यहां भाबर के लिए एक शब्द अक्सर प्रयोग में लाया जाता है ‘भबरी जाना,’ यानि खो जाना. यह बात पहले भी कही जा चुकी है कि इस खो जाने की प्रक्रिया को भबरिया कहा जाने लगा. ऐसा शब्द किसी भी शब्दकोश में नहीं मिलेगा लेकिन. इसका अर्थ केवल खो जाना मात्र ही नहीं है. ये शब्द तो बहुत पुराना है लेकिन इसका अर्थ खो जाना मात्र ही नहीं है. यह खो जाना कई अर्थों को अपने में समेट कर चलता है. अपनी सभ्यता,संस्कृति, कला, आचार-व्यवहार इन सब से विरत हो जाना भी खो जाना ही तो है. यह शब्द तो बहुत पुराना है, तब भबरी जाना या खो जाना शायद किसी अन्य अर्थों में प्रयुक्त होता होगा. शायद पहाड़ की परंपराओं, सांस्कृतिक मूल्यों, आचार-व्यवहार से विरत हो जाना रहा होगा. यहां के बीहड़ जंगलों में एक दिशाहीनता में भटक जाना होगा. व्यक्ति और ना जाने क्या-क्या होता होगा. लेकिन यदि इस शब्द का असली अर्थ तलाशना हो तो वह आज तलाशा जा सकता है. सचमुच आज हल्द्वानी में आदमी भबरी गया है, खो गया है.
एक समय था जब यहां मुफ्त में बसने के लिए सरकारी सहयोग मिलता था. जमीन में चाहरदीवारी करवा दी जाती थी मकानों की तैयारी के लिए मेहनताना मिलता था. चारों ओर लहराते आम अमरूद के बगीचे थे. बाद में लीची भी इन बागानों में झूलने लगी. शहर और उसके आसपास बगीचे और साल, शीशम, खैर, पाकड़, वटवृक्ष के अलावा कई अमूल्य वनस्पतियों से आच्छादित था यह क्षेत्र. बरेली रोड अब्दुल्लाह बिल्डिंग के बाद रामपुर रोड पीपुल्स कॉलेज के बाद कालाढूंगी रोड मुखानी नहर के बाद हीरानगर शीशम बाग और मुखानी ने से काठगोदाम तक सब जंगल ही तो था. बीच-बीच में गांव और उन गांवों के बीच से जाती कल-कल, छल-छल करती नहरें. हीरा नगर से पश्चिम की ओर वाली नहर में सिंचाई विभाग की एक पनचक्की थी. पीयरसनगंज. भोटिया पड़ाव, दोनहरिया के पास हल्दुचौड़ तथा अन्य स्थानों में पनचक्कियां थी, जिन्हें ठेके पर दिया जाता था. तब गांवों में पनचक्की में पिसे आटे से हाथ की चक्की का आटा अच्छा माना जाता था और शहर में मिल के आते से पनचक्की का आता अच्छा माना जाता था. आईटीआई वाले एरिया की ओर बह रही नहर के दोनों ओर घनी झाड़ियां, बड़े वृक्ष व आम, लीची, कटहल के बगीचे थे. इस नहर के किनारे घूमने में बड़ा ही आनंद मिलता था.
नहर के किनारे झाड़ियों में कहीं-कहीं कौंच की झाड़ियाँ भी हुआ करती थी. इसमें फलियां होती हैं, फलियों के अंदर बीज लगता है. बीज बहुत सख्त होता है, उसे तोड़ कर पानी के साथ पत्थर में घिसने से गोंद की तरह चिपचिपा पदार्थ निकलता है. इसका बीज बहुत पौष्टिक माना जाता है. कहा जाता है कि राजा-महाराजा, बादशाह लोग इसकी खीर खाया करते थे. इसकी गिनती वीर्यवर्धक औषधियों में की जाती है. लेकिन इसकी फलियों के बाहर जो रोयें चिपके रहते हैं वह बहुत खतरनाक हुआ करते हैं. यदि भूलवश या हवा के साथ उड़ कर यह रोयें शरीर से छू जाएं तो असहनीय खुजली शुरू हो जाती है. खुजलाने के बाद हाथ जहां-जहां लगता है वहीं खुजली शुरू हो जाती है.
