस आदमी से मुझे कोई हानि न पहुंचेगी, तो वह उसे हर्गिज न काटेगा.
मृणालिनी ने जब देखा कि कैलाश पर इस वक़्त भूत सवार है, तो उसने यह तमाशा न करने के विचार से कहा — अच्छा भाई, अब यहां से चलो. देखा, गाना शुरू हो गया है. आज मैं भी कोई चीज सुनाऊंगी. यह कहते हुए उसने कैलाश का कंधा पकड़ कर चलने का इशारा किया और कमरे से निकल गई; मगर कैलाश विरोधियों का शंका-समाधान करके ही दम लेना चाहता था. उसने सांप की गरदन पकड़ कर ज़ोर से दबाई, इतनी ज़ोर से दबाई कि उसका मुंह लाल हो गया, देह की सारी नसें तन गईं. सांप ने अब तक उसके हाथों ऐसा व्यवहार न देखा था. उसकी समझ में न आता था कि यह मुझसे क्या चाहते हैं. उसे शायद भ्रम हुआ कि मुझे मार डालना चाहते हैं, अतएव वह आत्मरक्षा के लिए तैयार हो गया.
कैलाश ने उसकी गर्दन ख़ूब दबा कर मुंह खोल दिया और उसके ज़हरीले दांत दिखाते हुए बोला — जिन सज्जनों को शक हो, आकर देख लें. आया विश्वास या अब भी कुछ शक है? मित्रों ने आकर उसके दांत देखें और चकित हो गए. प्रत्यक्ष प्रमाण के सामने सन्देह को स्थान कहां. मित्रों का शंका-निवारण करके कैलाश ने सांप की गर्दन ढीली कर दी और उसे ज़मीन पर रखना चाहा, पर वह काला गेहूंवन क्रोध से पागल हो रहा था. गर्दन नरम पड़ते ही उसने सिर उठा कर कैलाश की उंगली में ज़ोर से काटा और वहां से भागा. कैलाश की उंगली से टप-टप ख़ून टपकने लगा. उसने ज़ोर से उंगली दबा ली और उपने कमरे की तरफ़ दौड़ा. वहां मेज की दराज में एक जड़ी रखी हुई थी, जिसे पीस कर लगा देने से घतक विष भी रफू हो जाता था. मित्रों में हलचल पड़ गई. बाहर महफिल में भी खबर हुई. डॉक्टर साहब घबरा कर दौड़े. फ़ौरन उंगली की जड़ कस कर बांधी गई और जड़ी पीसने के लिए दी गई. डॉक्टर साहब जड़ी के कायल न थे. वह उंगली का डसा भाग नश्तर से काट देना चाहते, मगर कैलाश को जड़ी पर पूर्ण विश्वास था. मृणालिनी प्यानों पर बैठी हुई थी. यह ख़बर सुनते ही दौड़ी, और कैलाश की उंगली से टपकते हुए ख़ून को रूमाल से पोंछने लगी. जड़ी पीसी जाने लगी; पर उसी एक मिनट में कैलाश की आंखें झपकने लगीं, ओठों पर पीलापन दौड़ने लगा. यहां तक कि वह खड़ा न रह सका. फ़र्श पर बैठ गया. सारे मेहमान कमरे में जमा हो गए. कोई कुछ कहता था. कोई कुछ. इतने में जड़ी पीसकर आ गई. मृणालिनी ने उंगली पर लेप किया. एक मिनट और बीता. कैलाश की आंखें बन्द हो गईं. वह लेट गया और हाथ से पंखा झलने का इशारा किया. मां ने दौड़कर उसका सिर गोद में रख लिया और बिजली का टेबुल-फैन लगा दिया.
डॉक्टर साहब ने झुक कर पूछा कैलाश, कैसी तबीयत है? कैलाश ने धीरे से हाथ उठा लिए; पर कुछ बोल न सका. मृणालिनी ने करूण स्वर में कहा — क्या जड़ी कुछ असर न करेंगी? डॉक्टर साहब ने सिर पकड़ कर कहा—क्या बतलाऊं, मैं इसकी बातों में आ गया. अब तो नश्तर से भी कुछ फ़ायदा न होगा.
