बद्रीनाथ जहां स्वर्गीय वृक्षों से पुष्पराशि झरती है. जहां सीमांत के अंतिम गाँव की कौमारिकायें मंगल गान करती हुई आराध्य को घृत कम्बल पहनाती हैं. जहां शीतकाल में देवता धरती से उतर कर नारद के साथ विष्णु गान करते हैं. जहां पिंडदान करने से पितरों को अक्षय मुक्ति मिलती है.जहां नर नारायण पर्वत रूप में रहते हैं. जिसके आगे नीलकंठ और स्वर्गारोहण शिखर है. वसुधारा प्रपात है. और है देवताओं की अमर अल्कापुरी. सब कुछ कल्पनातीत विस्मयकारी और रहस्य पूर्ण.
(History of Badrinath Temple Uttarakhand)
माणा के मारछा मानते आये कि समुद्र तल से दस हजार दो सौ चव्वालीस फ़ीट ऊपर जो भगवान बद्रीनाथ जी बिराजे हैं वो पहले तिब्बत वालों के देबता थे. अब उनकी बात पे यकीन भी क्योँ न हो. उनकी मूर्ति दिखती ही बुद्ध भगवान जैसी है. सो माणा निवासियों के दृढ़ विश्वास और मान्यता के हिसाब से बद्रीनाथ जी सतलुज के तीरे पश्चिमी तिब्बत के थोलिंग मठ में बसते थे. लामा लोग अभी भी इस मंदिर में जाते और जप तप आराधना करते हैं.
श्रृद्धा भक्ति में लामा बड़े मोही और भावुक पर बद्रीनाथ जी आखिरकार शुद्ध हिन्दू संस्कार वाले ठहरे तो उनका चित्त बड़ा व्याकुल हो जाता जब वह यह पाते कि लामा लोग खाने पीने में कोई नियम शुद्धता नहीं रखते. जो मिले मांस शिकार सब उदारस्थ कर जाते. सो उनकी यह पीड़ा छटपटाती रही और उन्होंने भागने की ठान ली.मौका भी मिला. जब लामा लोग द्वार ढांप गहरी नींद में थे तो बद्रीनाथ जी द्वार के ऊपर दिवार में छेद कर चुपके से निकल गए.
पुराने समय में गए यात्री जो थोलिंग मठ देख आये वो बताते हैं कि दरवाजे के ऊपर किया छिद्र उन्होंने भी देखा है. जहां से सरक गए थे बद्रीनाथ. पर वह बहुत दूर भाग नहीं पाए.एक लामा की आंख खुली खटर पटर से तो जाग हो गई. सब लामाओं को पता चल गया. वह लग गए ढूंढ खोज में. आखिर उन्होंने भाग रहे बद्रीनाथ जी को देख ही लिया. अब बद्रीनाथ जी ने युक्ति से,चालाकी से और इन्द्र जाल से काम लिया. वहाँ उन्होंने देखा कि चंवर गाय चर रहीं थीं.
चंवर गाय की पूँछ बड़ी झबरीली होती है तो भगवान जी ने सूक्ष्म रूप धारण किया और एक चंवर गाय की पूँछ में छिप गए. लामाओं ने बहुत ढूंढ खोज की. पर खोज न पाए. चंवर गाय ने उन्हें छुपा लिया था इस कारण उन्होंने वरदान दिया गायों को कि अबसे उनकी पूँछ पवित्र समझी जाएगी. कहते हैं तब से गाय की पूँछ का चंवर भगवान के ऊपर डुलता है, फिराया जाता है.बड़ा पवित्र माना जाता है.
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लामा लोग अपने भगवान को न पा अलग व्याकुल हो गए. कहाँ जो गए होंगे ? आखिर खोज पूछ के वो भी जानकार हुए.उन्होंने भी पता लगा ही लिया. अब बद्रीनाथ फिर आगे चले और अपने पीछे लामाओं को पीछा करते देख उन्होंने उस रास्ते में आग का घेरा धधका दिया. लामाओं ने आग पार करने की कोशिश की. जिससे उनकी दाढ़ी मूंछ जल गई. तभी से ये कहा गया कि तिब्बत वाले लामाओं के दाढ़ी मूंछ नहीं होती.
