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जो मैं जानती बिसरत हैं सइयाँ

आज से हम एक नया संगीतमय कॉलम शुरू करने जा रहे हैं. यह कॉलम अमित श्रीवास्तव और रुचिता तिवारी की जुगलबंदी के रूप में होगा. मूल रूप से अंग्रेजी में लिखा यह लेख रुचिता तिवारी द्वारा लिखा गया है. संगीत और पेंटिंग में रुचि रखने वाली रुचिता तिवारी उत्तराखंड सरकार के वित्त सेवा विभाग में कार्यरत हैं. इस लेख का अनुवाद अमित श्रीवास्तव द्वारा काफल ट्री के पाठकों के लिये विशेष रूप से किया गया है : सम्पादक

रुचिता तिवारी

मेलोडेलिशियस

ये ऑल इंडिया रेडियो नहीं है. ये ज़हन की आवाज़ है. काउंट डाउन नहीं है ये कोई. हारमोनियम की ‘कीज़’ की तरह कुछ गाने काले-सफेद से मेरे अंदर बैठ गए हैं. यूं लगता है कि साँसों की आवाजाही पर ये तरंगित हो उठते हैं. कभी काली पट्टी दब जाती है कभी सफेद. इन गानों को याद करना नहीं पड़ता बस उन पट्टियों को छेड़ना भर पड़ता है.

तो आज छेड़ते हैं ऐसी ही एक ‘की’ को जो पहुंचाती है उस गाने तक जो चुपके से दिल के करीब सबसे पहले पहुंचा और आज तक वहीं दिल में कहीं महफ़ूज़ है.

… जो मैं जानती बिसरत हैं सइयाँ…

मुझे ठीक-ठीक याद है वो सुरीली तान जो मेरे बोलना शुरू करने से पहले ही मेरे कानों में शहद घोलती थी. उसे मैं माँ को इशारे से उस गोल-गोल घूमते काले तवे पर चलाने को कहती. मुझे याद है घूमती हुई एल पी डिस्क और लता की लहराती हुई आवाज़.

मुझे इशारों की भाषा में माँ से किया इसरार भी याद है. मुझे याद है काम करते हुए माँ के हाथों की चूड़ियों की खनक, उनके वहीं-कहीं आस-पास होने का अहसास और … ‘जो मैं जानती बिसरत हैं सइयाँ’ की मीठी, गीली सी तान. मुझे ठीक-ठीक याद है माँ की पहली लोरी भी यही थी. वो लता की आवाज़ थी. वो माँ की आवाज़ थी. आज भी है.

इस गाने में गहरा बसा हुआ कोई विद्रोह है. एक सहज समर्पण है. एक ठोस बेचैनी है.

सुनिए कैसे घुंघटा में आग लगती है … वो हताशा क्या होती है कि जब लाज के सब बन्धन तोड़ देने का जी करता है और कैसे प्यार को अपने मना लिया जाता है … संगीत यूं कि जैसे दिल की छुवन से निकला हो, शब्द ऐसे कि जैसे भाव की गवाही दे रहे हों. नौशाद को उतना इस फ़िल्म के लिए याद नहीं किया जाता जितना ‘मुग़ल-ए-आज़म’ या ‘मदर इंडिया’ या ‘मेरे महबूब’ के लिए. जाने क्यों? फ़िल्म में इसे शकील बदायूंनी द्वारा लिखा बताया जाता है. वैसे मूलतः ये अमीर ख़ुसरो की रचना है. अमीर ख़ुसरो तो हमेशा ही आश्चर्य में डाल देते हैं. मुझे हमेशा ऐसा लगता है कि जितनी कविताएं, पहेलियां, गीत, कह-मुकरियाँ अमीर ख़ुसरो की कलम से निकली हैं उतनी एक ही व्यक्ति की कैसे हो सकती हैं. इस गाने में भी ऐसा लगता है जैसे अपने गुरु के मरने पर ‘गोरी सोवे सेज पर …’ लिखने वाला महान सूफ़ी शायर उसी ‘सजन’ के जाने को महसूस कर रहा है. अमीर ख़ुसरो ने हमें कविता दी, क़लाम दिए, भाषा दी.

