बड़े से लॉन में उगायी गयी अमेरिकन घास के बीच-बीच में उग आयी चलमोड़िया घास की जड़ें खोदने में खड़क सिंह इस कदर मशगूल था कि उसे बहुत देर तक झुलसाती हुई धूप का अहसास ही नहीं हुआ. सूरज की किरणें जब खिड़की के शीशे में टकराकर उसकी आँखों में चुभने लगीं तब कहीं उसका ध्यान टूटा. उसने कुदाल जमीन पर रख कर आसमान की ओर देखा. सूरज अखरोट के पेड़ की ओट से निकलकर ऊपर उठ आया था. समय का अहसास हुआ तो भूख-प्यास भी महसूस हुई. वह घुटनों पर हाथ रखकर उठ खड़ा हुआ और पसीना पोंछता मोरपंखी की छाया में जा बैठा.
(Bedkhli Story By Shambhu Rana)
रोटी का कौर चबाते हुए खड़कसिंह ने खिड़की के शीशे की तरफ देखा पर ठीक से देख नहीं पाया. चमक से आँखें चुंधिया गयी. पल भर को आँखों में न जाने कितने किस्म के रंग और बेलबूटे भर गये. उसने कस कर आँखें भींच ली और रोटी चटनी चबाता रहा…
अपने हाथ की रोटियाँ निगलते हुए खड़कसिंह को अक्सर एक किस्म की चिढ़, गुस्सा और असन्तोष-सा महसूस होता है. रोटियाँ या तो जल जातीं या अधपकी रह जातीं. कोई बीच में मोटी तो कोई किनारों में. जैसी रोटियाँ वह चाहता या उसकी कल्पना में थीं वैसी तवे पर नहीं उतर पातीं. वह झुंझला कर रह जाता. अगर खड़कसिंह पढ़ा-लिखा होता तो कह सकता था कि उसे मनपसंद रोटियाँ न पका पाने का ‘फ्रस्टेशन’ है.
ऐसे में अक्सर उसे तुलसी की याद आती है. वैसी गोलगप्पे सी फूली-पकी और संतुलित, रोटियाँ मुँह में रखते ही गल सी जातीं. कटोरे में सब्जी डालने तक वह एकाध यूँ ही खा जाता. बकौल तुलसी भूख के साथ. खड़कसिंह जवाब देता नहीं, स्वाद के साथ… तुलसी कहती आ…हा…हा स्वाद… हो गया हो, तुम भी बस..! कभी-कभी वह तुलसी से कोई प्यारी-सी शर्त लगा देता कि यह रोटी नहीं फूलेगी, तेरा बाप भी इसे नहीं फुला सकता. अगर नहीं फूली तो याद रखना शर्त क्या है… और रोटी गप्प से फूल जाती. वह झुंझला कर गालियाँ देने लगता और तुलसी हँस पड़ती. कभी-कभी रोटी नहीं फूलती, तुलसी हार जाती…
आज जब कभी खड़कसिंह ऐसे पलों को याद करता है तो एक टीस-सी कलेजे में उठती है और समझ में आता है कि उसका मान रखने को ही तुलसी कभी-कभार ‘हारती’ थी. चूल्हे से उठती लपटों और दिये के उजाले में दमकता चेहरा, लज्जाती आँखें, होठों से रिसती मुस्कान… वह सब किसी हारे हुए के चेहरे में नहीं हो सकता.
कितने बरस बीत गये तुलसी को गये, खड़कसिंह दिमाग पर जोर डालता है, पाँच साल. एकाएक यकीन-सा नहीं होता उसे. समय कितनी तेजी से गुजरता है. लौट कर न समय आता है न गुजरा आदमी. बस, एक चीज इंसान के साथ अखिर तक साये की तरह चलती है- लिए गए फैसलों से उत्पन्न नियति. फैसले में जरा-सी चूक हुई नहीं कि यादों के भूत आखिरी साँस तक मुँह चिढ़ाने का कोई मौका नहीं छोड़ते. तब भीतर कहीं जो नश्तर- सा चुभता है, वह जाने कहाँ चुभता है कि तड़प शब्दातीत हो जाती है. एक काँटा-सा भीतर कहीं और गहरा धँसता जाता है.
