इतने विशाल हिंदी समाज में सिर्फ डेढ़ यार : चौदहवीं क़िस्त
शैलेश मटियानी, मनोहरश्याम जोशी, शिवानी, राधकृष्ण कुकरेती, गोपाल उपाध्याय, स्वरूप ढौंडियाल और विद्यासागर नौटियाल के बाद उत्तराखंड से एक और दिग्गज कथाकार हिमांशु जोशी भी नहीं रहे. ये सभी लोग लगभग समान उम्र के रहे हैं… नयी कहानी के दौर के, और सभी की लगभग एक साथ चर्चा भी होती रही है. समान कथाभूमि के होते हुए भी रचनात्मक भावभूमि में इन सभी की अपनी एक स्वतंत्र दृष्टि और शैली है जो इन्हें एक स्वायत्त व्यक्तित्व प्रदान करती है. खासकर आजादी के बाद की हिंदी कहानी के परिप्रेक्ष्य में.
हिमांशु जी से मेरा परिचय विगत पांच दशकों का है. सत्तर के दशक में जब हमने लिखना शुरू किया था, वो कथाकार के रूप में स्थापित हो चुके थे और उनकी चर्चा ग्रामीण-कुमाऊँ क्षेत्र के एक संवेदनशील रचनाकार के रूप में होने लगी थी. ग्रामीण परिवेश को लेकर उस दौर में केवल शैलेश मटियानी और राधाकृष्ण कुकरेती लिख रहे थे, इस लिहाज से उनकी तुलना सिर्फ शैलेश और कुकरेती जी से ही हो सकती है. हिमांशु का रचनात्मक फलक भी खासा बड़ा है मगर जो बात चौंकाती है, ये कि इतने व्यापक लेखन के बावजूद आलोचकों ने उनकी गंभीर लेखक के रूप में चर्चा कम की है. उनके एक आरंभिक उपन्यास ‘सु-राज’ को लेकर अवश्य चर्चा हुई, जो उनके पैतृक इलाके काली-कुमाऊँ में गाँधी जी के प्रभाव तथा दलितों व नारी के उत्पीणन की पृष्ठभूमि में है, बावजूद इसके इसी समस्या के इर्द-गिर्द घूमती उनकी कहानियों का भी व्यापक उल्लेख नहीं मिलता, जब कि वास्तविकता यह है कि उन्हें नाकारा तो कतई नहीं जा सकता.
हिमांशु जी के लेखन से इस बात पुष्टि होती है कि उनके बचपन का बड़ा हिस्सा अपने गाँव खेतीखान और कस्बे चम्पावत-लोहाघाट में बीता. मगर ग्रामीण जीवन की उनकी सहभागिता उस तरह की अन्तरंग नहीं थी, जैसी कि शैलेश मटियानी की थी. असल में जोशी जी उस रूप में कृषक जीवन का हिस्सा भी नहीं थे, वो एक गरीब ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे, जिनकी अपने समाज में पहचान कृषक की अपेक्षा सामाजिक कर्मकांड संपन्न करने वाले पुरोहित की थी. यही कारण है कि उनके निम्नवर्गीय चरित्रों की समस्या रोजी-रोटी के रूप में आर्थिक उत्पादन से जुडी नहीं, यौन शोषण तथा स्त्री के शारीरिक आकर्षण से जुड़ी समस्याएं हैं. यह बात हैरान करने वाली अवश्य है, और खासकर उस सदी के रचनाकार के लिए जो समाज में वर्गीय और जातीय द्वंद्व से अच्छी तरह परिचित हो, मगर इस वास्तविकता को नकारा नहीं जा सकता.
हिमांशु जोशी सरल, सीधे और मृदु-भाषी थे, जिन्हें मैंने ऊंची आवाज में बोलते हुए नहीं देखा. उनके चरित्र कुटिल और असामाजिक तो हैं मगर उनकी असामाजिकता एक खास सीमा को लांघती नहीं दिखाई देती. उनके अच्छे चरित्र गाँधी की तरह समस्या को केवल वस्तुनिष्ठ रूप में नहीं, आत्मविश्लेषण करते हुए दिखाई देते हैं. पुराने दौर के सन्दर्भ में तो वे अपनी पहचान बनाते हैं, हालाँकि नए विकसित हो रहे मूल्यों के आधार पर वे प्रासंगिक नहीं महसूस होते. अपने समाज के लोगों में हिमांशु खासे लोकप्रिय रहे हैं, साहित्य की अनेक विधाओं में उन्होंने पर्याप्त लिखा है, सामाजिक स्थितियों का विश्लेषण भी किया है, मगर उनकी छवि तार्किक विश्लेषक की अपेक्षा एक भावुक विचारक की अधिक रही है.
