अंगूर, बांग्ला फिल्म भ्रांतिविलास की रीमेक थी, जो ईश्वर चंद्र विद्यासागर के नाटक पर आधारित थी. यह नाटक विलियम शेक्सपियर के ‘द कॉमेडी ऑफ एरर्स’ पर आधारित था. फिल्म की थीम व कई दृश्य हू-ब-हू कॉमेडी ऑफ एरर्स से प्रेरित दिखाई पड़ते हैं. जुड़वा भाइयों के दो जोड़ों की कहानी. रईस राजतिलक (उत्पल दत्त) को दो जुड़वाँ बच्चे हैं. उन्होंने दोनों को अशोक नाम दिया. राजतिलक का तर्क है कि जब दोनों एक से दिखते हैं, तो दोनों का नाम अशोक ही होगा. बच्चे जैसे-जैसे बड़े होंगे, उनकी शक्ल बदलती जाएँगी, तब नाम भी बदल देंगे. वे सपत्नीक यात्रा कर रहे होते हैं और कुछ देर विश्राम के लिए किसी सराय में ठहरते हैं. तभी कोचवान आकर खबर देता है, “बड़ा गजब हो गया. किसी अभागन ने दो जुड़वाँ बच्चे बाहर छोड़ दिए हैं.”
राज तिलक उन बच्चों को भी अपना लेते हैं. बच्चों के नैन नक्श देखते हुए वे उन्हें बहादुर नाम दे डालते हैं. दंपत्ति का समुद्री यात्रा करना, तूफान आना, दुर्घटना घटित होना और एक-एक जोड़े का बिछड़ जाना कॉमेडी ऑफ एरर्स से लिया गया है.
अशोक नंबर दो व्यापार के सिलसिले में बहादुर नं. दो के साथ ट्रेन से यात्रा करता है. वह ट्रेन में भी जासूसी उपन्यास पढ़ता है, जिस वजह से शक-शुबहा हर समय उसके दिमाग में छाया रहता है. स्टेशन पर उतरते ही टिकट कलेक्टर उसे अशोक नंबर एक के रूप में पहचानता है, तो अशोक उसे कहता है, “आप टिकट कलेक्टरी के अलावा कोई और भी धंधा करते हैं. काफी चालू आदमी लग रहे हैं.” स्टेशन से बाहर निकलकर अशोक, बहादुर से कहता है, “मेरे ख्याल से ये किसी गैंग से मिला हुआ है. इसको इंफॉर्मेशन मिल गई है कि, हम बहुत सा रुपया लेकर निकले हैं.” तभी कोई अनजान आदमी अशोक का अहसान मानते हुए कहता है, “आपकी कृपा से मेरे साले को नौकरी लग गई.” यह सुनकर अशोक बहादुर से कहता है, “ये भी गैंग का आदमी है.” कई लोग उसे पहचानने का दावा करते हैं, जबकि वह उस शहर में पहली बार दाखिल होता है. गलत पहचान का ये जो सिलसिला एकबार शुरू होता है, तो फिर फिल्म में प्रारब्ध- संयोग ऐसे घटित होते जाते हैं, कि भ्रांति-हास्य का यह सिलसिला पूरी फिल्म में चलता चला जाता है.
वह टैक्सी लेता है, तो टैक्सी ड्राइवर पूछता है, “कहाँ चलना है.” अशोक कहता है, “क्यों बताऊँ आपको.“ इस पर बहादुर कहता है, “इसको तो बताना पड़ेगा.“ तो वह कहता है, “इंपीरियल होटल ले चलो.”
फिर अपनी भोली चालाकी दिखाते हुए कहता है, “हम वहाँ ठहरने वाले नहीं हैं. हम वहाँ उतरकर कहीं और चले जाएंगे.” अशोक नंबर एक विवाहित है. उसकी पत्नी सुधा(मौसमी चटर्जी), आभूषणप्रियता के चलते उस पर उपेक्षा का आरोप मढ़ती है, तो इस गृह कलह से तंग आकर वह सौगंध उठाता है कि, बिना हार लिए वह घर में प्रवेश नहीं करेगा. वह रूठकर घर से चला जाता है, तो सुधा की बहन तनु (दीप्ति नवल) अपने दीदी से कहती है, “तुम जैसी जलकुकड़ी मैंने आज तक नहीं देखी. ऐसी जली-भुनी कहती हो…”
होटल में अशोक नंबर दो, बहादुर नंबर दो को अपना कोडवर्ड बताता है, “जब मैं होटल में आऊँगा, तो तीन बार नाखून से दरवाजा खटखटाऊँगा. फिर गुनगुनाऊँगा, “प्रीतम आन मिलो..”
