चापलूस-भलेमानुस की छवि बनाए रखना दुकानदारी की पहली शर्त है. एक दुकानदार को सफलता हासिल करने के लिए झूठमूठ हंसने और हेंहें करने की कला को साध लेना होता है. ग्राहक को कूड़ा भिड़ाना कोई आसान काम नहीं. एक बार लुट चुका ग्राहक बाद में कूड़े की शिकायत करने आता है तो उसके लिए पहले कोल्ड्रिंक मंगाई जाती है और फिर पहले से भी घटिया कूड़ा दे कर विदा किया जाता है. वही ग्राहक फिर से आये और इस दफा गालियाँ देता हुआ दुकान जलाने की धमकी देने लगे तो भी उसके लिए कोल्ड्रिंक मंगाई जाती है. वह कोल्ड्रिंक की बोतल फोड़ दे तो उसके लिए लस्सी मंगाई जाती है. ग्राहक के मुंह नहीं लगना है न उससे ऊंची आवाज में बात करनी है. कुछ भी हो जाय उस के सामने लुरिया कुत्ता बने रहना है, घंटी बजाते रहनी है और उसे बार-बार कूड़ा भिड़ाना है. वह देवता है. लात मारेगा, लुटेगा और बार-बार आएगा.
(Article by Ashok Pande)

हमारे उत्तराखंड की सांस्कृतिक राजधानी मानी जाने वाली अल्मोड़ा नगरी को छोड़ कर इस यूनीवर्सल सिद्धांत को संसार के किसी भी मुल्क के दुकानदारों पर लागू किया जा सकता है.

कोई डेढ़ सौ साल पुरानी अल्मोड़ा की मुख्य बाजार के भीतर अनेक बाजारें हैं जिनके नाम निम्नवत हैं: बनिया बाजार, पलटन बाजार, थाना बाजार उर्फ़ मल्ली बाजार, गंगोला मोहल्ला, जौहरी बाजार, खजांची बाजार, कचहरी बाजार, कारखाना बाजार, चौक बाजार और लाला बाजार. इतने आलीशान नामों को देख कर बहुत ज्यादा प्रभावित न हों. ये सारी बाजारें एक ही बड़ी सड़क का हिस्सा हैं जिसकी कुल लम्बाई आध-पौन किलोमीटर से ज्यादा नहीं. दुकानों की हालत अब यह हो गयी है कि जौहरी बाजार में सिम बिकते हैं और कचहरी बाजार में चाऊमीन. जीवन सफल करने के लिए हर धर्मात्मा-सद्गृहस्थ ने अपने जीवन में एक बार अल्मोड़े के बाजार का पूरा फेरा मारना चाहिए. बाज़ लौंडे महिला-दर्शन के सिलसिले में किसी-किसी दिन पलटन बाजार के सिद्ध नौले से लाला बाजार की आख़िरी टार्जन की सब्जी की दुकान को एक करते इस पूरी मार्केट के पच्चीस-तीस चक्कर तक लगाते देखे गए हैं.

बड़े नगरों में किलोमीटरों लम्बी एम. जी. रोड या न्यू मार्केट जैसे नामों वाली बड़ी बाजारें होती हैं. इस तर्ज़ पर कोई भी पूछ सकता है कि अल्मोड़े के छोटे से बाजार का एक ही नाम क्यों नहीं रखा जा सकता. तो भैये अल्मोड़ा जो है ठसके और ठसकेदारी का शहर है. पूछने वाला तो यह भी पूछ सकता है कि केशव हलवाई का आस्ताना चौक बाजार का हिस्सा माना जाएगा या कारखाना बाजार का? खमसिल बुबू का मंदिर जौहरी बाजार में माना जाएगा या खजांची मोहल्ले में? कुछ पुरातत्ववेत्ताओं ने तो यहाँ तक कहा है कि ढाई फुट चौड़े खमसिल बुबू के मंदिर के ठीक सामने पड़ने वाली दुकान के आधे हिस्से को एक जमाने में खमसिल बाजार कहा जाता था. बाद में अंग्रेजों की साजिश से वह नाम भुला दिया गया.