लामा लगातार उनका पीछा कर ही रहे थे कि बद्रीनाथ जी को दिखा श्यामकर्ण घोड़ा. वह सरपट उस पर सवार हुऐ और मूँछ पर ताव दे भाग निकले. भागते भागते वह माणा गाँव के पास पंहुच गए.वहाँ उन्होंने श्याम कर्ण घोड़े को छोड़ दिया. तभी कहते हैं कि अभी भी माणा गाँव के नजदीक श्याम कर्ण घोड़ा पाषाण रूप में विद्यमान है.
जिस धरती पर बद्रीनाथ जी चले जा रहे थे उस सारी सम्पदा सारी भूमि के स्वामी भगवान शिव और माता पार्वती हुए.पीढ़ी दर पीढ़ी यहाँ के बासिंदे सुनाते रहे कि अभी जो मंदिर है उसके करीब ही तप्त कुंड के ऊपर ही कहीं शिबजू का भी मंदिर था. इस पूरे इलाके में सीढ़ीदार खेत थे जिनकी उपजाऊ मिट्टी में खूब धान्य होता था. खास कर धान जिसकी फसल पकने पर खुशबू दूर दूर तक फैलती थी. अब इतनी रमणीक जगह और हरे भरे खेत देख थोलिंग से भागे जगह जगह भटकते बद्रीनाथ जू का चित्त स्थिर हो गया. बस मन में यही कामना जागी कि रहने बसने लायक जगह तो बस ऐसी हो. अब कुछ संकल्प जैसा भी ले लिया कि रहेंगे टिकेंगे तो बस यहीं. फिर ठान ही ली कि अब और कहीं नहीं भागना है. रहना है तो बस यहीं. पर कैसे? इसके मालिक तो शिव शम्भू हुऐ. उनकी महिमा अपार. उनसे जबरदस्ती तो जमीन छीनी नहीं जा सकती. मांगो तो पता नहीं दें भी या नहीं. अगर यहाँ रहना है तो इसे हथियाना पड़ेगा. बल की सामर्थ्य नहीं तो छल से रास्ता निकालना होगा. युक्ति भिड़ानी होगी. शिव जू हुऐ औघड़ दानी. पर कब किरपा करें इसका भरोसा नहीं. हाँ,साथ में होंगीं माता पार्वती. माँ का दिल हुआ तो जल्दी पसीजेगा. उनको ही द्रवित करना होगा. अस्तु कार्य योजना तैयार हुई.
बद्रीनाथ जू ने क्या किया कि वहीं पर एक चट्टान थी जिसके परे दरियालों का गाँव बसा था जिसका नाम था बांमणी. पहले तो वह उसी चट्टान की एक खोह में छुप गए. फिर उन्होंने शिशु रूप धारण किया और ह्याऊं-ह्याऊं कर रोने लगे. ऐसी सुनसानी में छोटे बच्चे की रोने की आवाज सुनी माता पार्वती ने. उनका ह्रदय अकुलाने लगा. शिव जू का ध्यान बटा. पार्वती माता बोलीं कोई शिशु है आस पास. चलो ढूंढ़ते हैं. शिब जू ने कहा कोई माया रच रहा होगा.ऐसे वीराने में कहाँ से आएगा शिशु. यहाँ दुनिया में बड़े प्रपंच हैं.बड़ा माया जाल है.तुम क्योँ इस झमेले में पड़ती हो. पर पार्वती माता लगातार उस शिशु के करुण क्रंदन से ममता के वशीभूत विह्वल हो गईं. उन्होंने वीतरागी अपने शिव शम्भू की एक न सुनी और खोज निकाला गुफा में चीत्कार करता वह अबोध शिशु. उसे गोदी में उठाया. थपकी दी. हिलाया डुलाया थपकाया तो शिशु शांत हो कर सो गया. अब जब उसे नींद आ गई तो हौले से शिशु को उठा माता पार्वती ने उसे अपने मंदिर में लिटा दिया और खुद चलीं भोले नाथ के साथ स्नान को समीप के तप्त कुंड में.
