कुमाऊं की जातिगत परम्परा के अंतर्गत ब्राह्मणों के भीतर भी वर्ग किये गये हैं. इस वर्गीकरण के आधार पर कुमाऊं में तीन तरह के ब्राह्मण देखने को मिलते हैं. इन तीनों ही ब्राह्मणों का आपस में विवाह नहीं होता है. इसके अलावा ख़ुद को उच्च मानने वाले ब्राह्मण अन्य ब्राह्मणों के हाथ का भात नहीं खाते हैं. आपस में निमंत्रण होने के बावजूद उच्च कहे जाने वाले वर्ग के ब्राह्मण अन्य ब्राह्मणों के यहां भोजन नहीं करते हैं अथवा अपने वर्ग के ही किसी ब्राह्मण के हाथ का भोजन खाते हैं. अन्य वर्ग के ब्राह्मणों की कोशिश रहती है कि उच्च वर्ग के ब्राह्मण को किसी तरह अपने चूल्हे का भात खिला दे.
(Brahmins of Kumaon Hills)
वर्तमान में इस प्रकार की स्थिति देखने को कम हो गयी है लेकिन अभी भी अत्यंत ग्रामीण क्षेत्रों में इस प्रकार की मर्यादाओं को कठोरता के साथ निभाया जाता है. कस्बाई और शहरी क्षेत्रों में अब ब्राह्मणों के सभी वर्गों में विवाह होना भी एक आम बात हो चली है.
इस वर्गीकरण के आधार पर कुमाऊं के ब्राह्मण चौथानी, पचबिड़िया और खतीमन या पितलिया, तीन प्रकार के होते हैं. चौथानी ब्राह्मण सबसे उच्च ब्राह्मण समझे जाते हैं. प्रबुद्ध विद्वान शेर सिंह बिष्ट के अनुसार चौथानी ब्राह्मणों का ज्योतिष दर्शन और पांडित्य का अधिकार होता है. चन्दों के काल चौथानी ब्राह्मण ही राजा के सलाहकार हुआ करते थे. आर्थिक रूप से सर्वाधिक संपन्न चौथानी ब्राह्मणों का चंद शासकों के समय ख़ासा राजनैतिक दखल रहा है. चौथानी ब्राह्मण दीवान, सेनापति और राजनितिक सलाहकार जैसे उच्च पदों पर रहा करते थे. लोक की भाषा में चौथानी ब्राह्मण ठुलधोत्ती बामुन कहलाते हैं.
(Brahmins of Kumaon Hills)
पचबिड़िया ब्राह्मण, चौथानी ब्राह्मणों के बाद आते हैं. कुमाऊं के अधिकाँश ब्राह्मण इसी श्रेणी के हैं. पचबिड़िया ब्राह्मण ऐसे ब्राह्मण हैं जो अपनी आजीविका जजमानी से कमाते हैं. पचबिड़िया ब्राह्मण आम लोगों के यहां और मंदिरों में पूजा पाठ कर जीवनयापन करते हैं. न तो ये धनवान होते हैं न राजनीति में कभी इनका दखल रहा. आर्थिक रूप से इन ब्राह्मणों की स्थिति बहुत मजबूत नहीं कही जा सकती. पचबिड़िया ब्राह्मण स्थानीय भाषा में नानधोत्ती बामुन कहलाते थे.
तीसरे और सबसे निम्न समझे जाने वाले ब्राह्मणों को खतीमन या पितलिया ब्राह्मण कहा गया है. इस श्रेणी में आने वाले ब्राह्मणों के लिये स्थानीय बोली शब्द हलबानी बामुन हैं. हलबानी बामुन कृषि करते हैं और अपने खेतों में अन्य कृषकों की तरह ख़ुद हल चलाते हैं. उनकी आर्थिक स्थिति भी सभी ब्राह्मणों में सबसे कमजोर होती है.
पुराने समय में ब्राह्मणों के बीच इस वर्गीकरण का पूरी कठोरता के साथ पालन किया जाता था और इन वर्गों के बीच रोटी-बेटी का संबंध भी नहीं था. वर्तमान में सभी वर्गों की आर्थिक स्थिति और शैक्षिक स्थिति में हुये सुधार के चलते इन सबका प्रचलन बहुत कम हो चला है.
