गुडी गुडी डेज़
-अमित श्रीवास्तव
गुडी गुडी मुहल्ले के शोभा चाचा. नाम शोभनाथ या शोभाकांत जैसा कुछ रहा होगा. हमें यही मिला था बोलने को- शोभा चाचा. महीन, ज़हीन और सत्तर की उमर में भी ताज़ा तरीन दिखने वाले. महीन इतने कि बाल की खाल निकाल कर थोड़ी देर हाथ से मसलते फिर कहते `ओह मोटी रह गई ले लो पगहा बाँधने के काम आएगी!’ पगहा बंधता था या नहीं पता नहीं. ज़हीन ऐसे कि गीता के उपदेश से लेकर पप्पी ऑर्केस्ट्रा के चुटकुले तक कंठस्थ और ओष्टाग्र किये रहते. ज़रा सा मौक़ा मिला नहीं कि श्लोक के पिछवाड़े चिपकाए एक हंसगुल्ला परोस देते. इसीलिये बड़ी उम्र के लोग उनसे प्रभावित रहते और छोटे संक्रमित. उतना ही दिखते थे जितना दिखना चाहिए था. लेकिन जब दिखते तब अमूमन वही दिखते. उन्होंने अपने दिखने के नियम बना रक्खे थे. कोई नियम तोड़ता खट दिल पर ले लेते. बार-बार उसके दिखने का फरमान सुना देते.
चाचा हमें कहानी सुनाते थे. फिर मतलब बताते थे. कहानी में छिद्रान्वेषण खूब होता. उनके अरविंद नुमा मुख से सुनने में बड़ा मजा आता. किस्सा सुनाते हुए उनका मुंह खुलता नहीं खिलता था. कभी-कभी तो फूल शूल की खुशबू भी तैर जाती फिजाओं में. हम उनकी कहानी और चेहरे के गुंथे हुए छेदों को अलग करने में उलझ जाते.
जब कोई मिलने आता तो अपने नौकर को आवाज़ लगाते ‘अरे रामू… अरे दो कप चाय लाना.. ला.. ना’. रामू को ला और ना की संख्या के आधार ( संख्या और आधार अलग-अलग ही पढ़ो भई इतना भी तात्कालिक न हो जाओ) पर सोचना था कि चाय लानी या नहीं लानी.
तो किस्सा कोताह यों कि मुहल्ले के इकलौते मैदान में क्रिकेट हो रहा था. दो मैच हो चुके थे. तीसरा शुरू होने वाला था कि हल्ला हो गया. वैसे खेल और हल्ला अब साथ-साथ होने की परिपाटी पड़ चुकी थी. आज लेकिन शोर ज़्यादा था. मामला घिसा-पिटा और सदियों पुराना था. सनातन. मुहल्ले के इकलौते खेल के मैदान में खेलने वाले तेरह बच्चों की तीन टीमों में बैट इकलौता था और उस इकलौते बैट के स्वामी भी इकलौते ही थे. इकलौते बैट के इकलौते स्वामी चंदूजी बैट को जावेद मियांदाद की तरह सीने से चिपकाए खड़े थे और तीसरे मैच में भी पहली बैटिंग चाहते थे. हालांकि उन्होंने आख़िरी गेंद पर कोई छक्का नहीं मारा था. बाकी के खिलाड़ी अपनी-अपनी दावेदारी पेश कर रहे थे और लगभग एक साथ पेश कर रहे थे. बबलू बोंगा स्कोरबोर्ड से (पर नहीं से!) इशारे कर-कर के बता रहे थे कि चंदूजी ने पिछले तीन मैचों में आर्यभट्ट की खोज दी है टीम को. बबलू थक चुके थे और लगभग स्कोरबोर्ड उठा कर किसी के, किसी के भी, सर पर दे मारने वाले थे. स्कोरबोर्ड इटैलियन था. मतलब एक ईंट थी (इटली से कोई सम्बन्ध नहीं, कहा ना भई इतना भी तात्कालिक न हो जाओ) जिसपर स्कूल से चुराकर लाई गई चाक या टूटी खपरैल से रन लिखा जाता था.
उधर से गुजरते हुए शोभा चाचा ने उस वक़्त दिखने की ठानी थी सो दिख गए. खिलाड़ी अपनी-अपनी डफली और अपना-अपना खटराग, जो तमाम आरोहावरोह के बाद एक ही ताल पर टूटता था, लेकर पहुँच गए उनके पास. इजलास लग गई. खास बात ये थी इस इजलास की कि बोलने का मौक़ा सबको मिलता था यहाँ, मतलब जो-जो पहुँच रखता था यहाँ आने की. यहाँ सुनाई, बताई, समझाई गई बात माननी ही माननी थी. ऐसा माननीय शोभा चाचा का मानना था.