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इधर माता पार्वती स्नान करने तप्त कुंड में उतरीँ तो उधर शिशु का रूप धरे बद्रीनाथ जी ने मंदिर के द्वार बंद कर दिए. जब शिव पार्वती वापस लौटे तो देखा कि दरवाजे तो बंद हैं.वो भी भीतर से. कितनी पुकार लगायी, भारी द्वार खटखटाया. पर वो क्योँ खुलता. बद्रीनाथ जी की योजना सफल जो हो गई थी. सारा माजरा समझ गए शिव शम्भू. बोले पार्वती से कि कितना समझाया तुम कहाँ मानी. देखा धोखा हो गया न. उसने कब्जा कर लिया है इस मंदिर पर. हमारे आवास पर. अब चलो खाली यहाँ समय क्या गवाना. कोई दूसरी जगह में रह लेंगे. अखिल जगत है कही भी ठौर पा लेंगे. शिव जी तो यह निर्णय कर शांत हो लिए पर पार्वती के गुस्से का पारा चढ़ता ही गया. बोलीं ऐसा दंड दूंगी इसको कि याद करेगा.
अभी बस इस तप्त कुंड में हिम खंड डाल इसे बर्फीला बना देती हूँ.नहाने धोने को भी गरम पानी नहीं मिलेगा. थरथराएगा ठंड में. तब पता चलेगा. पार्वती का गुस्सा देख शिव जी ने समझाया. अरे भागवान, तप्त कुंड को बरफ डाल ठंडा तो कर दोगी, इसको जो फरक पड़े न पड़े, मंदिर में आ दर्शन करने वाले भक्त जन स्नान -ध्यान कैसे कर पाएंगे. इसमें उनका क्या कसूर? शिव जी की यह बात पार्वती माता को सही लगी. पर मंदिर पर अधिकार करने वाले बच्चे की करतूत से वह बहुत ही रुष्ट थीं. उनकी नजर तभी धान के खेतों पर पड़ी और फौरन उन्होंने श्राप दे दिया कि इस धरती पर अब से धान की खेती नहीं हो पायेगी बस.कैसे खायेगा भात ? शिब जी ने मना भी किया कि ऐसी जल्दबाजी मत करो. पर श्राप तो दिया जा चुका था.
अपनी निवास स्थली, मंदिर को छोड़ शिव पार्वती नीचे की ओर दूसरी जगह की ओर चले.जब दोनों कांचनगंगा नाम की गाड़ को पार कर रहे थे तो उन्होंने देखा कि कई भक्त जन,तीर्थ यात्री अपनी पीठ पर सामान लादे ऊपर मंदिर की ओर जा रहे थे. पार्वती जी ने उन्हें रोक पूछा कि ये क्या सामान ले जा रहे हो ? जवाब मिला, बासमती चावल है, इसका ऊपर मंदिर में भोग चढ़ेगा. ठाकुर जी के लिए है. यह सुन शिव जी तो हंस दिए पर माता पार्वती खिन्न हो गईं. उनका श्राप व्यर्थ हो गया था. कहाँ धान की खेती न होने की बात थी पर यहाँ तो और बढ़िया बासमती जा रही है भोग के लिए.
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ऊपर मंदिर में अब बद्रीनाथ जू की मौज हुई.. चौबीसों घंटे सेवा सत्कार. अटका में छप्पन प्रकार का भोग. भक्त जन सेवा भाव में लगे. कितनी बहुमूल्य वस्तुएं चढ़ाते. श्रृंगार होता तो रत्नजड़ित सोने के गहनों से लाद देते, मोती मूंगा नीलम पन्ना सबकी भरमार. केसर-कस्तूरी,इत्र -फूलेल तमाम सुगंधियाँ. कितनी दूर -दूर से आते भक्तजन. लम्बी लाइन लगती. अपनी बारी की बाट जोहते. सब तरफ उनकी जैजैकार हो रही.
