कला साहित्य

‘बिद्दू अंकल’ शैलेश मटियानी की प्रतिनिधि कहानी

लोग हमें गाँव में भी ‘बिद्दू’ ही पुकारते थे, दिल्ली शहर तो दिल्ली ही हुआ. यहाँ गाँव भनौरा, तहसील पट्टी, जिला-प्रतापगढ़, यू०पी० के न सिर्फ ये कि गरीब, बल्कि करीबन अनाथ गवई लरिका की हैसियत कितनी? लेकिन पुकारे चाहे कोई भी सिर्फ ‘बिद्दू’ ही, सुनाई हमें पूरा देता रहा- बिद्यासागर !
(Biddu Uncle Shailesh Matiyani Story)

हक तो नाम को चाहे जितना संछिप्त करके पुकारने का, सबसे पहले– बल्कि कहिए सबसे ज्यादा-माँ का ही हुआ, जो कि दस महीना उदर में रखे रहीं, सालों छाती का दूध पिलाई. किंतु बिस्सास मानें, हमारी अम्मा का ये सुभाव रहा कि जब बहुत लाड़ में हुईं, तब भी- ए बिद्यासागर !’- और बहुत ही गुस्सा हुईं, तो भी–ए बिद्यासागर!

समझिए कि सिर्फ उच्चारण से पुकारने का मर्म बदल जाता रहा और एक ‘ए बिद्यासागर’ में हम बंदर की तरह इतना तेज दौड़ें कि जमीन पर औंधे मुँह गिर पड़ने से बचें, तो अम्मा की छाती से टकरा जाएँ. और दूसरा ‘ए बिद्यासागर’ सुनें, तो-खैर, शरारती और चालाक तो बचपन में हम लाखों में एक-दूर से ही कान पकड़ लें. अपना ढक्कन यों कर लें कि जाने कितनी ठौर पिचका भया. ढक्कन, यानी कि मूंड ! अउर ऊपर से तान दें ऐसा करुण संगीत कि जिसके कानों में पड़े, वही ठंडा पड़ जाए-फिर अम्मा, तो अम्मा ! -आप लोग तो खुद ही जानते होंगे कि और तो और, राच्छसों की अम्मा का चित्त भी कोमल. हमारी अम्मा तो हमारी अम्मा. गुस्सा तो जाने कहाँ ‘फुर्र’-बस, ये कि मार चुम्मे पर चुम्मा. एक हाथ से नाक की रेंट पोंछे जा रही हैं, तो दूसरे से आँसू. एक से बाल सँवारे जा रही हैं-‘ए बिद्यासागर !’ -दूसरे से काँख में कुरकुरा रही हैं- ‘ए बिद्यासागर !’ और हम हैं कि छंटे चार सौ बीस. -नान-से तो हैं, आँचल में मूंड गड़ा के निर्दुद पड़ गए हैं. फिर कुछ सयाने भी हो गए, तो गुड़ से नीचे कहाँ माने हैं ?

लेकिन, ठहरिए, ऊपर एक बात गलत कह गए कि-‘तान दें ऐसा संगीत’-तो ऐसा नहीं कि अम्मा न रहीं, तो फिर कभी नहीं ताने, मगर वो क्या है कि आँसू अम्मा के आँचल में गिरे, तो मोती-दीगर के सामने गिरे, तो गीज. सो जैसा समय पड़ा, तैसा ही हमारा संगीत तानना होता गया, बाबू साहेब ! और होते-होते हम ऐसे काठ हुए कि चाची एक दिन पीटते-पीटते परास्त होकर, आखिर यही बोल गईं-‘बड़ा बज्जर है, भइया, ई ससुर तो.’
(Biddu Uncle Shailesh Matiyani Story)

तब तक में इतना ज्ञान हमें हो गया रहा कि जहाँ कुछ कहे का अर्थ न रह जाए, वहाँ तो चुप रहो, तब सुखी रहो.

