प्रो. मृगेश पाण्डे

दूनागिरी की गुफा से क्रिया योग की कथा

‘श्यामा चरण इधर आओ ‘.
द्रोणा गिरि के पर्वतों में गूंजती यह ध्वनि सुनाई देती है. इस घने जंगल, विचरण कर रहे पशु पक्षियों के कलरव, जिधर दृष्टि डालो उधर हरियाली वाली उपत्यका में,उन्हें किसने जाना? नाम ले कर पुकारा. श्यामा चरण ने देखा कि पहाड़ की एक उन्नत चोटी पर आकर्षक एक व्यक्ति खड़ा था जो अब उनकी ही ओर चला आ रहा है. उसका सुडौल पुष्ट शरीर, लम्बी बांहें, माथे पर अद्भुत तेज और शांत दृष्टि में चुम्बकीय आकर्षण है. होठों पर मधुर मुस्कान है. इस अपार्थिव सौंदर्य मय प्रदेश में, ध्यानासीन घूर्जटी के तपोवन में, वन नीलिमा के मध्य पगडण्डी से ऊपर की ओर जाते पथ पर खड़े दिव्य पुरुष तक वह पहुँच गये. उन्हें ऐसा लगा कि एक लम्बे समय तक वह अपने घर से बिछुड़ गये थे. अनेक दिनों के बाद अब वह पिता की स्नेहसिक्त आँखों की छाया में आ कर खड़े हो गये हैं.प्रकृति के साथ इस पुरुष की तेज भरी प्रतीति का आकर्षण उन्हें यहाँ तक खींच लाया है.वह सन्यासी अब बाहें फैलाये उन्हें समीप आने का आमंत्रण दे रहा है. श्यामा चरण झुके और उन्होंने दंडवत प्रणाम किया.

उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में स्थित दूनागिरि की सघन पर्वत शृंखला में कुकुछीना स्थल की गुफाओं तक पहुंची श्यामा चरण लाहिरी की यात्रा का यह ऐसा चरम बिंदु था जहां उनके गुरु बाबाजी ने उन्हें बुलाया. श्यामाचरण का पूरा नाम श्यामाचरण लाहिरी था और उनके गुरु रहे बाबाजी. बाबाजी जो महावतार बाबा के रूप में प्रसिद्ध हुए. महावतार बाबा ने ही द्रोणागिरी की गुफा में श्यामा चरण लाहिरी को “क्रिया योग” की दीक्षा दी.

जीवन लघु हो या दीर्घ, है सौंदर्यमय, है आकर्षक ; बौद्धिक हो या शरीरी, निर्मित किया है अनंत सत्ता ने–हमारे लिए. यह अनंत सत्ता क्या है ? कहाँ है इसका आवास? सदियों से ये प्रश्न उठते रहे हैं. अनुत्तरित रह गये तब ‘ नेति नेति ‘ कह छोड़ दिया हमने. हमारी बौद्धिकता की परिधि यहीं तक है शायद. बौद्धिकता जहां बौनी हो जाये वहाँ जीवंत होते हैं शरीरी आयाम. हिमाच्छादित चोटियों,घने वनों प्रकृति की नयनाभिराम छवियों,आसमान में उग आए इंद्रधनुष, पहाड़ों की गोद में स्थित कंदराओं, गुफाओं की नीरव विश्रान्ति के मध्य उच्चतर संतोष के प्रतिमान हमें यह अनुभव कराते हैं कि सौंदर्यमय यह सप्तरंग हमारे भीतर ही है. सभी रंग बहु -आयामी हैं, बहु अर्थी हैं किन्तु चेतना सबकी समान है.यही सप्त रंगी चेतना कभी अकेले, कभी समवेत हमारे दरवाजे पर आ कर दस्तक देती है. संभवतः तभी क्रिया के योग का एक ऐसा प्रकाश मान योग पथ बनता है जिससे समूचे ज्ञान और संसार के उत्थान के मूल स्त्रोत का पता चलता है.

ऐसा ही स्थल महावतार की साधना स्थली द्रोणागिरी पर्वत श्रृंखला में दूनागिरि के समीप कुकुछीना की सुरम्य पहाड़ियों में स्थित है.बाबा जी जिनका  वर्तमान जगत से सर्वप्रथम परिचय कराया योगावतार लाहिड़ी महाशय ने, फिर ज्ञानवतार श्री युक्तेश्वर जी ने और फिर परमहंस योगानंद ने जो क्रिया योग के मुक्ति प्रदायक विज्ञान को भारत से पश्चिमी जगत में ले गये.

इस सोच से कि एक ऐसा समय आएगा जब जिज्ञासु जिनका मन बाबाजी के विषय में जानने के लिए उत्सुक होगा उनके स्वरुप से परिचित होंगे. परमहंस योगानंद ने उनकी पहचान को ले कर ऐसे बहुत से संकेत दिए जो धीरे धीरे सामने आए . ऐसा सबसे महत्वपूर्ण संकेत उन्होंने अपनी आत्मकथा में दिया जिसमें उन्होंने स्पष्ट किया कि बाबाजी तो उस महावतार के बहुत से नामों में से एक नाम है.यह भी स्पष्ट किया कि उन्हें दूसरे बहुत से नामों से भी बुलाया जाता है जो शैव मत से सम्बन्धित हैं. महावतार बाबा के सन्दर्भ में उन्होंने कहा कि, “उन्होंने अपने लिए एक सामान्य नाम चुना, बाबा जिससे पूज्य पिता का बोध होता है. लाहिड़ी महाशय के शिष्यों द्वारा उन्हें दिए गये दूसरे नाम हैं महामुनि बाबाजी महाराज, महायोगी, त्रयम्बक बाबा और शिव बाबा. स्पष्ट है कि लाहिड़ी महाशय और उनके शिष्य, बाबाजी को एक अवतार और शिव का रूप मानते थे. शिव के इस रूप की किसी सामान्य अवतार के रूप में व्याख्या नहीं हुई. उन्हें तो अति उच्च और शिव की अनश्वर अभिव्यक्ति के रूप में जाना गया. गुप्त रूप से और हिमालय के योगियों के लिए वह शिवगोरक्ष बाबाजी के नाम से जाने जाते हैं. आम लोग उन्हें गोरक्ष नाथ या गोरखनाथ कहते हैं.