इतनी प्रसिद्धि फैली तो बद्रीनाथजू के माता पिता को भी पता चला कि उनका पुत्र तो बहुत संपन्न आनंद में है.यह विचार कर कि पुत्र के पास रह उनका शेष जीवन भी सब सुविधाओं से भरा पूरा बीत सकेगा.कितने कोस की यात्रा कर दोनों बेटे के पास आ पहुंचे. उधर बद्रीनाथजू की गृह लक्ष्मी भी उनके पास आ पहुंची. माता पिता के लिए तो दोनों बेटे बहू कलजुगी ही साबित हुऐ. इतने ढेर परिवार में तो साथ रहते उनके आनंद मौज मस्ती में बड़ा विघ्न पड़ेगा यह सोच बद्रीनाथजू ने अपने पिताजी को तो भेज दिया मंदिर से पांच -छह कोस दूर वसुधारा के जल प्रपात में. जहां बैठे वह अब भी ध्यानस्थ तपस्या कर रहे हैं और अपनी माता को माणा के समीप मूर्ति बना कर बैठा दिया.
अब ये कथा बांच गए राहुल जो 17 मई 1951 को 10244 फुट की ऊँचाई चढ़ बद्रीनाथ पहुँचे थे.वहाँ सबसे मिलते जुलते संस्कृति और बसाव के ताने बाने जोड़ते उन्हें मिल पड़े वहाँ के बासिंदे श्रीमान गंगा सिँह,जिनके श्री मुख से बद्रीनाथ जी की यह अलिखित जीवनयात्रा पता चली. अब ये तो हुई कथा अब इसके मंदिर का इतिहास भी जान लें.
बद्रीनाथ का वर्तमान मंदिर अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में बना.1741-1742 ईस्वी में कुमाऊं गढ़वाल के मंदिरों में लूट पाट करते मूर्तियों का अंग भंग करते रुहेले बद्रीनाथ तक आ पहुंचे थे. इतिहासकार लिखते हैं कि इससे भी पहले सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अकबर के एक मनसबदार टुकड़िया हुसैन खां ने भी काफिरों के खिलाफ धर्मयुद्ध किया. मूर्तियों को तोड़ सवाब हासिल किया. बद्रीनाथ के मंदिर में जो बुद्ध मूर्ति रही वह भी आतताइयों की ध्वंस लीला का शिकार बनी. बताते हैं कि पहले यह मूर्ति नारद कुंड में फेंकी हुई थी.जहां से इसे किसी शंकराचार्य ने तप्त कुंड के समीप रखवाया. तब बाद में गढ़वाल के किसी राजा ने यह मंदिर बनवाया.
हिमालय में नेपाल की तरह बौद्ध धर्म का बहुत प्रचार था.तिब्बती शासक बुद्ध के प्रति अनुरागी रहे. तिब्बती इतिहास से जानकारी मिलती है कि सन 650 से 850 ईसवी में उत्तराखंड के इस भूखंड के साथ कश्मीर व नेपाल तक का क्षेत्र तिब्बत के अधीन था. बद्रीनाथ जी की मूर्ति में बुद्ध की स्पष्ट छाप इसी बौद्ध प्रभाव से उपजी होगी.बद्रीनाथ धाम के मंदिर में बद्रीनाथ की मूर्ति पद्मासनस्थ है जिसका चेहरा और एक हाथ खंडित है. चेहरे में से भी करीब दो इंच मोटा पत्थर खुरच दिया गया है और साथ ही दोनों आँखें, नाक और मुंह भी विकृत कर दिया था आतताइयों ने. मूर्ति का श्रृंगार करते समय इस खंडित खाली स्थान पर चन्दन पंक लगा दिया जाता है. नयन नक्श को भी सुधार दिया जाता है. ऐसे ही जो दायां हाथ है उसमें भी पत्थर की टूट फूट है. ऐसा लगता है कि दायां हाथ भूमि को छूती मुद्रा में है. यह अनुकृति बोध गया में बज्र आसन पर बैठे सिद्धार्थ गौतम की उस प्रतिज्ञा की सूचक है जब अपने दाएं हाथ की उँगलियों को धरती की ओर छुआते हुऐ उन्होंने संकल्प लिया था कि या तो इसी आसन पर मेरा शरीर सूख जायेगा, नहीं तो मैं जिस तत्व ज्ञान की तलाश में हूँ उसे प्राप्त करके ही रहूँगा.