आध घंटे तक यही हाल रहा. कैलाश की दशा प्रतिक्षण बिगड़ती जाती थी. यहां तक कि उसकी आंखें पथरा गई, हाथ-पांव ठंडे पड़ गए, मुख की कांति मलिन पड़ गई, नाड़ी का कहीं पता नहीं. मौत के सारे लक्षण दिखाई देने लगे. घर में कुहराम मच गया. मृणालिनी एक ओर सिर पीटने लगी; मां अलग पछाड़े खाने लगी. डॉक्टर चड्ढा को मित्रों ने पकड़ लिया, नहीं तो वह नश्तर अपनी गर्दन पर मार लेते.
एक महाशय बोले — कोई मंत्र झाड़ने वाला मिले, तो सम्भव है, अब भी जान बच जाय.
एक मुसलमान सज्जन ने इसका समर्थन किया — अरे साहब कब्र में पड़ी हुई लाशें ज़िंन्दा हो गई हैं. ऐसे-ऐसे बाकमाल पड़े हुए हैं.
डॉक्टर चड्ढा बोले — मेरी अक्ल पर पत्थर पड़ गया था कि इसकी बातों में आ गया. नश्तर लगा देता, तो यह नौबत ही क्यों आती. बार-बार समझाता रहा कि बेटा, सांप न पालो, मगर कौन सुनता था! बुलाइए, किसी झाड़-फूंक करने वाले ही को बुलाइए. मेरा सब कुछ ले ले, मैं अपनी सारी जायदाद उसके पैरों पर रख दूंगा. लंगोटी बांध कर घर से निकल जाऊंगा; मगर मेरा कैलाश, मेरा प्यारा कैलाश उठ बैठे. ईश्वर के लिए किसी को बुलवाइए.
एक महाशय का किसी झाड़ने वाले से परिचय था. वह दौड़कर उसे बुला लाये; मगर कैलाश की सूरत देखकर उसे मंत्र चलाने की हिम्मत न पड़ी. बोला — अब क्या हो सकता है, सरकार? जो कुछ होना था, हो चुका?
अरे मूर्ख, यह क्यों नही कहता कि जो कुछ न होना था, वह कहां हुआ? मां-बाप ने बेटे का सेहरा कहां देखा?
मृणालिनी का कामना-तरू क्या पल्लव और पुष्प से रंजित हो उठा? मन के वह स्वर्ण-स्वप्न जिनसे जीवन आनंद का स्रोत बना हुआ था, क्या पूरे हो गए? जीवन के नृत्यमय तारिका-मंडित सागर में आमोद की बहार लूटते हुए क्या उनकी नौका जलमग्न नहीं हो गई? जो न होना था, वह हो गया.
वही हरा-भरा मैदान था, वही सुनहरी चांदनी एक नि:शब्द संगीत की भांति प्रकृति पर छायी हुई थी; वही मित्र-समाज था. वही मनोरंजन के सामान थे. मगर जहां हास्य की ध्वनि थी, वहां करुण क्रन्दन और अश्रु-प्रवाह था.
शहर से कई मील दूर एक छोट-से घर में एक बूढ़ा और बुढ़िया अंगीठी के सामने बैठे जाड़े की रात काट रहे थे. बूढ़ा नारियल पीता था और बीच-बीच में खांसता था. बुढ़िया दोनों घुटनियों में सिर डाले आग की ओर ताक रही थी. एक मिट्टी के तेल की कुप्पी ताक पर जल रही थी. घर में न चारपाई थी, न बिछौना. एक किनारे थोड़ी-सी पुआल पड़ी हुई थी. इसी कोठरी में एक चूल्हा था. बुढ़िया दिन-भर उपले और सूखी लकड़ियां बटोरती थी. बूढ़ा रस्सी बट कर बाज़ार में बेच आता था. यही उनकी जीविका थी. उन्हें न किसी ने रोते देखा, न हंसते. उनका सारा समय जीवित रहने में कट जाता था. मौत द्वार पर खड़ी थी, रोने या हंसने की कहां फुरसत! बुढ़िया ने पूछा — कल के लिए सन तो है नहीं, काम क्या करोगे?
‘जा कर झगडू साह से दस सेर सन उधार लाऊंगा?’