अब देखिए हमारा इस दिल्ली शहर का अहवाल कि जब टिंकू भइया और रिंकी बेबी बार-बार चिढ़ाएँ हमें कि “एस.आई.आर.भी.ए.एन.टी. – सर्भेट माने नौकर! नौकर माने- बिद्दू अंकल!’ -तो हम कुछ भी कहे थोड़े ही, बिलकुल चुप लगा गए कि जो सचाई है, उसकी खातिर बालकों को दोष क्यों दें? -यहाँ तक कि पँडाइन दीदी जी दोनों को डाँटी हमारे ही सामने कि ‘ए टिंकू-रिकी, क्या बकवास कर रहे हो?’ -लेकिन एक तो ये कि अपनी औकात जानो, तो गुस्सा क्यों करो. और दूसरी बात ये, बाबू साहेब, कि हम खुद पँड़ाइन दीदी जी को बच्चों को यों पढ़ाते सुने रहे, रसोईघर में काम करते-करते, कि–’एस.ई.आर.भी.ए.एन.टी.-‘

टिंकू भइया पूछे कि ‘सरभेंट किसको कहते हैं, मम्मी? ये भी आदमी होते हैं क्या?’ -पँडाइन दीदी तुरंत बताईं कि ‘हाँ, जो घर की झाडू-बुहारी, कप-प्लेटों की धुलाई और बरतनों की मँजाई, जूता-पालिश वगैरा के वो काम कर, जिसे घर के बाकी कोई जन ना करते हों, तो उसे सर्भेट, यानी नौकर कहते हैं!’

तब मुटल्ली गुड़िया-सी रिंकी रानी क्या पूछती हैं, दाँत निपोरती- जैसे अपना बिदू अंकल, मम्मी?’- तो एकाध छिन को दुविधा में पड़ती-सी, आवाज को थोड़ा धीमा करती, दीदी जी कहती हैं कि- हाँ!’

आप अचरज करेंगे, साहेब, कि दीदी जी तो बोलीं क्या कहते हैं कि डायलिंग रूम में, वो भी आवाज दबाकर, और हम सुन लिए किचिन अंदर. तो एक तो हम आपको थोड़ा पाँड़े साहब जी का बँगला समझा दें कि इधर लोदीनगर या सफदरजंग वाली साइड से आप पहुँचे जब जोरबाग, तब सात कोठी पार करने के बाद पीली, मार चमचम करती दुमंजिली कोठी. ऊपर लाल ईंटों वाली बरसाती ऐसी खपसूरत कि कबूतर बैठें, तो उड़ाए न उड़ें!- कैसा किसम-किसम के फूल-पौदों से भरा तो वो, जिसे क्या कहते हैं आपके दिल्ली शहर में लौन!

खैर, जो जगह छूट गई, अब उसके इतने बिस्तार में क्या जाएँ. जितने दिन का कितना अरसा हुआ होगा हमको? कार्तिक की इग्यारहवीं को चले थे, ये माघ का महीना आ गया.-हम, शायद, दाना-पानी की बात कर रहे थे कि कितने दिन का बदा था- और हाँ, यह कि पाँड़े साहब जी के यहाँ जो यों लंबा-सा डायलिंग रूम है-टी. पी. सलीमा देखिए, तो सचमुच का सलीमा हॉल मालूम पड़ता है-किचिन उससे बिलकुल चिपका-सा तो है और सुनने का तो अब ये बाबू साहेब, कि शायद आप सिर्फ सोचेंगे, हम सुन लेंगे. कहावत वही कि लवारिस के पेट-कान एक. वेदना आदमी के आँख-कान हाथ-मुँह सब खोल देती है, बाबू साहेब! -और ये बात नहीं ना कि जब वेदना में होते हैं, तो अब संगीत नहीं तानते हम ? नहीं साहेब, खूब तानते हैं. बस, ये है कि अपने ही भीतर यों कि अम्मा के सिवा ओ ओ-ऊपर वाला सुने, तो सुने-दीगर कोई न सुने! क्योंकि जिसने सुनकर ‘ए बंदरवा, बिद्यासागर’ कहते, हमसे रोने का मतलब ना पूछा, आए आँसू ना पोंछे, बल्कि घिरना से चहेट लिया कि क्या चिल्ल-पों मचा रहे हो, ससुर!’ -उसके आगे रोने से, तो मरना भला कि नहीं?
(Biddu Uncle Shailesh Matiyani Story)

