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जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मकाम, वो फिर नहीं आते

जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मकाम, वो फिर नहीं आते…

इस गीत को सुनकर संवेदी श्रोता अनायास ही एक खास किस्म के जीवन-दर्शन के बारे में सोचने पर विवश हो जाता है. वह कई बातों पर एक सिरे से गौर करने लगता है- जो मानवीय रिश्ते हैं, वे अनमोल हैं… उन्हें सहेजकर रखना चाहिए. संबधों में परस्पर विश्वास निहायत जरूरी है… एक-दूसरे को स्पेस देना चाहिए… भरोसा जताने में हर्ज ही क्या है…

गीत के बोल जितने खूबसूरत हैं, संगीत और फिल्मांकन, उस अनुपात में जरा भी कमतर नहीं दिखता.

फूल खिलते हैं लोग मिलते हैं मगर
पतझड़ में जो फूल मुरझा जाते हैं
वो बहारों के आने से खिलते नहीं
कुछ लोग एक रोज जो बिछड़ जाते हैं
वो हजारों के आने से मिलते नहीं
उम्र भर चाहे कोई पुकारा करें उनका नाम
वो फिर नहीं आते…

आंख धोखा है क्या भरोसा है सुनो
दोस्तों शक दोस्ती का दुश्मन है
अपने दिल में इसे घर बनाने न दो
कल तड़पना पड़े याद में जिनकी
रोक लो रूठकर उनको जाने न दो…
बाद में प्यार के चाहे भेजो हजारों सलाम
वो फिर नहीं आते…

सुबह आती है रात जाती है यूं ही
वक्त चलता ही रहता है रुकता नहीं
एक पल में ही आगे निकल जाता है
आदमी ठीक से देख पाता नहीं
और पर्दे पे मंजर बदल जाता है
एक बार चले जाते हैं जो दिन-रात, सुबहो-शाम वो फिर नहीं आते…

गीत के बोलों पर गौर करें, तो इनमें एक-एक क्षण का मूल्य बताया गया है. जहाँ जीवन की क्षणभंगुरता का संदेश है, तो रिश्तों को सहेजकर रखने की समझाइश भी. यह गीत मानवीय संबंधों के रीति-नीति-संस्कारों से भरा-पूरा गीत है, जिसमें परस्पर विश्वास की सलाहियत है. संदेह और अविश्वास के खतरे हैं, तो उन्हें संभालकर रखने की नसीहत और नतीजे भी.

आर डी बर्मन ने खास तौर पर इस गीत के लिए संगीत में विविध प्रयोग किए. गीत के बोलों के मुताबिक, जीवन की रफ्तार जताने के लिए ट्रेन से मैच करती धुन है, तो अतीत को याद दिलाने के लिए मंदिर की घंटी जैसा स्वर है. जैसे-जैसे ऋतु परिवर्तन होता है, साज बदल जाते हैं. अंतरों में जैसे-जैसे भाव बदलते जाते हैं, संगीत सहज रूप से उसी बहाव में बहता चला जाता है.

गीत के आरंभ में नायक प्लेटफार्म पर चलते हुए दिखाई पड़ता है. उदास मन, अपराध बोध से लदा चेहरा. वह ट्रेन में सवार होता है और खिड़की वाली सीट पर बैठ जाता है. ट्रेन, जीवन की तरह सरपट दौड़ती चली जाती है, सुरंग से गुजरती है. स्टीम इंजन के लिए कोयला झोंका जाता है, मानों जिंदगी की रफ्तार में गर्म थपेड़े सहने पड़ते है. जीवन में ठोक-बजाकर पुख्ता निष्कर्ष न निकालें, तो वे एक अनिवार्य पहलू के रूप में सामने आते हैं.

अगले अंतरे में सूर्योदय का दृश्य आता है. खिलते हुए फूल दिखाई देते हैं. पतझड़ में अवसाद से घिरा, उदास नायक दिखाई देता है. उसकी चाल बदल जाती है. मनोरोगी सी भंगिमा. वह अपने अतीत को नहीं देख पाता.