रज्जन सबसे पहले भागते हुए पहुंचे और जैसी की क़वायद थी पहले पहुँचने को सबसे बड़ी दावेदारी मानने के आलोक में शब्द खाते हुए बोले `मेरी फस्ट… होगी पिछला… जिताया भी है’
चंदूजी मय बैट पहुँच चुके थे और `बैट हमेरा है’ कहते हुए कतई क्यू से क्यू तक वाली जूही चावला से संस्कारित होने की वजह से मैं और हम के ट्रेड ऑफ में फंस गए थे. वो कठोर होते हुए भी क्यूट दिखना चाहते थे.
नंदन नकलोलू ने नाक खुजाते हुए रज्जन के पक्ष में दलील दी `इनने इन्ने रन बनाए हैं इन्नो पेली बेटिंग कन्ने दो’
इन तीन आप्त वाक्यों के बाद वही हुआ जो अभी मैदान के अन्दर हो रहा था. हल्ला. बाकी के खिलाड़ी नियम-हमने-बनाए-हैं-तो-हम-ही-तोड़ेंगे मुद्रा भरे पहुँच चुके थे और इसी मुद्रा को हाथ-पैर के इशारे और बातों के सहारे उगल रहे थे.
शोभा चाचा ने उन सबको थोड़ी देर हल्ला मचाने का मौक़ा भी दिया. अमूमन दिखता ये था कि उनके पास समय नहीं है लेकिन होता ये था कि समय ही समय दे देते थे वो सबको. कुछ हल्ले और कुछ मनन के बाद उन्होंने फैसला सुना दिया. `अगर तो बैट चंदू मियाँ का है तो इसलिए मियाँ पहले बैटिंग का हक़ रखते हैं लेकिन फिर भी समझो तथापि कोई और करना चाहे तो करने की बात करे तो समझो उसे करने दिया जाना चाहिए फिर भी करना बैटिंग उसको ही है जो बैट का मालिक अगर तो है. और तो और जो-जो इस बात को न माने उसे उसी तरह से मान लो कि कान पकड़कर उठक बैठक की सज़ा सुनाई जाती है.‘
अद्भुद! खिलाड़ी उनके इस प्रिज्म से इस पार अकेले घुसकर उसपार कई रंगों में निकलने वाली रेखाओं जैसे चमकीले निर्णय से प्रसन्न हुए. उन्हें पहले और बाद में बैटिंग की बात से ज़्यादा मज़ा कान पकड़- उठक बैठक में आ गया. चंदू चहक कर बोल उठे `ये तो अभी कल की ही भुगत रहे सज़ा’ नंदन नाक खुजाते हिनहिनाए ‘हम्ने कल्लिया इन्ने कन्ना रह गया है’ और रज्जन की ओर इशारा किया. इससे पहले कि रज्जन कोई राग अलापते शोभा चाचा की आवाज़ आई `पहले पूरा सुनो बीच मे मत टोको. ये अलग है सज़ा, एंड नाउ टॉक टू माई हैंड’
फिर उन्होंने बाकायदा दाहिने हाथ को घुमाकर अपनी नाक कवर करते हुए बाएँ कान को पकड़ा और बाएँ हाथ को निकाल जैसे ही ऐसा लगा कि सूंढ़ बनाने वाले हैं बाएं हाथ से दाहिने कान को पकड़ लिया. और बोले `ऐसे.’
हमेशा की तरह उनके निर्णय से बहुत से लाभकारी संदेश निकलते थे. पहला और सूक्ष्म लाभ ये था कि इससे बच्चे रेखागणित सीख लेंगे और न्यून कोण से प्रारम्भ किया जा सकता है.
बतखोर चा दूर से देख रहे थे लपककर बोले ‘गुरूजी कतई सम द्विबाहू त्रिकोण हुए जा रहे हो, बस आधार (? !!) ज़रा और चौड़िया लो’
शोभा चाचा नाराज़ होने को आए फिर जाने उन्हें और क्या आया कि `जाकी रही भावना जैसी…’ जैसा कुछ इशारा किया और चले गए अपनी खोह में.
खिलाड़ी वक्रतुंड बनने और समद्विबाहु बनाने के बीच अपना ही कान उमेठते आज भी फिर रहे हैं.
पुनश्च: शोभा चाचा की आत्मा को कल माननीय उच्चतम न्यायालय के ऊपर से उड़ता देखा गया था.
(बतखोर चा कौन थे जानने के लिए पढ़ते रहें गुडी गुडी डेज़.)
डिस्क्लेमर– ये लेखक के अपने विचार हैं.
उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता).
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