परिचय-
‘‘नमोस्तु ते व्यास विशालबुद्धे, फुल्लारविन्दायतपत्रनेत्र:.
येन त्वया भारततैलपूर्ण: प्रज्ज्वालितो ज्ञानमयप्रदीप:..’’
अर्थात:- जिन्होंने महाभारत रूपी ज्ञान के दीप को प्रज्वलित किया ऐसे विशालबुद्धि वेदव्यास को मेरा नमस्कार है.
महाकवि कालिदास ने कुमारसम्भवम् को हिमालय वर्णन से आरम्भ किया है. प्रथम सर्ग के प्रारम्भिक सत्रह पद्यो में कवि ने हिमालय पर्वत का भव्य व गरिमापूर्ण चित्रण करते हुए इसकी विविध छवियों, प्राकृतिक वैभव इसके निवासियों के कार्य-कलापों तथा पर्वतराज के पुराकथात्मक व्यक्तित्व का उदात्त चित्रण किया है.
‘‘अस्युत्तरस्यां दिश देवतात्मा हिमालयो नाम: नगाधिराज:.
पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य स्थित: पृथिव्यां इव मानदण्ड:..
अर्थात:- इसके (भारतवर्ष) के उत्तर दिशा में देवताओं की आत्मा वाला पर्वतों का राजा हिमालय है, जो पूर्व और पश्चिम दोनों समुद्रों का आवाहन करके पृथ्वी को मापने के दण्ड के समान स्थित है. तात्पर्य यह है कि हिमालय का विस्तार ऐसा है कि वह पूर्व और पश्चिम दोनों दिशाओं के समुद्रों को छू रहा है.
शास्त्रों के अनुसार वेद व्यास ऋषि पराशर और सत्यवति के योगिक (योग से उत्पन्न) पुत्र थे. कहा जाता है कि वेद व्यास जन्म लेते ही बड़े हो गऐ थे और माता सत्यवती (मत्स्यगंधा, मत्स्योदरी के नाम से भी पुकारा जाता है.) को संकट की घड़ी में आवश्यकता पड़ने पर आह्वाहन करने के लिए कह कर यमुना नदी में स्थित द्वैपायन द्वीप चले गए थे. जहां पर तप करने से काले पड़ जाने के कारण उनका नाम कृष्ण द्वैपायन पडा. कालान्तर में देवी सत्यवती का विवाह हस्तिनापुर के राजा शान्तनु से हुआ. जिससे चित्रांगद और विचित्र वीर नामक पुत्र पैदा हुए. चित्रांगद की एक गंर्धव द्वारा हत्या कर देने के बाद विचित्र वीर का विवाह अंबिका और अंबालिका नामक राजकुमारियों से हुआ. विचित्र वीर की कोई संतान नहीं थी. माता सत्यवती ने वंश चलाने हेतु व्यास ऋषि को उनके द्वारा पूर्व में दिए वचन के अनुसार अंबिका और अंबालिका से नियोग विधि से संतान उत्पत्ति के लिए हस्तिना पुर बुलाया. कहा जाता है कि वेद व्यास जब माता के कहे अनुसार अंबिका के पास गए तो उनके तेज को देख कर अंबिका ने आखें बंद कर ली थी, जिससे अंधा बालक ध्रतराष्ट्र पैदा हुए. वेद व्यास जब अम्बालिका के पास गए तो अम्बालिका उनके तेज से भयभीत होकर पीली पड़ गई जिस कारण पाण्डु रोग (पीलिया) ग्रसित पाण्डू का जन्म हुआ. जब वेद व्यास माता के कहने पर पुन: अम्बिका के पास नियोग के लिए गए तो डर के कारण अम्बिका ने अपनी दासी को भेज दिया था अत: दासी से विधुर नामक प्रकाण्ड ज्ञानवान पुत्र पैदा हुए. कहा जाता है कि कृष्ण द्वैपायन पुन: माता सत्यवती को आवश्यकता पड़ने पर आह्वाहन करने को कह कर तपस्या करने के लिए हिमालय की ओर चले गए थे.