अगले अंतरे में, जहाँ पर ‘आंख धोखा है क्या भरोसा है… चलता है, वहाँ पर बड़े ही खूबसूरत बिंब का प्रयोग हुआ है. वह बियाबान अंधेरे में एक छप्पर के नीचे एकांत में बैठा हुआ दिखाई देता है.

अगले अंतरे बर्फबारी होती है. वह ओढ़ना हटाता है, तो एकदम से प्रौढ़ नायक सामने दिखाई पड़ता है. वह निरुद्देश्य भटकते हुए एक बुजुर्ग के रूप में दिखाई देता है.

वक्त को तेजी से गुजारने के लिए तांगे का पहिया प्रतीक- रूप में दिखाई देता है. आखिरी दृश्य में वह किसी तीर्थ के बाहर भिक्षुकों के भोज में आखिरी पाँत में बैठा हुआ दिखाई पड़ता है. ये सब कीमत, उसे एक अविश्वास करने के चलते चुकानी पड़ती है.

गीतकार आनंद बक्शी ने हिंदी सिनेमा के लिए रिकॉर्ड साढे तीन हजार गीत लिखें.

जानकारों के मुताबिक, यह गीत उनकी निजी जिंदगी के कटु अनुभवों से उपजा.

कुछ घटनाएँ मानव जीवन पर स्थायी प्रभाव डालती हैं. दस बरस की उम्र में उन्होंने माँ को खो दिया. मातृ स्नेह से वंचित होने का बाल मन पर जो प्रभाव पड़ा, उससे वे आजीवन नहीं उबर पाए. तभी वे फिल्म राजा और रंक (1968) के लिए ‘तू कितनी अच्छी है, तू कितनी भोली है. ओ माँ…” जैसा भावमय गीत लिख सके.

आनंद बख्शी के जीवन में एक के बाद एक त्रासदियाँ आती गई. माँ का साया उठने के बाद उन्हें मातृभूमि से अलग होना पड़ा. बँटवारे में उन्हें रावलपिंडी से इधर आकर शरण लेनी पड़ी.

बँटवारे में जान बचाते शरणार्थियों का आवागमन कम त्रासदपूर्ण नहीं था. जब यहाँ पहुँचे तो पिता ने पूछा, क्या-क्या लाए हो. उन्होंने माँ का फोटो दिखा दिया. गहने आभूषण और कीमती सामान वहीं छोड़ आए. इस बात के लिए पिता ने उन्हें फटकारा, तो उन्होंने बड़े विश्वास के साथ जवाब दिया, ‘पैसा तो फिर कमा लिया जाएगा बाबूजी. मेरी जो अमानत थी, उसे मैं ले आया.’

रॉयल इंडियन नेवी की नौकरी छोड़कर सिने-जगत में किस्मत आजमाने का फैसला किया. जीवन के उतार-चढ़ाव आते रहे. सैन्य जीवन में निडर और निर्भीक जीवन जिया था. तब और संघर्ष के दिनों को की तुलना करके एक दूसरा विचार भी मस्तिष्क में चला होगा कि, कहीं गलत फैसला तो नहीं ले लिया.

जीवन अनुभव से उन्होंने बहुत कुछ सीखा. आनंद बक्शी गीतों को आमजन के मनोभावों के मुताबिक गढ़ने में माहिर थे. वे जनता की नब्ज जानते थे, उनका मुहावरा जानते थे.

लक्ष्मी-प्यारे के साथ लंबी बैठक के बाद उठने लगे तो बोले ‘अच्छा तो हम चलते हैं.’ लक्ष्मीकांत ने पूछा, फिर कब मिलोगे.’ आनंद बक्शी तपाक से बोले, ‘जब तुम कहोगे.’ इस वार्तालाप से उन्होंने ‘आन मिलो सजना’ का ‘अच्छा तो हम चलते हैं…’ जैसा पॉपुलर गीत लिखा.

 

ललित मोहन रयाल

उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दूसरी पुस्तक ‘अथ श्री प्रयाग कथा’ 2019 में छप कर आई है. यह उनके इलाहाबाद के दिनों के संस्मरणों का संग्रह है. उनकी एक अन्य पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.

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Sudhir Kumar

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