इसी जमीन पर जहाँ आज अमेरिकन घास और बिलायती फूल उगे हैं, तब गेहूँ, मक्का, सरसों, मडुवा, मादिरा उगता था. सिर्फ उगता ही था, लहलहाता नहीं था. जैसे खुशहाल गाँव और खेती सरकारी विज्ञापनों में नजर आती है, वही सब होता तो यह सब नहीं होता. कुल जमा बीसेक मवासों का गाँव यूँ उजड़ न गया होता. लोग एक-एक कर कब गाँव छोड़ गये, अंदाजा नहीं आया. गाँव के जो लोग फौज या दूसरी नौकरियों में थे, वे तो नहीं आये, कम से कम लौट कर नीचे मैदानों में न जाने कहाँ-कहाँ जा बसे.
उन्हें गाँव में रहना कुछ वैसा ही लगता, जैसे जूता पहनने के आदी को नंगे पाँव चलने में महसूस होता है. वे लोग शहरी जीवन, आराम, सुविधाओं और कई बुराइयों के ऐसे आदी हो कर वापस लौटते कि जो गाँव में मुमकिन नहीं थी और कई चीजों का तो गाँव में लोगों ने नाम भी नहीं सुना था. गाँव में न रहने के पीछे उनके तर्क थे. यहाँ गाँव में क्या रखा है. बाल कटवाने तक को आठ किलोमीटर दूर जाना पड़ता है. बच्चों को कहाँ पढ़ायें? हर एक किलोमीटर पर स्कूल तो खोल दिया पर उनका स्तर क्या है. ऐसे स्कूलों में बच्चा न तो ढंग से पढ़ पाता है न उसकी मासूमियत बरकरार रहती है. अब देखो तीन महीने से ट्रांसफार्मर फुंका पड़ा है, है कोई सुनने वाला? पता नहीं, कहाँ आ बसे हमारे बुजुर्ग… ठीक ही कहता था रमिया हवलदार शायद. पर यह सब उसी जैसे लोग कह सकते हैं. जिनके पास शहर में बसने लायक पैसा था, फिलहाल अच्छी तनख्वाह और बाद में पेंशन थी. बाकी लोग किस सहारे ऐसा कहते?
(Bedkhli Story By Shambhu Rana)
कैसी अजीब बात सुनने में आई कि दिल्ली, बम्बई, लखनऊ, नोएडा न जाने कहाँ-कहाँ से आ आकर साहब लोग यहाँ की लगभग बंजर जमीन को खरीदना चाहते हैं! लगा, कहीं साहब मजाक तो नहीं कर रहे. क्या करेंगे आखिर इस जमीन का? इसमें होता क्या है, है किस काम की? अपने ठाठ में राजाओं तक को शर्मिन्दा कर देने वालों को क्या जरूरत है इस जमीन की, क्या करेंगे इस उजाड़ में. क्योंकि नीचे काफी भीड़-भाड़ है शोर-गुल है, अशान्ति है, भागम-भाग है और भी न जाने क्या-क्या है वहाँ जो साहबों को रास नहीं आता. इसलिये सोचते हैं कि यहाँ एक कुटिया-सी बनवा लें. जब कभी फुर्सत मिले, आकर ताजी हवा में साँस लें, दो पल शान्ति से गुजारें और सामने हिमालय देखें. पैसा काफी कमाया पूरी दुनिया की खाक छानी… पैसा कोई चीज नहीं ठाकुर साहब हाथ का मैल है. शांति और प्रेमभाव असल चीज है. देवभूमि में…
रमिया हवलदार पहला आदमी था जिसने अपनी जमीन किन्हीं रिटायर्ड कर्नल खन्ना को बेची. जमीन के एवज मिली रकम से उसने हल्द्वानी में बड़ा-सा मकान बनवा लिया.
बच्चे अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ते हैं. मकान से ढेर सारा किराया आता है. ठाठ ही ठाठ है… खबरें आती रहती… इधर खन्ना साहब ने रमिया की जमीन पर छोटा-सा बंगला बनवा लिया साल भर के अन्दर-जैसा अक्सर कलैंडरों में छपा होता है. कर्नल साहब कभी-कभार यहाँ आकर रहते. कभी अकेले तो कभी सपरिवार. बेगानों की तरह गाँव वालों से कटे-कटे से. गाँव का ही एक लड़का बंगले में खानसामे, चौकीदार और माली की नौकरी पा गया. कर्नल के पीछे बंगला उसी के जिम्मे रहता.