गाने की शुरुआत में नायक का जाना स्क्रीन पर दिखता है दर्शकों को और नूतन के चेहरे से होता हुआ वो ‘पियु’ का जाना लता की आवाज़ में भीग जाता है. पिया नहीं पियु.

‘मन साजन ने हर लीन्हा
और तन दुनिया ने छीना
भला कहो अब कैसे बाजे
बिना तार के बीना’

इन दो लाइनों के प्रील्यूड के बाद नूतन के चेहरे पर, आधे चेहरे पर घूंघट दिखता है. जैसे ही शब्दों में घूँघटा में आग लगती है, नूतन का भावों से भरा हुआ ठोस चेहरा घूँघट के पीछे से उभरता है. नूतन पूरे गाने में उस समर्पण उस विद्रोह और उस बेचैनी को सिर्फ अपने चेहरे के एक्सप्रेशन से गूंथ देती हैं.

हिंदी फिल्मों में प्रेम गीतों की संख्या गिनी नहीं जा सकती लेकिन गार्हस्थ्य या दाम्पत्य प्रेम के गाने कम हैं. फ़िल्म आज़ादी के बाद आई है लेकिन गीत लिखा गया है तेरहवीं- चौदहवीं शताब्दी में. लाज का बंधन तोड़ने की बात कब की जा रही है. प्रेम ऐसे ही नहीं ज़िंदा है. वो लगातार दुनिया की शरम से लड़ता रहा है. उसने हर बार हर वक्त में हर जगह फ़तह हासिल की है. इस बेहद जटिल समय में बढ़ती हुई अमानवीयता के बीच प्रेम ही है जो हमें बचाए रक्खेगा.

गाना फ़िल्म ‘शबाब’ (1954) से है जो एक म्यूज़िकल ब्लॉक बस्टर रही थी. फ़िल्म के निर्माता एम. सादिक थे. फ़िल्म में पुराने ज़माने के शानदार कलाकार भारत भूषण और नूतन थे. इस गाने की गायिका हैं संगीत कोकिला स्वर सम्राज्ञी लता मंगेशकर और इस गाने का फिल्मांकन नूतन पर ही किया गया है जो इस गाने के लिए बिलकुल सटीक बैठती हैं – सुंदर और दृढ़.

देखिये तो इस श्वेत-श्याम पट पर नूतन का अद्भुत सौंदर्य. बिखरी हुई ज़ुल्फ़ें और तना हुआ चेहरा. संगीतकार नौशाद ने इसे राग मांड पर आधारित एक शानदार मधुर कलेवर में बांधा है. इस गाने के बारे में एक इंटरव्यू में लता मंगेशकर ने कहा था कि लगता है नूतन ने स्वयं स्टूडियो में जाकर प्ले बैक दिया हो.

अब एल पी डिस्क तो मिलेगी नहीं तो यूट्यूब पर ही आज इस गीत को सुनिए और दो पंक्तियों के बीच सांस-सांस जो हताशा है, उसको महसूस कीजिये.

‘जो मैं जानती बिसरत हैं सइयाँ
घुँघटा में आग लगा देती
मैं लाज के बंधन तोड़ सखी
पिया प्यारे को अपने मना लेती

मेरे हार-सिंगार की रात गई
पियू संग उमंग मेरी आज गई
घर आए ना मोरे साँवरिया
मैं तो तन-मन उनपे ओओ
मैं तो तन-मन उनपे लुटा देती
जो मैं जानती …

मोहे प्रीत की रीत न भाई सखी
मैं बनके दुल्हन पछताई सखी
होती ना अगर दुनिया की शरम
उन्हें भेज के पतियाँ ओओ
उन्हें भेज के पतियाँ बुला लेती
जो मैं जानती …’

 

अमित श्रीवास्तव

उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता).

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Girish Lohani

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  • काले अक्षरों को पढ़ते---श्याम-श्वेत युग को रंगीन-'रुचि'कर आवाज़ में सुनते-सुनते 'जिनगी' की दो घड़ी सुरीली-सजीली हुई----
    आभार जी ??

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