एक पत्रकार के रूप में भी उनकी एक निष्पक्ष छवि रही है. उनके लेखन में प्रयोगधर्मिता नहीं दिखाई देती, यही कारण है कि उनका अधिकांश लेखन पहली नजर में देखने पर एकपक्षीय महसूस होने लगता है. संभव है, कुछ लोगों को चरित्रों की संघर्ष प्रक्रिया से खीज भी हो, बावजूद इसके, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उनमें लेखकीय ईमानदारी भरपूर है. जिन संस्कारों और मूल्यों की वह उपज हैं, वास्तविकता यह है कि उनके रचनात्मक परिवेश को उसी कोण से देखना और विवेचित करने की जरूरत होगी.
4 मई, 1935 को उत्तराखंड के खेतीखान (चम्पावत) में जन्मे हिमांशु जोशी पांच से अधिक दशकों तक साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में अत्यंत निष्ठा और सजगता के साथ सक्रिय रहे हैं. 29 वर्षों तक वो चर्चित साप्ताहिक पत्रिका ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ के सम्पादकीय विभाग में रहे. प्रसिद्ध साहित्यिक मासिक ‘वागर्थ’ का भी उन्होंने संपादन किया.
मात्रा में उनका लेखन कम नहीं है. उपन्यासों में ‘अरण्य’, ‘महासागर’, ‘छाया मत छूना मन’, ’कगार की आग’, ‘समय साक्षी है’, ‘तुम्हारे लिए’, ‘सु-राज’ मुख्य हैं तथा प्रमुख कहानी संग्रहों में ‘अंततः तथा अन्य कहानियां’, ‘मनुष्य चिह्न तथा अन्य कहानियां’, ‘जलते हुए डैने’, ‘तपस्या’, ‘रथचक्र’, ‘गंधर्व गाथा’, ‘सागर तट के शहर’ आदि. तीन कविता-संग्रह प्रकाशित हुए हैं : ‘अग्नि संभव’. नील नदी का वृक्ष’ तथा ‘एक आंखर की कविता’. बच्चों के लिए भी विपुल साहित्य उन्होंने लिखा है, जिनमें ‘तीन तारे’, ‘अग्नि संतान’, ‘हिम का हाथी’ ‘काला पानी’, ‘सुबह का सूरज’ मुख्य हैं. कई वैचारिक संस्मरणों, साक्षात्कारों, यात्रा-वृतांतों, रेडियो नाटकों औए जीवनियों के अनेक संकलन प्रकाशित हैं. संसार भर की भाषाओँ में उनकी रचनाओं के अनुवाद हुए हैं – पंजाबी, डोगरी, उर्दू, गुजराती, मराठी, कोंकणी, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, उड़िया, बांग्ला, असमी के अतिरिक्त अंग्रेजी, नेपाली, बर्मी, चीनी, जापानी, इटालियन, बल्गेरियाई, कोरियाई, नार्वेजियन, चेक आदि में.
हिमांशु जी की कई कृतियों पर फिल्म और धारावाहिकों का निर्माण हुआ है और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर के अनेक सम्मान उन्हें प्राप्त हुए हैं. वह ‘हिंदी साहित्य सम्मलेन’ के ‘साहित्य वाचस्पति’ सम्मान से भी विभूषित हुए हैं और अमेरिका, नार्वे, स्वीडन, डेनमार्क, जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन, जापान आदि अनेक देशों की साहित्यिक यात्रायें भी उन्होंने की हैं.
जोशी जी के निधन से हिंदी के सक्रिय युवा रचनाकारों, विशेष रूप से उत्तराखंड की युवा सक्रिय पीढ़ी का मानो एक मजबूत सहारा नहीं रहा, यह बात आज विश्वास के साथ कही जा सकती है कि उनका न रहना आज के द्वंद्वफंदी कुटिल समाज के बीच सच्चे-सरल हृदय के निःस्वार्थ व्यक्ति की क्षतिपूर्ति का हमेशा अहसास कराता रहेगा. हिंदी लेखन के वर्तमान तिकड़मी परिवेश में तो यह अहसास और अधिक तेजी से अनुभव होगा.
लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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