ऐसा नहीं कि खुद की चमरई से कभी व्याकुल नहीं हुए और कहीं जा मरने का ताव नहीं आया कभी हमें, मगर जब भी इतने अधिक व्याकुल-से होते हैं, कि आत्महत्या की सोचें-जाने कहाँ से अम्मा आवाज-सी देती चली आती हैं कि–’ए बिद्यासागर ! ए बिद्यासागर !’- समझिए कि कभी-कभी तो यों मालूम पड़ता है कि अम्मा का पुकारना सुनकर पागलों की भाँति सारी दुनिया से बेखबर रि-रि-रि-रि दौड़ पड़ें, तो टकरा पड़ेंगे, अम्मा से.

अपनी अम्मा जी के बारे में बिस्तार से क्या बतावें, बाबू साहेब! -समझिए कि अम्मा तो तभी चली गईं, जब हम कुल जमा पाँच-छै साल के रहे होंगे, लेकिन अम्मा का देखना नहीं गया. आज भी ये हाल है कि कभी भूखे हैं, तो लगता है कि देख रही हैं-नंगे हैं, तो देख रही हैं. उचाट जागे पड़े हैं, तो देख रही हैं-गहरे सोये पड़े हैं, तो देख रही हैं.

शायद, आपको बिस्सास न आता होगा? सोचते होंगे, जो गौधाम को चला गया, सो कहाँ देखता है? किंतु ऐसा है, बाबू साहेब, कि हम आपके बिशाल दिल्ली में करीबन चार, साढ़े चार महीना रहे जरूर हैं, मगर आखिर-आखिर गाँव के मनई हैं. आपको बतायें, कि हमारे ताऊ श्राद्ध करते रहे. दाल-भात-खीर बनावें, तो कहें कि पितर देख रहे होंगे. तो आदमी, शायद है, पृथ्वी से चले जाने के बहुत बाद तक भी देखता हो? याकि हमें ही इस बात से तसल्ली मिलती हो कि कोई देख जरूर रहा है. दुख और विपदा पड़े पर भीतर की तसल्ली भी ना रही, तो कौन सहारा रहा. अब क्या कहें, साहेब, कैसे बतायें कि देखने की बात क्या, हम अम्मा को कहानी बोलते सुने हैं. सपने में? नहीं साहेब, जागते में भी.

अच्छा, आपको ऐसे न बिस्सास बँधता हो, तो हम कुछ घटना सुनावें? कहानी तो बाद में सुनाएँगे, जब उसका प्रसंग आए. अभी तो सच्ची घटना सुनाते हैं. जैसे कि एक बार हम गाय-भैंस चरा के लौटे, तो आले में रखा गुड़ थोड़ा खा गए. इतने में ही जाने कहाँ से जमीन फूटती-सी प्रकट हुईं चाची और ले थप्पड़-धूंसा-लात करती थक गईं और फिर भी हम रो के नहीं दिए, तो मार खिसियाई बोलीं कि- ‘बड़ा बज्जर है, भइया, ई ससुर तो.’

हमें पीड़ा न होती हो, ऐसा तो नहीं ना, बाबू साहेब ! लेकिन जब जबर भूख में थोड़ा गुड़ खाने पर पिटे, तो हम भी कुछ ऐसे जिद्दी पड़ते गए कि मारो, जी भर के मारो! हमारे लेखे तो तुम जाने किसको मारती हो, हम तो गायब हैं.

खैर, चाची के आगे तो सुन्न साध गए हम और बाहर यों निकले कि जैसे मेले में जाते हों! -किंतु जैसे-तैसे ताऊ जी के खलिहान तक पहुंचे हैं, तो अपने को सँभालना कठिन है-धन्न

और से गिरे हैं जमीन पर. कहिए कि संझा हो चुकी है, अँधेरे में किसी को दिख नहीं रहे हैं जैसे संझा के गीदड हो गए हों- हम मार संगीत ताने जा रहे हैं, मगर बाबू साहेब सुनने वाला कौन है वहाँ? आम, अमरूद, पपीता के पेड़ हैं और भाँति-भाँति के पक्षी  रात-भर पुआल की ढेरी में छिपे पड़े रहे हैं कि ‘चाची, बज्जर कह दी हो, तो अब बज्जर ही जानो! पलटेंगे नहीं.’

