ज्यादा फर्क नहीं है वरिष्ठ और गरिष्ठ अधिकारी मे

वरिष्ठ अधिकारी

अंतर देस इ
(… शेष कुशल है!)

वरिष्ठ और गरिष्ठ मे ज्यादा फर्क नहीं है… खासकर जब वो अधिकारी के संदर्भ मे प्रयोग किया जाए. गरिष्ठ भोजन हाज़मा खराब करता है. कच्ची डकारें आती हैं. रात को खाओ तो सुबह पेट साफ़ नहीं हो पाता. धीरे धीरे बी पी, हाई कोलेस्ट्राल जैसी जाने कौन कौन से बीमारियां हो जाती हैं. वरिष्ट अधिकारी की भी कुछ ऐसी ही तासीर है. वो बिना वज़ह आपका हाजमा खराब कर सकता है. रात सपने मे भी अगर मीटिंग ले ली तो सुबह तक आप उसकी डांट फटकार पचाने मे लगे रहेंगे. लम्बे समय तक साबका पड़ा तो वात, पित्त और कफ़ की आधारभूत संरचनाएं हिलने लगती हैं. सरकारी नौकर अपना सामान्य ग्यान थोड़ा संशोधित कर लें. उनके लिये बी पी, शुगर, टेंशन जैसी बीमारियों का कारण खान पान नहीं बल्कि वरिष्ट अधिकारी हो सकता है.

बिल्ले के भाग्य से छींका फूटा. कल मुझे एक वरिष्ट अधिकारी से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. ‘वरिष्ट अधिकारी से मिलने का दुर्भाग्य’ की कोई गुंजाइश नहीं है. आपको अपने सौभाग्य की सराहना करनी ही चाहिये. सौभाग्य से ही उसने मिलने का समय दिया और सौभाग्य से ही समय पर मिलने के लिये कमरे के अन्दर बुला लिया. कभी हम खुद को कभी टूटे हुए छींके को देखते हैं.

मै देखता हूं कि उनके कमरे के बाहर नाम की प्लेट लगी है. साथ मे पदनाम है. सुल्ताने हिन्द शाह-ए-ख़ावर जनाब रौबचंद. वक्त बड़ा कारिंदा है. इसने घिसकर पदनाम छोटे कर दिये. लेकिन इंसान वक्त से बड़ा कारसाज़ है. इसने अपने शान की इच्छा का अंत नहीं होने दिया. अभी भी इस इच्छा से चिपका पड़ा है. वरिष्ठ अधिकारी तो तब तक वरिष्ठ नहीं समझा जाता जब तक उसके पदनाम से वरिष्ठता न टपकती हो. यहां तो ये टपक नहीं रही थी बह रही थी.. फ्री फ़्लो. इतने बड़े अधिकारी के नाम के साथ तो खतरे की खोपड़ी वाला निशान लगाने की भी ज़रूरत नहीं. अधिकारी की आंखें अपने नामपट से निकल निकल कर झांक और आपको भांप लेती हैं.

हमने भी चपरासी को अपने नाम का पर्चा थमाया. नाम के पर्चे और नामपट में वही साम्यता है जो क्रिष्ण और सुदामा में थी. पर्चा याचना के अलावा कुछ नहीं दे सकता जबकि नेमप्लेट देने पर आये तो दो लोक भी दे सकता है.( आजकल देने पर नहीं आता लेने पर आता है और कांख के चावल भी मांग लेता है). वरिष्ठ अधिकारी का चपरासी भी वरिष्ठ होता है. उसके चेहरे पर ‘साहब बिजी हैं’ की सी व्यस्तता आपको अपने यहां आने के कारणों पर पुनर्विचार करने पर विवश कर देती है. उसके हाव भाव की ‘और कौनो काम नहीं है इनको..चले आये मुहं उठाए’ की सी तिक्तता आपको फाइल पर लगे फ़्लैग दुबारा देखने पर मजबूर कर देती है. चपरासी वास्तव में वरिष्ठ अधिकारी का वो प्रकाशमान भाग है, ऑरा है, जो पिछले जमाने में भगवानों के चारों तरफ से निकलता था और जिसके प्रभाव में भक्त के हांथ अपने आप भक्ति भाव से जुड़ जाते थे.

वरिष्ठ अधिकारी हमेशा व्यस्त रहता है. वरिष्ठ अधिकारी हमेशा व्यस्त दिखता है. उसके कमरे में जाने पर वो हमेशा फाइलों में सिर दिये दिखाई देता है. हमें लगता है कि काश… ये सिर्फ एक मुहावरा न होता और कभी यूं ही वरिष्ठ अधिकारी फाइलों में अपना सिर दे मारता.