धीरे-धीरे गाँव में जमीन बिकने लगी. रमिया हवलदार के बाद जिन लोगों ने अपनी जमीनें बेंची, उनमें अधिकांश परिवार ऐसे थे कि जिनका कोई सदस्य बाहर नौकरी करते हुए शहर की सुविधाओं का आदी हो चुका था. उसका परिवार भी दो-चार बार उसके पास जाकर उन सुविधाओं को देख और एक हद तक भोग चुका था. वे सुविधाएँ और चमक-दमक उन्हें कितनी मुहैया थी, वो बात और है. कुछ चीजों के दर्शन ही काफी होते हैं. ऐसे ही लोगों की देखा-देखी बाकियों के दिमाग में भी एक कीड़ा-सा कुलबुलाने लगा. जमीन की एवज में जो रकम मिल रही थी, उसके गावतकिये से सर टिकाकर एक दरिद्र आदमी चाहे जो सपना देख ले. लोग सोचते, अखिर यह जमीन हमें दे क्या रही है? साल भर मेहनत करके पेट भरना मुश्किल होता है. बाकी लोग ऐश कर रहे हैं, हम ही क्यों रेत से तेल निकालने की उम्मीद में मर-मर कर जियें. इतने रुपयों से क्या नहीं हो सकता? दुनिया का कौन-सा सुख और आराम है जो नहीं जुटाया जा सकता?
जिन लोगों ने जमीन बेची थी उनकी एकाएक कायापलट हो गयी थी. हर ऐशोआराम की चीज उनके पास थी. लड़कियों की शादियाँ बड़ी धूम-धाम से अच्छे घरों में हुई. लड़के नये-नये फैशन के कपड़े पहनते और रात में भी काला चश्मा लगाये घूमते. खा-पीकर पड़े रहना या समय बिताने को जुआ खेलना और शाम को लड़खड़ाते हुए घर लौटना परिवार के पुरुषों का नियम था. महिलाओं के शगल अलग थे. जिनकी जमीनें नहीं बिक पायी थीं या जिनकी आत्मारूपी कटखनी कुतिया फिलहाल जमीन बेच देने के ख्याल को दिलोदिमाग की चौखट नहीं लांघने दे रही थी, ऐसे लोगों को पड़ोसियों के ठाठ-बाठ देखकर एक अजीब-सी कुढ़न होती. रातों को देर तक पुरखों की थात बेच खाने के लिये उनकी बुराइयाँ होतीं. मगर अटक-बिटक मजबूरन हाथ उन्हीं के आगे पसारना पड़ता. पड़ोस से गोश्त पकने की महक आ रही होती और इधर आलू का थेचुआ उबल रहा होता या लहसुन का नमक पिस रहा होता. ऐसे में अक्सर खड़कसिंह जैसों को हीनताबोध आ घेरता और मन उदास हो जाता. जी चाहता कि हमारी बेवकूफी के लिये कोई जूता लेकर हम पर पिल पड़ता तो मन कुछ हल्का हो जाता और एक किस्म का सन्तोष होता.
शुरू-शुरू में जब कभी खड़क सिंह जमीन बेचने की बात करता तो तुलसी बुरी तरह लड़ने लगती. मगर धीरे-धीरे उसकी आवाज में वह बात नहीं रह गयी थी. पैसे ने उसे भी ललचाना शुरू कर दिया था. उसके पास इस बात का कोई ठोस जवाब नहीं था कि इतने रुपयों से हम क्या नहीं कर सकते. उसके विरोध का स्वर अब कुछ-कुछ ऐसा हो चला था जैसे किसी ने मुंह में कपड़ा ठूंस दिया हो- ‘जो भी करोगे ठीक से सोच-समझ कर करना, जगहँसाई ठीक नहीं.’ जमीन बेचने का फैसला खुद खड़कसिंह के लिये भी इतना आसान नहीं था एक अनजाना सा डर अंत तक मन के किसी कोने में बना ही रहा. डेढ़-दो साल की कशमकश और उधेड़बुन के बाद आखिर एक दिन उसने फैसला कर ही लिया. सड़क से लगभग सटी हुई अपनी ज्यादातर जमीन उसने नोएडा के किन्ही शर्मा जी के हाथों बेच दी. शर्मा जी की कई शहरों में न जाने काहे की मिलें थी.