‘उसके पहले के पैसे तो दिए ही नहीं, और उधार कैसे देगा?’
‘न देगा न सही. घास तो कहीं नहीं गई. दोपहर तक क्या दो आने की भी न काटूंगा?’
इतने में एक आदमी ने द्वार पर आवाज़ दी — भगत, भगत, क्या सो गए? ज़रा किवाड़ खोलो.
भगत ने उठकर किवाड़ खोल दिए. एक आदमी ने अन्दर आकर कहा — कुछ सुना, डॉक्टर चड्ढा बाबू के लड़के को सांप ने काट लिया.
भगत ने चौंक कर कहा — चड्ढा बाबू के लड़के को! वही चड्ढा बाबू हैं न, जो छावनी में बंगले में रहते हैं?
‘हां-हां वही. शहर में हल्ला मचा हुआ है. जाते हो तो जाओ, आदमी बन जाओगे.’
बूढ़े ने कठोर भाव से सिर हिला कर कहा — मैं नहीं जाता! मेरी बला जाय! वही चड्ढा है. ख़ूब जानता हूं. भैया लेकर उन्हीं के पास गया था. खेलने जा रहे थे. पैरों पर गिर पड़ा कि एक नज़र देख लीजिए; मगर सीधे मुंह से बात तक न की. भगवान बैठे सुन रहे थे. अब जान पड़ेगा कि बेटे का ग़म कैसा होता है. कई लड़के हैं.
‘नहीं जी, यही तो एक लड़का था. सुना है, सबने जवाब दे दिया है.’
‘भगवान बड़ा कारसाज है. उस बखत मेरी आंखें से आंसू निकल पड़े थे, पर उन्हें तनिक भी दया न आयी थी. मैं तो
उनके द्वार पर होता, तो भी बात न पूछता.’
‘तो न जाओगे? हमने जो सुना था, सो कह दिया.’
‘अच्छा किया — अच्छा किया. कलेजा ठंडा हो गया, आंखें ठंडी हो गईं. लड़का भी ठंडा हो गया होगा! तुम जाओ. आज चैन की नींद सोऊंगा. (बुढ़िया से) ज़रा तम्बाकू ले ले! एक चिलम और पीऊंगा. अब मालूम होगा लाला को! सारी साहबी निकल जाएगी, हमारा क्या बिगड़ा. लड़के के मर जाने से कुछ राज तो नहीं चला गया? जहां छ: बच्चे गए थे, वहां एक और चला गया, तुम्हारा तो राज सुना हो जाएगा. उसी के वास्ते सबका गला दबा-दबा कर जोड़ा था न. अब क्या करोगे? एक बार देखने जाऊंगा; पर कुछ दिन बाद मिजाज का हाल पूछूंगा.’
आदमी चला गया. भगत ने किवाड़ बन्द कर लिए, तब चिलम पर तम्बाखू रख कर पीने लगा.
बुढ़िया ने कहा — इतनी रात गए जाड़े-पाले में कौन जाएगा?
‘अरे, दोपहर ही होता तो मैं न जाता. सवारी दरवाज़े पर लेने आती, तो भी न जाता. भूल नहीं गया हूं. पन्ना की सूरत आंखों में फिर रही है. इस निर्दयी ने उसे एक नज़र देखा तक नहीं. क्या मैं न जानता था कि वह न बचेगा? ख़ूब जानता था. चड्ढा भगवान नहीं थे, कि उनके एक निगाह देख लेने से अमृत बरस जाता. नहीं, ख़ाली मन की दौड़ थी. अब किसी दिन जाऊंगा और कहूंगा — क्यों साहब, कहिए, क्या रंग है? दुनिया बुरा कहेगी, कहे; कोई परवाह नहीं. छोटे आदमियों में तो सब ऐब हैं. बड़ो में कोई ऐब नहीं होता, देवता होते हैं.’
