प्रधानमंत्री जी के 21 दिन के पूर्ण लॉक आउट की घोषणा के साथ ही अब हम कोरोना की वैश्विक महामारी के विरुद्ध लड़ाई के निर्णायक दौर में पहुँच गए हैं. यह भारत के लिए और प्रकारांतर से दुनिया भर के लोगों के लिए मेक या ब्रेक का नाजुक मोमेंट है.अगला दो सप्ताह तय करेगा कि हमने अपने लिए क्या चुना है.फिलहाल के लिए कोरोना संक्रमण की चेन तोड़ना हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए और इसके लिए अभी तक सिर्फ सोशल डिस्टैन्सिंग ही कारगर हथियार है. Article by Shankhdhar Dubey
संकट के इस नाजुक मोड पर हम बिना कुछ किये ही घर में बैठकर हीरो हो सकते हैं.यह आदर्श स्थिति है कि हम वर्क इज वरशिप के सिद्धांत को तिलांजलि देकर पूरी तरह से ईट, ड्रिंक एंड बी मेरी के एपिक्यूरियन दर्शन को अपना सकते हैं.लेकिन ध्यान रखना होगा घर में और सिर्फ अपने ही घर में यह सब करना होगा.
21 दिन की अवधि लम्बी होती है ऐसे वर्ग की निगाह से जो रोज़ कुंआ खोदता है फिर पानी पीता है, जिनकी कमर पहले ही टूटी है और जिनकी संख्या दुर्भाग्य से भारत में बहुत अधिक है, यह अवधि अधिक ही नहीं लगभग अंतहीन है.भूख, जाति, धर्म, लिंग, उम्र और स्थिति से परे सर्वव्यापी परिघटना है. दिन में कम से कम भूख तीन बार बिना नागा किये दस्तक देगी ही देगी. सामान्य तौर से हमेशा और विशेष रूप से ऐसे मंदी-बंदी के दौर में बच्चों खासतौर से गरीब बच्चों के पेट में भूख की चक्की सतत चलती ही रहती है. Article by Shankhdhar Dubey
घर बैठे बाप के सामने भूख से बिलबिलाते और झक में माँ बाप के हाथों पिट जाते बच्चों के माँ बाप के संताप और बेबसी का अंदाजा लगाना किसी के लिए भी मुश्किल नहीं होगा. हममें से बहुत से लोग आधुनिक माँ -बाप के डॉ से इस अनुरोध पर कि “मेरा बच्चा तो कुछ खाता नहीं” पर हैरान होते होंगे क्योंकि हम ऐसे परिवार में बड़े हो रहे थे जहाँ” अभी तो खाकर गया है, या “ज़ब देखो इसको आग लगी रहती है” “अधीरजी है” आदि इत्यादि.
दुर्भाग्य से अभी भी सब कुछ ठुँसा देने के इस दौर में बहुत से परिवार हैं जहाँ बच्चों को कम खाने और गम खाने की सलाह दी जाती है!! जबकि हर कोई अपने बच्चे को खाया, पिया और सुंदर देखना चाहता है. याद रहे नारों से परे कोई भी सरकार या तंत्र ऐसे अभूतपूर्व संकट का अकेले सामना नहीं कर सकता.
तो यह भौतिक रूप संकट का समय है. यह आध्यात्मिक रूप से भी संकट का समय है.यह हमारे मनुष्यत्व के अब तक के अर्जित मूल्यों के स्थगित करने के प्रलोभन का भी दौर है. गौरतलब है कि मनुष्य बने रहना कोई क्रैश कोर्स नहीं बल्कि अपने ही विरुद्ध एक सतत लड़ाई है और ऐसे संकट के समय हम अक्सर ही अपनी ही तुच्क्षताओं के समाने आत्मसमर्पण कर डालते हैं. यह आकर्षक विकल्प लग सकता है और यह आसान भी है पर इससे हम अपनी आत्मा की चमक खो देते हैं. Article by Shankhdhar Dubey
इस लम्बी भूमिका के माध्यम से आप सब से अपील करना चाहता हूँ कि बिना कोई जोखिम लिए अपने आस -पास या राशन, दूध, दवा की दुकानों या कही और बच्चों की भूख से भागा कोई ज़रूरतमंद दिख जाये तो यथाशक्ति मदद कीजिये. अब जबकि यह साफ हो गया है कि यह लड़ाई लम्बी चलेगी. ऐसी स्थिति में यह अपरिहार्य हो जाता है कि हम मनुष्य और मनुष्यता के साथ खड़े हों. सामान्य स्थिति में कोई भी हीरो हो सकता है पर संकट के समय हीरो बनने वाला ही असली मसीहा और हीरो होता है. Article by Shankhdhar Dubey
प्रार्थना के लिए किसी छंद की ज़रूरत नहीं ! इसलिए, प्रार्थना कीजिये, प्रार्थनाएं हमें सहन करने की क्षमता देती हैं हमारी आत्मा को उज्ज्वल करती हैं. दुआ कीजिये सब स्वस्थ रहें सबके घर के चूल्हे जलते रहें. बस्ती से बाहर पेड़ों में ऊपर ठिठका धुआँ बना रहे. उदासी के सर्वग्राही दौर में थोड़ी मुस्कान बची रहे. कवि आगाह कर गया है..
इक मां उबालती रही पत्थर तमाम रात
बच्चे फरेब खा के चटाई पर सो गए…
किसी माँ के लिए ऐसी स्थिति न आये…
आमीन!!!
–शंखधर दूबे
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मूलतः बस्ती के रहने वाले शंखधर दूबे, वर्तमान में राज्य सभा सचिवालय में कार्यरत हैं. महीन व्यंग्य, सरल हास्य और लोक रस से सिंचित उनके लेखन में रेखाचित्र, कहानी, संस्मरणात्मक किस्सों के साथ-साथ शीघ्र प्रकाश्य चुटीली शैली का उपन्यास भी है. शंखधर फेसबुक पर अत्यंत लोकप्रिय लेखकों में से हैं.
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