खड़क सिंह रातों-रात अमीर हो गया था. उसे एकाएक यूँ महसूस हुआ जैसे वह पूरी दुनिया को ऊँची पहाड़ी पर चढ़कर देख रहा हो. खुद को वह मोटे गद्दों पर चलता हुआ-सा महसूस करता. जिन बातों पर वह कल तक लोगों से झगड़ पड़ता था, उन्हीं बातों पर अब वह यूँ हँस पड़ता जैसे बड़े बच्चों की बातों पर हँसते हैं. उस पर हर वक्त कुछ वैसी ही मस्ती और भारहीनता-सी छाई रहती जैसी वह कुछ घण्टों के लिये होली के दिन महसूस करता था. हर चीज नई-नई और खुशगवार, जी चाहता कि पत्थर को भी प्यार से सहला दे…
(Bedkhli Story By Shambhu Rana)
शुरू-शुरू में ठाठ-बार में पड़ोसियों को पीछे छोड़ने की कोशिशें की गयीं. हफ्ते के सातों दिन गोश्त पका. दिखा-दिखाकर सोना खरीदा और पहना गया. तमाम देनदारियाँ चुकाई गयीं. बतौर शुक्राना सौ-पचास रुपया या कोई उपहार अलग. खड़कसिंह उन दिनों एकाएक मैं से हम हो गया. सपरिवार अक्सर शहर जाना होता और ढेर सारी बेमतलब की खरीददारी की जाती. जो खड़कसिंह पहले बआसानी जीपों की छतों में बैठ कर या लटक कर सफर कर लेता था, अब गाड़ियों में थोड़ी-सी भीड़ देखकर नाक-भौं चढ़ाकर अक्सर टैक्सी किराये पर ले लेता.
परिवार की आदतें बिगड़ने लगीं. जमीन बिक चुकी थी. काम-धाम कुछ था नहीं. हाथों को ही नहीं दिमाग को भी कड़ी मेहनत की पुरानी आदत थी. खाली रहने का ख्याल भी दुखदायी होता. करे क्या, बस खुराफातें सूझतीं. तुलसी को रिश्तेदारों के निमंत्रण मिलने लगे. धीरे-धीरे उसे भी घूमने का चस्का लग गया. वह अक्सर दौरे पर ही रहती. उसकी गैरमौजूदगी में घर न जाने कब शराब और जुए का अखाड़ा बन गया. खड़क सिंह जो पहले ताश का एकाध आधा-अधूरा खेल ही जानता था, अब एक मज़ा हुआ खिलाड़ी बन चुका था.
