फोटो : सुधीर कुमार
उत्तराखंड की पहाड़ियाँ जितनी शांत और सुंदर हैं, उतनी ही रहस्यमय भी. यहाँ के गाँवों में आज भी कुछ परंपराएँ जीवित हैं जो देवता, विश्वास और डर — तीनों को एक साथ जोड़ती हैं. ऐसी ही एक परंपरा है — “घात” या “घात डालना”, जिसे लोग तब अपनाते हैं जब किसी व्यक्ति पर बड़ा अन्याय या अनिष्ट हो गया हो.
(Ghaat Daalna Mysterious Tradition Uttarakhand)
गाँव के लोग मानते हैं कि जब कोई गंभीर अपराध या चोट पहुँचाता है, तो देवता स्वयं न्याय करते हैं. “घात” उसी दैवीय हस्तक्षेप को बुलाने की प्राचीन विधि है. इस अनुष्ठान में गाँव का पुजारी देवता की मूर्ति पर, “सत्नाजो” यानी अनाज के दाने फेंकता है — यह देवता की अंतरात्मा को जगाने का प्रतीक होता है. माना जाता है कि जिस परिवार पर ‘घात’ डाली गई हो, वह बीमारी या दुर्भाग्य का शिकार हो जाता है.
हालाँकि, ‘घात पूजा’ नामक एक अन्य विधि से इस प्रभाव को शांत भी किया जा सकता है. यह विश्वास आज भी पहाड़ के कई इलाकों में जीवित है.
उत्तराखंड के समाज पर तंत्र-मंत्र की परंपराओं का गहरा प्रभाव रहा है. तंत्र में विशेष वस्तुओं, जैसे – बाल, खोपड़ी, पंख, नाखून आदि का प्रयोग किया जाता था. मंत्र में तांत्रिक द्वारा गूढ़ शब्दों और श्लोकों का उच्चारण किया जाता था और यंत्र में विशिष्ट रेखाचित्रों या प्रतीकों का प्रयोग कर सफलता प्राप्त करने की कामना की जाती थी.
(Ghaat Daalna Mysterious Tradition Uttarakhand)
कहा जाता है कि इन तीनों की संयुक्त शक्ति से “कुछ भी संभव” माना जाता था. यह विश्वास संभवतः वज्रयान बौद्ध धर्म या शाक्त परंपरा के प्रभाव से पहाड़ों में पनपा.
कुमाऊँ का प्रसिद्ध जागेश्वर मंदिर समूह सिर्फ पूजा का स्थान नहीं था, बल्कि तांत्रिक साधना का भी प्रमुख केंद्र रहा. कहा जाता है कि यहाँ महामृत्युंजय मंदिर में अनेक तांत्रिकों ने अपनी सिद्धि के लिए प्राण तक त्याग दिए. यहाँ कापालिक और अघोरपंथी साधु, शवों पर बैठकर साधना करते थे, जिससे उन्हें अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त हों.
इतिहास में दर्ज है कि चंद वंश के कई राजा — जैसे कल्याण चंद — तांत्रिक शक्तियों पर गहरा विश्वास रखते थे. माना जाता है कि कल्याण चंद ने अपने पुजारी को, बंगाल तक भेजा ताकि वह गूढ़ तांत्रिक विद्या सीखकर लौटे और गढ़वाल के शासक पर विजय दिला सके.
(Ghaat Daalna Mysterious Tradition Uttarakhand)
गढ़वाल और कुमाऊँ दोनों ही क्षेत्रों में नाथ पंथ का प्रभाव व्यापक था. गढ़वाल के राजा अजय पाल बाबा गोरखनाथ के बड़े भक्त थे — उन्होंने देवलगढ़ में नाथ पीठ की स्थापना की थी. कुमाऊँ के राजा कीर्ति चंद (१४८८–१५०३ ई.) भी बाबा नागनाथ के भक्त थे. उनके कई युद्ध-जीतों का श्रेय बाबा की कृपा को दिया गया. आज भी गढ़वाल के कई गाँवों में गोरखनाथ मंदिर पाए जाते हैं, जो इस प्राचीन परंपरा के जीवित प्रतीक हैं.
उत्तराखंड की लोकसंस्कृति में आज भी देवता, तंत्र और विश्वास — तीनों का अनोखा संगम देखने को मिलता है. “घात” की प्रथा, जागेश्वर की तांत्रिक साधनाएँ, और गोरखनाथ की परंपरा — सब मिलकर यह दर्शाते हैं कि यहाँ का समाज केवल प्रकृति-प्रेमी ही नहीं, बल्कि अलौकिक शक्तियों में गहरा विश्वास रखने वाला भी रहा है.
(Ghaat Daalna Mysterious Tradition Uttarakhand)
संदर्भ ग्रन्थ : गोपाल भार्गव की किताब Encyclopaedia of Art and Culture in India – Uttarakhand इसी किताब के अध्याय “Ghata or Divine Intervention” से प्रेरित सामग्री पर आधारित है. इस विश्वकोश में उत्तराखंड की लोक-संस्कृति, धार्मिक परंपराओं और कला के विविध पहलुओं का विस्तृत उल्लेख मिलता है.
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