दुनिया मुझे हेमवती नंदन बहुगुणा के नाम से जानती है. गाँव वालों के लिए मैं कळ्या था. साँवले वर्ण के कारण. काकी-ताई-दादी के लिए मैं हमेशा कळ्या ही रहा. मैं भी कभी कुछ भिजवाता तो कहता कि कहना कि कळ्या ने भिजवाया है. छः बहनों के बाद जन्म हुआ था मेरा. घर में सबका लाड़ला था. 25 अप्रैल 1919 को पौड़ी गढ़वाल में बुघाणी गाँव में हुआ था मेरा जन्म.
(Childhood of Hemvati Nandan Bahuguna)
पिता रेवतीनंदन की नियुक्ति 1926 में पटवारी के पद पर हुई थी. केदारनाथ मार्ग स्थित गुप्तकाशी में. गुप्तकाशी में ही अक्षर-ज्ञान प्राप्त किया. समीप के ही गाँव ह्यूण के गुरूजी थे, परमानंद सेमवाल. पिताजी ने उनसे मिलते ही फैसला कर लिया कि वे ही मेरी शिक्षा का श्रीगणेश करेंगे. फिर गुरूजी, शाम को घर पर आकर ही मुझे पढ़ाने लगे. लगभग तीन साल तक गुरूजी ने घर पर ही पढ़ाया. गुरूजी के साथ मेरी एक दुर्लभ फोटो भी है.
मुझे अच्छी तरह याद है, उस दिन गुरूजी स्काउटिंग की पोशाक में थे. शायद स्काउटिंग के किसी प्रशिक्षण से लौट रहे थे. संयोग से फोटोग्राफर गिरधारीलाल जी भी वहीं थे. उन्होंने फोटो लेना चाहा तो गुरूजी ने मुझे भी अपने पास बुला कर फोटो खिंचवायी. मेरे हाथ में मेरी किताब भी थी और गुरूजी के बगल में उनका हमेशा साथ रहने वाला छाता. अपने हजारों फोटोग्राफ्स के बीच मुझे ये फोटो बहुत प्रिय था. उसे देखते ही बचपन की बहुत सी मधुर यादें लौट जाती थी.
अक्षर-ज्ञान के बाद मेरा नाम सिलौंजा प्राइमरी स्कूल में लिखवाया गया. स्कूल में एक ही कमरा था और एक ही शिक्षक. सिरई-काण्डा के रुद्रीदत्त जी. एक दिन स्कूल में आग लग गयी. तब स्कूल को गुप्तकाशी में जंगलात के खाली बंगले में ले जाया गया. वहाँ आठ कमरे, दो बरामदे, एक रसोई, घुड़साल तथा परिचारकों के लिए भी कुछ कमरे थे. बामसू-मैखण्डा पट्टी में यह एकमात्र स्कूल था. साठ विद्यार्थी पढ़ते थे और हेडमास्टर थे, श्रीधरप्रसाद खाली. मेरे अक्षर-ज्ञान गुरू परमानंद सेमवाल जी और खोल-जखोट के ज्ञान सिंह जी शिक्षक थे. गुप्तकाशी में रहते हुए मैंने तीसरी कक्षा पास की.
इसके बाद कुछ समय के लिए मेरा दाखिला बुघाणी गाँव के समीप, देवलगढ़ स्कूल में करा दिया गया. स्कूल पहुँचने के लिए एक मील की दूरी तय करनी पड़ती थी. रास्ते में एक बड़ा-सा पहाड़ विशाल शिवलिंग की तरह लगता था. देखते ही मेरे अंदर श्रद्धा उमड़ आती थी. मैं आते-जाते हुए उस काल्पनिक शिवलिंग की तरफ फूल-पत्ते चढ़ा दिया करता था. मुझे देखकर मेरे दोस्त भी ऐसा ही करने लगे. बाद में जब मैं उत्तर प्रदेश में मंत्री रहते हुए बुघाणी आया तो देवलगढ़ स्कूल देखने भी गया.
(Childhood of Hemvati Nandan Bahuguna)
स्कूल की सीढ़ियों की बहुत खराब हालत देखकर मुझे बहुत दुःख हुआ और मैंने हेडमास्टर जी को तत्काल 500 रुपए देकर सीढ़ियां ठीक करवाने का आदेश दिया. जीवनपर्यंत मैं जब भी देवलगढ़ गया उस विशाल शिवलिंग-सदृश पहाड़ की ओर फूल-पत्ते चढ़ाना नहीं भूला. ऐसा विशाल और आकर्षक शिवलिंग मैंने पूरे भारत में कहीं नहीं देखा जिसने मुझे इस तरह सम्मोहित किया हो.