माता सत्यवती के कहने पर अम्बिका से धृतराष्ट्र तथा अम्बालिका से पाण्डू और अम्बिका के दासी से नियोग विधि द्वारा विधुर को पैदा करके वेद व्यास तपस्या के लिए हिमालय चले गए थे. हिमालय का वह स्थान और कहीं नहीं उत्तराखण्ड की धरती ही रही होगी. उत्तराखण्ड के विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित लोक कथाओं किंवदंतियों, मान्यताओं और विभिन्न स्थानों को वेद व्यास से जोड़ा जाना और उनको पूजा जाना निश्चित रूप से इस ओर इशारा करते हैं, कि वेद व्यास का तप स्थल यमुना के द्वैपायन द्वीप के अलावा उत्तराखण्ड की पावन भूमि भी रही है. बद्रीनाथ में माना गांव के पास स्थित व्यास गुफा तथा मानसरोवर यात्रा मार्ग पर स्थित व्यास घाटी, जिसे वेद व्यास की तपस्थली होने के कारण उन्हीं के नाम पर व्यास घाटी के नाम से पुकारा गया भी इसके साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं. अन्य साक्ष्यों में कि क्या वास्तव में वेद व्यास ने व्यास घाटी को अपना तपस्थली बनाया था? इसको पुष्ट करने वाले कई कथाएं स्थानीय रूप से प्रचलित हैं और मानस खण्ड (स्कन्द पुराण का एक भाग) में भी वर्णित है.
व्यास घाटी के अन्तिम गांव का नाम कुटी भी लोक कथाओं के अनुसार पाण्डवों के स्वर्गारोहरण के समय आवास करने के कारण पडा. जिसके साक्ष्य कुटी में पाण्डव किला और कुंती पर्वत नामोल्लेखों में खोजे जा सकते हैं. वर्तमान काला पानी जिसका उल्लेख मानस खण्ड में श्यामा कुण्ड के नाम से पुकारा गया है. उसके ठीक सामने खड़ी चट्टान पर व्यास गुफा का होना भी, जहाँ दिव्य शक्ति के द्वारा ही पहुँचा जा सकता है, एक साक्ष्य प्रस्तुत करता है. सबसे महत्वपूर्ण बात व्यास को कृष्ण द्वैपायन इसलिए कहा गया था कि उनका रंग तपस्या के कारण श्याम यानी काला पड़ गया था. वर्तमान काला पानी के कुण्ड को पुराणों में श्यामा कुण्ड कहा गया है जो इस बात की ओर संकेत करता है कि हो न हो व्यास घाटी भी वेद व्यास की तपोस्थली अवश्य रही है और इस कुण्ड का नाम उन्ही के नाम पर श्यामा पड़ा है. मानस खण्ड में कैलाश यात्रा वर्णन में कई स्थानों पर पाण्डवों का उल्लेख उनके द्वारा पूजा या विश्राम किए जाने संबंधी कथाओं की भरमार है. लोक कथाएं हैं कि व्यास ने इसी पवित्र व्यास भूमि पर वेदों की रचना की थी और कालान्तर में महाभारत की रचना भी इसी पवित्र भूमि पर की. कथा है कि महाभारत की रचना के लिए श्री गणेश ने शर्त रखी कि वे निर्बाध रूप से लिखेंगे और वेद व्यास को बिना रुके महाभारत की कथा सुनानी होगी नहीं तो वे लेखन कार्य आगे नहीं करेंगे. गणेश की शर्त को स्वीकार करते हुए उन्होंने बिना रुके महाभारत का वर्णन किया था. कहा जाता है कि जहां भी वेद व्यास जी को कथा वर्णन में स्मरण की जरूरत पड़ती वे क्लिष्ट भाषा (स्थानीय बोली में क्वन-ल्वो़) का प्रयोग करते, क्योंकि शर्त अनुसार गणेश को भी कथा का सार समझे बिना लिखना नहीं था. इस प्रकार महाभारत की कथा का लेखन कार्य सम्पन्न हुआ. लोक कथा अनुसार गणेश द्वारा महाभारत का लेखन कार्य व्यास के अनुरोध पर भोजपत्र की छाल पर, भोजपत्र की टहनी की लेखनी और देवदार के फलों की श्याही का प्रयोग करके किया था. इन दोनों वृक्षों को स्थानीय व्यासी लोग बहुत पवित्र मानते हैं और पूजा हेतु ध्वजस्तंभ के रूप में आज भी प्रयोग करते हैं.
