जगथली गाँव से दादा का संदेशा आया है कि बुधवार की सुबह पहली बस से निकलेंगे. गंगोलीहाट-हल्द्वानी वाली केमो आठ बजे से पहले ही चौकोड़ी लग जाती है. मुन्ना को जल्दी पहुँचा देंगे तो सुविधा होगी. एक रात चौकोड़ी रुकना ठीक रहेगा. मौसम खराब है, बारिश लग गई तो फिर दिक्कत होगी जाने में.
(Childhood Memoir by Gyan Pant)
यह बात काशीरथल के किड़ु ने आज ही बताई है कि मुन्ना पणज्यू कैं तैयार करि दिया हो बराँणज्यू और अभी जाने में पूरे पाँच दिन बाकी हैं लेकिन आमा को उड़भाट (बेचैनी ) हो गया है. पोथा, तु ले न्है जाछैं पैं ! जांण् त भये, पढ़ाई लिखाई ले जरुरी भै. मैं ले हिट दिन्यूँ पर के करुँ, यो गोरू, बाछा म्यार गति लागी भ्या. हाथ्-खुट छन जाणें इनन छाड़न जसि न लागनि. पायी तायी भ्या, खाल्ली पाप लागौल. कहते हुए आमा रूँआसी हो गई है. गला भर आया है उसका.
भीतर रसोई में देखते हुए खुटकूँण के सहारे भरबाटुन ( दोछत्ती ) जाती है. तांबे के बरतनों में लुकाई पोटलियाँ ढूँडती है तो बरतन नींद से उठ जाते हैं. अखरोट, भट, गौहत का तौल इधर है और उसमें भांग धरा है. अलबखरा-र् वाट वो रक्खे हैं, चूक की शीसी हराई नहीं, पीछे लुढ़की है. छिलुके की मध्यम रोशनी में आमा खुद को समेटती जा रही है और अब पुन्तुरियों (पोटलियों) में ही नीचे उतरेगी. लगता है बेरीनाग-लखनऊ के बीच वर्ष भर आमा ऐसे ही पुन्तुरी-पुन्तुरी सपने, अपने बच्चों के बच्चों के लिए भी बचाती रहती है. कभी आयेंगे तो ठीक वरना कोई लखनऊ जाने वाला मिला तो उसी के हाथ भेज देती है. इस बार मुझे ले जाने हैं.
आज वृहस्पतिवार है. बुद्ध के हिसाब से आमा सोचती है कि मंगल को पहुँचाना होगा तो कैसे जाएंगे रेबाधर के घर? मंगल के दिन किसी के घर जाना अच्छा नहीं मानते. बच्चों की बात अलग है. वां गई साल भरि है ज्यादे है ग्यो त कौल कि कभैन-कभै बुड़ी मंगला दिन ऐ मरी. चाचा के साथ भेजना नहीं चाहती कि कहीं फसक में लग गया तो जग्गू गाड़ी छुटा देगा. वैसे भी अपने ही हाथों रेबाधर को सोंपेगी, निर्देशित करेगी कि रास्ते में ठीक से जाना, मुन्ना का ध्यान रखना, बाबू के लिए जवाब-सवाल भेजेगी. यह भी बताएगी कि दो ककड़ी और चूक के चार दाने तुम्हारे लिए हैं और ये केदारी के हैं. केदारी माने श्री केदार दत्त पंत, पिताजी हैं.