तब ही देखिए कि जब हम माथा पटके जा रहे हैं कि कोई नहीं है सुनने वाला, तो आखिर क्यों वीराने के गीदड़ बने पड़े मार हुआँ हुआँ मचाए पड़े हैं हम? परमेश्वर की तो क्या कहें, बड़ी गंदी गाली निकलती है मुँह से लावारिस ढोर-डंगर करके छोड़ दिया हमें. वो तो क्या कहें माँ बहन की गाली हमसे नहीं होती अगर तो देते जरूर! न हो ससुरा ईश्वर-फीश्वर, हमें तो गरिया के खुद की तसल्ली करनी है. क्यों, बाबू साहेब, आदमी की मानता हो कि गाली, हर वस्त तो खुद की तसल्ली को है. मगर अभी हम इसी हाय-हाय में हैं कि कोई उधर अमराई से, जाने कि कहाँ से, अम्मा की-सी आवाज में बोलता सुनाई पड़ रहा है-‘ए बिद्यासागर !” आप कह सकते हैं, हम खुद को तसल्ली दे रहे होंगे, मगर प्रसंग आ गया है, तो अब ये भी बता दें कि राच्छस के बेटे की कहानी फिर उसी रात सुने हैं. दुबारा, जाने कि तिबारा-चौबारा. पहले तो यों था कि अम्मा हमें छाती से सटा लिया करें, तब कहानी शुरू कि- जंतर-मंतर, महा मछंदर, बोल री मछली कितना पानी? क्या नाम कि साखी रहें लहुराबीर, एक रहा राच्छस दोसिंगा; तिनके घर जनमा बेटा मनसू. बाप के सींग, मगर बेटवा के गायब, एक्को नहीं. जब राच्छस ने डाँटा मनसू की अम्मा को, कि क्यों री करमजली, राच्छस दोसिंगा के बेटे के एक्को सींग क्यों नहीं? तो मनसू की अम्मा क्या जवाब देती है कि बछड़े को सींग फूटते भी दो साल लगते हैं. तुम क्या अम्मा के पेट से ही सींगों वाले निकले थे?’ मगर जब तीन-चार बरस बीत गए-दिन, हफ्ता, महीना गुजरते-गुजरते-और मनसू के सींग फूटे नहीं, तो दोसिंगा राच्छस ने उसकी अम्मा को मार डाला कि तेरे चरितर में खोट. नहीं तो, राच्छस के घर मानुस का जनम कैसे? अभी बेटा मानुस अम्मा की वीरानी से ही नहीं उबरे थे कि बाप ससुर राच्छस दोसिंगा भी यमराज को प्यारे हो गए. आखिर मनसू बेटा को कुछ काल तक पालीं-पोसी घर की गैया और बिल्ली, कुछ दिन जाने कौन-आखिर जब जवान हुइ गए बेटा मनसाराम, तो बेटी ब्याह लिए राजा के दीवान की. जैसा सुख बेटा मनसू पाए, तैसा सब पावें. अम्मा तो बड़े बिस्तार से सुनाया करती थीं. बीच में कुछ लय में गावें भी, मगर हमको अब इतनी ज्यादा अस्मृति नहीं ना. हम तो, साहेब, फिर यही कथा सुनते-सुनते, भूखे-प्यासे जाने कब निंदिया नानी के हवाले हो गए, कुछ पता नहीं.
(Biddu Uncle Shailesh Matiyani Story)

