साठ के दशक से पूर्व नगर में एक फकीर घूमा करता था, नाम था उसका किशना पागल. वह अपनी मर्जी से जहां चाहे चला जाता था और जब चाहे किसी के दरवाजे पर बैठ जाता उसके बारे में यह मशहूर था कि प्रातः काल नंग-धड़ंग होकर जिसके दरवाजे के आगे वह खड़ा हो जाता, वह कुछ ही दिनों में मालामाल हो जाता था. उसकी गाली सुनने के लए भी लोग बेताब रहते थे.
अक्सर हमें कई प्रकार के चमत्कार देखने को मिलते हैं यद्यपि वैज्ञानिक दृष्टि से ऐसे चमत्कारों का कोई आधार नहीं होता है और न इन्हें वैज्ञानिकता की कसौटी पर परखा ही जा सकता है. किन्तु कभी-कभी ऐसा लगता है कि विज्ञान ने या तो इन्हें अंधविश्वास की संज्ञा देकर उपेक्षित सा कर दिया है या या विज्ञान अभी इन चमत्कारों के रहस्य तक पहुंचा ही नहीं है.
इसी तरह का हल्द्वानी में एक चमत्कारी व्यक्तित्व है ‘लाल सिंह बोरा.’ हल्द्वानी के बमोरी में रहने वाले लाल सिंह बोरा झाड़-फूंक के लिये प्रसिद्ध व्यक्त्यिों में से हैं. देश-विदेश से बड़ी संख्या में पीड़ित लोग उनके पास अपना इलाज करवाने के लिये आते हैं. मूल रूप से सोमेश्वर का बोरा परिवार ग्राम बड़ौन पट्टी चैगड़, तहसील धारी (नैनीताल) आकर रहने लागा था. यहीं से लाल सिंह ने जंगलात में नौकरी की शुरूआत की और वह पतलोट में तैनात थे. सन 1967 से वह जिस प्रकार लोगों को स्वास्थ्य लाभ दे रहे हैं, उसे वह दैवीय कृपा मानते हैं.
लाल सिंह बताते हैं कि पतलोट में तैनाती के दौरान एक दिन स्वप्न में देवी ने उन्हें अस्वस्थ्य के इलाज की पूरी विधि बताई. उसी समय उनके साथ के कर्मचारी मनमोहन को फालिज पड़ गया था. स्वप्न में बताये गये उपाय के अनुसार उन्हेांने ‘सिंवाली’ की टलनी जिसे मैदान में ‘म्यूड़ी’ भी कहते हैं, से मनमोहन को झाड़ा और वह ठीक हो गया. बोरा बताते हैं कि उस दिन से आज तक वह इस प्रकार के रोगियों का इलाज कर रहे हैं, फालिज, बायु-बात, पीलिया, हड्डी के रोगी उनके पास देश-विदेश से लगातार आते हैं और उनके घर पर लोगों की निरन्तर भीड़ लगी रहती है. वे दिन हो या रात हर आने वाले का इलाज निःशुल्क बिना तनाव के करते हैं और देखा गया है कि डाक्टरी इलाजों के बाद निराश हो आए लोग उनके पास आकर स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करते हैं. आयुर्वेद के जानकारों का मानना है कि सिंवाली डाइबिटीज की अचूक औषधि है.
एकदम सरल- सहज स्वभाव के श्री लाल सिंह बताते हैं कि पीलिया झाड़ने का काम तो उनके बुजुर्ग भी करते थे लेकिन अब उनके पास भीड़ ज्यादा है. वह बताते हैं कि झाड-फूंक की इस विधा को किसी को सिखाया भी नहीं जा सकता है क्योंकि इसके दुरूपयोग होने का भय रहता है. वह कहते हैं –किसी को क्या सिखाएं, जिस प्रकार उन्हें यह विद्या मिली है वैसे ही किसी को दूसरे को भी यह मिल ही जायेगी.
