उत्तराखण्ड नियति के भरोसे चलने वाला राज्य बनकर रह गया है. अन्य हिमालयी राज्यों की तरह इस राज्य के सामने हमेशा ही प्राकृतिक रूप से ज्यादा चुनौतियाँ रही हैं और आज भी हैं. राज्य के नीति नियंताओं ने इन चुनौतियों से जूझने के लिए कोई कारगर तंत्र विकसित करने के बजाय इनके सामने निर्लज्ज आत्मसमर्पण कर रखा है. बरसात के मौसम में स्थानीय लोग बाढ़, भूस्खलन जैसे समस्याओं से मरने तक के लिए अभिशप्त हैं, आम जनजीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है सो अलग. भारी बर्फ़बारी के मौसम में राज्य के पहाड़ी जिलों में कई तरह की तबाही आती है.
गर्मियों का मौसम जंगलों के जलने का मौसम होता है. दैनिक हिन्दुस्तान की ख़बर के मुताबिक इस साल गर्मियां शुरू होते ही अब तक जंगलों में आग लगने की 45 से अधिक घटनाएँ हो चुकी हैं. इनमें अब तक 100 हेक्टेयर से ज्यादा जंगल खाक हो चुका है. कुमाऊँ और गढ़वाल मंडलों में कई जंगल अब तक आग की चपेट में आ चुके हैं.
साल 2014 में 930.33 हेक्टेयर, 2015 में 701 हेक्टेयर, 2016 में 4433.75 हेक्टेयर, 2017 में 1244.64 हेक्टेयर, 2018 में 4480.04 हेक्टेयर जंगल आग से प्रभावित रहे. 2019 में फायर सीजन के शुरू होते ही 99.28 हेक्टेयर जंगल जलकर तबाह हो चुके हैं. जिम्मेदार विभागों के पास आग से निपटने के पुख्ता इंतजामों की तैयारी के कोरे आश्वासनों के आलावा कुछ नहीं है. यानि राज्य के जंगलों का आग की भेंट चढ़ जाना भी नियति बना हुआ है.
जंगल में आग लगने के पीछे कई मानवीय व प्राकृतिक कारण हो सकते हैं, लेकिन आग पर काबू न पा पाना सिर्फ सरकारी तंत्र की उपेक्षा की वजह से ही है. जानकार बताते हैं कि जंगल को आग के हवाले किये जाना लकड़ी माफिया, भू-माफियाओं और वन विभाग के लिए कई तरह से फायदेमंद है. वन विभाग के भ्रष्टाचार को छिपाने का भी यह एक अच्छा जरिया है. जले हुए जंगल लकड़ी माफियाओं के लिए अकूत सम्पदा का स्रोत हैं. भू-माफिया चाहता है कि उसके मालिकाने वाली जमीन के जंगल जल जाएं ताकि उस पर निर्माण का रास्ता साफ़ हो सके. आग की आड़ में वन विभाग द्वारा वृक्षारोपण में किये जा रहे भ्रष्टाचार को भी जला दिया जाता है.
आरक्षित वन भूमि व सामुदायिक वन भूमि में आग पर काबू न पा पाने की एक वजह स्थानीय लोगों के वनों पर ख़त्म कर दिए गए अधिकार भी हैं. वनाग्नि रोकने में भी उनकी भूमिका लगभग समाप्त कर दी गयी है.
पिछले साल जंगलों में लगी भीषण आग पर काबू पाने के लिए वायु सेना की मदद लेनी पड़ी थी. इससे सबक लेकर कोई नयी तैयारी अभी तक दिखाई नहीं देती हैं. वन विभाग आग रोकने के पुराने नुस्खों, ड्रोन से निगरानी, वाच टावर, कंट्रोल रूम, से आगे बढ़ता नहीं दिखाई देता. नतीजा सामने है. जंगल धधक रहे हैं और वन सम्पदा, जैव सम्पदा का भारी नुकसान होता चला जा रहा है. वन विभाग को इन नीम-हकीमी नुस्खों से आगे बढ़कर फायर सीजन से पहले ही इस समस्या से निपटने के लिए ठोस रणनीति बनानी चाहिए. जिनमें चीढ़ के जंगलों का प्रबंधन, नियंत्रित आग लगाकर सूखे पत्ते नष्ट करना, आग से निपटने के आधुनिक उपकरणों की खरीद आदि हैं. पूर्व कि भांति इस सम्बन्ध में स्थानीय लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करनी चाहिए.
—सुधीर कुमार
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Jaha tak jangli ke Jane ki baat hai usme ek bahut bada dosh hum logo ka he hai, har baat Sarkar Ko he Doshi nahi diya ja sakta, or koi bhi iske mool karno Mai nai Jana chata hai jab tak jangal sirf "Chid" ke he rahega Aag lagege he, Ku koi bhi ye nai hota hai ki misrit jangal nai honge.
Or jaha tak mujhe yaad hai jab hum log chote the jab jangalo Mai Aag lagte the tou gaon ke kai log jate the Aag bhujhane.
Jab tak jangalo Mai vividhta nai hoge tab tak yahi hoga or jaha tak Sarkar ke baat hai wo sab jagh nai pahuch sakte hai, practically possible nai hai