(Brahmins of Kumaon Hills)
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पहले तो जाति भेद, फिर जातिगत वर्गभेद, फिर सामाजिक उन्नति के आधार पर इन भेदों का सिमटते जाना, किस बात का द्योतक है?
शिक्षा का प्रसार, आर्थिक सुदृढ़ीकरण, वैश्विकीकरण। क्या हम भविष्य में एक जातिविहीन, धर्म विहीन, रंग विहीन समाज की कल्पना कर सकते हैं?
जातिगत भेदभाव ने ही गढ़वाल का छतियानाश कर के रखा है।जो हथियार , औजार और हल का निर्माण करते हैं, जो आपके घरों का निर्माण करते हैं , जो आप लोगों के शादी-ब्याह में गीत संगीत कार्यक्रम करते हैं उन्हें तथाकथित उच्च जाती का समझने वाले मुगल आंकरताओं और अंग्रेज़ों के साथ कोई भेदभाव नहीं। कई तथाकथित उच्च जातीय वर्गो की संतान उन निर्दोष जन जिनको आपने समाज के सबसे निचले पायदान पर रखा का श्राप कई सदियो तक झेलना पड़ सकता है।आज पूरे उत्तराखंड मे जो मस्जिदों का अंबार लग गया है इसके लिए कौन दोषी है केवल और केवल उच्च जातिगत भेदभाव जिन्होंने अपने हिंदु भाइयों को हमेशा नीच रखा। आपकी पत्रकारिता एक वामपंथी सोच रखती है ।
मात्र ऊपरी बातें है ये कुमाऊँ में ब्राह्मणों की ऐसी कोई जातीय श्रेणी नहीं है, ये सब बकवास बातें लिखी हैं, आपके लेख अनुसार तो ऐसा प्रतीत होता है कि कुमाऊँ में ब्राह्मणों की 3 जातियां हैं जिनकी आपस मे ही नहीं बनती। पहाड़ों में ये प्लेन्स वाला नीयम नहीं चलता उदाहरण के लिए हलबानी बामन आपके अनुसार निम्न माने जाते हैं और गरीब होते हैं पर सच्चाई तो यह है कि ब्राह्मणों को कभी भी अमीर गरीब के पैमाने से नहीं ज्ञान के पैमाने से देखा जाता है, उसके बाद कर्म द्वारा। पश्चिमी तकनीक द्वारा ज्ञान किया गया लगता है आपका, ज्ञानार्जन करना चाहिए पर एक समय और स्थान के अनुकूल ही, हर जगह एक ही माप दण्ड नहीं लगते। हलबानी ब्राह्मण बाकि ब्राह्मणों की तरह कर्मकांड नहीं करते बल्कि एकांत वास ज्यादा करते हैं आरण्यकों की तरह, क्योंकि वे नागर ब्राह्मणों की तरह समाज मे कोई भूमिका नहीं निभाते इसलिए उन्हें समाज के लिए कमतर समझा जाता है, इसका भेद भाव से कुछ लेना नहीं है। यहॉं यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कुमाऊँ का समाज भी पूर्व में खस समाज ही था जहाँ सब एक ही जैसा कार्य करते थे अर्थात पशुपालन और कृषि, इसलिए वहाँ भेदभाव जैसा कुछ नहीं था। बाद में जब प्लेन्स से जो क्षत्रिय समाज आया वही अपने साथ कितनी ही नई रीतियां लेकर आया जिसमे ये जातिवाद भी था। आज भी उत्तराखण्ड में (खासकर खस लोगों में) जातिवाद उतना प्रचलन में नहीं है जितना प्लेन्स में है। कुमाऊँ में ग्रामीण ब्राह्मण समाज मे जो ऊपरी बटवारा दिख रहा है वह कर्म के आधार पर है न कि अमीर गरीबी के आधार पर है, पर वह इतना भी भयानक नहीं है जीतना इस लेख में दर्शाया जा रहा है, रोटी-बेटी का रिश्ता नहीं है यह कहकर इस लेखक ने तो यहाँ की भोली जनता को ही बदनाम कर दिया, आज भी यहाँ जाती से ज्यादा व्यक्तित्व का सम्मान होता है। पहले बाहर के लोग यहाँ आकर अपनी प्रथाएँ जोड़ते हैं फिर जबतक हम उनको अपनाते तब तक प्लेन्स में उस प्रथा को कुरीति करार दे दिया गया, तो इसमें गलती किसकी है ?