इसी तरह पिछले डेढ़ सौ साल से जगतपुर गौलापार का बर्गली परिवार हड्डी जोड़ने की जड़ी निशुल्क लोगों को देता आ रहा है. बर्गली परिवार के परिजनों द्वारा दी जाने वाली इस जड़ी के लिए डाक्टरी इलाज व प्लास्टर चढ़ने के बाद भी लोग यहां आया करते हैं. वर्तमान में इस परिवार के बुजुर्ग मोहन सिंह बर्गली बताते हैं कि उनके परदादा नरसिंह गांव में आम के बगीचे में रहने वाले एक साधू को दूध देने जाते थे. एक दिन गाय का पैर टूट गया. साधू ने जंगल से एक जड़ी लाकर दी और कहा कि कालीमिर्च के पांच दानों और शुद्ध घी के साथ घोल बनाकर पपीते के पेड़ की नली से गाय के मुंह में डाल देना. गाय का पैर जुड़ गया. तब से उनका परिवार इस जड़ी को जरूरतमंदों को देता आ रहा है.
‘श्यामलाल कबाड़ी’ यह नाम हल्द्वानी की मण्डी ही नहीं पहाड़ में दूर-दूर तक जाना जाता है. ये श्यामलाल थे कौन और इन्हें ‘कबाड़ी’ क्यों कहा जाने लगा आज इस बात को कोई नहीं जानता है. ग्वालियर स्टेट के चौधरी कल्लू मल का न्याय विभाग में दखल था. इनके तीन पुत्र थे –शिवनारायण, शिवचरण और राधाकृष्ण. यह परिवार तीर्थस्थल सोरों जिला ऐटा में आकर रहने लगा. शिवनारायण के पुत्र थे –श्यामलाल. माता-पिता के निधन के बाद चाचा राधाकृष्ण ने श्यामलाल को पाला. 1890 में 12 साल की उम्र में श्यामलाल हरिद्वार भाग आये और कुछ समय तक मेहनत-मजदूरी करने के बाद हल्द्वानी आ गये. हल्द्वानी में भी इन्होने नौकरी-चाकरी की और फिर चौक बाजार में मो. इरफान के किराये पर हलवाई की दुकान खोली. चौक बाजार में दोमंजिले भवन में अंग्रेजों की चौकी थी और नीचे घुड़साल. यह स्थान हल्द्वानी का केन्द्र बिन्दु था. कोई भी बड़ा अफसर हो या नेता सबके बैठने का अड्डा श्यामलाल की दुकान हो गई थी. श्यामलाल की मित्र मण्डली में भीष्मदेव वशिष्ठ, बाबूराम वर्मा सुनार, गोपीनाथ सिंघल, शमशाद हुसैन, जुगलकिशोर मोंगिया, शंकरलाल शर्मा थे.
तब चौक बाजार में श्यामलाल जी की दुकान के पास शिवचरण सियाराम के नाम से जलेबी की प्रसिद्ध दुकान थी और फूलचन्द की भी हलावाई की दुकान हुआ करती थी. उस समय हल्द्वानी, रामनगर, हरिद्वार सहित काफी बड़े क्षेत्र वन विभाग का एक स्टेट था. इस पूरे जंगल क्षेत्र में मालू के पत्तों का ठेका श्यामलाल के पास था. मालू के पत्ते तोड़ने के लिये नेपाल से तक मजदूर आया करते थे. बैतड़ी (नेपाल) के परमानन्द पाण्डे इस कार्य को देखते थे. उनके साथ दशरथ नामक तांगे वाला भी था, जिनके तांगे में मालू के पत्ते इकट्ठे कर हल्द्वानी में जमा होते थे. मालू के इन पत्तों को हल्द्वानी व इसके आस-पास के अलावा अल्मोड़ा, हरिद्वार व मेरठ तक के व्यापारी ले जाया करते थे.
1920 के करीब सुल्तानपुर पट्टी, काशीपुर इत्यादि स्थानों पर शराब के ठेके थे और हल्द्वानी रेलवे बाजार में एकमात्र शराब का ठेका खुला. इनके ठेके भी श्यामलाल ने ले लिये. सुल्तानपुर की बाजार में इनका मुंशी बैठा करता था. तब इनकी आढ़त और घी का कारोबार था. शायद दिलबाग राय दिलबर की साझेदारी में एक दुकान इन्होने नैनीताल में भी खोली.