सातवीं का इम्तिहान दिया है मैंने. बीस मई को रिजल्ट के बाद का आना था लेकिन प्रयाग दादा को छुट्टी जल्दी मिल गई तो सात मई को हम पहाड़ आ गए हैं. आज अट्ठाइस जून है. इस बीच मैं, आमा के हाथ’क भा्न (बहुत करीबी) रहा हूँ. उसके दाँत गिने, असमय चेहरे पर आ गई झुर्रियों में गाड़, गधेरे, खेत, खलिहान, हिसालु, किनमड़, काफल, साग, भाजी और भी न जाने क्या- क्या मतलब पूरा पहाड़ देखा. रौन छैं (कोने की ) की तात (गरमी) बिस्तर तक आते-आते आमा के मुँह से मुँह जोड़ लेता तो सर पर हाथ फेरते हुए वह कहती – ते घैंण न लागनीं रे? बुड़ मैंसन है बास न चितुनैं ( तुम घिनाते नहीं? बुड्ढों से बदबू नहीं लगती ). मैं कपड़े से बनी उसकी बित्ते भर की लटि (चुटिया) खोलता तो वह कहती कि ऐसा न कर, चार बाल बचे हैं. कुरूली बाँध जाती है एक बार तो तीन दिन चलते हैं. नींद खुलने तक आमा, नहा-धोकर, गाय बछियों को आँगन में बाँध चुकी होती. उसका तो कुछ नहीं मालुम लेकिन मेरे लिए कर्याड़ी (घर के पीछे) में सैफ्टी टैंक की अस्थाई व्यवस्था थी. दाड़िम जैसा यह समय आज भी उर्जा श्रोत है और इसी लिए रह-रहकर याद आता है.
(Childhood Memoir by Gyan Pant)
चाचा आए हैं और आमा की मानमनौव्वल पर इस शर्त के साथ तैयार हुए हैं कि गाड़ पार करा कर लौट आऊँगा. जगथली जाने का समय नहीं है, तो आमा ने साफ मना कर दिया. आफि रूँ जग्गुवा, तु आपण काम कर. किड़ु छैं कै राखौ. काशीरथल जाते समय उसने सोमवार की शाम को ही झोला झंटी पहुँचा दी है. अब मंगलवार दोपहर तक आमा मुझे पहुँचा आएगी लेकिन रेबाधर दादा के घर नहीं जाना है.
जून के महीने हमारी तरफ पानी की शुरूआत हो जाती है. इस बार भी गुरघटिया में भयंकर बाड़ आई है लेकिन आमा के लिए नयाँ कुछ नहीं. सामान्य दिनों में पानी में पत्थर अपनी उपस्थिति दिखाते हैं लेकिन बाड़ में नजर नहीं आते. आमा जानती है इसीलिए पानी से बचाते हुए पार ले गई है. बीच नदी में पैर उखड़ने लगे तो उसने लगभग कमर के सहारे मुझे लटका लिया था.
आमा को देखते ही घर के लोग नीचे आ गये और घर चलने की जिद करने लगे. मंगलवार की बात पर सब मान गए और आमा दही खाकर वापस लौट रही है. कुछ देर बाद रेबाधर दादा के साथ मैं भी चौकोड़ी जाऊँगा. रात्रि वहीं रहा जाएगा. यह सब इंतजाम उन्होंने कर रक्खा है लेकिन मैं चाहता हूँ आमा के सही सलामत घुरघटिया पार कर घर पहुँचने की खबर मिल जाए और यह तो गाँव से लौटते हुए किड़ु ‘दा ही बता पाएंगे. घुरघटिया नदी गाँव की लाईफ लाईन है जिसने सदियों घट रिङाए और खेतों को खूब पानी पिलाया है. इतना ही नहीं क्षेत्र में ला्टभ्यो ताल, हड़कीताल, भैस्सीताल और अद्भुत छीड़ भी भेंट की है.
चौकोड़ी की चढ़ाई चढ़ते हुए दादा समझा रहे हैं. चिंता मत करो, आमा घर पहुँच गई होगी. रोते क्यों हो, अगले साल गर्मी की छुट्टियों में फिर आना और मेरी समझ कुछ भी नहीं आ रहा है.
(Childhood Memoir by Gyan Pant)
मूलतः पिथौरागढ़ से ताल्लुक रखने वाले ज्ञान पन्त काफल ट्री के नियमित पाठक हैं . वर्तमान में लखनऊ में रहने वाले ज्ञान पंत समय समय पर अपनी अमूल्य टिप्पणी काफल ट्री को भेजते रहते हैं. हमें आशा है कि उनकी रचनाएं हम नियमित छाप सकेंगे.
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Bahut marmsparshi aur Jeevant sansmaran hai. Pahad ka niswas Lagane wala . Sunder .
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