यह लोकोत्सव कुमाऊं के चम्पावत जनपद में लोहाघाट से लगभग 3 किमी पूर्व एक पहाड़ की तलहटी में स्थित शिवालय में मनाया जाता है.
इसके बारे में मान्यता है कि इस पहाड़ी के पश्चिम में शासक बाणासुर, जहाँ अभी भी उसका किला माना जाता है, ने यहीं पर शिव की आराधना कर महाबली होने का वरदान प्राप्त किया था.
बाणासुर की पुत्री ऊषा के प्रेमपाश में बंधे अपने पुत्र अनिरुद्ध की मुक्ति के लिए जब भगवान श्रीकृष्ण को उससे युद्ध करना था तो उन्होंने भी इसी पहाड़ी के शीर्ष, देवीधार पर रहने वाली देवी से आशीर्वाद प्राप्त किया था.
यह निकटवर्ती गाँवों—कीलगाँव, डैसली तथा रायनगर, चांडी आदि के निवासियों की इष्टदेवी हैं.
यहाँ पर प्रतिवर्ष आषाण पूर्णिमा के दिन एक उत्सव का आयोजन किया जाता है. इसकी पूर्वसंध्या को यहाँ पर उपर्युक्त तीनों गाँवों के ग्रामीणों द्वारा रात्रि जागरण का आयोजन किया जाता है. निःसंतान महिलाएं संतानार्थ व्रत के साथ रात्रि जागरण कर देवी का स्तुतिगान करती हैं. अगले दिन तीनों गाँवों के देवियों के डोले यहाँ लाये जाते हैं डोली के आगे-पीछे श्रद्धालु देवी कि स्तुति में गीत गाते चलते हैं.
उत्तराखण्ड ज्ञानकोष, प्रो. डी. डी. शर्मा के आधार पर
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