सुबह ही बगिया में पंछियों का चहकना सुने हैं, तो समझिए कि भनौरा से कुंडा हरनामगंज तक का कोसों लंबा रास्ता ऐसा ताबड़तोड़ नापे हैं कि जैसे भूत हो गए हैं. कहाँ जाना है, क्या करना है-आगे जीना है कि मरना है-कुछ चेतना नहीं है. इतने नादान नहीं हैं-उन्नीसवाँ चलता होगा अब तो, मगर समझिए कि कुएँ में का मेंढक बाहर निकलेगा भी, तो कितनी धरती नापेगा ? प्राण काँप रहे हैं कि अब किस मुँह से वापस जाओगे भनौरा? -और अगर नहीं जाओगे, तो जाओगे कहाँ? जानो इसी द्विविधा में भले दोपहरी में अँधेरे बियाबान में भटकते से हैं कि आखिर चकनाचूर पलेटफारम पर मूंड़ी लटकाए बैठते ही क्या देख रहे है कि सामने ही कुछ लोट-सा पड़ा है ! जैसे आवाज देता कहता हो कि ‘अकेले घबरान छूटती हो, तो हमें साथ लिए चलो.’ हम तुरत चौकन्ना हुए कि कोई और न देख ले.

वहाँ से सीधे बाहर निकलकर, कम से कम फर्लाग-भर का रास्ता छलाँग के मुट्ठी जो खोले है, तो आप कुछ बिस्सास करेंगे, बाबू साहेब, कि कितने की लोट? पाँच की? अरे, अम्मा सौं, दस-बीस भी नहीं, पूरे सौ की.

अब यहाँ तक का सफर पार करके इतना तो बता दें कि निरच्छर भट्ट हम नहीं ना. हमारी लिखावट देखें आप, तो मानेंगे नहीं कि इस्कूल दर्जा दो से आगे न गए होंगे. बस, समझिए कि जैसे अभी-अभी सौ की लोट का जिक्र कर रहे थे, लोट के हाथ में आते ही सोचे हम कि जब चाची लात मारती थी, अम्मा तब से देखती होगी बरोबर-और हम ना कहते होंगे, वही कहती होगी कि ए विद्यासागर, अब यहाँ नहीं, रे बेटावा!’

शायद, आगे भूल जावें कि दर्जा दो में पढ़ते थे, तो तब की एक बात आज भी याद रखे है कि ईश्वरचंद बिद्यासागर सड़क की रोशनी में पढ़ा करते थे. भनौरा वाले घर में कहीं हमारी दर्जा दो के समय की वो रूलदार काँपी, शायद है, अब भी पड़ी हो, कि जिसके जाने कितने पन्ना हम मार ‘अम्मा अम्मा’ ही लिखके भरे हैं. एक ‘अम्मा’ से दूसरे, दूसरे से तीसरे-यों ही सुंदर से सुंदर ‘अम्मा’ बनाने के चक्कर में पूरी काँपी भर डाले थे.

आप कहेंगे, पिताश्री का जिक्र नहीं करते हैं हम, पूज्य तो वो भी हुए. ऐसा है, बाबू साहेब! कि अपने बाबू जी को कानों से तो सुने जरूर कि बड़े नेक मनई रहे -आँख से देखना हमारे भाग में बदा न रहा. अब ज्यादा वक्त खराब न करेंगे आपका. हम भी इस इंडिया गेट के मैदान में उदास-उदास बैठे हैं कि शायद कोई लोग देखें और पूछे कि ‘ए छोकरे, कहीं नौकरी तो नहीं करते हो?’ तब हम धूल झाड़ते उठ खड़े हों और हाथ जोड़ के कहें कि नहीं, बाबू साहेब, कहीं नहीं.’

तब आप कहेंगे कि पाँड़े, जब नौकरी ही करनी थी, तो पाँड़े साहब जी के यहाँ से क्यों भाग खड़े हुए? इतने आला अफसर, कभी-न-कभी कहीं सरकारी दफ्तर में चपरासी ही लगवा देते. तो ऐसा है, बाबू साहेब, कि हम जो कहे कि अम्मा का देखना नहीं गया, तो यों ही नहीं ना! एक सीमा होती है हमारे व्याकुल होने की. इसके बाद तो जैसे कोई हाथ पकड़ता हीच लेता है कि ‘उठ, विद्यासागर, निकल चल यहाँ से! दुनिया बहुत बड़ी है रे !’