परमहंस योगानंद के जीवन की कई घटनाओं से यही संकेत मिलते हैं कि महावतार बाबा ही गोरक्षनाथ हैं. परमहंस योगानंद के छोटे भाई, गोरा द्वारा लिखी किताब, “मेजदा” में उनके शैशव काल की कई घटनाओं का उल्लेख है. योगानंद के बचपन का नाम मुकुंद था और उन्हें ‘मेजदा’ भी कहते थे. योगानंद का जन्म गोरखपुर में हुआ. गोरखपुर गोरक्षनाथ के भक्तों के लिए पवन तीर्थ है जहां उनका मंदिर भी स्थापित है. योगानंद के माता पिता गोरक्ष नाथ के भक्त थे और हर रविवार या पवित्र दिनों में पूजन के लिए बालक मुकुंद को भी मंदिर ले जाते थे.एक रविवार घर में धार्मिक उत्सव होने के कारण गोरखनाथ के मंदिर जा पाना संभव न हुआ. घर में सुबह से ही काफी मेहमान आए हुए थे जब वह जाने लगे तो मां को लगा कि बड़ी देर से उन्होंने मुकुंद को कहीं देखा नहीं. अब उनकी ढूंढ खोज आरम्भ हुई. आखिर कार जब घर में वह कहीं न मिले तब मां ने पिता जी से कहा कि हर रविवार हम मंदिर जाते हैं. हो सकता है मुकुंद वहीं चला गया हो.अब उन्हें ढूंढ़ते मंदिर पहुंचे तो पाया कि बालक मुकुंद वहीं साधु की तरह ध्यान में लीन हैं.मंदिर भी घर से करीब एक किलोमीटर से ज्यादा की दूरी पर था जो उस जैसे छोटे बच्चे के लिए काफी बड़ी दूरी थी.अब तो सुबह हो गई थी. जब मुकुंद ने आँखे खोली तो अपने चारों ओर जमा लोगों को देख चकित से दिखे. मंद मुस्कान के साथ उन्होंने पिताजी को देखा और उन्हें परेशान देख सिर झुका प्रणाम किया. पिता जी ने उनसे कहा, अब घर चलो. बहुत देर हो गई है. हम सब तो तुम्हें घर में न पा बहुत चिंतित हो गये थे. गोरखनाथ के प्रति मुकुंद की भक्ति अल्प आयु में ही उन्हें गोरक्ष नाथ का आशीर्वाद दे गई जिससे कालान्तर में उन्होंने पश्चिम में क्रिया योग के प्रचार प्रसार की ऊर्जा प्राप्त की. वह गोरखनाथ ही थे जो उनकी आत्म कथा में महावतार बाबा के नाम से जाने गये.

महावतार बाबा ने 1861 में रानीखेत में लाहिड़ी महाशय को दीक्षा प्रदान की. योगावतार लाहिड़ी महाशय(1828-1895)उन्नीसवीं सदी के बाबा जी के शिष्य थे. जिनके अद्भुत जीवन का वृतांत परमहंस योगानंद की पुस्तक “एक योगी की आत्मकथा में मिलता है.

श्यामा चरण लाहिरी का जन्म 30 सितम्बर 1828 में बंगाल के नादिया जिले के घुरनी गाँव में ब्राह्मण परिवार में हुआ. बचपन में ही वह मातृ सुख से वंचित हो गए. बालक श्यामा चरण बचपन से ही कुछ विचित्र क्रिया-कलाप करते और ऐसे ही एकांतिक खेलों में रमे रहते. अपने सिर से नीचे के पूरे भाग को मिट्टी के भीतर कर लेते और इस अवस्था में बैठे रहते.18 वर्ष की आयु में ही उनका विवाह काशिमोनी के साथ हुआ और उनकी दो पुत्रियां व एक पुत्र हुआ.23 वर्ष की आयु में वह ब्रिटिश सरकार के सैन्य अभियांत्रिकी विभाग में लेखपाल के पद पर नियुक्त हुए.33 वें वर्ष में श्यामा चरण का स्थानांतरण उत्तर प्रदेश की सुरम्य नगरी रानीखेत की छावनी में हुआ. समीप ही द्रोणागिरी की अद्भुत पहाड़ियां थीं. दूनागिरी में ही कुकुछीना नामक स्थान के समीप एक प्राकृतिक गुफा में उनका संपर्क महावतार बाबा से हुआ जिन्होंने श्यामा चरण को क्रिया योग की दीक्षा प्रदान की. योगानंद के अनुसार श्यामाचरण लाहिरी महाशय का यह तेतिसवां वर्ष उनके जीवन की एक विलक्षण घटना थी जिससे समूचे जगत को क्रिया योग की प्राचीन विद्या को जानने समझने और लोकहितकारी होने का आभास हुआ. पौराणिक कथा है कि जिस प्रकार गंगा ने स्वर्ग से पृथ्वी पर उतर कर अपने त्रिषातुर भक्त  भगीरथ को अपने दिव्य जल स्पर्श से संतुष्ट किया, उसी प्रकार 1861 में क्रिया योग रूपी दिव्य सरिता हिमालय की गुह्य गुफाओं से मनुष्यों की कोलाहल भरी बस्तियों की ओर बह चली.

महावतार बाबा से लाहिड़ी महाशय की भेंट की कहानी रानीखेत में दूनागिरि की पर्वतीय श्रृंखलाओं में स्थित कुकुछीना नामक स्थान में एक गुफा के समीप होती है. तब लाहिड़ी महाशय 33 वर्ष के गृहस्थ थे और दानापुर के सैनिक इंजीनियरिंग विभाग के एकाउंटेंट पद पर कार्यरत थे. एक दिन सुबह उनके मैनेजर ने उन्हें बुलाया और कहा कि तुम्हारा ट्रांसफर रानीखेत हो गया है. आदेश के अनुपालन में पांच सौ मील की यह यात्रा उन्होंने तीस दिन में पूरी की और रानीखेत पहुंचे जो अल्मोड़ा जिले में हिमालय की सर्वोच्च चोटी नंदादेवी (25,661फुट )की तलहटी पर स्थित था.