मूर्ति काले पाषाण की तीन फ़ीट नौ इंच ऊँची है. कई जानकार इसे ध्यानावस्थित मुद्रा बताते हैं तो मूर्तिवेत्ता इसे योगनारायण विष्णु मूर्ति मानते हैं. इसकी छाती पर यग्योपवीत की भांति पतली रेखा दिखाई देती है. यहाँ मंदिर के रावल चीवर के छोर को यग्योपवीत मानते हैं. पीठासन में भी कुछ रेखाएं हैं. मूर्ति के ललाट पर हीरा है तो मस्तक पर स्वर्ण का दमकता छत्र. सम्मुख है एक बड़ा दर्पण जो वाह्य परिदृश्य के बिम्ब संजोता है. मूर्ति के समीप रखे स्वर्ण रजत धूप दीप नैवेद्य दान का संयोजन भव्य सज्जा व वातावरण निर्मित करते हैं.
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राहुल सांस्कृतायन ने मूर्ति पर पड़ी जनेऊ को एकांश चीवर ओर मूर्ति की मुद्रा को ध्यानावस्थित बौद्ध मुद्रा माना. उन्होंने वघाण को बौद्धाचल कहा और इसका विस्तार पैनखंडा तक बताया. राहुल के अनुसार अहोगंग उशीरगिरि (हरिद्वार )से तिब्बत की ओर प्रस्थान करते बौद्ध धर्म की छाप बद्रीनाथ में भी आयी. पहले तिब्बत के थोलिंग मठ से भी बद्रीनाथ को प्रतीकात्मक भेंट पूजा चढ़ने आती रही. एक बौद्ध विहार का तो नाम ही ‘बदरिकाराम’था. वहीं मूर्ति के सर के पीछे की ओर कुंचित केशों से राहुल इसे जैन मूर्ति होने की संभावना भी व्यक्त करते हैं. पर इस सन्दर्भ में सर्वमान्य मत यही बना कि शंकराचार्य ने नारद कुंड से विष्णु मूर्ति को निकाल पुर्नस्थापित किया था.
देश में चार पवित्र धामों यथा दक्षिण में रंगनाथ, पूर्व में जगन्नाथ, पश्चिम में द्वारकानाथ के साथ चौथा धाम बद्रीनाथ है जिन्हें वैष्णव धाम की मान्यता मिली.पर बद्रीनाथ की सर्वाधिक महत्ता यह रही कि इसे हिन्दू, जैन व बौद्ध सबने समान श्रृद्धा व भक्ति भाव से पूजा. यहाँ के रावल केरल के नम्बूद्री ब्राह्मण रहे.पूजा अर्चना में कर्मकांड व वैदिक पाठ उत्तर व दक्षिण की संस्कृति के अपूर्व संगम को प्रस्तुत करता है. शंकराचार्य द्वारा बारह सौ वर्ष पूर्व स्थापित यह परंपरा निरन्तर चली आयी है.