बुघाणी में ही मेरा मुण्डन संस्कार सम्पन्न हुआ. अभी तक मैं बालों की चोटी बनाकर ही स्कूल जाता रहा था. मुंडन के साथ ही मेरा कर्ण-नासिका छेदन भी किया गया. कानों में सोने की छोटी बालियां पहनायी गयी. सहपाठी मुझे खूब पसंद करते थे. मैं भी उनकी खुलकर मदद करता था, कभी पेंसिल कभी काॅपी इत्यादि देकर. घर पर मैं हट भी खूब करता था. एक बार फुटबॉल लेने के लिए माँ से पैसे देने की हट कर रोने लगा. माँ ने तो नहीं दिए पर पिताजी ने घर लौट कर सवा रुपया दे दिया जिससे मैंने फुटबॉल खरीदी.
बचपन से ही मैं निडर था. एक बार पिताजी के साथ रुद्रप्रयाग जा रहा था. चढ़ाई का रास्ता था. पिताजी पैदल और मैं घोड़े पर सवार था. सामने से किसी को आते देख कर पिताजी ने कहा घोड़े से उतर जाओ, मेरे साहब आ रहे हैं. मैंने भी कह दिया साहब आपके हैं मेरे नहीं, मैं क्यों घोड़े से उतरूं. ये बातें हो ही रही थी कि पिताजी के साहब डिप्टी कमिश्नर, भोलादत्त पाण्डे पास पहुँच कर पूछने लगे किस बात पर बहस हो रही है.
पिताजी ने कहा, मैं इसे समझा रहा हूँ कि साहब के सम्मान में घोडे़ से उतर जाना चाहिए. पिताजी ने सलाम करने के लिए कहा पर पता नहीं मुझे क्यों लगा कि जबरदस्ती के सलाम का क्या फायदा. पिताजी शर्मिंदा भी हुए पर साहब ने कहा, कोई बात नहीं, बच्चा है. फिर मुझसे उन्होंने कई सवाल पूछे और मैंने भी शान से घोड़े पर बैठकर ही उत्तर दिये. मेरे निडर व्यवहार को देखकर पाण्डे साहब मुस्कुराते हुए आगे बढ़ गए.
देवलगढ़ के बाद मेरा दाखिला खिर्सू स्कूल में किया गया. दाखिला रजिस्टर में अंकित हुआ – नम्बर सिलसिला-27. उमर वक्त दाखिला- 8 वर्ष 11 माह. नाम-हेमवतीनंदन. दिनांक 11.7.1930 को कक्षा पाँच में प्रवेश. खिर्सू में हेडमास्टर थे बुद्धि सिंह जी. स्कूल के छात्रावास में रहता था मैं वहाँ, कमरा नम्बर नौ में. छात्रावास के बगल में ही रीडिंग रूम था जहाँ हर शनिवार को सामान्य ज्ञान की कक्षा होती थी. दिनांक 7.8.1931 को ऊखीमठ जाने की दर्खास्त दी. खिर्सू से छटवीं कक्षा पास कर मैं सातवीं कक्षा में पढ़ने के लिए ऊखीमठ चला गया.
(Childhood of Hemvati Nandan Bahuguna)
पिताजी भी खूब साहसी थे, शिकार के शौकीन भी. जिस कुख्यात बाघ को ज़िम कार्बेट ने गुलाबराय में मारा था और जिस पर मैनईटिंग लेपर्ड ऑफ रुद्रप्रयाग नाम की किताब लिखी थी उस बाघ को मारने वाली टीम में ज़िम के साथ पिताजी भी शामिल थे. पिताजी बताते थे कि मचान के नीचे बाँधने के लिए बकरी मैं ही लेकर आया था. उस दिन ज़िम के साथ पिताजी और ईश्वरीदत्त जी भी मचान पर ही थे.
पिताजी यह भी कहते थे कि बाघ को पहली गोली उन्हीं की दुनाली की लगी थी. खुशी की बात ये थी कि बकरी भी बाघ का शिकार होने से बच गयी थी. बाद में उस बकरी के नाम भी तीन साल तक सरकारी पेंशन आती रही. और पिताजी को भी इस उपलब्धि के लिए पटवारी से तरक्की देकर कानूनगो बना दिया गया.
कानूनगो के रूप में पिताजी की तैनाती फिर से गुप्तकाशी हो गयी थी. मेरा दाखिला मिडिल स्कूल ऊखीमठ में सातवीं कक्षा में हो गया था. मैं यहाँ भी छात्रावास में रहता था. इतवार और छुट्टी के दिन मैं गुप्तकाशी आ जाया करता था. माँ भी अधिकतर पिताजी के साथ गुप्तकाशी ही रहती थी. एक बार मैं गुप्तकाशी आया तो माँ-पिताजी दोनों घर पर नहीं थे. एक साथी बीड़ी का टुकड़ा लाया और दोनों उसे जलाकर कश लेने लगे. मेरा ये नया और पहला अनुभव था. मैं न तो ठीक से कश ले पा रहा था और न ही उसका स्वाद ही मुझे अच्छा लग रहा था. बीड़ी को बुझाकर मैंने कमीज़ की जेब में रख दिया. रात को सोने से पहले पिताजी ने मेरी उतारी हुई कमीज़ की जेब में बीड़ी का अधजला टुकड़ा देख लिया.