आपै सोचें कि ई हवामहलों वाली नगरी में और कौन सुधि लेगा हमारी? एक बात कहें, बाबू साहेब? अस्मृति हमारी बचपन से बड़ी चौचक रही. हमसे पूछिए, हम एक-एक जानवर का रंग बताएँगे. झौंरा बरदा के सींग यों ऊपर उठे रहे कि हिरना हो जैसे. विनतिया का एक सींग हमरे ही मारे टूटा रहा. और मोती कुकुर की क्या कहें? जितने में हम पुकारें कि’मी’ ऊ ससुर दनाता मार प्यार के भो भो करता टाँगों से लिपटा जा रहा है. ऐसा आँधी-सा दौड़ता कि बाजे वक्त हम औचक गिर पड़ते हैं जमीन पर, और ऊ ससुर ..’ करता, हमारे उठने का इंतजार करने लगता है. खैर छोड़िए, हम आपको सिर्फ अम्मा की बाबत बताएँगे कि कैसन गोरी-चिट्टी तो रहीं. बाईं ओर बड़ा-सा मस्सा रहा. जैसन हम कि पहले ही बताए रहे अपने बारे में कि छंटे गुंडा रहे बचपन में! कभी तो दूध पिएँ और कभी मस्सा ही भर लें मुँह में तनिक किट्ट से काट लें-अम्मा जल्दी से आँचर उठावें ऊपर-हमें डपटें कि. बिद्यासागर ते समर बड़ा बंदरवा है रे !’

ऐसा है, बाबू साहेब, आप कहेंगे कि जब बड़े सुभिमानी बनते हो ससर तो हम परदेशी के आगे ही क्यों टेसुए बहा रहे हो ? हम हाथ जोड़ लेंगे, साहेब, कि आप धीरज से सुने हैं हमारी बिथा, तो थमा पानी फूटा है. ‘तुम कहो, हम सुनेंगे तुम्हारी विपदा.’ कहने वाले सज्जन इस संसार में बहुत मुश्किल से मिलते हैं. माफ करें, साहेब, बड़ा वक्त लिए हैं आपका. अब बहुत संक्षेप में आपको बताएँ कि आपके इस दिल्ली शहर में कैसे पहुँचे. हरनामगंज तक की कथा सुनाए रहे. आगे ये कि सौ का नोट तुड़ावें कहाँ ? दूध-जलेबी खाने का जी ललचावे, मगर डरें कि हलवैया ससुर कहीं चोर न समझ ले.-लाल जी को तसल्ली दें कि जिसका भी गिरा होगा, अम्मा की प्रेरणा से ही तो गिरा होगा. फिर भी हम मार डरे रहे कि जाने कौन पुकार ले कि–निकाल मेरा नोट !’ आखिर दुपहरिया होने तक मन मारे रहे हम-और तब खरीदे ये रेडीमेड कपड़े जो कि इस वक्त भी पहने बैठे हैं आपके सामने. और, वो जो हम कहे कि अम्मा गईं, उनका देखना नहीं गया. समझिए कि रायबरेली टेशन पहुंचे हैं, तब लैटरिन में बदले हैं कपड़े-और साहेब वो क्या कहते हैं आपके दिल्ले शहर में नवीन कपड़ा ओढ़े तो क्या नाम कि-

सब कुछ चला जाएगा, साहेब, हमारी अस्मृति में से अम्मा का अस्पर्श नहीं ना जाएगा. -नवीन कपड़े पहन के टेशन के बाहर निकले हैं, अउर खूब छक के दूध-जलेबी हींचे हैं, तो बड़े जोरों की डकार आई है हमें, तो अकीन जानिये, कुछ झुरझुरी-सी छूट गई. जैसे अम्मा पेट पर हाथ फेरती पूछती हों कि- ‘ए बिद्यासागर! पेट तो भरा ना, बेटवा?’