लाजवंती छुईमुई की झाड़ियां भी काफी होती थी. लाजवंती के बीज भी औषधि गुण वाले होते हैं. आईटीआई से पहले जंगलात की एक नर्सरी भी हुआ करती थी. इस नर्सरी के चारों ओर चंदन के पेड़ भी बहुत थे. आईटीआई पहले बरेली रोड में गौजाजाली के निकट थी जो बाद में यहां स्थानांतरित हुई. मुखानी से आगे हरे-भरे खेत व बगीचे थे. दयाल कॉलोनी, बसंत विहार, कृष्णा कॉलोनी, आनंद विहार, अशोक विहार, दुर्गा कॉलोनी, चंद्रावती कॉलोनी, श्याम गार्डन, जेके पुरम, रौतेला कॉलोनी, रूपनगर, जज फार्म की अनेक गलियों के बाद डहरिया, छडायल मानपुर तक बसी अलीशान कॉलोनियों ने हरियाली को लील लिया है और नहर के किनारे घूमने का आनंद ना केवल अतीत का हिस्सा बन गया है बल्कि काठगोदाम से सुशीला तिवारी अस्पताल तक इस नहर को पटालों से ढककर चौड़ा रास्ता तैयार कर दिया गया है.
हल्द्वानी में पीली कोठी एक बड़ा क्षेत्र है लेकिन इसकी शुरुआत एक कोठी से हुई थी. इलाहाबाद से होम्योपैथिक डॉक्टर जयदत्त गुरु रानी 1928 में हल्द्वानी आकर रहने लगे थे. शुरू में मुखानी चौराहे पर वह किराए पर रहे. बाद में उन्होंने लाल डांठ से पहले एक बड़े क्षेत्र को खरीद लिया और वहां एक मकान बनवाया, जिसके चारों ओर लहलहाती फसल हुआ करती थी और आम का बगीचा भी था. उन दिनों मकानों की पुताई चूने से ही हुआ करती थी किंतु उन्होंने उसे पीले रंग से पुतवा दिया. इसलिए उसे पीली कोठी नाम दिया गया. वर्तमान में यहां का पूरा इलाका ही पीली कोठी कहा जाने लगा है और मूल पीली कोठी का पता नहीं.
आईटीआई से उत्तर की ओर एक विशाल भूखंड जहां अब घनी बसासत हो गई है जज फार्म के नाम से जाना जाता था. जज फार्म अंग्रेजों के जमाने के जज घनश्याम दास के नाम पर था. गुजरात के अहमदाबाद के मूल निवासी घनश्याम दास आगरा की नमक मंडी में आकर रहने लगे थे. अंग्रेजों के जमाने के जज घनश्याम दास को अंग्रेज सरकार ने उत्तराखंड भेज दिया. तब कुमाऊं-गढ़वाल की एक कोर्ट थी और जज नैनीताल और टिहरी में बैठा करते थे. इन्हीं के सेवाकाल में मशहूर सुल्ताना डाकू का सेशन ट्रायल नैनीताल में हुआ था. बाद में सुल्ताना को आगरा में फांसी दे दी गई.
सन 1940 में सेवानिवृत्त होने के बाद जज साहब अपने गांव आगरा जाने लगे तो गवर्नर शैली ने उनसे पूछा, तुम आगरा जाकर क्या करोगे. यह उत्तर मिलने पर कि गांव में ही खेती-बाड़ी करेंगे, गवर्नर शैली में जज साहब से कहा कि यहीं रहकर खेती-बाड़ी करो. इसके बाद हल्द्वानी में उन्हें जमीन अलॉट करा दी गई. 75 एकड़ भूमि का बड़ा क्षेत्र जज साहब के पास आ गया, लेकिन यह पूरा इलाका जंगल था और जंगली जानवर यहां विचरण किया करते थे. 1940-50 के बीच जज साहब का पूरा परिवार हल्द्वानी आ गया और यहीं रहने लगा. जिस स्थान पर यह लोग रहते थे उसे जज फार्म कहा जाने लगा. एलॉट की गई इस भूमि को सन 1972 में भूमिधरी का पट्टा मिला. फार्म की सिंचाई के लिए मुखानी की मुख्य नहर से एक पक्की गूल भी उन्हें दी गई.