(Childhood of Hemvati Nandan Bahuguna)
पिताजी को देखकर दुःख तो बहुत हुआ होगा, गुस्सा भी आया होगा पर उन्होंने मुझे कुछ कहा नहीं. दूसरे दिन चंद्रापुरी से कोई सज्जन पिताजी से मिलने आए तो जैसा कि तबका चलन था उनके स्वागत के लिए हुक्का भर कर लाया गया. पिताजी ने प्यार से मुझे आवाज़ लगाकर बुलाया और हुक्का सुलगाने का आदेश दिया. साथ ही उन सज्जन को भी बताया कि अब तो मेरा पुत्र भी तम्बाकू पीने लायक सयाना हो गया है. ये सुनकर मुझे डर से पसीना आ गया. मैंने तत्काल पिता से माफी माँग ली.
केदार घाटी का सौंदर्य अद्भुत था. उन दिनों छात्रावासी बच्चों को शिक्षकों और मेस के लिए जंगल से जलाऊ-लकड़ियां लेकर भी आना होता था. हमारे लिए तो ये पिकनिक जैसा ही हो जाता था. कभी काफल तोड़ कर खाते थे कभी माल्टे-नारंगियां. पर खतरे भी कम न थे. खतरनाक चट्टानी रास्ते से होकर भी गुजरना पड़ता था. एक दिन हुई उस दुर्घटना को कभी भुला नहीं पाता हूँ. उस दिन दो साथियों के साथ मैं एक काफल के पेड़ पर काफल निकाल रहा था. काफल की एक लम्बी-सीधी टहनी को देखकर हम उसको हिलाकर झूला झूलने लगे. तभी किनारे बैठे साथी का संतुलन बिगड़ा और वो नीचे खाई में गिर गया. कितने डरे हुए थे हम उस दिन. उसके घर जाकर इस हादसे में, साथी की दुःखद मृत्यु का समाचार देना सचमुच कितना हृदयविदारक था.
साथी की हादसे में मृत्यु का दुःख तो बहुत था पर इससे हमारी शैतानियों पर लगाम तो नहीं ही लगी. स्कूल आते-जाते एक बार हमने रास्ते में पीली पकी हुई नारंगियों से लकदक पेड़ देखे. हमारा मन नारंगियों के लिए ललचा गया. कुछ नजदीक जाकर निरीक्षण किया तो देखा चालाक पेड़स्वामी ने पेड़ों पर छोटी-छोटी घंटियां बाँध रखी हैं. इसलिए कि जैसे ही पेड़ से नारंगी निकालने की कोई कोशिश करे तो घंटियां बजकर उसे पता चल जाए. हमने उसका भी तोड़ निकाला. पहले घंटियां काट कर नीचे रख दी और फिर इत्मीनान से नारंगियां तोड़कर खायी.
स्कूल में शनिवार को इंटरवल के बाद बालसभा आयोजित की जाती थी. वाद-विवाद सहित बहुत सारी प्रतियोगिताएँ आयोजित होती थी. मुझे इन प्रतियोगिताओं में भाग लेना और शिक्षकों को प्रभावित करना बहुत अच्छा लगता था. खासकर वाद-विवाद में भाग लेना बहुत अच्छा लगता था. नवम्बर के महीने में ऊखीमठ में मद्महेश्वर मेला का आयोजन होता है. ऊखीमठ-मंदिर के गेट पर मेले के उपलक्ष में अनेक प्रतियोगिताएँ होती हैं. प्रतियोगिताएँ, केदारनाथ के रावलजी द्वारा आयोजित करवायी जाती हैं. उस समय श्री नीलकंठजी 332वें रावल थे. हमारे स्कूल के सभी छात्र उत्साह से वहाँ भाग लेने जाते थे.
हेडमास्टर श्री सुरेशानंद जी के नेतृत्व में सभी अनुशासित और उत्साहित होकर, हाथों में छोटे-छोटे तिरंगे झण्डे पकड़े, परेड करते हुए मंदिर-द्वार तक पहुँचते थे. मैंने भी वहाँ एक छोटा-सा भाषण दिया था. मेरे भाषण से प्रसन्न होकर रावलजी ने मुझे ग्यारह रुपए का पुरस्कार दिया था. वो भाषण स्कूल से बाहर, मेरा पहला भाषण था, मेडन स्पीच. उन दिनों मिडिल का मतलब कक्षा-7 उत्तीर्ण करना होता था. मैंने भी ऊखीमठ स्कूल से साल 1931 में मिडिल पास कर लिया था.
मेरी कहानी, पुस्तक (प्रकाशनाधीन) से. हेमवतीनंदन बहुगुणा जी के अक्षर-ज्ञान गुरू स्व. परमानंद सेमवाल इन पंक्तियों के लेखक की पत्नी के नानाजी थे – देवेश जोशी
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1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी अंगरेजी में परास्नातक हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं.
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