भगत के लिए यह जीवन में पहला अवसर था कि ऐसा समाचार पा कर वह बैठा रह गया हो. अस्सी वर्ष के जीवन में ऐसा कभी न हुआ था कि सांप की ख़बर पाकर वह दौड़ न गया हो. माघ-पूस की अंधेरी रात, चैत-बैसाख की धूप और लू, सावन-भादों की चढ़ी हुई नदी और नाले, किसी की उसने कभी परवाह न की. वह तुरन्त घर से निकल पड़ता था — नि:स्वार्थ, निष्काम! लेन-देन का विचार कभी दिल में आया नहीं. यह ऐसा काम ही न था. जान का मूल्य कौन दे सकता है? यह एक पुण्य-कार्य था. सैकड़ों निराशों को उसके मंत्रों ने जीवन-दान दे दिया था; पर आप वह घर से क़दम नहीं निकाल सका. यह ख़बर सुन कर सोने जा रहा है.
बुढ़िया ने कहा — तमाखू अंगीठी के पास रखी हुई है. उसके भी आज ढाई पैसे हो गए. देती ही न थी. बुढ़िया यह कह कर लेटी. बूढ़े ने कुप्पी बुझाई, कुछ देर खड़ा रहा, फिर बैठ गया. अन्त को लेट गया; पर यह ख़बर उसके हृदय पर बोझे की भांति रखी हुई थी. उसे मालूम हो रहा था, उसकी कोई चीज़ खो गई है, जैसे सारे कपड़े गीले हो गए है या पैरों में कीचड़ लगा हुआ है, जैसे कोई उसके मन में बैठा हुआ उसे घर से लिकालने के लिए कुरेद रहा है. बुढ़िया ज़रा देर में खर्राटे लेनी लगी. बूढ़े बातें करते-करते सोते है और ज़रा-सा खट होते ही जागते हैं. तब भगत उठा, अपनी लकड़ी उठा ली, और धीरे से किवाड़ खोले.
बुढ़िया ने पूछा — कहां जाते हो?
‘कहीं नहीं, देखता था कि कितनी रात है.’
‘अभी बहुत रात है, सो जाओ.’
‘नींद, नहीं आती.’
‘नींद काहे आवेगी? मन तो चड्ढा के घर पर लगा हुआ है.’
‘चड्ढा ने मेरे साथ कौन-सी नेकी कर दी है, जो वहां जाऊं? वह आ कर पैरों पड़े, तो भी न जाऊं.’
‘उठे तो तुम इसी इरादे से ही?’
‘नहीं री, ऐसा पागल नहीं हूं कि जो मुझे कांटे बोये, उसके लिए फूल बोता फिरूं.’
बुढ़िया फिर सो गई. भगत ने किवाड़ लगा दिए और फिर आकर बैठा. पर उसके मन की कुछ ऐसी दशा थी, जो बाजे की आवाज़ कान में पड़ते ही उपदेश सुनने वालों की होती हैं. आंखें चाहे उपेदेशक की ओर हों; पर कान बाजे ही की ओर होते हैं. दिल में भी बाजे की ध्वनि गूंजती रहती है. शर्म के मारे जगह से नहीं उठता. निर्दयी प्रतिघात का भाव भगत के लिए उपदेशक था, पर हृदय उस अभागे युवक की ओर था, जो इस समय मर रहा था, जिसके लिए एक-एक पल का विलम्ब घातक था.
उसने फिर किवाड़ खोले, इतने धीरे से कि बुढ़िया को ख़बर भी न हुई. बाहर निकल आया. उसी वक़्त गांव का चौकीदार गश्त लगा रहा था, बोला — कैसे उठे भगत? आज तो बड़ी सरदी है! कहीं जा रहे हो क्या?
भगत ने कहा — नहीं जी, जाऊंगा कहां! देखता था, अभी कितनी रात है. भला, कै बजे होंगे.
चौकीदार बोला — एक बजा होगा और क्या, अभी थाने से आ रहा था, तो डॉक्टर चड्ढा बाबू के बंगले पर बड़ी भीड़ लगी हुई थी. उनके लड़के का हाल तो तुमने सुना होगा, कीड़े ने छू लिया है. चाहे मर भी गया हो. तुम चले जाओ तो साइत बच जाय. सुना है, इस हज़ार तक देने को तैयार हैं.
प्रेमचंद की कहानी ‘सुहाग की साड़ी’
भगत — मैं तो न जाऊं चाहे वह दस लाख भी दें. मुझे दस हज़ार या दस लाखे लेकर करना क्या हैं? कल मर जाऊंगा, फिर कौन भोगनेवाला बैठा हुआ है.