सुबह दस-ग्यारह बजे तक भरपूर चुलकाणी-डुबके और रस-भात जैसे देवभोग दाब चुकने के बाद इन बाजारों के सबसे शानदार दुकानदार दुकानों के बाहर के ऊंचे-नीचे फुटपाथ पर कैरम और ताश खेलने के लिए फर्नीचर लगाना शुरू कर देते हैं. कोलतार के पुराने ड्रम के ऊपर कैरमबोर्ड की स्थापना होती है. उसके बाद किसी दूकान के गल्ले से मकान बनाने वाले मिस्त्रियों द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाला लेवलर निकाला जाता है. इस लेवलर की मदद से टेढ़े-मेढ़े ड्रम के ऊपर धरे कैरम की सतह को गिट्टियों और मोड़े गए गत्ते- और कागज़ को खोंस-फिट कर परफेक्ट ऊर्ध्वाधरता प्रदान करने में जैसा श्रम और गणितीय कौशल लगता है, हो सकता है उसे देख कर दुनिया के सबसे बड़े परमाणु-वैज्ञानिक अपना शोध छोड़ अल्मोड़े की लाला बाजार में दही-मोमो का ठेला लगाने की जिद करने लगें.

द्यूतक्रीड़ा के स्टेडियम खिलाड़ियों के आने से पहले ही दर्शकों से खचाखच भर चुके होते है. एक हजार वर्ष पुराने ताश के जिन पत्तों की मदद से यहाँ फल्लास और चुस्सू जैसे महान खेल खेले जाते हैं उनकी घिसी हुई सतहों में फर्क कर पाना मुश्किल होता है कि सामने चिड़ी का तिग्गा दिख रहा है या बोनट कम्पनी का लोगो. उनकी गड्डियां इतनी बार फेंटी जा चुकी हैं कि उसके पान और हुकुम के पत्ते उसी तरह एकाकार हो चुके हैं जिस तरह भगवान का नाम जपने वाला भक्त स्वयं भगवान बन जाता है. इन अमूल्य पत्तों को अपने चेहरों से चिपकाए अगली चाल चलने से पहले गहन विचारमग्न दिखाई देते कर्मठ महामना खिलाड़ी किसी छोटे-मोटे फायदे के नहीं अपने मोक्ष के लालच में जाड़ा-गर्मी-बरसात की परवाह किये बिना साल भर तपस्यारत रहते हैं कि क्या पता कब बाबा विश्वनाथ प्रसन्न हों और ‘आजा प्यारे पास हमारे’ कहकर बुलावा भेज दें.

न्यूयॉर्क से लेकर चन्द्रमा और लमगड़ा से लेकर सूरत तक एक से एक नौकरियाँ कर आये रिटायर्ड लोग भी इसी मुहूर्त में ज्ञान के अपने-अपने झोले लेकर बाजार पहुँच जाते हैं. इनमें से अधिकाँश खूसट होते हैं जिन्हें उनकी स्त्रियाँ दस बजे के बाद घर के भीतर देखना बर्दाश्त नहीं कर सकतीं. इन बैठे-खड़े-गपियाते-खट्टी डकार लेते-पेट सहलाते वयोवृद्ध नागरों का अल्मोड़े की बाजार में वही महत्त्व है जो पुष्पाच्छादित उपवन में भौंरों का होता है. वे हर फूल का रस लेना सीख गए हैं और हर नए फूल पर टूट पड़ने को अपना धर्म समझते हैं. मिसाल के तौर पर अगर आप कैमरा लेकर बाजार में घुस जाएं तो एक बूढ़ा महात्मा किसी अदृश्य लौंडे को संबधित करता हुआ कहेगा, “अरे ज़रा नाक तो साफ़ कर ले रे मुन्ना, कल को डिस्कवरी चैनल में तेरी फोटो आने वाली है बल!”