बद्रीनाथ को पूर्व में बद्रिकाश्रम कहा गया जो वहाँ की तपोभूमि सहित सातवीं शती तक विख्यात हो गया था.बद्रीनाथ के पौराणिक महत्व में धार्मिक ग्रन्थ बद्रिकाश्रम तक पहुँचने की पद यात्रा का वर्णन करते हैं. इनमें अलकनंदा तट से हो कर जाने का उल्लेख है. केदारखंड पुराण में गंगाद्वार से कणवाश्रम, गरूड़गंगा,ज्योतिर्धाम, पाँडुस्थान होते हुए बद्रिकाश्रम जाने के तीस योजन लम्बे मार्ग का वर्णन है.प्रारम्भ में बद्रिकाश्रम में तपोवन आश्रम व अरण्य होने व इनके समीप अंतिम सीमांत ग्राम कलाप में तपश्वियों के निवास की जानकारी दी गई है. मत्स्य पुराण में भी बद्रिकाश्रम व तपोवन का उल्लेख है. नारदपुराण और स्कंदपुराण में बद्रिकाश्रम के महत्व का विस्तार से उल्लेख है. स्कंदपुराण में बताया गया कि नर और नारायण ने सत्ययुग में जब यहाँ तपस्या की तब इसे मुक्तिप्रदा क्षेत्र कहा जाता था. त्रेता में इसे योगसिद्धा कहा गया व द्वापर में विशाला पुरी.
महाभारत दक्षिणात्यपाठ में कहा गया कि कलियुग में इसका नाम बद्रिकाश्रम होगा क्योंकि कैलास को जाते पांडवों को नर नारायण आश्रम के पास गोल तने वाला विशाल मनोरम बद्री का वृक्ष मिला था.राजा जन्मजेय ने भी यहीं व्यास गुफा के समीप बद्रिकाश्रम में जब महाभारत का पाठ सुना तभी उन्हें ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्ति मिली थी. व्यास गुफा में रह व्यास मुनि ने महाभारत व अन्य पुराणों की रचना की थी.लोक विश्वास है कि यहीं से हो कर पांडव स्वर्ग की ओर चले थे.
महाभारत में विशाला नामक तीन नरेशों का उल्लेख है जिनमें एक विशालक राजा ने घनघोर तपस्या की थी.उसकी सुपुत्री भद्रा का विवाह वसुदेव से हुआ. प्रकारान्तर में यही वासुदेवक हो गया. इसी प्रकार विशाल नामक गरुड़ तथा यक्ष की संकल्पना को भी ध्यान में रखा गया. ऋगवेद में वर्णन है कि विष्णु भगवान पर्वत वासी हैं सो उन्हें गरिष्ठा व गिरिक्षित नाम से सम्बोधित किया गया. उनका वाहन गरुड़ या सुपर्ण है. सुपर्ण के पुत्र का नाम विशालाक्ष है. प्रतिमा विज्ञान में विष्णु भगवान की मूर्ति के सामने गरुड़ की मूर्ति स्थापित करने का विधान है तो विष्णु क्षेत्र या बद्रीनाथ पुरी के आरम्भ देवदेखनी में गरुड़ायतन बनाने का विचार हुआ. गरुड़ायतन को विशालाक्ष आयतन भी कहा गया. यह संकल्पना भी ध्यान में रखी जाती है कि यक्ष पूजा अनार्यों में भी प्रचलित थी जिसे कालान्तर में वैदिक ऋषियों द्वारा भी अपना लिया गया. इस मत के आधार पर विशाल आँखों वाला यक्ष प्रवेश द्वार का रक्षक हो गया तो मणिभद्र यक्ष उत्तरी दिशा के द्वार अर्थात माणा का रक्षक माना गया. बद्री वृक्ष के बारे में कहा जाता है कि इस घाटी में होने वाली झाड़ी झरबेरी को भ्योँरा कहते हैं. यही बद्री है. लोक विश्वास है कि बेर में लक्ष्मी का निवास है जिससे यह भगवान विष्णु को बहुत प्रिय है. अतः विष्णु धाम के आरम्भ में बद्री आया.