सुनार (सीएस दुबे) की दुकान पर अशोक, पत्नी के लिए हार का तकादा करता है. सुनार कहता है, “शाम तक तो मुश्किल है, नौ बजे तक तैयार हो जाएगा.” तो अशोक कहता है, “ठीक है, मैं शाम को नौ बजे आऊँगा.”
अशोक नंबर दो अंगूर के बगीचे का ठेका लेने शहर आया है. वह व्यापार की बातें करता है. व्यापारी अपने नौकर मस्ताना को उसे मेन रोड तक पहुँचाने को कहता है. मस्ताना सीटी बजाता है, तो अशोक उसे संदेह के स्वर में पूछता है, “सीटी क्यों मार रहे हो. कोई इशारा है क्या?” वह मस्ताना को चुप करा देता है. इस अंदाज में मानों सफाई दे रहा हो, खुलासा करता है,“मैं अपनी जेब में दस रुपये से ज्यादा रखता ही नहीं.” यह कहकर वह सुरक्षित भंगिमा अख्तियार करने की कोशिश करता है. यही नहीं, उस पर प्रभाव जमाने के इरादे से वह उसे अपनी वीरता के किस्से भी सुनाता है, “मैं दिखने में ऐं-वैं दिखता हूँ..”
वह बस पकड़कर बाजार में उतरता है. उधर बहादुर नंबर एक बाजार में मूली खोज रहा होता है. तभी उसके ऐन सामने अशोक नंबर दो सिगरेट सुलगाता है. यह बात बहादुर के लिए हैरत की है. उसने कभी अपने अशोक साहब को सिगरेट पीते हुए नहीं देखा. वह आश्चर्य में पड़ जाता है. फिर ताज्जुब से पूछता है, “सिगरेट पी रहे हो साहब.” “दीदी मूली के पराँठे बनाएंगी.”
इस पर अशोक नंबर दो हैरानी से पूछता है, “ये प्रेमा कौन है. ये दीदी कहाँ से पैदा हो गई. तूने फिर से भाँग चढ़ा ली क्या. तूने मुझे सिगरेट पीते नहीं देखा. तू यहाँ मूली खरीद रहा है. अब ये छोटी दीदी कहाँ से पैदा हो गई.. मेरी तो अभी शादी ही नहीं हुई.”
अशोक उसे याद दिलाता है कि मैंने तुझे सुबह एक लाख रुपये दिए थे, तो बहादुर अवाक् होकर रह जाता है. वह कहता है, “कौन से पैसे… एक दफा दिए थे दस रुपये…”
वहाँ पर अच्छा- खासा तमाशा उठ खड़ा होता है. वह टैक्सी करता है. फिर से वही टैक्सी वाला मिलता है. वह तपाक से कहता है, “इंपीरियल होटल चलेंगे.” अशोक चतुराई दिखाते हुए कहता है, “लेकिन मैं वहाँ ठहरा हुआ नहीं हूँ.”
वह रिसेप्शनिस्ट से कहता है, “मेरा नौकर बाहर गया था. थोड़ी देर पहले आपने उसे अंदर आते हुए देखा.” उसके नकार देने पर अशोक प्रश्नचिन्ह खड़ा कर बैठता है, “तो फिर आप देखते ही क्या हो. ना बाहर जाते हुए देखते हो, ना अंदर आते हुए.” अपने रूम पर वह जोर से दरवाजा खटखटाता है. वह कोड भूल जाता है. फिर जैसे ही उसे कि कोडवर्ड याद आता है, वह गाता है, “प्रीतम आन मिलो.. अबे.. प्रीतम आन मिलो..”
तनु का प्रोग्राम होता है. रोज रोज डाली डाली..गीत गाती हैं. अशोक नंबर दो, दर्शक दीर्घा में बहादुर नंबर दो के साथ बैठा हुआ नजर आता है. वह अपने सहयोगी के मार्फत उसे जीजाजी समझकर मेकअप रूम में बुलाती है, तो अशोक सहयोगी को दस रुपये इनाम में देता है. इस बुलावे को ट्रैप समझकर वह बहादुर से कहता है, गैंग..गैंग.