घनश्याम दास के पुत्र बृजेंद्र कुमार स्वतंत्रता आंदोलन की गतिविधियों में ज्यादा सक्रिय थे और आगरा में बम बनाते समय उनका एक हाथ खराब हो गया. जज साहब के सेवानिवृत्त होने और बृजेंद्र कुमार के अंग्रेजों के खिलाफ मुहिम में शामिल हो जाने के बाद पूरे परिवार ने आगरा से हल्द्वानी में बस जाने का निर्णय ले लिया. बृजेंद्र ने जेल रोड में सन 1958 में एक कोठी बनाई जिससे 78 में बेच दिया और वह लखनऊ चले ग
बरेली रोड अब्दुल्लाह बिल्डिंग से आगे हल्द्वानी के गिने-चुने पुराने बंगलों में से एक बंगला सती परिवार का है. उस समय इस तरह के बंगले सांगुड़ी गार्डन, ऐशबाग, भोलानाथ गार्डन, तिकोनिया, काठगोदाम आदि स्थानों पर थे. रानीखेत से गोपी बल्लभ सती कारोबार के सिलसिले में आए और जंगलात के ठेकेदारी का काम करने लगे. 1936 में यह बंगला उन्होंने खरीदा. भाबर में बसने-बसाने की प्रक्रिया में बहुत से लोग जो मेहनती व साहसी थे यहाँ बस गए. सती परिवार को भी कालाढूंगी में 120 एकड़ भूमि इसी प्रक्रिया के तहत अलॉट हुई.
रामलीला मैदान, स्टेशन रोड से तिकोनिया को जाने वाली सड़क के अलावा शहर के कई स्थानों पर विशाल वट वृक्ष हुआ करते थे. तिकोनिया रोड पर एक ओर जंगलात का ऑफिस व कॉलोनी और दूसरी ओर, जहां आजकल मोटर पार्ट्स की दुकान व वर्कशॉप है, विशाल वट वृक्षों के नीचे कुष्ठ रोगियों के अड्डे थे. बरसाती नहर के पास भीतर की ओर स्टेट बैंक ऑफ इंडिया था. नुमाइश मैदान जिसे अब स्टेडियम कहा जाता है में पाखड़ के विशाल वृक्ष थे. इस मैदान को स्टेडियम में बदले जाने का प्रयास युवा एडवोकेट सुरेंद्र सिंह रावत करते रहे. उस वक्त किसी को यह पता नहीं था कि स्टेडियम बन जाने से नगर का यह एकमात्र खुला स्थान बंद हो जाएगा और आम आदमियों के लिए तथा अनेक सार्वजनिक कार्यक्रमों के लिए प्रतिबंधित हो जाएगा. थाने व तहसील प्रांगण में तथा मुख्य डाकघर के सामने बरेली रोड पर कई विशाल पाखड़ के पेड़ थे. तिकोनिया स्थित गोविंद बल्लभ पंत पार्क में भी एक विशाल पाखड़ का वृक्ष था जिसकी घनी शीतल छाया में लोग गर्मी से निजात पाया करते थे. इस हरियाली के बीच हल्द्वानी का अपना इतिहास छिपा था. इन्हीं वृक्षों के तले जाड़ों में पहाड़ से आने वाले लोग पड़ाव डाला करते थे. लेकिन आंधी में सभी वृक्ष धराशाई हो कर रह गए. आस-पास के हवा रोकने वाले पेड़ों का ही जब सफाया हो गया तो कम गहरी जड़ों वाले पाखड़ के पेड़ों का ढह जाना स्वाभाविक ही था. यह पेड़ गिर कर भी हरे रहने की ताकत समेटे रहते. लेकिन कब तक आदमी की धौंस बर्दाश्त करते रहते.
