अशोक पाण्डे

हरकुवा गांठी के किस्से

हरक सिंह पुराने बॉडी बिल्डर थे. जन्मजात गुस्सैल थे. बात-बात पर हाथ छोड़ देना उन्हें अच्छा लगता था. दुनिया में कहीं भी, किसी भी समय सार्वजनिक गाली-गुप्ता हो रहा हो या छोटी-बड़ी फौजदारी चल रही हो वे अपना शक्ति प्रदर्शन करने से नहीं चूकते थे. झगड़ रही पार्टियों से मतलब हो चाहे न हो. 
(Harkuva Ganthi & His Anger)

पहाड़ में छोटे कद वाले व्यक्ति को गांठी कहा जाता है और इसी वजह से उनकी पीठ पीछे जनता के भीतर जब भी उनके प्रति बड़ी मात्रा में प्रेम उमड़ आता वह उन्हें हरकुवा गांठी के नाम से संदर्भित करती थी. मैं भी करूंगा.

जो काम शुरू हुआ है उसे जल्दी से जल्दी उसके अंजाम तक पहुंचा देना चाहिए – यही उनका ध्येय था. इस चक्कर में आसपास के दो-चार मोहल्लों में उनकी अच्छी खासी ख्याति हो गयी थी.

पिट रहे आदमी को बेदम कर देने तक पीटना और उसका भुरकस बना कर उसकी छाती पर बैठ उससे “फिर कभी ऐसा करके तो दिखाना बेटा!” या “आँख किसे दिखा रहा है साले!” का जयघोष करना उनकी हॉबी थी. उनके मजबूत चकले हाथों के प्रहार, जिन्हें वे फैट कहा करते थे, अनेक बार निरपराध लोगों के हिस्से भी आ जाया करते लेकिन बहुजन को इसका बड़ा लाभ मिला था. उनके फैट के भय से टटपूंजिया टाइप के चोर-उचक्के भूले से भी उनके मोहल्ले के पास तक नहीं फटकते थे. संक्षेप में हरकुवा गांठी बहुत फेमस आदमी थे. 

हमारे घर रहने वाले मुझसे कोई दस साल बड़े दूर के रिश्ते के भाई के दोस्त थे हरकुवा गांठी. भाईसाहब और उनके अन्य दोस्त जब भी साथ होते अक्सर उन्हीं के ताजा किस्सों के मजे लिया करते.

हम छोकरे कहीं सपोलिया या कायपद्दा जैसे भुसकैट खेल खेल रहे होते तो हमसे बड़े लौंडों की यह सीनियर पार्टी आसपास ही कहीं गपशप लगा रही होती या चोरी से बीड़ी-सिगरेट धूंस रही होती. छोटा सा शहर था और उसमें कुछ भी गुप्त नहीं रह सकता था.

अपने को ज्यादा सिपला मानने वाली यह सीनियर पार्टी हमें बच्चा समझती थी जबकि हमें उनमें से हर किसी के असली-नकली और नए-पुराने हर तरह के माल के नाम-पतों से लेकर कपड़े-चप्पलों के साइज़ तक रटे हुए थे. ध्यान रहे लड़की को सार्वभौमिक रूप से माल कहे जाने का रिवाज था.

हरकुवा गांठी अपनी मित्रमंडली में इकलौते नौकरीपेशा सदस्य थे. उन्होंने एलएलबी कर रखी थी और किसी सरकारी डिपार्टमेंट के कानूनी सेक्शन में छोटी-मोटी नौकरी करते थे और उन्हें अक्सर इलाहाबाद-दिल्ली के चक्कर लगाने पड़ा करते.

एक दफा वे रेल से दिल्ली जा रहे थे. कम्पार्टमेंट में एक प्रौढ़ दंपत्ति के अलावा आठ नौ जने और थे. रात के खाने के समय सब ने अपने-अपने पूड़ी-आलू के डिब्बे खोले तो उक्त दंपत्ति के बीच कटहल के अचार को लेकर छोटी-मोटी तकरार शुरू हुई.
(Harkuva Ganthi & His Anger)

पत्नी कहती थी उसने अचार पैक किया था जिसे रखने की जिम्मेदारी पति की थी. पति कहता था पत्नी हर बार उसकी फेवरेट चीजें पैक करना जान बूझ कर भूल जाती है क्योंकि उसे अपने मायके से ज्यादा प्यार है. घरेलू टाइप की चुहल चल रही थी और अपने अपने हिस्से का भूसा-भोजन भकोसते हुए कम्पार्टमेंट के बाकी लोग उसके मज़े ले रहे थे.

हरकुवा गांठी अचानक अपनी सीट पर से उठे और आदमी की नाक पर मुक्का जड़ते हुए बोले – “ले खा ले साले अचार!” अगले मुक्के के साथ उनकी घोषणा थी – “औरत से लड़ता है कायर!” पांच छः सेकेण्ड में इतने ही और घूंसे मारकर उन्होंने अचार पर लड़ रहे आदमी को बेहोश कर दित्या. उसकी बीवी रोने लगी. मुरादाबाद स्टेशन पर हरकुवा गांठी को पुलिस पकड़ कर ले गयी और उनकी उम्दा ठुकाई हुई.