रानीखेत की नव निर्मित चौकी में ज्यादा काम न था सो लाहिड़ी महाशय यहाँ की सुरम्य पहाड़ियों में खूब भ्रमण करते. स्थानीय जनों से उन्हें पता चला कि इस समूचे क्षेत्र में एक से एक महान साधु -संतों का निवास है. उनके मन में ऐसी दिव्य विभूतियों से मिलने की तीव्र इच्छा उत्पन्न हो गई. एक दिन अपराह्न में जब वह रानीखेत से दूर द्वाराहाट की द्रोणागिरी पहाड़ियों में भ्रमण कर रहे थे तो उन्हें ऐसा लगा कि कोई दूर से उन्हें उनका नाम ले कर पुकार रहा है. वह दूनागिरि की ऊँची पहाड़ियों पर चढ़ने लगे. यह चिंता भी थी कि ज्यादा ऊँचा चढ़ जाने पर अंधेरा हो जाने तक लौटेंगे कैसे.

आखिर पहाड़ी में ऊपर एक समतल स्थान तक वह पहुंचे जहां चारों ओर छोटी छोटी गुफाएं थीं. ओर उसी पहाड़ी के प्रस्तर खंड पर एक युवक मुस्कुराते हुए हाथ फैलाये खड़ा था जैसे कि स्वागत कर रहा हो. यह आश्चर्य ही था कि उसकी आकृति उनसे ही मिलती जुलती थी सिवाय उसके लम्बे ताँबई रंग के बालों के. स्नेह से भरे उस संत ने उन्हें पुकारा और कहा,   ‘लाहिड़ी, तुम आ गये! आओ अब यहीं गुफा में विश्राम करो. मैंने ही तुम्हें पुकारा था.’ भीतर एक साफ सुथरी गुफा थी जिसमें कुछ ऊनी कम्बल और कमंडल रखे थे. युवक योगी ने एक कम्बल  की ओर संकेत कर उनसे पूछा, ‘क्या तुम इस आसन को पहचानते हो ‘? लाहिड़ी महाशय जो पहाड़ में इतनी चढ़ाई चढ़ और फिर अचानक ही युवा संत के मिलने से किंचित भय विह्वल थे बोले, ‘नहीं,मैं नहीं जानता. अब मुझे वापस जाना है, नहीं तो रात हो जाएगी. कल सुबह ऑफिस में बहुत काम भी है ‘. उनकी बात सुन उस युवा संत ने अँग्रेजी में उत्तर दिया, ‘ऑफिस को तुम्हारे लिए यहाँ लाया गया है, न कि तुमको ऑफिस के लिए ‘. लाहिरी हतप्रभ हो गये. संत की बात जारी रही, ‘मालूम होता है कि मेरे तार का प्रभाव हुआ है ‘? लाहिड़ी यह बात समझ न पाए सो उन्होंने इसका अभिप्राय पूछा.

संत ने कहा, ” मेरा अभिप्राय उस तार से है, जिसके कारण तुम्हारा स्थानांतरण इस निर्जन प्रदेश में हुआ है. मैंने ही तुम्हारे अधिकारी के मन में यह प्रेरणा उत्पन्न की कि तुम्हारा स्थानांतरण रानीखेत के लिए कर दिया जाय. जब मनुष्य मानव -मात्र के साथ एकता अनुभव करता है, तब उसके लिए सभी मन संवाद – संचार के केंद्र बन जाते हैं. जिनके द्वारा वह इच्छानुसार कार्य कर सकता है.मैंने भी बस यही किया. अब यह गुफा तुमको सुपरिचित प्रतीत होती होगी “? लाहिरी हतबुद्धि हो मौन थे. अब वह युवा सन्यासी उनके पास आया और उनके कपाल पर अपने हाथो से स्पर्श के साथ मृदु आघात किया.उसके इस चुम्बकीय स्पर्श से जैसे मस्तिष्क में एक अद्भुत प्रवाह -तरंग उत्पन्न हो गई. उन्हें बहुत कुछ याद आने लगा. बीता हुआ बहुत कुछ याद आने लगा.पूर्व जन्म की मधुर स्मृतियाँ जाग्रत हो उठीँ . अरे ये तो मेरे गुरु हैं बाबाजी. यहीं इसी गुफा में मैं अनेक वर्षों तक रहा हूं.उन्हें ऐसा आभास हुआ.

“तीन दशाब्दियों से भी अधिक समय से तुम्हारी यहाँ वापसी की प्रतीक्षा में हूं मैं “. बाबा अविरत बोल रहे थे.”तुम मुझे देख नहीं सकते थे, पर मेरी दृष्टि सदा तुम पर लगी हुई थी. जब तुमने माता के गर्भ में नियत काल पूरा कर शिशु रूप में जन्म लिया, तब भी मेरी दृष्टि तुम्हारे ऊपर थी. तुम बचपन में नदी की बालू में अपने छोटे शरीर को छुपाने का खेल करते थे. मैं तब भी वहाँ अदृश्य रूप से उपस्थित रहता था. महीनों महीनों वर्षों तक आज के इस शुभ दिन के लिए मैंने तुम्हारी प्रतीक्षा की है. अब तुम मेरे पास आ गये हो. ये देखो, यह ही है तुम्हारी प्रिय गुफा. तुम्हारे लिए मैंने इसे हमेशा साफ सुथरा रखा है. यह है तुम्हारा पवित्र कम्बल आसन, जिस पर बैठ तुम प्रति दिन ध्यान किया करते थे. और यह है वह पीतल की कटोरी जिससे तुम मेरे द्वारा बनाए औषधि रस का पान किया करते थे. देखो इसे मैंने कितना चमका कर रखा है. अब तुम फिर इसका प्रयोग करोगे. मेरे बच्चे, क्या तुम अब सब कुछ समझ गये हो”?