वह थिएटर के कॉरिडोर में सिगरेट मुँह में लगाए, चाय पीता हुआ नजर आता है, तो इंस्पेक्टर उसको अशोक नंबर एक समझकर हाथ हिलाता है. तनु उसके पास आकर उसे जीजाजी समझकर, उसके मुंह से सिगरेट निकालकर फेंक देती है. इस अप्रत्याशित व्यवहार पर अशोक सवाल खड़ा करता है, “होश में तो हैं आप. मैं आपका जीजा कब से होने लगा.” वह अधिकारपूर्वक कहती है, “तो बहादुर ठीक ही कह रहा था.” वह उसे हाथ पकड़कर घर ले जाने की जिद करती है, तो अशोक सरेआम फैल मचा देता है. इस्पेक्टर बीच में पड़ता है. वह उसे जबरदस्ती घर पहुँचा आता है. अशोक इंस्पेक्टर से झड़प करता है. नेम प्लेट पर नजर डालकर अपने बेमिसाल अंदाज में कहता है, “मिस्टर सिन्हा मैं तुमसे निपट लूँगा.. तुम सब लोग मिले हुए हो. तुम्हारा गैंग है.. गैंग.”
खास बात यह है कि ‘गैंग’ शब्द को वह एक खास अंदाज में कहता है.
बहादुर नंबर दो इंस्पेक्टर की गाड़ी का पीछा करते हुए उस घर तक पहुँचता है. प्रेमा(अरुणा ईरानी) उसे अपना पति समझकर उससे मसाले पिसवाती है. बहादुर बन रहे व्यंजन पर सवाल खड़ा करता है कि, बैंगन तो साहब खाते ही नहीं, तो प्रेमा कहती है, “रोज घर में सेर-सेर भर जो बैंगन बनते हैं, उसे कौन खाता है.” वह बहादुर को उसके शिष्ट वार्तालाप के लिए बरज देती है. “ये आप-आप का नाटक शुरू किया तो झाड़ू से इलाज करूँगी.“
सुधा, पति को नाराज देखकर उसे खुद ड्रिंक परोसती है, तो इस पर अशोक नंबर दो कहता है, “मैं शराब नहीं पीता. मैं तो छूता तक नहीं.” इस बात पर वह रूठ जाती है. “अब ये आप-आप छोड़ो और पी लो ना.”
तनु को भी अपने जीजाजी के दिमाग में खलल लगता है. सुधा उसके शिष्ट वार्तालाप से अजीज आ जाती है. उसका शालीन संबोधन उसे अटपटा सा लगता है. वह रोते हुए कहती है, “ये आप-आप करके कह रहे थे, जैसे कि मैं इनकी कोई नहीं.”
अशोक नंबर दो अंटी में फँसाए हुए एक लाख रुपये जैसे ही टटोलता है, सुधा को उससे हमदर्दी उभर आती है, “हाय राम! फिर से अपेंडिक्स का दर्द शुरू हुआ क्या.”
अशोक सुधा का वार्तालाप काफी मनोरंजक है. वह आदतन ‘सुनिए’ कहता है, फिर विरोध की आशंका के चलते, उसमें सुधार करके ‘सुनो’ कहता है. ‘बताइए’ कहता है. फिर ‘बताओ’ कहता है. ये संवाद अदायगी हरि भाई, अपने खास अंदाज में करते हैं. बहादुर नंबर दो पकोड़े लेकर हाजिर होता है और कानाफूसी करके हुए अशोक नंबर दो से कहता है, “मैं आ गया हूँ. पकोड़े लाया हूँ.” वह हैरत में आकर पूछता है, “तू बाप बनने वाला है. ये कैसे संभव है.” बहादुर नंबर दो रहस्य- खुलासा करता है, “मैंने इसमें भाँग मिलाई हुई है.” अशोक बताता है कि मैंने पैसे अंटी में दबाए हुए हैं. जब सुधा उससे जिद करती है कि तुम भी पकौड़े खाओ, तो अशोक रूहानी प्रेम वाले अंदाज में कहता है “खाती तुम हो, तन में मेरे लगता है.”
तनु जीजाजी समझकर अशोक नंबर दो से कहती है, “जीजाजी आप इतने बड़े एक्टर हो, ये मैं नहीं जानती थी.”