इसी धक्कम पेल और नई-नई अमीरी के हो हल्ले में एक यह अच्छा काम हुआ कि लड़की की शादी काफी धूम-धाम से ठीक-ठाक घर में हो गयी. लड़का आठवीं के बाद घर बैठ गया. तथाकथित इण्टर कॉलेज काफी दूर था और लड़के को पढ़ाई के प्रति कुछ खास दिलचस्पी भी नहीं थी. यूँ तो खड़क सिंह ने उसे पढ़ाई छोड़ देने पर डाटा पर मन ही मन सोचा कि पढ़ कर ही कौन-सा राजा हो जायेगा. एक से एक पढ़े-लिखे घूम रहे हैं. एक ही तो लड़का है सब इसी का है. पड़ा भी रहेगा तो जिन्दगी भर ठाठ से खा लेगा. साढ़े तीन लाख रुपया क्या कम होता है? खड़क सिंह का सोचना ठीक ही था. उसने कभी साढ़े तीन हजार भी शायद एकमुश्त न देखे हों उससे पहले. उसे पैसे की टेढ़ी चाल कौन समझाता कि तू तो अनाप-शनाप फेंक रहा है पैसा तो रखे रखे भी बिला जाता है. कौन कहे खड़क सिंह जैसों से कि बैंक बैलेंस एक पीकदान की तरह है जिसमें नियमित रूप से अगर न थूका जाये तो उसे सूखते देर नहीं लगती. करीब तीन-चार साल का जीवन मैदानी नदी की तरह शान्त चलता रहा. घटनाविहीन दुखों और तनावों से दूर. सभी तरह के सुखों और आराम से भरपूर. ख्वाब और नशों की-सी स्थिति. एक तरह से हवा में उड़ने का सा अहसास…
खड़क सिंह को पाँव तले वही खुरदरी जमीन होने का अहसास तब कहीं जाकर हुआ जब तुलसी ने अचानक मुरझा कर बिस्तर पकड़ लिया. पेट में मरोड़ें उठतीं और मारे दर्द के वह सर पटकने लगती. करीब महीने भर तक तरह-तरह के टोने-टोटके गढ़े, ताबीज और जागर चलता रहा. कोई फायदा नहीं. मर्ज बढ़ता गया. फिर बारी आई अस्पतालों और डॉक्टरों की. खड़क सिंह तुलसी को लिये न जाने कहाँ-कहाँ फिरता रहा. तकलीफ किसी की समझ में नहीं आयी. इलाज चलता रहा. दो-एक महीने में तुलसी और उसके जेवर दोनों ही निपट गये.
दुनिया में चारों ओर उदासी और उचाटपन था. सब तरफ दुख, अभाव और पीड़ा. अजब बेगानापन… सूरज पता नहीं कहाँ था. आसमान में काले घने बादल. धरती पर नीम अंधेरा. हर चीज उल्टी और बेतुकी कोई हँसता तो अपनी ही हालत पर हँसता जान पड़ता. फूलों को पाला मार गया था. तितलियों के पंख टूटे थे. हरी दूब पर न जाने किसने नमक बुरक दिया था. कानों में अनगिनत गैरफहम आवाजें मगर आँखों के आगे स्याही-सा गाढ़ा अंधेरा… हवा में अजीब-सा कसैलापन और चितायें जलने की बू. खड़क सिंह की हालत कँटीली झाड़ियों में अटके तीर बिंधे अधमरे परिन्दे सी थी… या तो आदमी अपनी जान ले ले या दीवाना हो जाये. इसके सिवाय दुनिया में कहीं पनाह नहीं…
(Bedkhli Story By Shambhu Rana)
खड़क सिंह कहाँ जाये? किससे कहे? किसके गले लगकर रोये? किस दीवार से अपना सर पटक दे? किसका कत्ल कर दे? पानी में डूबते-उतरते की-सी दशा… कोई आके या तो बीच कपाल में गोली मार दे या उबार ले. खड़क सिंह आखिर करे क्या? थक हार कर एक दिन उसने शर्मा जी के निर्माणाधीन बंगले में मजदूरी माँग ली. उन्हीं शर्मा जी का बंगला बन रहा था, जिन्हें उसने जमीन बेची थी. खेतों को तोड़कर बड़े से मैदान में बदला जा रहा था, मैदान के बीचों-बीच बंगले की बुनियाद खोदी जा रही थी. चारों ओर पत्थर, रेता और कंक्रीट बिखरा पड़ा था. अपने हाथों जोती, बोयी और सींची हुई जमीन पर पड़ता हर गैंती-फावड़ा उसे अपने ही सीने पर घाव करता-सा जान पड़ता. भीतर कहीं एक हूक-सी उठती. कलेजे को जैसे मसल रहा हो कोई दिन मानो अपनी ही कब्र खोदने में बीत जाता पर रात काटना अपनी गर्दन काटना हो जाता. अंधेरा होते ही कानों में अजीब-सी खिल्ली उड़ाने वाली हँसी गूँजने लगती और आँखों के आगे न जाने कैसे साये तांडव करने लगते.
