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कुमाऊं में दलित उत्पीड़न के खिलाफ़ आवाज उठाने वाले पहले पहाड़ी

अट्ठारहवीं शताब्दी में ब्रिटिश भारत के कुमाऊँ-गढ़वाल मंडलों में जातिवादी उत्पीड़न अपने चरम पर था. मुंशी हरिप्रसाद टम्टा का नाम उन राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं में प्रमुखता से लिया जाना चाहिए जिन्होंने इस सामाजिक भेदभाव के खिलाफ लड़ाई लड़ी और दलितों के उत्थान के लिए काम किया. हरिप्रसाद टम्टा जैसे योद्धाओं की वजह से ही आज उत्तराखण्ड के दलितों की स्थिति पहले के मुकाबले थोड़ा बेहतर दिखाई देती है.  
(Hariprasad Tamta)

26 अगस्त 1887 को अल्मोड़ा के गोविन्द प्रसाद और गोविंदी देवी के घर हरिप्रसाद टम्टा का जन्म हुआ. हरिप्रसाद टम्टा के भाई का नाम था लालता प्रसाद टम्टा और बहन का कोकिला देवी. इस पूरे परिवार ने सामाजिक राजनीतिक संघर्षों ही नहीं उद्योग व्यापार के क्षेत्र में भी ख़ासा नाम बनाना था. हरिप्रसाद के पिता ताम्र शिल्पी और व्यापारी थे. व्यापार में अच्छा दखल होने की वजह से ये अल्मोड़ा के संपन्न और सम्मानित परिवारों में से थे.  

14 साल की उम्र में हरिप्रसाद टम्टा की शादी पार्वती देवी से हुई. कम उम्र में ही इनके पिता का देहांत होने की वजह से उन्हें अपने मामा कृष्णा टम्टा के संरक्षण में आना पड़ा, जो कि बड़े व्यापारी होने के साथ सामाजिक कामों में भी सक्रिय रहा करते थे. मिडिल स्कूल तक की पढ़ाई बहुत कठिनाइयों से पूरी करने के बावजूद हरिप्रसाद टम्टा ने अरबी, फ़ारसी, अंग्रेजी और उर्दू में महारथ हासिल की. कई भाषाओं का विद्वान होने की वजह से उन्हें मुंशी की उपाधि मिली. ये वह समय था जब कुमाऊँ में अछूतों के लिए शिक्षा ग्रहण कर पाना नामुमकिन ही था. अछूत बच्चों को स्कूलों में दरी पर नहीं बैठने दिया जाता था. ऊपरी जातियों के लोग उन्हें घृणा की दृष्टि से देखा करते थे. घोर जातीय उत्पीड़न व सामाजिक तिरस्कार तो था ही.  
(Hariprasad Tamta)

समता के 6 मई 1935 के सम्पादकीय में हरिप्रसाद टम्टा लिखते हैं. “पच्चीस साल का लम्बा अरसा गुजर जाने के बाद भी मैं अब तक सन 1911 के उस वाकये को नहीं भूल पाया. सन 1911 में जॉर्ज पंचम का राजतिलक हुआ था. इस मौके पर अल्मोड़ा में भी दरबार हुआ. मुझे और मेरे भाई को उस दरबार में हिस्सा लेने का हक हासिल न हुआ. मुझे अब भी याद है कि कुछ लोगों ने यह तक कह डाला कि अगर मुझ जैसे दरबार में शामिल हुए तो बलवा हो जाएगा. मैं उन भाइयों का लाख-लाख शुक्रगुजार हूं जिन्होंने मुझे और मेरे भाइयों को सोते से जगा दिया. इन्हीं बातों की बदौलत मेरे दिल में इस बात की लौ लगी है कि मैं अपने समाज को इतना उठा दूँ कि लोग उन्हें हिकारत की निगाह से नहीं बल्कि मोहब्बत और बराबरी की नजर से देखें.

दरअसल जिस दिन अल्मोड़ा में जॉर्ज पंचम का दरबार था उस दिन हरिप्रसाद टम्टा अपने मामा कृष्णा टम्टा के साथ इस आयोजन में शामिल होने पहुंचे. हरिप्रसाद ने पंडाल और पोर्डियम की तरफ देखा. इनकी सजावट में इस्तेमाल हुआ कपड़ा हरिप्रसाद टम्टा ने ही दिया था. वे दोनों मंच के पास पहुंचे और देखा कि वहां कुर्सियां पड़ी हैं. जैसे ही उन्होंने बैठने की नीयत से कुर्सियों को पीछे खींचा तो उच्च जातियों के लोगों ने ऐसा करने से उन्हें रोका और कहा तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई हमारे साथ बैठने की. अपनी औकात में रहो. तुम अछूतों की जगह दूर उधर है वहां खड़े होकर देखो. तभी कृष्णा टम्टा ने कहा कि हमने इस आयोजन के लिए बहुत सारा पैसा दिया है. इस पर सवर्ण फिर चिल्लाये कि पैसा दिया है तो क्या हमारे साथ बैठोगे. दूर जाकर बैठो नहीं तो बलवा हो जाएगा. इस तिरस्कार और जातिसूचक गालियों के हमले ने हरिप्रसाद टम्टा के इस संकल्प को और मजबूत किया कि छुआछूत के उन्मूलन और दलितों के उत्थान की ओर और ज्यादा ठोस कदम बढ़ाने हैं.