जब हम उसके कमरे में घुसे तो वो कुर्सी पर अपनी पीठ, पीठ पर कंधे और कंधों पर पूरे विभाग का बोझ टिकाए जाने किस सुदर्शन क्रिया में व्यस्त मिला. गौर से देखने पर पता लगा कि वो कोई सुदर्शन क्रिया नहीं थी वरन दूर बैठे (..ठी) किसी अति निकट के साथी के साथ बेहद दुनियावी अनौपचारिक वार्तालाप था जिसमें शब्दों को होठों की फाड़ से बाहर आने के लिये अतिशय जद्दोजहद करनी पड़ रही थी. साहब मोबाइल पर थे. वरिष्ठ अधिकारी दो मोबाइल रखता है. एक पर्सनल यानि कि व्यक्तिगत और एक अल्ट्रा पर्सनल यानि अंतरंग व्यक्तिगत. सरकारी काम से आपको संपर्क करना हो तो कार्यालय के फोन पर कर सकते हैं. हमें देखते ही साहब ने ‘टॉक टू यू लेटर (बेबी)’ की अपुष्ट फुसफुसाहट निकाली और फोन काट दिया.

‘हां जी जनाब बताएं कैसे आना हुआ’ कहता है वरिष्ठ अधिकारी. हम उसके ‘जनाब’ कहे जाने से अभिभूत हैं और उसकी आंखो में तैर रहे ‘डिस्टर्ब कर दिया’ नहीं पढ़ पाते. हम अपने आना हुआ के कैसे बताने लगते हैं जिसे वरिष्ठ अधिकारी आंखें बंद करके लगभग ध्यान की मुद्रा में सुनता है और दो उंगलियों में फंसी पड़ी पेंसिल को हिलाने लगता है. पेंसिल में अपना अक्स देखते हुए हम जैसे तैसे कैसे के आधे रास्ते में ही पहुंचते हैं कि वो मेज के किसी अद्रिश्य कोने में लगी घंटी दबा देता है. पहले घंटियां मेज पर ही रक्खी होती थीं और वरिष्ठ अधिकारी सबके सामने ही उसे दबाता था लेकिन आजकल बड़ा परिवर्तन है.

हम अभ्यस्त हैं. हमें रुकना नहीं है. रुके तो पूरा कारण फिर से बताना पड़ेगा. हमारे वार्तालाप के बीच में ( जो कि अभी लाप ही लाप है वार्ता का दर्जा तो वरिष्ठ अधिकारी मंशा पर निर्भर करता है.) जाने किस दरवाजे से एक जीव प्रकट हुआ जिसे कामकाजी भाषा में पीए कहते हैं. ये कमरे में घुसते समय कमर से लगभग ११० डिग्री का कोण बनाता सा घुसता है जो वरिष्ठ अधिकारी के आदेशों के क्रम के अनुसार ९० से १२० डिग्री के बीच में बार बार झुकता उठता रहता है. पीए बड़ी प्राचीन चीज़ है. महाकाव्यों में इसका उल्लेख है. यही कारण है कि वरिष्ठ अधिकारी भी एक प्राचीन चीज़ है.वरिष्ठ अधिकारी की महानता की पीछे इनका बड़ा हांथ है क्योंकि वरिष्ठ अधिकारी अपनी शक्तियां इन्हीं से डेराइव करता है. ध्रितराष्ट्र भी कोई बड़े वरिष्ठ अधिकारी रहे होंगे क्योंकि उनके पीए संजय आज तक सभी प्रकार के पीओं के आदर्श हैं.

वरिष्ठ अधिकारी सिर्फ इतना कहता है कि- बताइये मिश्राजी. ‘क्या, कितना, कैसे, क्यों’ का परिसीमन पीए महोदय खुद अपनी प्रखर प्रग्या- सजल श्रद्धा से कर लेते हैं. हमारे आने का प्रयोजन भी बहुत मजबूत हो गया जब मिश्राजी के दो सहयोगात्मक शब्द हमे मिल गए.

‘बताइये आपने क्या कार्यवाही की?’ पूछता है वरिष्ठ अधिकारी और अपनी नज़रें कम्प्यूटर स्क्रीन पर चिपका देता है गो कि हमारा जवाब वहां से निकलने वाला हो. हम कार्यवाही के आधे रास्ते पहुंचते हैं कि वो ‘आखिर क्यों’ के घोड़े पर सवार होकर हमारे बगल से गुजरने लगता है. हम रास्ता छोड़कर ‘क्यों’ कि पगडंडी पकड़ लेते हैं. गिरते पड़ते कुछ दूर ही पहुंचते हैं कि वो ‘बेकार है’ के सफेद हांथी पर सवार वो हमें आगे खड़ा मिलता है. अब तो बचकर निकलने का कोई रास्ता नहीं. वो सटासट चेतावनी के कोड़े बरसाता है जिससे बार बार एसीआर एसीआर जैसी सरसराहट निकलती है. हमें धकियाते हुए सभी पगडंडियों, गलियों, चौबारों, रास्तों से परे ठेल देता है. वरिष्ठ अधिकारी चट निर्णय लेता है, पट सुना देता है, झट फाइल बंद करता है और खट मोबाइल उठा लेता है. वरिष्ठ अधिकारी आपको जाने के लिये नहीं कहता. यही एक समय है जब वो आपको समझदार समझता है और समझदार को तो इशारा ही काफी है.

डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं.

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अमित श्रीवास्तव

उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता).

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