कॉलम

फ़िल्मों की बहार उर्फ़ जाने कहां गए वो दिन – 2

(पिछली क़िस्त से आगे) सिनेमा की टिकटों के लिए खिड़की खुलने से काफी पहले ही लम्बी क़तार लग जाया करती…

6 years ago

फ़िल्मों की बहार उर्फ़ जाने कहां गए वो दिन – 1

जिस तरह पुराने हीरो अब हीरो नहीं रहे, एक दम ज़ीरो हो गए हैं या दादा-नाना बनकर खंखार रहे हैं,…

6 years ago

चलो दिलदार चलो – एक म्यूजिक डायरेक्टर थे गुलाम मोहम्मद

साहिर लुधियानवी ने लिखा था - “ये बस्ती है मुर्दापरस्तों की बस्ती”. ताज़िन्दगी आदमी इस मुगालते में जीता है कि…

6 years ago

उत्तराखण्ड की एक बीहड़ यात्रा की याद – 3

रूद्रप्रयाग जा रही रोडवेज की खटारा बस की सीट के नीचे बैग रख रहा था कि कातर भाव से आकाश…

6 years ago

आम के नाम

आम तो बस आम है. इसका कोई जवाब नहीं. खास ही नहीं, आम आदमी का भी मनपसंद फल. देश भर…

6 years ago

समाचारों के प्रस्तुतीकरण के वैचारिक चरित्र

पत्रकारिता की पाठ्यपुस्तकों में यह बताया जाता है कि हर समाचार में ‘कौन’, ‘क्या’, ‘कब’, ‘कहां’, ‘क्यों,’ और ‘कैसे’- का…

6 years ago

कुमाऊं की रामलीला से कुछ झलकियां

कुमाऊं की रामलीला बहुत चर्चित रही है. देश को अनेक रंगकर्मी इस रामलीला ने दिए. बी एल शाह, बी एम…

6 years ago

अभी क्या हाल है हमारी पृथ्वी का

आइए, जरा अपनी पृथ्वी पर नजर डालें. यह विशाल सौरमंडल का एकमात्र ऐसा ग्रह है जिस पर जीवन है. इसमें…

6 years ago

जग्गा डाकू का पहला सबक

मेदिनीधर के बड़े भाई थे, वंशीधर. वंशीधर भाई पढ़ने में बहुत होशियार थे. न जाने कब उन्हें उपन्यास पढ़ने की…

6 years ago

उत्तराखण्ड की एक बीहड़ यात्रा की याद – 2

इस ट्रैवलाग ने एलानिया कहानी बनने की तरफ पहला गोता मार दिया है. लेकिन मैं इसे पूरी ताकत लगाकर कहानी…

6 years ago