पांचवी शती पूर्व के आसपास बद्रिकाश्रम नाम पड़ने वाले युग को बौद्ध धर्म का उत्थान काल भी कहा गया. तदन्तर तेरहवीं शती से बद्रिकाश्रम में मूर्ति स्थापना व मंदिरों के निर्माण की प्रक्रिया आरम्भ मानी गई. इतिहासकारों के अनुसार इससे पहले ही आदि शंकराचार्य व रामानुजाचार्य ने बद्रिकाश्रम में अद्वैत व विशिष्ट अद्वैत का शंखनाद किया. अपनी युवावस्था में शारदा मठ के दण्डिस्वामी आनंदतीर्थ द्वेतवादी ब्रह्म सम्प्रदायी बन ख्याति प्राप्त कर चुके थे. तदन्तर वह पुनः दण्डिस्वामी हो गए तब उन्होंने श्री संप्रदाय के कठोर आचार -विचार तथा शैव मत से विरोध की भावना को सहिष्णुता में बदल दिया. इस प्रकार उन्होंने उत्तराखंड की पंचस्मार्त वैष्णव परंपरा को गति प्रदान करी.साथ ही ज्योतिर्मठ के दंडी सन्यासियों को संतुष्ट कर बद्रीनाथ को लोकप्रिय बना दिया.
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बद्रीनाथ की पूजा अर्चना का दायित्व रामानुजी संप्रदाय ने संभाला था. इनके दो कोट बद्रीनाथ एवं पाण्डुकेश्वर में थे. पर 1443 ई. से यह अधिकार दंडी स्वामियों के पास आ गया. अब बद्रीनाथ जी की पूजा में होने वाला श्रृंगार व पुष्प सज्जा के साथ कपाट बंद होते समय स्त्री वेश में लक्ष्मी जी को बद्रीनाथ जी के साथ आसनस्थ करने की परंपरा व अधिकार रामानुजी संप्रदाय को ही दिया गया जिससे वह श्रृंगारी महंत कहे गए.
कहा गया कि 1776 ई. में अंतिम दण्डिस्वामी के देहांत के उपरांत मंदिर में भगवान को भोग पकाने वाले गोपाल नाम के नम्बूदरी ब्राह्मण को तब के गढ़ नरेश ने छत्र, चंवर, खिल्लत दे कर मंदिर का रावल बनाया. तभी डिमरियों को भी लक्ष्मी मंदिर वृत्ति प्रदान की गई और दक्षिण से नम्बूरी, चोली या मुकाणी जाती के ब्राह्मण युवक रावल के शिष्य बनाए गए.
पंद्रहवीँ शताब्दी के मध्य में संत रामानंद बद्रीनाथ धाम आये. उन्होंने दलितों को भगवान को स्पर्श करने का अवसर प्रदान किया. उन्होंने मंदिर के परिक्रमा मार्ग में गर्भ गृह के पीछे की दिवाल पर एक कनक दंड लगवाया जिसका भीतरी सिरा विष्णुमूर्ति को छूता था. अब सभी यात्री कनकदंड के बाहर निकले भाग को छू कर भगवान का स्पर्श कर सकते थे. बाद में यह कनक दंड लौह दंड हो गया.1517 ई. में स्वामी बल्लभचार्य ने बद्रीनाथ की यात्रा की. तुलसीदास 1600 ई. में यहाँ पधारे. अकबर ने गंगास्त्रोत का पता लगाने के लिए खोजी दस्ता भेजा जो 1570 ई. में यहाँ आया. पांडुकेश्वर के घण्टालेख के आधार पर घंटे पर ‘जिलाले इ अल्लाह अदल अकबर बादशाह गाज़ी’ नाम अंकित किया गया था.1628 ई. में संत दादूदयाल के चेले सुन्दरदास और 1631 में पुर्तगाली पादरी अजवेदों ने बद्रीनाथ दर्शन किए. गढ़ राजवंश ने बद्रीनाथ को अपना इष्टदेव बनाया व अपनी राजमुद्रा व लांछनों पर ‘बद्रीनाथो विजयते’ अंकित कराया. गढ़ नरेश ने स्वयं को प्रजा में बोलांदा या बोलता बद्रीनाथ घोषित करवाया.मंदिर के कपाट वैशाख मास में अक्षय तृतीया के दिन खोले जाने की व्यवस्था टिहरी नरेश द्वारा संपन्न की जाती रही तथा मार्गशीर्ष में किसी शुभ दिन कपाट बंद करवाये जाते थे.