इस पर अशोक कहता है,”अगर जान जाओ, तो फिर एक्टिंग ही क्या हुई.” वह बताती है कि मेरी प्रैक्टिस दो महीने से चल रही थी. यह सुनकर अशोक का जासूसी दिमाग सहसा सक्रिय हो उठता है, “तभी सब कुछ इतना परफेक्ट हो रहा है.”
अशोक कहता है, “अगर मैं शो में आता ही नहीं” इस संभावना पर चलने वाला अशोक-तनु संवाद अच्छी-खासी विट से भरपूर है. उसे पूरा यकीन हो जाता है कि, पुलिस भी इस षड्यंत्र में शामिल है.
नीचे बहादुर, प्रेमा को जीभर के पकोड़े खिलाता है. वह स्वयं भंग-प्रेमी है. पकौड़े देखते ही उसका मन मचल उठता है. जब उसका मन नहीं मानता, तो वह स्वगत कथन शैली में कहता है, “ले मर और खा. मर लिया..”
सीढ़ियों पर भाँग के नशे में चूर होकर उसका, “प्रीतम आन मिलो.. दुखिया जीवन कैसे बिताऊँ..” गीत फिल्म का जबरदस्त गीत है. “इस शहर में कोई अंगूर मीठा नहीं हो सकता. चलो वापस चलते हैं.” बहादुर का यह परामर्श अशोक नंबर दो को काफी पसंद आता है. मंसूर मियाँ (यूनुस परवेज) अशोक नंबर दो को हार थमाते हैं. वे काफी उन्नत किस्म की नफासती उर्दू बोलते हैं. इस पर अशोक कहता है, “आप उर्दू में मुझसे कुछ कह कह रहे हैं. ठोस उर्दू मुझे आती नहीं.”
अशोक के हार लेने से इनकार करने पर जब मंसूर मियाँ शिष्टतावश कहते हैं कि मैं आपको बेच नहीं रहा हूँ, तो अशोक नंबर दो तपाक से कहता है “बेचते नहीं, तो फिर बाँटते फिर रहे हैं आप.” टेंपो स्टैंड का यह संवाद काफी चुटीला और रोचक है.
सुनार की दुकान पर कारीगर मंसूर मियां (यूनुस परवेज) अशोक नंबर एक को बड़े पेशेंस से उस चौक का नक्शा बनाकर दिखाता है, जहाँ पर उसने उसे हार दिया था. जब वह “हार आपके जानो पर रखा था” कहता है, तो अशोक हैरत के साथ पूछता है, “कहाँ-कहाँ.” फिर उसकी खिल्ली उड़ाते हुए कहता है, “जो आदमी घुटनों को जानो कह सकता है, वह अशोक कुमार को किशोर कुमार भी कह सकता है.”
गणेशी लाल (पीके जैन) समय का पाबंद आदमी है. उसकी सुई हरदम ग्यारह बजे पर अटकी रहती है.
रस्सी खरीदने का दृश्य सांयोगिक घटना के रूप में काफी दिलचस्प है. बहादुर नंबर एक रस्सी बेचने वाले से रस्सी के दाम पर मोलभाव करता है. तभी परिदृश्य में बहादुर नंबर दो चना चबाते हुए आ टपकता है. रस्सी वाला उससे पूछता है, “एक बात बताओ, आदमी मरते-मरते अठन्नी बचाकर क्या करेगा.”
बहादुर नंबर दो, इस सवाल का काफी हद तक फिलोसॉफिकल सा जवाब देता है, तो रस्सी वाला उसे डेढ़ रुपए में ही रस्सी बेचने की पेशकश करता है. बहादुर नंबर दो हैरानी भरे स्वर में कहता है, “पागल हो गए हो क्या.“ फिर स्वगत में कहता है, “खामखाँ फँसाना चाहता है.”
अशोक नंबर दो, रिसेप्शनिस्ट से डोमिनिक रोड का पता पूछता है. वो बेचारा काफी तल्लीनता से बताता चला जाता है, लेकिन अशोक उसके बताए को अनमने भाव से सुनता है. वह बाहर आकर टैक्सी ड्राइवर से फिर डोमिनिक रोड का पता पूछता है. ड्राइवर भी उसी तन्मयता से अड्रेस दोहराता है. उसका इग्नोर करके सुनना दर्शकों को प्रभावित करता है. उधर थाने में गणेशी लाल काफी बेचैन सा लगता है. वह चहलकदमी करना चाहता है. इस पर इंस्पेक्टर उसे धमका देता है. इतना ही नहीं, उसके हिलने तक की सख्त मुमानियत कर डालता है. गणेशी लाल खिन्न होकर छेदीलाल सुनार से कहता है, “अब आदमी जिंदा होगा, तो क्या हिलेगा भी नहीं.”