लाहिड़ी असीम आनंद से भर उठे. बाबा ने अब उन्हें एक पात्र में रखे तेल को पीने और फिर नदी के किनारे लेट जाने का आदेश दिया. इस ठंडी पहाड़ी जगह में रात गहराने लगी थी पर बाबा के आदेश के बाद तेल पान कर जैसे उनके शरीर के अणु- अणु में एक सुखद ऊष्मा फैलने लगी थी. चारों ओर अंधकार में शीत लहर उनसे टकरा रही थी. वह नदी के किनारे चट्टानी किनारे पर लेटे थे. गगास नदी की ठंडी लहरें उनके शरीर को बार बार स्पर्श करतीं. आस पास के निर्जन वन प्रदेश से बाघों की गर्जना सुनायी दे रही थी. पर वह भय मुक्त थे. किसी के आने की पद चाप सुनायी दी तो उनका ध्यान भंग हुआ. देखा तो रात्रि के उस अंधकार में किसी ने उन्हें सहारा दे कर खड़ा किया और कुछ वस्त्र दिए. फिर वह बोला, ‘आओ मेरे साथ. गुरुदेव तुम्हारी प्रतीक्षा में हैं.’  दोनों जंगल से हो गुजरने लगे. आगे एक मोड़ पर लाहिरी महाशय को दूर एक प्रकाश पिंड दिखाई दिया.’अरे सूर्योदय हो गया क्या ‘? कौतूहल से पूछते हें श्यामा चरण लाहिड़ी .’नहीं, अभी तो अर्ध रात्रि है. वह जो प्रकाश दिखाई दे रहा है उसकी रचना महागुरु महावतार बाबा जी ने की है. वहीं तुम्हें “क्रिया योग” की दीक्षा मिलेगी.

“जागो !श्यामा चरण. तुम्हारी सारी भौतिक इच्छाऐं सदा -सदा के लिए मिटने जा रहीं हैँ. संसार में अशांति बढ़ रही है. क्रिया योग के माध्यम से असंख्य व्याकुल भक्तों को ‘क्रिया योग’ के माध्यम से आध्यात्मिक शांति प्रदान करने के लिए तुम्हें चुना गया है. वह लोग जो पारिवारिक बंधनों और सांसारिक कर्तव्यों से दबे हैँ, ऐसे गृहस्थ जनों को तुमसे क्रिया योग का ज्ञान पा कर एक नई आशा की प्राप्ति होगी.अब ऐसे उत्सुकों को तुम यह बोध कराओगे कि योग की सर्वोच्च उपलब्धियां घरेलू जिम्मेदारियों का निर्वाह करते, गृहस्थ के द्वारा भी प्राप्त की जा सकतीं हैँ.”

हिमालय की तापहीन सूर्य किरणों में महावतार बाबा द्वारा निर्मित आश्चर्यजनक रूप से चमकते स्वर्ण महल की संकल्पना में, क्रिया योग की दीक्षा ग्रहण कर सात दिन की समाधि में आत्मज्ञान के भिन्न – भिन्न स्तरों का अतिक्रमण कर अवचेतन मन की इच्छा तृप्त हो, निर्मूल हो गई. प्रतीत हुआ कि माया के सभी बंधन नष्टप्राय हो विलुप्त हो गये हैँ. आठवें दिन गुरुदेव के चरणों में साष्टाँग प्रणाम कर श्यामाचरण ने उनसे अनुरोध किया कि अब वह उन्हें सदा इस सुरम्य द्रोणागिरि की पवित्र वन स्थली में रहने की अनुकम्पा करें.

आलिंगन पाश में उन्हें बांधते महावतार बाबा ने कहा, “मेरे बेटे, इस जन्म में तुम्हें जन सामान्य के लिए लोक हित की भूमिका निभानी है. एक आदर्श गृहस्थ योगी का उदाहरण प्रस्तुत करते तुम्हें नगर की भीड़भाड़ के बीच यह जीवन बिताना है. तुम्हारे लिए संसार का परित्याग करना अनिवार्य नहीं अब तुम्हें पारिवारिक, व्यवसायिक, नागरिक और आध्यात्मिक कर्तव्यों को अन्तः करण से पूरा करना चाहिए. सांसारिक मनुष्यों में तनाव -दबाव -कसाव के कारण जो असमंजस की दिन चर्या व भ्रान्ति हो गई है उसे “क्रिया योग ” की उत्प्रेरक ऊर्जा से संतुलित कर उनको आशा और आस्था से संपूरित करना है तुमने . तुम्हारे सुसंतुलित जीवन से उन्हें यह बोध हो जाएगा कि मुक्ति का आधार वह चरम सुख है, ऐसा आनंद जिसका आधार आतंरिक वैराग्य है न कि वाहय या बाहरी त्याग.

श्यामचरण लाहिरी विचार रहे हैँ कि उच्च हिमालय की इस सुरम्य स्थली के एकांत में गुरूजी की बातें सुन मुझे मेरा परिवार, कार्यालय और घट चुकी परिस्थितियां सजीव होने लगीं हैँ. आश्विन के अपर पक्ष की सप्तमी के दिन 30 सितम्बर 1828 को कृष्ण नगर बंगाल के पास घुरणी गाँव में उनका जन्म हुआ. उनके पिता गौर मोहन लाहिड़ी और माता मुक्तकेशी देवी थीं. पांच भाई बहिनों में वह सबसे छोटे थे. बचपन से हो उनके हाव भाव, स्वभाव व मुद्राएँ देख सयानोँ का अनुमान था कि यह शिशु साधारण नहीं है. इस परिवार के गृह देवता शिव थे. घर में बाहर की ओर शिव मंदिर भी स्थापित था. उस दिन माता मुक्तकेशी शिशु श्यामा को गोद में बैठाये संध्या पूजन कर रहीं थी.तभी एक जटाजूट धारी सौम्य मूर्ति सन्यासी मंदिर के समीप आया और उसने मुक्तकेशी से कहा कि तुम्हारा यह बालक साधारण मानव शिशु नहीं है. मैंने ही इसे योग बल से तुम्हारे पुत्र के रूप में हजारों संतप्त, संत्रस्त, सांसारिक प्रपंचोँ व यँत्रणाओं से घिरे दुख व अवसाद भरे गृहस्थ परिवारों के कल्याण हेतु भेजा है. यह शिशु स्वयं गृहस्थ जीवन व्यतीत करते सबको योग साधना की ओर आकर्षित करेगा. वह मेरी ही छाया में आजीवन अपनी अंतरज्योति बिखेरेगा.