द्वितीय विश्व युद्ध के समय आम लोगों को कपड़े उपलब्ध नहीं थे. ऐसे में श्यामलाल ने लाहौर-करांची जाकर सस्ते कपड़े की खरीद की और उन्हें हल्द्वानी में बेचा. उस समय लाहौर कपड़े की सबसे बड़ी मण्डी थी. आने-दो आने में लोगों को तन ढंकने का कपड़ा उपलब्ध कराने वाले श्यामलाल की दुकान तब से श्यामलाल कबाड़ी के नाम से प्रसिद्ध हो गई. धीरे-धीरे इस दुकान में जूते, बरसाती व अन्य जरूरत की सामग्री के अलावा पुलिस और मिलट्री की वर्दियां, बूट और तमाम तरह की सामग्री भी जुटाई गई. यानि कि जो सामान कहीं नहीं मिल पाता था, वह श्यामलाल कबाड़ी की दुकान में मिलता था. आज भी हल्द्वानी मण्डी में इस प्रतिष्ठान की प्रसिद्धि है.
चौक बाजार में वर्तमान में जहां श्यामलाल कबाड़ी की दुकान है, इसी के दुमंजिले में पहले यह परिवार रहा करता था, अब रामपुर रोड में इनका निवास स्थान है. अपने बचपन को याद करते हुए श्यामलाल के पुत्र रवीन्द्र कुमार बताते हैं कि छुटपन में जब कभी वह अपने मित्रों के साथ स्कूल से भाग जाया करते और छुट्टियों के समय भी रामपुर रोड में बेर खाने जाया करते थे. पूरा रामपुर रोड बेरों का जंगल था. सन 1955 के करीब मंगल पड़ाव से लगी रामपुर रोड की जमीन खीमानन्द के परिवार ने बेचनी शुरू की. सन 1964 में इनका परिवार भी गली नं. 3 में बस गया. सरकारी बाग में बच्चे चोर-सिपाही खेलते थे. तब हल्द्वानी में बगीचे ही बगीचे थे. कालाढूंगी चौराहे पर कालू सैय्यद मन्दिर पर पेड़ के नीचे दिया टिमटिमाता रहता था, जो आने-जाने वालों को सुकून देता था. तब भूत-प्रेतों की बातें भी बुजुर्ग करते थे. घने पेड़ों के सरकारी बाग में वह खूब खेले हैं, लेकिन उन्होंने ऐसा कभी भी कुछ नहीं देखा. अब शहर में वह चैन कहां? चारों ओर कब्जेदार है और दबंगई चल रही है. श्यामलाल, शंकरलाल आर्यसमाज के कर्ताधर्ता थे. महाशय गोविन्द राम बर्तन वालों की दुकान ही पहले आर्य समाजियों का अड्डा बनी. इस स्थान पर साप्ताहिक सत्संग हुआ करता था. आर्य समाज की अथाह सम्पत्ति इस नगर में रही है. जिस प्रकार बद्री-केदार के नाम पर लोगों ने दान में अपनी सम्पत्तियां दीं, ठीक उसी प्रकार आर्यसमाज के नाम पर दानवीरों ने अपनी सम्पत्ति दी. बाद में उस पर कब्जा होने लगा. तब चौक बाजार पर भी आर्य समाज की जमीन थी. अंग्रेजों ने इस भूमि को आर्यसमाज के लिये दिया, जो पुराने रिकार्ड में दर्ज है लेकिन कुछ लोगों ने इस भूमि को हड़प लिया. छीतरमल ने रामपुर रोड में पेट्रोल पम्प से लगा अपना बगीचा आर्यसमाज को दान में दिया था. इसी प्रकार रेलवे बाजार में भी आर्य समाज की सम्पत्ति है.
(जारी)
स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक ‘हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से’ के आधार पर
पिछली कड़ी का लिंक: हल्द्वानी के इतिहास के विस्मृत पन्ने- 62
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