आप कहोगे कि पांड़े साहब का घर छोड़ के गलती किए हैं. हो सकता है, आप सोचें कि नौकरी कामचोरी के मारे छोड़े हैं, और अब यहाँ गप्प हाँक रहे हैं. मगर बिस्सास करें, साहेब, कि जहाँ करते हैं, बड़ा जी लगा के काम करते हैं. कामचोरी-बेइमानी कभी सूझे भी ना, बाबू साहेब! बस, यही डर कि अम्मा देखेंगी तो! -खुद पँडाइन दीदी एक दिन पाँड़े साहब से कहती रहीं कि ‘इस बिदुआ की नौकरी अभी कहीं किसी दफ्तर में न लगा देना. एक बार सरकारी नौकरी पाने के बाद, फिर घर का काम कौन करता है? लड़का है बड़ा मेहनती, भला और ईमानदार!’ -हम कहने को हए कि ‘दीदी जी, हमारा भरोसा करें. -किंतु डर गए कि कहीं डाँट न लगा दें कि ‘चोरी से बातें सुनता है क्या, रे बिद्दू?’

क्या है, साहेब, कि बड़ा नाम सुने रहे दिल्ली शहर का और अंटी गरम रही, सो रायबरेली से सीधे यहीं दिल्ली का टिकट कटाए. टेशन पर उतरे हैं कि तभी परियावाँ वाली पँडाइन दीदी दिखाई पड़ गई हैं कि-‘कस रे बिहू, एहाँ कहाँ?’-समझिए कि बड़ा लाड़ जताती संग लेती आई. थोड़े दिन तो ये रहा कि कोई पूछे, तो बताए कि ‘रिश्ते से ममेरा भाई लगता है हमारा.’ –पाँड़े साहिब भी ‘गाँव का लड़का’ ही कहें- सर्भेट नहीं. टिंकू-रिंकी कहें- बिद्दू अंकल ! बिद्दू अंकल !’

फिर धीरे-धीरे सारा भरम जाता रहा. आखिर-आखिर आज का दिन भी आ लिया, साहब! आप कहोगे कि नौकरी तो नौकरी – हम कहेंगे कि एस.ई.आर.भी.ए.एन.टी. सर्भेट. सर्भेट माने नौकर- अउर नौकर माने बिदू! इसमें कोई हर्ज नहीं ना, बाबू साहेब! -किंतु सर्भेट माने बिद्दू अंकल? यानी कि अंकल माने सर्भेट?

चलें, साहेब! कहीं कुछ हमारी खातिर नौकरी-चाकरी की जुगाड़ देखें, तो ध्यान रखेंगे, नौकरी लगने तक हम रोज दोपहर यहीं बैठे मिलेंगे. आप तो दूर से ही पुकार लें कि-ए बिद्दू-‘

हम सुनेंगे, ‘ए बिद्यासागर !’ -दौड़े आएँगे आपकी तरफ. जै राम, साहेब, जै राम !
(Biddu Uncle Shailesh Matiyani Story)

शैलेश मटियानी

हिन्दी के मूर्धन्य कथाकार-उपन्यासकार शैलेश मटियानी (Shailesh Matiyani) अल्मोड़ा जिले के बाड़ेछीना में 14 अक्टूबर 1931 को जन्मे थे. सतत संघर्ष से भरा उनका प्रेरक जीवन भैंसियाछाना, अल्मोड़ा, इलाहाबाद और बंबई जैसे पड़ावों से गुजरता हुआ अंततः हल्द्वानी में थमा जहाँ 24 अप्रैल 2001 को उनका देहांत हुआ. शैलेश मटियानी का रचनाकर्म बहुत बड़ा है. उन्होंने तीस से अधिक उपन्यास लिखे और लगभग दो दर्ज़न कहानी संग्रह प्रकशित किये. आंचलिक रंगों में पगी विषयवस्तु की विविधता उनकी रचनाओं में अटी पड़ी है. वे सही मायनों में पहाड़ के प्रतिनिधि रचनाकार हैं.

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इस भी पढ़ें: एक शब्दहीन नदी: हंसा और शंकर के बहाने न जाने कितने पहाड़ियों का सच कहती शैलेश मटियानी की कहानी

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