श्यामा चरण जब पांच साल के थे तभी उनकी मां का देहावसान हो गया. पिता गौरमोहन परिवार में घट रही घटनाओं से संसार विमुख होने लगे. गाँव घुरणी में जमींदारी थी पर उन्होंने काशी बसने का निर्णय किया.घुरणी में नदी किनारे बाढ़ आने से उनकी जमीन का बड़ा हिस्सा बह भी गया था. काशी निवास से गाँव की जमींदारी देखभाल व प्रबंधन के अभाव से हाथ से जाने लगी. उनकी आरम्भिक शिक्षा जय नारायण अँग्रेजी माध्यम स्कूल में हुई. फिर 1847 तक आठ वर्ष वह गवर्नमेंट संस्कृत स्कूल में विद्यार्थी रहे. उन्हें अंग्रेजी, बांग्ला, उर्दू व हिंदी के साथ फ़ारसी भी सीखी तथा नागभट्ट नामक मराठी शास्त्री से संस्कृत भाषा के साथ वेद, उपनिषद शास्त्रों व धर्मग्रंथो के अध्ययन में पारंगत हुए. कॉलेज में अध्ययनरत रहते ही अठारह वर्ष की आयु में उनका विवाह काशीमणि से हुआ जो बहुत शांतमना, दयामयी व सुग्रहिणी थीं. तब की रूढ़ियों के कारण काशीमणि की विधिवत शिक्षा तो न हुई पर श्यामा चरण ने उन्हें खुद पढ़ाया लिखाया.1851 में श्यामाचरण ने मिलिटरी इंजीनियरिंग वर्क्स में लिपिक के पद से नौकरी शुरू की. मिर्जापुर, बक्सर, कटुआ, गोरखपुर, दानापुर रानीखेत और काशी में उनके स्थानांतरण होते रहे. बैरक मास्टर के पद से उनकी सेवनिवृति हुई. वेतन के कम होने से वह सेना के कई अंग्रेज अफसरों को हिन्दी व उर्दू सिखाते थे. विवाह के सत्रह वर्षो तक वह किराये के मकान में रहे. तब काशी के गरुड़ेश्वर में उन्होंने मकान ख़रीदा. काशी में नये खुले बंगाली टोला विद्यालय में भी उन्होंने गृह-शिक्षक का दायित्व निभाया.1860 में नेपाल के महाराजा ने अपने सुपुत्र को पढ़ाने का दायित्व उन्हें सौंपा. फिर 1866 को नेपाल की महारानी ने उन्हें शिक्षण कार्य सौंपा.

रानीखेत में द्रोणागिरी पर्वत की गुफा में महावतार बाबा से क्रिया योग की दीक्षा प्राप्त होने के उपरांत गुरु ने उन्हें आदेश दिया कि अब उन्हें गृहस्थ हैसियत से गृहस्थ आश्रम में रह सामान्य जन को क्रिया योग की शिक्षा देनी होगी. श्यामा चरण को संदेह हुआ कि सांसारिक कार्य व्यस्तता के रहते साधना कैसे की जा सकेगी ? तब बाबा ने उन्हें आश्वस्त किया कि वह कोई संदेह न करें. समयानुसार उनका स्थानांतरण काशी हो जाएगा. बाबा ने उन्हें सहज योग साधना की विविध प्रक्रियाओं और दीक्षा प्रदान करने के सम्बन्ध में व्यावहारिक शिक्षा दी और उन्हें वापस घर भेज दिया. फिर उनकी बदली मिर्जापुर व अन्य स्थानों के बाद दानापुर हुई.

दानापुर में ऑफिस के दैनिक कार्यों को संपन्न करते हुए गुरु प्रदत्त योग साधना उनके जीवन का मुख्य अंग और अवलम्बन बन गई.हमेशा वह आत्म चिंतन में विभोर रहते. ऑफिस के बड़े साहिब प्यार से इस बंगाली बाबू को पगला बाबू पुकारते. एक दिन साहिब बहुत चिंतित थे. पूछा तो पता चला कि इंग्लैंड में उनकी मेम साहिब बहुत बीमार पड़ गईं हैँ और अब तो बचना भी मुश्किल बताया जा रहा है. श्यामा चरण का मन करुणा से भर उठा. उन्होंने साहिब को आश्वस्त किया कि वह चिंता न करें. वह ठीक हो जाएंगी. अपने कार्यालय कक्ष में बैठ वह ध्यानस्त हुए और फिर साहिब के पास जा उन्होंने कहा कि मेम साहिब कुशल से हैँ. उन्होंने इस आशय का पत्र भी भेजा है. कुछ दिन बाद साहिब को पत्र मिला जिसमें लाहिड़ी महाशय की बताई सभी बातें अक्षरश: सत्य थीं. जब मेम साहिब इंग्लैंड से दानापुर आईं तो ऑफिस में लाहिड़ी महाशय को देख चकित हो गईं. साहिब से बोलीं कि यही तो वह महात्मा है जो उनकी बीमारी के समय उनके पास आए. इनकी ही कृपा से वह रोग मुक्त हुईं.

दानापुर के बाद लाहिड़ी महाशय का ट्रांसफर काशी हो गया.गरुड़ेश्वर स्थित अपने मकान में वह सपरिवार रहने लगे. यहाँ उनके भक्तों की संख्या बढ़ने लगी.भगवान दास मोची, गिरधारी चमार, कोंस्टेबल विंदा, हलवाई और फेरीवालों से ले कर नामी गिरामी व्यक्ति, कर्मचारी, अधिकारी और रियासतों के राजा महाराजा उनकी कृपा प्राप्त करने लगे. देवधर के बालानन्द ब्रम्हचारी, काशी के भास्करनन्द सरस्वती, नानकपंथी साईँ दास बाबा के साथ अनेक त्यागी, सन्यासी उनके सानिध्य में रहे.लाहिरी महाशय ने न तो कभी अपना प्रचार किया न भाषण दिया और न कोई मठ, मिशन या आश्रम की स्थापना की. सन्यास की अपेक्षा वह गृहस्थ जीवन को अधिक मर्यादा व उच्च प्रतिमान देते थे.उनकी सिद्धि और ज्ञान के आलोक की सहजता और सरलता से आकर्षित हो कर जाति, धर्म और संप्रदाय के भेद भाव से हट सभी वर्णों के लोग उनके पास आने लगे. वह चाहते थे कि सभी गृहस्थ जीवन का निर्वाह करते हुए बिना किसी आडम्बर और वाह्य दिखावे के आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत बनें.