अल्मोड़ा की बाजार में ग्राहक बनकर प्रविष्ट होने का इरादा रखते हों तो सबसे पहले आपको अपना ईगो घर पर छोड़ कर आने का एहतियात बरत लेना चाहिए. वहां बैठा एक-एक दुकानदार अपनी हाजिरजवाबी और अल्मोड़िया विट से आपको जलील करने को आतुर रहता है. वह पहले आपको अपने माल की क्वालिटी से आतंकित करेगा फिर अपने जाल में फंसा कर आपकी ऐसी कुकुरगत बनाएगा कि आप बार-बार वहां अपनी इज्जत लुटवाने जाएंगे.
(Article by Ashok Pande)

आपने लोगों से अल्मोड़े की मशहूर मिठाई खेंचुवे के एक ख़ास अड्डे के बारे में सुन रखा है. आप वहां जाते हैं. अव्वल तो खेंचुवा मिलेगा नहीं क्योंकि उसकी इकलौती ट्रे दो बजे बनकर आती है. उसमें भी लोगों की एडवांस बुकिंग है. आप दो बज कर दो मिनट पर पहुंचेंगे तो आपको बताया जाएगा माल निबट गया है जबकि माल सामने रखा है. आप उसकी तरफ इशारा करेंगे तो आपको बताया जाएगा सब पहले से बिका हुआ है. आप दुकान से बाहर निकल रहे होंगे और दुकानदार सामने वाले दुकानदार से आपको लेकर कोई लतीफा छेड़ना शुरू कर चुका होगा. अल्मोड़े में आपकी नहीं दुकानदार की पसंद का महत्त्व है. आपकी सूरत दुकानदार को पसंद आना पहली शर्त है. वरना भैया ये अल्मोड़ा है अल्मोड़ा.

होली के सीजन में एक और हलवाई की दुकान पर अल्मोड़े के फेमस गोजे बनते हैं. हलवाई की ऐंठ ऐसी है कि आप बादशाह सिकंदर हों तो भी आपको एक किलो से ऊपर माल नहीं मिलेगा. क्यों का जवाब होगा – “इतना बड़ा अल्मोड़ा है सारे गोजे तुम्हीं ले जाओगे तो बाकी लोग क्या खाएंगे – घंटा?”

अल्मोड़े का एक हलवाई संसार की सबसे स्वादिष्ट जलेबियाँ बनाता है. उसकी अंधेरी दुकान के सीलनभरे, काले सिटिंग एरिया में धुंए से काली पड़ गयी मेजों के ऊपर अखबार में रख कर पांच-दस और बीस रुपये की जलेबियाँ परोसी जाती हैं. साथ में दिन भर कढ़ाई में औटाये गए दूध या दही का विकल्प रहता है. समूचे ब्रह्माण्ड में यह इकलौती दुकान होगी जहां स्टील के गिलास में दही परोसा जाता है. यहाँ आने के बाद मनुष्य को अपनी क्षुद्रता का अहसास होता है. आपको देर हो रही हो तो वहां से जलेबियाँ पैक कराने की हरगिज न सोचें. आप एक किलो जलेबी मांगेंगे तो सबसे पहले आपको घूरा जाएगा. आँखों-आँखों में बता भी दिया जाएगा कि भीतर हाउसफुल है, अभी टाइम लगेगा. आपके सामने कढ़ाई में से एक क्विंटल जलेबी निकल कर भीतर सप्लाई होती रहेगी. हर बार निकालने वाली खेप में से दो-तीन जलेबियाँ आपकी थैली में रखी जाएँगी. आप खीझेंगे तो गाली खाएंगे, चुपचाप सहेंगे तो जलेबी. आधे घंटे में एक किलो जलेबी फतह करने के बाद आप भूल चुके होंगे कि आपको देर किस बात की हो रही थी.