1905 में अछूतों के सामाजिक उन्नयन के लिए हरिप्रसाद टम्टा द्वारा टम्टा सुधार सभा का गठन किया गया. जिसके उद्देश्य इस प्रकार थे—

शोषित जातियों के बीच शिक्षा का प्रचार-प्रसार
कला और शिल्पकला के क्षेत्र में युवाओं को प्रेरित करना.
पहाड़ी इलाकों में कुटीर उद्योगों की स्थापना.
लोगों को बेहतर स्वास्थ्य के लिए जागरूक करना.
युवाओं के मानसिक विकास के लिए योजनायें बनाना.
सामाजिक पिछड़ेपन के खिलाफ जागरूकता फैलाना.
युवाओं के बीच नैतिक शिक्षा का प्रचार.
रोजगार के माध्यम ढूंढने के साथ युवाओं के बीच स्वरोजगार को बढ़ावा देना.

सन 1914 में इसी टम्टा सुधार सभा का नाम बदलकर कुमाऊँ शिल्पकार सभा कर दिया गया. हरिप्रसाद टम्टा सर्वसम्मति से इसके अध्यक्ष चुने गए. वे ताउम्र अध्यक्ष बने रहे. सभा ने सरकार से मांग की कि—

कुमाऊँ में मुफ्त अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा दी जाये.
कुमाऊं के शिल्पकार मुस्लिमों की तरह ही पंचायत, डिस्ट्रिक्ट और म्युनिसिपल बोर्ड में अपना प्रतिनिधि भेज सकें.
पंजाब प्रान्त की तरह ही भूमिहीन शिल्पकरों को खेती की जमीन दी जाये.
शिल्पकारों के लिए ज्यादा संख्या में स्कूल खोले जाएँ.
उत्तराखण्ड के अछूतों के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले अपमानजनक शब्द डूम को प्रतिबंधित किया जाये और सरकारी कामकाज में इसकी जगह तत्काल शिल्पकार शब्द का इस्तेमाल हो.
सर्वकुमाऊनी शिल्पकार सम्मलेन की एक शाखा खोली जाये. जिसका काम बाल विवाह उन्मूलन, विधवा विवाह को बढ़ावा,
नशे से बचाव, बेहतर स्वास्थ्य, शिक्षा और हस्तशिल्प इत्यादि को बढ़ावा देना.            

हरिप्रसाद टम्टा के प्रयासों की वजह से 1913 में लाला लाजपत राय ने एक कार्यक्रम में सबसे पहले शिल्पकार शब्द का इस्तेमाल किया और उच्च जाति के लोगों से भी इसी शब्द का इस्तेमाल करने को कहा. उन्होंने अछूतों के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले अपमानजनक शब्दों के इस्तेमाल की निंदा भी की.

लम्बे संघर्ष के बाद 1926 में ब्रिटिश सरकार ने इस क्षेत्र के अछूतों के लिए शिल्पकार शब्द के इस्तेमाल को औपचारिक मान्यता दी और शिल्पकार सभा की तकरीबन सभी मांगें मान लीं.

सामाजिक सुधारों के अलावा व्यापार के क्षेत्र में भी हरिप्रसाद टम्टा बहुत दूरदर्शी थे. 1920 में उन्होंने ‘हिल मोटर्स ट्रांसपोर्ट कंपनी’ की स्थापना की. तब हल्द्वानी से पर्वतीय क्षेत्र की ओर पैदल ही जाया जाता था. हरिप्रसाद टम्टा की ट्रांसपोर्ट कंपनी अल्मोड़ा से नैनीताल और हल्द्वानी के लिए मोटर का सञ्चालन करने वाली पहली ट्रांसपोर्ट कंपनी है. इतना ही नहीं उन्होंने हल्द्वानी में वाहन प्रशिक्षण केंद्र खोलकर ड्राइविंग के लिए लोगों को ट्रेंड करना भी शुरू किया.

1931 में हरिप्रसाद ने गोलमेज सम्मेलन में पूना पैक्ट के लिए बाबा साहेब आंबेडकर का समर्थन करते हुए लंदन तार भेजा.  

हरिप्रसाद टम्टा यहीं रुकने वाले नहीं थे. 1934 में उन्होंने हिंदी साप्ताहिक समता का प्रकाशन शुरू किया. हरिप्रसाद टम्टा अछूतों की लड़ाई लड़ने वाले अकेले नहीं थे उनका पूरा परिवार ही इस लड़ाई का अगुआ था. हरिप्रसाद टम्टा की भतीजी लक्षमी देवी टम्टा न सिर्फ उत्तराखण्ड की पहली दलित ग्रजुएट थीं बल्कि समता की सम्पादक होने की वजह से उत्तराखंड की पहली महिला सम्पादक भी.

हरिप्रसाद टम्टा उत्तराखण्ड में दलित चेतना के अग्रदूत थे. 23 फ़रवरी 1960 को इलाहाबाद में अपनी देह त्यागने तक वे अछूतों के उद्धार के लिए संघर्ष करते रहे. आज भी उत्तराखण्ड में दलितों के संघर्ष हरिप्रसाद टम्टा के विचारों से प्ररणा पाते हैं और पाते रहेंगे.
(Hariprasad Tamta)

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Sudhir Kumar

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