लाहिड़ी महाशय ने वेदांत, उपनिषद, गीता सहित अनेक धर्म ग्रंथों की आध्यात्मिक व यौगिक व्याख्या की. उनके द्वारा 26 ग्रंथो का यौगिक भाष्य किया गया जिसमें वेदांत दर्शन, गौतम सूत्र, अष्टावक्र संहिता, सांख्य दर्शन, ओंकार गीता, गुरु गीता, तेज विन्दु उपनिषद,, ध्यानबिंदु उपनिषद, अमृतबिंदु उपनिषद, अविनाशी कबीर गीता,  कबीर दोहावली, मीमांसार्थ संग्रह, निरालम्बोपनिषद, चरक, चंडी, लिङ्ग पुराण, तंत्र सार, यन्त्रसार, गुरु नानक साहिब कृत आदिग्रन्थ जपुजी, वैशेषिक दर्शन, पतंजलि योगसूत्र, मनुसंहिता, पाणिनीय शिक्षा, चैत्तिरीय उपनिषद, अवधूत गीता एवं गीता मुख्य हैँ. अन्य ग्रंथों की आध्यात्मिक व्याख्या जब वह भक्तों के सम्मुख करते तब पंचानन भट्टचार्य, प्रसाद दास गोस्वामी एवं महेन्द्र नाथ सन्याल उसे लिपिबद्ध कर लेते थे. बाद में उन्होंने अपने -अपने नाम से ग्रंथों को प्रकाशित किया. योगिराज ने अपने नाम से किसी भी ग्रन्थ को प्रकाशित होने की अनुमति न दी.

 उनके द्वारा की गई गीता की व्याख्या अपूर्व है गीता में कहा गया, “श्री भगवान उवाच “. उनसे पहले और उनके बाद सभी ने उसका भाष्य किया है, “श्री भगवान ने कहा.” परन्तु योगिराज लाहिरी महाशय ने अपने भाष्य में कहा,”कूटस्थ द्वारा अनुभव किया जा रहा है”. इस कूटस्थ को साधना द्वारा प्राप्त किया जाता है. अनुभूति के द्वारा जाना जाता है. जिसे हम तुरीय दृष्टि, ज्ञान चक्षु, तीसरी आँख या त्रिनेत्र कहते हैँ वह ही कूटस्थ है. प्राणायाम की स्थिति में योनिमुद्रा के द्वारा आज्ञाचक्र की परिधि के बीच बिंदु स्वरुप एक चक्षु दिखाई देता है. यही सुदर्शन चक्र है. सुदर्शन का अर्थ है सुन्दर. इसके बीच में कृष्ण वर्ण के रूप में कृष्ण और उसके भीतर निश्चल विशिष्ट  तारका बिंदु ध्रुव है, वही तारक नाथ है. यह कूटस्थ ही अक्षर पुरुष है. इस कूटस्थ रूपी सुदर्शन चक्र के दर्शन से व्यक्ति के विपरीत मनोभावों का ह्रास -नाश होता है. सभी प्रश्नों का उत्तर प्राप्त होता है. शंकाओं का समाधान होता है. अर्जुन, तैजस तत्व है, उसके द्वारा व्यक्ति के भीतर जिज्ञासाऐं उभर रही हैँ और कूटस्थ (कृष्ण )द्वारा निरन्तर दीप्त या अभिव्यक्त हो रही हैँ. सभी को इसका अनुभव होता है. इसलिए गीता अनुभव का ग्रन्थ है.तभी उन्होंने अपने भाष्य में कहा, “कूटस्थ के द्वारा अनुभव हो रहा है “. इसी कूटस्थ रूपी सुदर्शन चक्र के दर्शन से साधक के विपरीत मनोभावों, तनाव -दबाव -कसाव एवं असमंजस या प्रवृति पक्ष के असुरों का ह्रास -नाश होता है. तब साधक निवृति -मार्ग पर चलने मैं समर्थ होता है.कूटस्थ के मध्य में स्थित बिंदु को ‘गगनगुहा’ कहा जाता है. अर्थात कूटस्थ के भीतर जो नक्षत्र स्वरुप गुहा है उसमें स्थिति प्राप्त होने पर साधक या योगी को अलौकिक बातें कहने -बतलाने की शक्ति प्राप्त होती है और वह हमेशा उस ब्रह्म ज्योति को नक्षत्र के रूप में देखता है. यही तारक नाथ है. यही सार ब्रह्म है.समस्त जीवों के शरीर में एक चित -अणु या एक सूक्ष्मतम चेतना युक्त अणु होता है. इस चेतन अणु से ही जो ज्योतिर्मण्डल उदभासित होता है, वही कूटस्थ है.

लाहिरी महाशय बताते हैं कि उन्हें वर्तमान समय की परिस्थितियों में आध्यात्मिक मार्ग का अनुश्रवण करते हुए ईश प्राप्ति के पुरातन विज्ञान “क्रिया योग ” को उसके आधुनिक स्वरुप से जनमानस को परिचित कराने का कार्य सौंपा गया. यह महावतार बाबा के आदेश व दिशा निर्देशन से संभव हुआ. क्रिया योग की अवधारणा किसी भी पंथ या जातीय भेदभाव से मुक्त है. साधारण व्यक्ति जो परिवार में रह, गृहस्थ की तरह अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करता है या फिर कोई विरक्त सन्यासी, सभी इसका अनुपालन कर सकने में समर्थ हैं.

शास्त्र एवं विज्ञान सम्मत ‘क्रिया योग’ की साधना के द्वारा चित्त को एकाग्र किया जाता है. एकाग्रता ही उन्नति का मूल है.मन के स्थिर नहीं होने पर साधना संभव नहीं और तब गृहस्थी के कार्य भी सुचारु रूप से संपन्न नहीं होते.सांस की गति बहिर्मुखी होगी तो मन बाहर की ओर भागेगा. क्रिया योग के अभ्यास से सांस की गति अंतरमुखी होती है तो मन भी अंतरमुखी होने लगता है, स्थिर होने लगता है.