खड़क सिंह को यह सब किसी बेतुके ख्वाब-सा लगता है. कभी-कभी लगता है कि नहीं, यह सब हुआ नहीं बल्कि मैं ऐसा सोच रहा था, मेरी कल्पना थी यह सब. वह खुद को हकीकत और ख्वाब के दलदल में धँसता-उबरता महसूस करता हाथ-पाँव भारता किसी ठोस चीज को थामने के लिए. उसे याद नहीं कि वह कैसे इस दलदल में आ गिरा. खुद गिरा या धकेला गया. सिलसिलेवार कुछ भी याद नहीं आता. सब आपस में गड़बड़ हो जाता है. खड़क सिंह दिमाग पर जोर डालकर भी ठीक से याद नहीं कर पाता कि कब उसका बेटा शर्मा जी के नोएडा वाले बंगले में दरवान बन कर चला गया.
कब यह बंगला बना, कब वह वहाँ चौकीदार और माली की हैसियत से नौकरी करने लगा. कब… अपनी बेटी को न देखे उसे कितने बरस हो गये कब आई थी चम्पा आखिरी बार माँ के मरने के बाद… क्या कहा था उसने यही लॉन में रोते हुये…. हाँ…. ना… हाँ… कि बाबू यह कोठी मेरा मायका जो क्या हुआ… तुम यहाँ नौकर ठहरे… मायका तो खण्डहर हो गया… मेरे भाग में कभी-कभार मायके आने का सुख भी नही… तुम्हारी सूरत कैसी डरावनी हो गयी है. मुझे पहचान भी रहे हो कि नहीं बाबू?
चम्पा… चम्पा… हरीश … क्या सचमुच मेरे दो बच्चे हैं… सुना कि चम्पा के भी बच्चे हैं… कुसूरवार हूँ रे तुम सबका… किससे जाकर अपनी करनी की सजा मागूँ… किस अंधेरे में जाकर मुँह छिपाऊँ? तुलसी ने बर्तनों को राख से मल कर आंगन की दीवार में औधे रख दिया है. काँसे की पतीली धूप में कैसी सोने-सी चमक रही है. देखो तो आँखें चुंधिया जाती हैं.
खड़क सिंह की आँखें खुलीं तो सूरज की किरणें खिड़की के शीशे में टकराकर उसके चेहरे पर पड़ रही थीं. मोरपंखी की छाया में न जाने कब उसे नींद आ गयी. सूरज हल्का-सा पश्चिम की तरफ उतर चुका था. खड़क सिंह आँखें मलता हड़बड़ा कर उठ बैठा. फिर काफी देर हथेलियों में सर थामे बैठा रहा सर में चोट खाया-सा. कुछ देर बाद उसने मुँह धोकर पानी पिया और घुटनों पर हाथ रखकर उठ खड़ा हुआ. चलमोड़िया घास की जड़ें खोदने और बिलायती फूलों को सींचने के लिये.
(Bedkhli Story By Shambhu Rana)
शंभू राणा
शंभू राणा विलक्षण प्रतिभा के व्यंगकार हैं. नितांत यायावर जीवन जीने वाले शंभू राणा की लेखनी परसाई की परंपरा को आगे बढाती है. शंभू राणा के आलीशान लेखों की किताब ‘माफ़ करना हे पिता’ प्रकाशित हो चुकी है. शम्भू अल्मोड़ा में रहते हैं और उनकी रचनाएं समय समय पर मुख्यतः कबाड़खाना ब्लॉग और नैनीताल समाचार में छपती रहती हैं.
फिल्मों का क्रेज़ और वो ज़माना
Support Kafal Tree
.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…
कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…
शायद यह पहला अवसर होगा जब दीपावली दो दिन मनाई जाएगी. मंगलवार 29 अक्टूबर को…
तकलीफ़ तो बहुत हुए थी... तेरे आख़िरी अलविदा के बाद। तकलीफ़ तो बहुत हुए थी,…
चाणक्य! डीएसबी राजकीय स्नात्तकोत्तर महाविद्यालय नैनीताल. तल्ली ताल से फांसी गधेरे की चढ़ाई चढ़, चार…
देह तोड़ी है एक रिश्ते ने… आख़िरी बूँद पानी का भी न दे पाया. आख़िरी…
View Comments
ग्रामीण जीवन की हकीकत से हूबहू रुबरु कराती रचना हैं। पहाड़ क्या मैदानों में भी यहीं हालात है। मैं खुद अपना घर गाँव में बंद कर शहर में हूँ याद आतें है अपने खेत खलिहान