बद्रीनाथ मंदिर में बद्रीनाथजी की मूर्ति के दायीं तरफ नर, नारायण, भू देवी, श्रीदेवी की मूर्तियां हैं तो बायीं ओर गणेश और कुबेर विराजे हैं. ठीक सामने नारद, उद्धव और गरुड़ हैं इन सबसे बद्रीश पंचायतन का बोध होता है. मंदिर के पश्चिमी उत्तर में माता मूर्ति का मंदिर है जहां जन्माष्टमी के बाद वामन द्वादशी को बद्रीनाथ मंदिर से उत्सव मूर्ति को ला कर
माता व पुत्र का मिलन उत्सव संपन्न कराया जाता है. वहीं बद्रीनाथ मंदिर के पीछे के पर्वत पर पादुका तीर्थ में शिलाखंड पर बने चरण शिव जी के चरण बताये जाते हैं. इसी के उत्तर में इक बड़ी शिला पर सर्प नेत्र बने हैं जिन्हें शेष तीर्थ कहा जाता है.बद्रीनाथ जी के मंदिर परिसर में गणेश,लक्ष्मी, हनुमान, घंटाकरण के मंदिर हैं तथा थोड़ी दूरी पर शंकराचार्य की गद्दी है. लक्ष्मी के पुजारी डिमरी हुए व कुबेर घंटाकरण के पुजारी दुरियाल होते हैं. बद्रीनाथजी की पूजा रावल करते हैं जो केरल के नम्बू दरी पाद ब्राह्मण हुए. मंदिर के समीप तप्तकुंड है जिसके नीचे पंचशिलायें हैं व दो सौ मीटर दूर पिंडदान हेतु ब्रह्मकपाल है जिसके पुजारी हटवाल हैं.
बद्रीनाथ में विष्णुगंगा एवं सरस्वती के संगम को केशवप्रयाग और समीपवर्ती गुफाओं को गणेश गुहा और व्यास गुहा कहा जाता है. सबसे ऊपर की गुहा मुचकुन्द गुहा कहलाती है.. मंदिर से आठ किलो मीटर दूर नरपर्वत पर वसुधारा प्रपात है तथा इतनी ही दूरी और तय कर अल्कापुरी वांक आता है जिसके बारे में मान्यता है कि यहाँ यक्ष पुरी थी. इसी स्थान पर भगीरथी चक्र और संतोपंथ नामक हिमनदों का मिलन होता है. संतोपंथ में त्रिकोण सरोवर है जिससे आगे सोमकुण्ड, विष्णु कुंड, राम गुहा, स्वर्गारोहण शिखर व चौखम्बा इत्यादि दर्शनीय हैं. पंच केदार कि भांति पंचबद्री है जिसमें योगध्यान बद्री पांडुकेश्वर, नृसिंह बद्री जोशीमठ, वृद्ध बद्री अणिमठ, ध्यान बद्री कल्पेश्वर और भविष्य बद्री सुभैँ तपोवन सम्मिलत हैं. बद्रीनाथ पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण की एकता का सूत्र है. ध्यानेविश्वम में बुद्ध भी नारायण स्वरुप प्राप्त कर गए अतः बद्रीश सबके हैं.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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आपने बहुत ही अच्छे शब्दों और ज्ञान के द्वारा बद्रीनाथ धाम उत्तराखंड की जानकारी दी है जिसे पढने से हमें इस जगह के महत्व का पता चलता है . हिन्दू धर्म में यह चार धाम में से एक मुख्य धाम है .
बहुत बहुत आभार