गीता में वर्णित राजयोग सहज योग का रास्ता दिखाता है.सहज का मतलब आसान या सरल नहीं बल्कि इसका अर्थ है जो जन्म से प्राप्त है. इसे प्राप्त करने के लिए किसी प्रकार का कष्ट या चेष्टा नहीं करनी पड़ती.. जन्म के साथ ही ‘इड़ा’ और ‘पिंगला’ नाम की दो नाड़ियों से श्वास -प्रश्वास चलते रहते हैँ, तभी तक व्यक्ति जीवित रहता है. यही समस्त जीवन का साथी है.वायु ही इस शरीर की शासक है. इसी वायु की शक्ति से मन, बुद्धि, सभी इन्द्रियां संचालित हैँ. इसी श्वास रूपी अस्त्र को चला कर जिन्होंने दक्षता, पटुता व कुशलता प्राप्त की है वही शास्त्रज्ञ है.यह आत्म विज्ञान या विद्या, प्रत्यक्ष और बोधगम्य है.लाहिरी महाशय युवकों को बताते कि कम उम्र में ही इस क्रियायोग के अभ्यास से सिद्धि व सफलता मिलती है. वह कहा करते कि ईश्वर साधना करो या मत करो ; लेकिन स्वयं मन के वश में न रह कर उसे वश में करना आवश्यक है.सारी विसंगतियों के मूल में मन ही है. योग -क्रम के बिना मन को अपने वश में रखना संभव नहीं.क्रिया करना ही कर्मयोग है. इसे करते -करते साधक को आत्म दर्शन या आत्म साक्षात्कार होता है तो यही भक्ति योग है. अंत में जब कर्मातीत स्थिति प्राप्त होती है तो उसे ही ज्ञान योग कहते हैँ. कर्मयोग भक्ति योग एवं ज्ञान योग ये सभी स्वतंत्र योग नहीं हैँ बल्कि व्यक्ति की साधना के क्रम हैँ. सही या सदकर्म के बिना भक्ति का उदय नहीं होता और भक्ति के बिना ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती और ज्ञान के बिना मुक्ति प्राप्त नहीं होती. इसलिए ये एक दूसरे से सम्बन्धित क्रियाएं हैँ. स्थिरत्व के बिना कोई गति नहीं.आरम्भ में इड़ा और पिंगला के द्वारा सांस की गति को प्राणायाम द्वारा नियंत्रित कर उसे कूटस्थ में स्थिर करते हैँ तो सुषुम्ना जागृत होने लगती है. प्राण मन और बुद्धि की अलौकिक शक्ति का पता चलता है. प्राण क्रिया का कौशल ही योग है. समत्व को ही योग कहा जाता है जिसका प्रधान या मुख्य अंग है प्राणायाम या प्राण कर्म या आत्म कर्म या निष्काम कर्म.क्रिया के द्वारा साधक श्वास को जीवन बल ऊर्जा में बदल देता है. महावतार बाबा ने 1861 की शरद ऋतु में, दूनागिरी की कुकुछीना में स्थित गुफा परिवेश में लाहिड़ी महाशय को इसी ऊर्जा के विज्ञान ‘क्रियायोग’ का मर्म समझाया जिसे स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि और परमहंस योगानंद ने वैज्ञानिक व तर्क संगत आधार पर लोकहित कारी बनाया.

परमहंस योगानंद की पुस्तक “एक योगी की आत्म कथा” से लोगों को महावतार बाबा का परिचय ज्ञात हुआ. योगानंद ने बताया कि महावतार बाबा युगो युगो से लोक कल्याण और जन मानस के आध्यात्मिक उत्थान हेतु जाग्रत हैं. लाहिड़ी महाशय ने उन्हें बाबाजी का नाम दिया और वह स्वयं बाबाजी के द्वारा क्रिया योग में दीक्षित हुए. लाहिड़ी महाशय के द्वारा ही सामान्य जनों के आत्म ज्ञान एवं उनके उत्थान को सही क्रिया योग के अभ्यास द्वारा संभव एवं प्रवाह मान किया जा सकता है.

क्रिया योग का आरम्भ ओमकार की क्रिया से आरम्भ होता है जिसमें ॐ की आतंरिक ध्वनि को सुनना और फिर उसी क्रिया में लीन हो जाना है.ओमकार की क्रिया प्रकाश, स्पंदन और ध्वनि के दिव्य संवेदनों के साथ ओमकार की ध्वनि के सुनने में सतत चलती है.अब अगले चरण में है : ‘हम -सा’ क्रिया या हौंग -स्वः, जो स्वयं की श्वास और अंतरात्मा का साक्षी होना है. अब क्रिया योग का प्राणायाम है जिसे कुंडलिनी प्राणायाम भी कहते हैँ. इसमें जीवन ऊर्जा को मेरु दंड के मध्य में सुषुम्ना नाड़ी में केंद्रित या एकाग्र किया जाता है. फिर मन को स्थिर करने और पाचन में सुधार करने के लिए नाभि क्रिया की जाती है. श्वास द्वारा चक्रोँ व कुंडलिनी का जागरण होता है. मोक्ष की मुद्रा महामुद्रा कहलाती है जिससे मेरुदंड लचीला बनता है. अगला चरण योनि मुद्रा या ज्योति मुद्रा का अभ्यास है जिससे तारा द्वार को अपने अंतर्मन में बनाया जाता है और इस पर केंद्रित रह ज्योतिमुद्रा तारा द्वार का भेदन करती है. अंततः परावस्था की प्राप्ति होती है जो व्यापक चैतन्य का परमानन्द है.

यदि कोई मन, सतगुरु की अविभाजित चेतना से युक्त है, तब वह मन उस अविभाजित चेतना के साथ अपनी लय के अनुसार स्वयं को मन: प्रकाश के अस्तित्व से बाहर गुरुत्वाकर्षित कर सतगुरु की चेतना में जागृत कर देता है. सद्गतगुरु स्वयं की अविभाजित चेतना को साधक के मन:प्रकाश अस्तित्व के भीतर गुरुत्वाकर्षित करते हैँ और इस प्रकार सतगुरु के साथ लय बना उसके मन को अपनी चेतना में रूपांतरित कर देते हैँ. यही क्रिया योग का आधार है जिसे अधिकतम सामाजिक कल्याण हेतु महावतार बाबा ने अपने शिष्य लाहिडी महाशय को दूनागिरि पर्वत उपत्यका में प्रदान किया.