काठगोदाम नरीमन बिल्डिंग में केएमओयू का दफ्तर था जो आज भी है. उसके सामने भी एक बहुत बड़ा पाखड़ का पेड़ था. उसी से लगे पुराने मकान में केएमटी वर्कर्स यूनियन का दफ्तर था. पंडित नारायण दत्त तिवारी जब वर्कर्स के नेता थे तब यहीं बैठा करते थे. आरके सिंह ने इस यूनियन का गठन किया था. शीशम बाग में शीशम व खैर का घना जंगल था. यहां जंगलात विभाग की कॉलोनी बनी और पेड़ों का कटान शुरू हो गया. 1955 में गवर्नमेंट ऑफिशल्स को को ऑपरेटिव हाउसिंग सोसायटी को डिफॉरेस्टेशन कर भूमि दी गई और इस सोसाइटी के सदस्यों को बसाया गया. इसे अब हीरा नगर नाम से जाना जाता है इसी तरह नगरपालिका के कर्मचारियों तथा अन्य लोगों को सुभाष नगर व आवास विकास में बसाया गया. जंगलात विभाग ने भी यहां के सदाबहार जंगलों को उजाड़ कर यूकेलिप्टस और सागौन के वृक्षों का प्लांटेशन शुरू कर दिया. इन वृक्षों के लग जाने से मौसम में भी खुश्की आ गई. यह पेड़ धरती के भीतर का संचित जल तो सोख लेते हैं वातावरण भी ख़ुश्क कर देते हैं. कैश क्रॉप का नाम देकर ग्रामीणों को भी यूकेलिप्टस के वृक्षों को लगाने के लिए प्रेरित किया गया. तात्कालिक आर्थिक लाभ के लिए लोग भला असंतुलित होते वातावरण की परवाह क्यों करने लगे.
नवाबी रोड नाम तो था लेकिन यह सड़क एक पगडंडी जैसी थी. कहते हैं कि रामपुर का नवाब इस रास्ते से घोड़े पर सवार होकर नैनीताल आया-जाया करता था. उस अय्याश किस्म के नवाब से बचने के लिए मुख्य मार्ग और यहां की तत्कालीन बस्ती से हटकर यह मार्ग खोला गया था. डिग्री कॉलेज के पीछे जगदंबा नगर का हिस्सा भी पेड़ों और झाड़ियों से ही आच्छादित था. डिग्री कॉलेज से लगा दुर्गा सिटी सेंटर, आवास विकास, सुभाष नगर, गुरु नानक पुरा, गोविंदपुरा के बगीचे परमा लाल साह के बगीचे कहे जाते थे. 1955 में गुरु नानकपुरा व गुरु गोविंदपुरा के बगीचे काटकर सिख विस्थापितों को बसाया गया. विस्थापितों को बसाने में सरदार इंद्रजीत सिंह ने पहल की. यहां पहली कोठी मेला राम ने बनवाई तथा दूसरी बंता सिंह ने. इंद्रजीत सिंह ज्ञानी निर्मल सिंह के भांजे थे. ज्ञानी जी सन 1947 से पहले ही यहां बस गए थे. सिख नेताओं और आम समाज में उनका बहुत आदर था. तिकोनिया के पास बंता सिंह की आरा मशीन थी जहां ट्रकों की, गाड़ियों की बॉडी बनाने का काम भी होता था. वर्तमान में सिखों द्वारा संचालित तीन बड़ी संस्थाएं खालसा नेशनल गर्ल्स इंटर कॉलेज, गुरु तेग बहादुर सीनियर सेकेंडरी स्कूल और गुरुद्वारा इस इलाके में हैं. तिकोनिया में जिसे आज पीडब्ल्यूडी का विश्राम गृह कहा जाता है को कंकरकोठी के नाम से जाना जाता था. डिग्री कॉलेज व इंटर कॉलेज से लगा विद्यालय का ही एक बहुत बड़ा फील्ड अभी खाली पड़ा है. इसी से लगा ईसाइयों का कब्रिस्तान था जिसके चारों ओर चारदीवारी लगा दी गई है. दुर्गा सिटी सेंटर आम का बगीचा काट कर बनाया गया है. हाल ही तक यह जगह वीरान थी. कुल्यालपुरा भी अच्छी जगह नहीं मानी जाती थी. 1968 में वहां 24 मकान ही थे. नहर के पार गांव और शहर की ओर घनी झाड़ियां थी. तिकोनिया रोड पर महेंद्र सिंह बेदी का आवास है. महेंद्र सिंह बेदी महात्मा गांधी के साथ रहे थे. वह शांत व निर्मल स्वभाव के व्यक्ति माने जाते थे पूर्व में लाल कुआं तक गौला नदी में हिंदुस्तान क्वेरीज और हल्द्वानी स्टोन कंपनी के नाम से रेता बजरी का कारोबार उन्हीं का था. तब आजकल की तरह मशीनों से गौला को उधेड़ देने वाली स्थिति नहीं थी और ना आज की तरह गौला नदी माफियागर्दी का माध्यम थी.
(जारी)
स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक ‘हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से’ के आधार पर
पिछली कड़ी का लिंक: हल्द्वानी के इतिहास के विस्मृत पन्ने : 37
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