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आजाद हिन्द फौज का सिपाही कैसे अपने गांव गंगोलीहाट पहुंचा

यह लेख डॉ. राम सिंह की किताब आजाद हिन्द फ़ौज के क्रांतिवीर से लिया गया है. यह लेख मूल रूप से चौंली, गंगोलीहाट, पिथौरागढ़ के रहने वाले जोहार सिंह खाती के जीवन संघर्ष से जुड़ा है जो 2001 में डॉ. राम सिंह द्वारा लिये एक साक्षात्कार के आधार पर लिखा गया है. इस लम्बे लेख का एक हिस्सा हम आपको पढ़ा रहे हैं जिसमें जोहार सिंह खाती बता रहे हैं कि किस तरह लाल किला मुकदमा खत्म होने के बाद वे अपने गांव गंगोलीहाट लौटे : सम्पादक

जोहार सिंह खाती. फोटो : आजाद हिन्द फौज के क्रांतिवीर से साभार.

मार्च 1946 को हम लोगों को छोड़ देना तय हुआ. हमारी सारी वर्दियां व कपड़े उतरवा कर जमा कर दिए गए. जो भी हमारे पास ब्रिटिश. अमेरिकनों से कपड़ा-लत्ता मिला था छिन गया. हमें एक जोड़ा मलेशिया का कुर्ता, पायजामा, चप्पल, दस हाथ के लगभग नाम का मारकीन (लट्ठे) का सफेद कपड़ा बतौर कफ़न के और रेलवे वारंट हमारे आखिरी स्टेशन का दिया गया. कोई रुपया पैसा नहीं मिला. हमारा वेतन व फंड जो कटा था, वह भी छीन लिया.

पहले 50 आदमियों का जत्था निकला. दिल्ली के रेलवे प्लेटफार्म पर कांग्रेस के चार-पांच स्वयं सेवक रहते थे. वे आई.एन.ए वालों के जत्थों को दरियागंज में बने राहत कैम्प में ले जाते थे. वे आई.एन.ए. वालों के जत्थों को दरियागंज में बने राहत कैम्प में ले जाते थे. कैम्प में सबका नाम लिखा जाता था. खाना-पीना सब कुछ का वे इंतजाम करते थे. हमारे पास तो पैसा नहीं था. हमें दूरी के हिसाब से वे लोग रह-खर्च देते थे. जब पचास सुबह, पचास शाम, एक-एक करके जत्थे छूटने लगे और कोई शोरगुल नहीं हुआ तो सौ-सौ के जत्थे बनाकर भेजे जाने लगे. जगह-जगह आई.एन.ए. वालों के लिए राहत कैम्प लगे थे.

मैं भी दिल्ली से अपनी तरफ के साथियों के साथ हल्द्वानी पहुंच गया. यहां भी कांग्रेस वालों ने आई.एन.ए. वालों के लिए राहत कैम्प बनाये थे. बची गौड़ की धर्मशाला में टिकाया गया. वहां एक दिन रहे. खाने-पीने की अच्छी व्यवस्था की गयी थी. राह-खर्च और और बस के भाड़े के अल्मोड़े तक के लिए बीस रुपये दिए गए. एक दिन हल्द्वानी के बाद अल्मोड़ा पहुंचे. वहां भी व्यवस्था ठीक थी. यहां एक दिन ठहर कर हमारे साथी अपने-अपने गांवों को चले गए.

अल्मोड़े में रजिस्टर में नाम लिखा गया था. हमें दस-दस रुपये राह-खर्च के मिले. मेरे घर तक अल्मोड़े से दो-दिन का पैदल मार्ग था. गंगोलीहाट पहुंचने पर कांग्रेस के नेताओं ने हमारा स्वागत किया और खान-पीने की व्यवस्था की. घर पहुंचने की खबर पटवारी को लग गई. वह भी आ धमका. उसने चेतावनी दी कि हर महीने पटवारी को रिपोर्ट दोगे. सरकार के खिलाफ कुछ नहीं बोलोगे. आजादी मिलना तय हो चुका था. अंग्रेज अपना सामान समेट रहे थे. हम लोगों से ऐसे सवाल किए जा रहे थे. सरकार के खिलाफ बोलने में चेतावनी भी दे गया कि अगर प्रोपेगंडा करते पाए गए तो गिरफ्तार कर लिए जाओगे.

हमारे पास कुछ नहीं रह गया था. सरकार ने हम को नंगा करके भेज दिया था. हमारा फंड छिन गया था. आगे आजीविका के लिए मामूली खेती-पाती के अलावा कोई जरिया नहीं था. किसी ने हमारी सुध नहीं ली. अपने प्रधानमंत्री काल में जब श्रीमती इंदिरा गांधी रूस गई तो उन्होंने कई शहरों को देखा. अनुभव किया कि रूस ने अपने देश के क्रांतिकारियों की यादगार ताजा रखने के लिए बड़े-बड़े संग्रहालय बना रखे हैं. क्रांतिकारियों और उनके परिवारों की देखभाल सरकार बड़ी तत्परता से करती है. उनके बच्चों की पढाई-लिखाई,स्वास्थ्य, उनकी आजीविका का बंदोबस्त पुख्ता तौर पर किया जाता है. क्रांतिकारीयों को समय-समय पर आयोजनों में बुलाकर सम्मानित किया जाता है, जिससे देश की युवा पीढ़ी उनसे प्रेरणा लेती है. श्रीमती इंदिरा गांधी ने वहीं से प्रेरणा लेकर स्वतंत्रता-संग्राम में भाग लेने वाले तमाम लोगों की ढूढ खोज शुरू की.

इसके बाद ही क्रन्तिकारीयों को सम्मानित किया गया उनके योगदान के लिए ताम्रपत्र दिये गये. पेंशन मिली. यह अच्छा रहा की 1972 में इंदिरा जी ने आई.एन.ए. की कुर्बानी की कद्र की. राजिव गांधी ने भी हमारी सुविधा और पेंशन बढ़ाई. मौजूदा सरकार ने हमारी कई सुविधाएं छीन ली. पहले तीन पीढ़ी तक आरक्षण था अब नहीं है. पहले अस्पताल में फ्री इलाज की सुविधा थी अब नहीं है.इलाज के लिए पहले पति-पत्नी दोनों शामिल थे, अब कहते हैं केवल एक का ही होगा औरों का नहीं.हालांकि इन सुविधाओं को छीने जाने का आदेश कहीं नहीं है लेकिन व्यहार में पूरी तरह हम लोगों की उपेक्षा होती है क्योंकि आई.एन.ए. के लोग सीधे-सादे, कम पढ़े या अनपढ़ फौजी थे उनको कोई तिकड़म नहीं आती थी.वे राजनीतिक दलों में भी शरीक नहीं हुए, न कोई चुनाव लड़ा, इससे उनकी पूछ नहीं रही.

डॉ. राम सिंह की किताब आजाद हिन्द फ़ौज के क्रांतिवीर से साभार.

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Girish Lohani

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