इस घटना के पब्लिक होने के बाद उनकी मित्रमंडली में निर्णय लिया गया कि हरकुवा गांठी की हर बात ठीक है बस उसे अपने गुस्से पर काबू पाना सीखना होगा वरना कभी भी कुछ भी हो सकता है.

रात में भी काला चश्मा पहनने वाले मयेस नामक एक सज्जन ने उन्हें आधे घंटे तक एंगर मैनेजमेंट के सूत्र रटाये. हमने उन्हें बार-बार हरकुवा गांठी को सिखाते सुना – “जब भी गुस्सा आये तो बेटा जेब हाथ में घुसेड़कर एक से सौ तक गिनती करना. बस और कुछ नहीं. एक से सौ तक गिनती और हाथ जेब में समझे … और क्या है जरा लोगों से प्यार-मोब्बत करना सीख यार हरकू!”

हरकुवा गांठी को उस दिन फिर से दिल्ली जाना था. इस बार वे बस से जाने वाले थे. रोडवेज उनके पहुँचने तक ठीकठाक भर चुकी थी. हरकुवा गांठी को सबसे पीछे वाली डबल सीट खाली मिली तो उन्होंने उस पर अपना रूमाल बिछाया और उतरकर सामने खोखे में सिगरेट धौंकने चले गए. बाहर खड़े धुआं उड़ाते भी उनकी कनखियाँ अपनी सीट पर लगी हुई थीं.

उन्होंने देखा कि एक बेहद मोटा आदमी उनकी डबल सीट पर बैठने जा रहा है. वे खिड़की पर लपके और बाहर से ही बोले – “ये सीट रिजर्व है भैये!” मोटे आदमी ने चारखाने का पाजामा और मैला कुर्ता पहना हुआ था. उसे हाथों  में दो बड़ी सी गठरियाँ भी थीं.वह बहुत दयनीय लग रहा था. उसका चेहरा रुआंसा होने को आया ही था कि हरकुवा गांठी को मयेस के सिखाये सबक याद आया और सिगरेट की ठुड्डी को चूसते हुए उन्होंने भरसक मीठे स्वर में कहा – “साइड वाली मेरी है. तू उधर वाली पे बैठ जा.”

भीतर घुसे तो बस मे दमघोंटू भीड़ जमा हो चुकी थी. हर कोई हरकुवा गांठी की खाली पड़ी सीट पर निगाह गड़ा रहा था और मोटा आदमी बार बार कहता जाता था – “वो छोटे वाले भाईसाब की सीट है! छोटे वाले भाईसाब की!”

खुद को छोटा कहा जाना हरकुवा गांठी ने भी सुना. हाथ जेब में डाले, किसी तरह छिरकते-सरकते-रेंगते अपनी सीट पर पहुंचे. मोटे ने उन्हें देख कर अपनी पीली बत्तीसी खोल दी. हरकुवा गांठी को साइड सीट में घुसने में बहुत मशक्कत करनी पड़ी क्योंकि बजाय अपनी सीट छोड़कर रास्ता बनाने के, मोटे ने अपना स्थूल पिछवाड़ा स्कूटर पर बैठने वाले मैकेनिकों की अदा के साथ एक तरफ को थोड़ा सा मोड़ा भर. वे जैसे-तैसे बैठे तो उनके पैर नीचे फर्श पर धरी मोटे की भरकम गठरियों पर टिक गए. उन्हें दो बार क्रोध आ चुका था पर मयेस की बात उन्हें याद थी.
(Harkuva Ganthi & His Anger)

बस के नगर की सरहद छोड़ते न छोड़ते मोटे की आँखें मुंद गईं और वह हरकुवा गांठी पर लधरने लगा. हरकुवा कभी अपना कंधा उचकाते कभी आगे वाली सीट पर सतत बीड़ी फूंक रहे बढ़ई लग रहे एक लौंडे को बेबस देखते जाते. बस में एक भी ऐसी स्त्री नहीं थी जिसे ताड़ा जा सकता!

कभी-कभी मोटा अपना पूरा बोझ हरकुवा गांठी के ऊपर डाल देता और ऐसे में सड़क पर अगर कोई मोड़ आता तो हरकुवा गांठी को अपनी सांस रुकती सी लगने लगती. मयेस ने लोगों से प्यार-मोब्बत करने को कहा था.

दसेक मिनट बाद मोटा उठा तो जाकर उनकी सांस नार्मल हुई. उनके हाथ अब भी जेब में ही थे.

कोई पौन घंटे बाद गाड़ी रुद्रपुर लगी. कंडक्टर ने चिल्लाकर बताया पन्द्रह मिनट का ब्रेक है. आगे वाली सीटों के यात्री नीचे उतर रहे थे. अगली सीट की रेलिंग थामे, बौड़मों जैसा मुंह बनाए हरकुवा गांठी का सहयात्री उतरते हुए लोगों को देख रहा था. अचानक उसकी खोपड़ी पर एक झन्नाटेदार प्रहार पड़ा. फिर दूसरा. सेकेण्ड से पहले हरकुवा गांठी उसकी छाती पर सवार हो मुक्के बरसाते हुए चीख रहे थे – “छोटा किसको कह रहा था बे साले!”
(Harkuva Ganthi & His Anger)

अशोक पांडे

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