महावतार बाबा जी के साथ वार्तालाप पुस्तक में उनकी भक्त पल्लवी कुकुछीना में बाबा की गुफा में ध्यानमग्न होते ही अपने भीतर अनंत ऊर्जा के प्रवाह का अनुभव करती हैं. कई साथियों के साथ गुफा में अगल बगल गोलाई में बैठ गए हैं सब. शांति है चारों ओर. शीतल हवा का स्पर्श है. अब आँखों के बंद होने के बाद एक चक्र दिखाई देता है जो पिछले दिन भी दिखा और बाबा ने कहा, ‘कल फिर गुफा में आकर ध्यान करना’. आज इस पल वह दृश्य दोबारा मेरे सामने आ गया. अब यह चक्र हमारे वरतुल के बीच में था. जैसे ही चक्र मेरे सामने आया मुझे उसके नीचे एक अन्तःप्रवाह की तरह हलचल दिखाई दी. लगा कि यह अन्तः प्रवाह एक नई गेलेक्सी की रचना कर रही थी. जिसका निर्माण करने का काम गुफा के नीचे चल रहा था.ध्यानावस्था में हम जो ऊर्जा कार्य कर रहे थे उसी ऊर्जा ने ब्रह्माण्ड में इस गैलेक्सी की अभिव्यक्ति की. लगा कि मैं गुफा के मूल तत्व को जान गई थी कि ये अंदर से कितनी विशाल है. पहले यहाँ कुछ ऐसी घटनाएं हुईं जिनमें इस गुफा के भीतर कुछ लोग गुम हो गए थे इसीलिए इस गुफा के बड़े हिस्से को बंद कर दिया गया था. केवल गुफा का प्रवेश द्वार ही लोगों के लिए खुला रखा गया. मैंने गुफा के अंदर एक लम्बे सुरंग जैसे रास्ते को भी देखा.

ध्यान की इस प्रतीति में गुफा के भीतर एक चमत्कारी दुनिया दिखती है. गुफा के भीतर बने पथ के अंतिम छोर पर चमकदार प्रकाश पुंज था. यह गुफा के केंद्र के मध्य गुफा को दो नये मार्गों में बाँट रहा था. ऐसा स्थान जैसे एक वैज्ञानिक प्रयोगशाला. एक नई गैलेक्सी के निर्माण की ऊर्जा छावनी.2011 में मैं यहाँ फिर आई. साथी गुफा के भीतर बैठ ध्यान कर रहे थे. मैंने गुफा के बाहर ही बैठ ध्यान करने का निश्चय किया. लगा कि दिव्य ऊर्जा विद्युत तरंगों की भांति वहाँ प्रवाहित हो रही हो. कुछ ही पल बाद मैं गहन ध्यान में थी.लगा कि मौसम मैं कुछ हलचल हुई हो और आकाश सिलेटी रंग का हो रहा. अब जैसे आकाश में एक दिव्य द्वार बनता है और दिव्य गुरु समूह उससे बाहर आ रहा. उस समूह कि ऊर्जा अत्यंत दिव्य थी. उनमें बाबाजी से मेरा संवाद हो रहा. बाबाजी बता रहे कि यहाँ वर्षों से अखंड ध्यान हुआ केवल बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में कुछ स्थानीय लोगों ने डर के कारण इस गुफा के गर्भ गृह के प्रवेश द्वार को बंद कर दिया. बाबा जी बता रहे कि हम धरती पर स्थूल शरीर में जन्म ले कर उन चीजों को समझना और जानना चाहते हैं जो परलोक से सम्बन्धित हैं. लेकिन उन्हें जानने के लिए हमारे भीतर गहन समझ और अवलोकन करने का विश्वास होना चाहिए. जब तुम साधना करते हो तो तुम्हारे भक्ति भाव से जैसे जैसे तुम्हारा ज्ञान परिपक्व होता है, तुम इस बच्चे को भी शिक्षित, विकसित और पोषित करते हो. जो भी तुम करते हो तुम उसमें अपने विश्वास को विकसित करो और तब तुम मुझे अपने मार्ग पर मदद करते हुए पाओगे. बाबा आशीर्वाद देने लगे. मेरे दृश्य में मैंने जिन आत्माओं को बाबाजी से आशीर्वाद लेते हुए देखा उनमें एक लाहिरी महाशय, दूसरे युक्तेश्वर गिरि और योगानंद परमहंस के साथ और भी दिव्य विभूतियाँ थी.

शरीर, मन और आत्मा से प्राकृतिक जीने के तत्वों को बल मिलता है यह आत्मानुभूति का विषय है. इसकी यात्रा अनेक अनुभव प्रदान करतीं हैँ. परमहंस योगानंद की 1946 में प्रकाशित ‘ऑटोबायोग्राफी ऑफ़ ए योगी ‘ ऐसी ही एक प्रेरणादायक कालजयी रचना है जिसमें महावतार बाबा के योग सिद्धांत व कर्म पथ क्रिया योग का सुसंगत विश्लेषण है. लाहिड़ी महाशय के प्रपौत्र श्री अशोक कुमार चटोपाध्याय ने उनकी 26 डायरी व अपने पिता से जाने उनके कार्यों को, “पुराण पुरुष योगिराज श्री श्यामा चरण लाहिड़ी ” में 1981 को वांगला में प्रस्तुत किया हिंदी में इसके 13 संस्करण छप चुके हैं.

श्यामा चरण लाहिड़ी के शिष्य श्री युक्तेश्वेर गिरि ने चेतना, ऊर्जा व जड़ पदार्थ के सार्वभौमिक क्रम विकास को क्रिया योग से समन्वित करते हुए, “कैवल्य दर्शन” लिखी. सीधोजी राव सितोले की पुस्तक, “बाबाजी अकम्पित विराट वज्र ‘ में हिमालय के प्राचीन मंदिरों और बर्फीले पहाड़ों की गुप्त गुफाओं में छुपे हुए रहस्मय केंद्रों एवं महावतार बाबा की सिद्धि सम्बन्धी प्रसंगों का वर्णन है.सुश्री पल्लवी की मान्यता है कि जब आपकी चेतना जागरूक और विकसित होती है तो स्व अनुभव के माध्यम से आप दिव्य मास्टर्स को जानने लगते हैँ. 2019 में “महावतार बाबाजी के संग वार्तालाप में उन्होंने कुकुछीना में हुई घटनाओं के साथ व्यक्तिगत अनुभवों का लेखा जोखा पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित किया. कुकुछीना में महावतार बाबा की गुफा एवं विश्राम स्थल का प्रबंधन योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इंडिया द्वारा किया जाता है. दूनागिरी के प्रसिद्ध देवी मंदिर परिसर में भी महावतार बाबा की तपस्थली का देव स्थान है.

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के नियमित लेखक हैं.

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