मितभाषिता अल्मोड़े के दुकानदारों का एक और बड़ा गुण है. आप उनसे किसी ऐसी चीज की मांग करें जो उनके पास उपलब्ध नहीं है तो दस में से पांच दुकानदार इस अदा से आपके आरपार देखना शुरू कर देंगे मानो आप वहां हैं ही नहीं. दो या तीन हाथ से इशारे से आपको उड़ा देंगे और बाकी बचे हुए आपको उस चीज की इतनी बुराइयां गिनाएंगे कि आप जिन्दगी भर उसका तसव्वुर भी करने से घबराएंगे.
(Article by Ashok Pande)

अभी एक पुरानी हलवाई की दुकान से मीठे समोसे बंधवा रहा था. दुकान के भीतर बैठा एक रिटायर्ड महात्मा दुकान-स्वामी और काम में लगे कारीगरों को कोरोना के सम्बन्ध में व्याख्यान दे रहा था. किसी का इन्तजार करती दिख रही एक प्रौढ़ ग्राम्या अपने खरीदे लड्डुओं को थैले में रख रही थी. मेरे समोसे पैक हो रहे थे. कोरोना-व्याख्यान को कुछ देर रोक कर उन बुजुर्ग सज्जन ने मेरे पिठ्ठू और काले चश्मे पर गौर करना शुरू कर दिया. अचानक उस महिला ने दुकानदार से पूछा, “ये कढ़ाई में क्या है?”

“रबड़ी है रबड़ी” त्वरित उत्तर मिला.

“क्या भाव लगाई?”

“अस्सी रुपे पाव तीन सौ बीस रुपे किलो.”

महिला ने एक बार फिर से कढ़ाई को ध्यान से देखते हुए पूछा, “दस रुपे की दे दोगे?”

“न्ना!” हलवाई ने झटके में उत्तर दिया.

“अच्छा बीस रुपे की दे दो. यहीं बैठ के खा लेती हूँ ज़रा सा.”

“पहली बात तो ये है कि यहाँ बैठ के नहीं खा सकते क्योंकि आजकल सरकार ने मना कर रखा है.”

महिला हार मानाने वाली नहीं थी. बोली, “एक कागज़ में बीस रुपये की रख दो बाहर रोड पर जा के खा लूंगी.”

“यहाँ खाओ चाहे रोड पर खाओ, पुलिस पकड़ के ले जा रही आज कल. और दूसरी बात ये है कि बीस रुपे की रबड़ी नहीं आती. चाहो तो बीस रुपे की गट्टे वाली नमकीन ले लो.”
(Article by Ashok Pande)

अल्मोड़े की चौक बाजार में एक लोहे का शेर है रंग-वार्निश करके जिसकी कुछ साल पीछे ऐसी गत बना दी गयी है कि वह किसी कोण से बिल्ली नजर आता है किसी से बकरी. उसके पास ही किराने की एक बड़ी दुकान है. दुकान से अग्रभाग में ड्राईफ्रूट सजाये रहते हैं. एक बूढ़े सज्जन ने अपने हमउम्र दुकानदार से पूछा, “लाला ये क्या चीज हुई?” लाला ने बताया छुहारे हैं. फिर एक-एक कर बूढ़े ने काजू से लेकर चिरौंजी तक सबका नाम और दाम पूछा. लाला बुरी तरह चट चुका था जब उसे पच्चीस रुपये का सारा कुछ मिक्स कर के पैक बनाने का आदेश हुआ. लाला ने मरे मन से वैसा ही किया और अखबार की पुड़िया में लपेटने लगा. बूढ़े ने कहा, “इसको अखबार में नहीं बादामी थैली में पैक कर दो तो”

लाला जी ने अखबारी पुड़िया खोली और सारा माल बादामी थैली में डाल दिया. बूढ़े को थैली पकड़ाते हुए लाला ने बहुत विनम्रता से पूछा, “एक डोटियाल (कुली) भी बुला दूं चचा? इतना सामान घर कैसे लेके जाओगे?”
(Article by Ashok Pande)

अशोक पाण्डे

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