बहादुर नंबर दो, अशोक नंबर दो से कहता है, “जिस दिन से इस शहर में आए हैं, एक-न-एक जंजाल में फँसते जा रहे हैं.” वे दोनों भागने की योजना बनाते हैं. दोनों बोरिया बिस्तर लेकर शहर छोड़ रहे होते हैं, तभी पार्श्व में ‘ऐ मेरे दिल.. कहीं और चल…’ की धुन बजती हुई सुनाई देती है. अलका हार लेकर अशोक के घर पहुँचती है, तो वहाँ पर पति परायण सुधा का व्यवहार एकदम नेचुरल सा लगता है. वह उसे देखकर मुँह बनाती है. शक-शुबहा करती है और पूरी डाह दिखाती है.
सरप्राइज फैक्टर के रूप में इंस्पेक्टर, बहादुर नंबर दो अशोक नंबर दो को लेकर उनके घर में हाजिर होता है. घर के सदस्यों से लेकर जौहरी-सुनार तक सब-के- सब स्तब्ध रह जाते हैं. सब अलग-अलग प्रतिक्रिया देते हैं. सुधा तो कल रात के वाकये को लेकर संकोच से घिर जाती है. अशोक नंबर दो, भाभी कहकर जब उसके पैर छूने की कोशिश करता है, तो वह छिटककर पीछे हटती है और अंदर भाग जाती है. बिछड़ों का सुखांत मिलन होता है. अशोक दंपत्ति, माँ से मिलने जाते हैं. अंतिम दृश्य में माँ (शम्मी) कहती है, “ये कैसी अनहोनी है. कौन सोच सकता था कि, ऐसा भी हो सकता है.” इस बात पर फोटो फ्रेम से शेक्सपियर का इंडियन वर्जन रिएक्ट करता हुआ नजर आता है.
बहादुर नंबर दो का दरवाजे की रखवाली करना और भौंककर, दरवाजा खटखटाने वाले (अशोक नंबर दो) को घर में प्रवेश करने से रोकना, फिल्म का अविस्मरणीय दृश्य है. यह दृश्य भी कॉमेडी ऑफ एरर्स से लिया गया है, हालांकि वहाँ पर नौकर किसी और तरीके से उनको अपने घर में प्रवेश करने से रोकता है. सुनार का अशोक नंबर दो को हार सुपुर्द करना भी कॉमेडी ऑफ एरर्स में आया है, हालांकि वहाँ पर वह हार के स्थान पर चेन सौंपता है. उसमें भी उसे मजबूरन चेन स्वीकार करनी पड़ती है. अशोक नंबर एक का बहादुर को फंदे के लिए रस्सी खरीदने का ऑर्डर देना भी कॉमेडी ऑफ एरर्स से लिया गया है. बहादुर को जमानत के पैसे लेने के लिए घर भेजता है, जिसे वह अशोक नंबर दो को थमा देता है. यह मूल विचार भी कॉमेडी ऑफ एरर्स लिया गया है.
फिल्म के कथानक का एक ही स्वर है-भ्रांति, कन्फ्यूजन. पृथक-पृथक संदर्भों में अपनी-अपनी समझ और शानदार टाइमिंग की वजह से फिल्म में अद्भुत हास्य का सृजन होता है. असलियत उजागर होते ही, सिचुएशनल कॉमेडी नेचुरल प्रवाह में बनती चली जाती है.
फिल्म में संजीव कुमार की उस विशिष्ट अभिनय शैली की झलक देखने को मिलती है, जिसके लिए अक्सर उन्हें हिंदी सिनेमा में याद किया जाता है. देवेन वर्मा का पैशन फिल्म के अंत तक उसी तरह बरकरार दिखता है. यही एक एक्टर की सबसे बड़ी उपलब्धि होती है. कुल मिलाकर फिल्म के सभी चरित्र अपने अभिनय की छाप छोड़ने में कामयाब रहे. फिल्म ने दर्शकों की खूब वाहवाही लूटी. नॉमिनेशन तो संजीव कुमार का भी हुआ था, लेकिन देवेन वर्मा इस फिल्म के लिए बेस्ट कॉमेडियन का फिल्मफेयर अवार्ड हासिल करने में कामयाब रहे.
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