चौकीदार चला गया. भगत ने आगे पैर बढ़ाया. जैसे नशे में आदमी की देह अपने क़ाबू में नहीं रहती, पैर कहीं रखता है, पड़ता कहीं है, कहता कुछ है, जबान से निकलता कुछ है, वही हाल इस समय भगत का था. मन में प्रतिकार था; पर कर्म मन के अधीन न था. जिसने कभी तलवार नहीं चलाई, वह इरादा करने पर भी तलवार नहीं चला सकता. उसके हाथ कांपते हैं, उठते ही नहीं.
भगत लाठी खट-खट करता लपका चला जाता था. चेतना रोकती थी, पर उपचेतना ठेलती थी. सेवक स्वामी पर हावी था.
आधी राह निकल जाने के बाद सहसा भगत रुक गया. हिंसा ने क्रिया पर विजय पायी — मैं यों ही इतनी दूर चला आया. इस जाड़े-पाले में मरने की मुझे क्या पड़ी थी? आराम से सोया क्यों नहीं? नींद न आती, न सही; दो-चार भजन ही गाता. व्यर्थ इतनी दूर दौड़ा आया. चड्ढा का लड़का रहे या मरे, मेरी कला से. मेरे साथ उन्होंने ऐसा कौन-सा सलूक किया था कि मैं उनके लिए मरूं? दुनिया में हजारों मरते हैं, हजारों जीते हैं. मुझे किसी के मरने-जीने से मतलब! मगर उपचेतन ने अब एक दूसर रूप धारण किया, जो हिंसा से बहुत कुछ मिलता-जुलता था — वह झाड़-फूंक करने नहीं जा रहा है; वह देखेगा, कि लोग क्या कर रहे हें. डॉक्टर साहब का रोना-पीटना देखेगा, किस तरह सिर पीटते हें, किस तरह पछाड़े खाते है! वे लोग तो विद्वान होते हैं, सबर कर जाते होंगे! हिंसा-भाव को यों धीरज देता हुआ वह फिर आगे बढ़ा.
इतने में दो आदमी आते दिखाई दिए. दोनों बातें करते चले आ रहे थे — चड्ढा बाबू का घर उजड़ गया, वही तो एक लड़का था. भगत के कान में यह आवाज़ पड़ी. उसकी चाल और भी तेज़ हो गई. थकान के मारे पांव न उठते थे. शिरोभाग इतना बढ़ा जाता था, मानों अब मुंह के बल गिर पड़ेगा. इस तरह वह कोई दस मिनट चला होगा कि डॉक्टर साहब का बंगला नज़र आया. बिजली की बत्तियां जल रही थीं; मगर सन्नाटा छाया हुआ था. रोने-पीटने के आवाज़ भी न आती थी. भगत का कलेजा धक-धक करने लगा. कहीं मुझे बहुत देर तो नहीं हो गई? वह दौड़ने लगा. अपनी उम्र में वह इतना तेज़ कभी न दौड़ा था. बस, यही मालूम होता था, मानो उसके पीछे मौत दौड़ी आ री है.
दो बज गए थे. मेहमान विदा हो गए. रोने वालों में केवल आकाश के तारे रह गए थे. और सभी रो-रो कर थक गए थे. बड़ी उत्सुकता के साथ लोग रह-रह आकाश की ओर देखते थे कि किसी तरह सुबह हो और लाश गंगा की गोद में दी जाए.
सहसा भगत ने द्वार पर पहुंच कर आवाज़ दी. डॉक्टर साहब समझे, कोई मरीज़ आया होगा. किसी और दिन उन्होंने उस आदमी को दुत्कार दिया होता; मगर आज बाहर निकल आए. देखा एक बूढ़ा आदमी खड़ा है — कमर झुकी हुई, पोपला मुंह, भौहे तक सफ़ेद हो गई थीं. लकड़ी के सहारे कांप रहा था. बड़ी नम्रता से बोले — क्या है भई, आज तो हमारे ऊपर ऐसी मुसीबत पड़ गई है कि कुछ कहते नहीं बनता, फिर कभी आना. इधर एक महीना तक तो शायद मैं किसी भी मरीज़ को न देख सकूंगा.
भगत ने कहा — सुन चुका हूं बाबू जी, इसीलिए आया हूं. भैया कहां है? ज़रा मुझे दिखा दीजिए. भगवान बड़ा कारसाज है, मुरदे को भी जिला सकता है. कौन जाने, अब भी उसे दया आ जाए.
चड्ढा ने व्यथित स्वर से कहा — चलो, देख लो; मगर तीन-चार घंटे हो गए. जो कुछ होना था, हो चुका. बहुतेर झाड़ने-फूंकने वाले देख-देख कर चले गए.
डॉक्टर साहब को आशा तो क्या होती. हां बूढ़े पर दया आ गई. अन्दर ले गए. भगत ने लाश को एक मिनट तक देखा. तब मुस्करा कर बोला — अभी कुछ नहीं बिगड़ा है, बाबू जी! यह नारायण चाहेंगे, तो आध घंटे में भैया उठ बैठेंगे. आप नाहक दिल छोटा कर रहे है. ज़रा कहारों से कहिए, पानी तो भरें.
कहारों ने पानी भर-भर कर कैलाश को नहलाना शुरू किया पाइप बन्द हो गया था. कहारों की संख्या अधिक न थी, इसलिए मेहमानों ने अहाते के बाहर के कुंए से पानी भर-भर कर कहानों को दिया, मृणालिनी कलसा लिए पानी ला रही थी. बूढ़ा भगत खड़ा मुस्करा-मुस्करा कर मंत्र पढ़ रहा था, मानो विजय उसके सामने खड़ी है. जब एक बार मंत्र समाप्त हो जाता, तब वह एक जड़ी कैलाश के सिर पर डाले गए और न-जाने कितनी बार भगत ने मंत्र फूंका. आख़िर जब उषा ने अपनी लाल-लाल आंखें खोलीं तो कैलाश की भी लाल-लाल आंखें खुल गईं. एक क्षण में उसने अंगड़ाई ली और पानी पीने को मांगा. डॉक्टर चड्ढा ने दौड़ कर नारायणी को गले लगा लिया. नारायणी दौड़कर भगत के पैरों पर गिर पड़ी और मृणालिनी कैलाश के सामने आंखों में आंसू-भरे पूछने लगी — अब कैसी तबियत है!
एक क्षण् में चारों तरफ़ ख़बर फैल गई. मित्रगण मुबारकबाद देने आने लगे. डॉक्टर साहब बड़े श्रद्धा-भाव से हर एक के सामने भगत का यश गाते फिरते थे. सभी लोग भगत के दर्शनों के लिए उत्सुक हो उठे; मगर अन्दर जा कर देखा, तो भगत का कहीं पता न था. नौकरों ने कहा — अभी तो यहीं बैठे चिलम पी रहे थे. हम लोग तमाखू देने लगे, तो नहीं ली, अपने पास से तमाखू निकाल कर भरी.
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यहां तो भगत की चारों ओर तलाश होने लगी, और भगत लपका हुआ घर चला जा रहा था कि बुढ़िया के उठने से पहले पहुंच जाऊं!
जब मेहमान लोग चले गए, तो डॉक्टर साहब ने नारायणी से कहा —बु ड्ढा न-जाने कहां चला गया. एक चिलम तमाखू का भी रवादार न हुआ.
नारायणी — मैंने तो सोचा था, इसे कोई बड़ी रकम दूंगी.
चड्ढा — रात को तो मैंने नहीं पहचाना, पर ज़रा साफ़ हो जाने पर पहचान गया. एक बार यह एक मरीज़ को लेकर आया था. मुझे अब याद आता है कि मैं खेलने जा रहा था और मरीज़ को देखने से इनकार कर दिया था. आज उस दिन की बात याद करके मुझे जितनी ग्लानि हो रही है, उसे प्रकट नहीं कर सकता. मैं उसे अब खोज निकालूंगा और उसके पैरों पर गिर कर अपना अपराध क्षमा कराऊंगा. वह कुछ लेगा नहीं, यह जानता हूं, उसका जन्म यश की वर्षा करने ही के लिए हुआ है. उसकी सज्जनता ने मुझे ऐसा आदर्श दिखा दिया है, जो अब से जीवनपर्यन्त मेरे सामने रहेगा.
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