नेपाली साहित्य में सितासिता भूमि (सिता=कर्नाली और असिता=काली नदी यानि वह भूमि जहाँ पर उपरोक्त दो पवित्र नदियां बहती है. यहाँ सिता का अर्थ धवल और असिता का अर्थ कृष्ण यानि काले से है.) को मानस खण्ड की सर्वाधिक महत्वपूर्ण धरती माना गया है. काला पानी के श्यामा कुण्ड के विषय में प्रचलित लोक कथा है कि इस कुण्ड का जल छ: मास के लिए जुमला नेपाल की ओर और छ: मास के लिए श्यामा कुण्ड की ओर बहता है. कथा अनुसार कहा जाता है कि जब श्यामा कुण्ड का जल जुमला की ओर बहता है तो जल के साथ वहाँ फापर और पल्ती की भूसी (बै जी पल्ती-पू) तथा जुमला से कालापानी की ओर बहने पर जल के साथ धान की भूसी ( गा-पू ) बहकर बाहर आती है. जिसपर स्थानीय लोगों को आज भी विश्वास है. पुन: नेपाली साहित्यों में वर्णित स्कन्द पुराण के हिमवन्त खण्ड में भी व्यास घाटी में व्यास गुफा में व्यास ऋषि द्वारा तप करने तथा श्यामा कुण्ड का उल्लेख है. इसके अलावा पांडवों के आवास पाण्डव कुटी तथा पाण्डव पर्वतों और मानसरोवर यात्रा मार्ग का भी वर्णन किया गया है. इतना ही नहीं जुम्ला जिला के संजाभेली तथा कालीकोट नामक स्थान पर पाण्डवों के प्रवास तथा मानव द्वारा सैकडों वर्ष पूर्व पहली बार धान पैदा करने के एतिहासिक साक्ष्य होने का वर्णन है. स्थानीय कथा और शास्त्रों में वर्णित बात व्यास घाटी में वेद व्यास की कर्मस्थली होने को बल प्रदान करते हैं. इस क्षेत्र के काला पानी से बहने वाली नदी व्यास घाटी से होते हुए जहाँ एक ओर शारदा आदि पौराणिक नामों को धारण करती है और दूसरी ओर कर्लनाली जुमला नेपाल से होकर बहती है और पौराणिक नामों को धारण करती है, जिसमें एक नाम सरयू भी है. नेपाली साहित्य में भी कहा गया है कि इसी भूमि में वेदों और विभिन्न पौराणिक साहित्यों का सृजन हुआ और यह भूमि ऋषि मुनियों और देवताओं की कर्म भूमि रही. उनका तो यहां तक मानना है कि मानस खण्ड में स्थित मानसरोवर और राक्षस ताल से ही मनुष्य और राक्षस जाति का सृजन हुआ है. उनके अनुष्टानों और धार्मिक पत्रिकाओं में इस क्षेत्र का वर्णन मानसखण्डे व्यास भूमि के रूप में उल्लेख किया जाता है. सबसे महत्वपूर्ण बात हम रङ्ग लोगों का नेपाल के रङ्ग क्षेत्र से लगे नेपाल क्षेत्रों (मर्मा, डोटी, जुम्ला आदि) में व्यांशी सौका के रूप में सम्मान और आदरणीय स्थान रहा है. कहा जाता है कि यहाँ लोगों में लोक कथा प्रचलित थी कि इस इलाके के लोगों का यज्ञोपवीत व्यांशी सौकाओं ने ही करवाया था. इलाके के लोग अगर उनके पूजा उनुष्ठान के समय व्याशी लोगों के दर्शन कर लेते थे तो मानते थे कि उनकी पूजा सफल रहीं. (ध्यात्व है कि समस्त द्विजो का यज्ञोपतीत वेद व्यास के द्वारा ही किया गया था) और यह बात नेपाल राजा तक भी प्रचलित थी. (जाति व्यवस्था का कटटरता से पालन करने वाला नेपाल देश के राज दरबार में एक व्यांशी सैाका गोबर्या पंडित का नवररत्नों में से एक होना,इस बात का प्रमाण है.) ऐसा ही वाकया स्व. कर्मा गुन्जियाल ने सुनाया कि एक बार वे अपने साथियों के साथ पिथौरागढ़ के मोस्टामाण्ड घूमने गए थे इतने में वहाँ के मुख्य पुजारी ने उनको बुलाया और उनको आसन देकर सम्मान दिया और क्षमा याचना के लहजे में कहा कि ‘‘आप लोगों का आना हमारी पूजा को सार्थक करता है आज कल के लोगों को इसके बारे में पता नहीं है” आप व्यास-कैलाश के कैलाशी लोग हो आपलोगों का सपने में दिखना ही हम लोग शुभ मानते हैं. इस बात से कर्मा गुन्जियाल आश्चर्य चकित थे और इस घटना ने उनका अपने रंग समाज के प्रति दृष्टिकोण ही बदल कर रख दिया था.
कौआ वेद व्यास जी कर्मभूमि और तपस्थली क्यों बनी? लोक कथाओं और किंवदंतियां इस ओर संकेत करते है कि उन्होंने व्यास घाटी के कौआ नामक स्थान को ही क्यों चुना होगा? क्यों कि यह भूमि देवताओं और ऋषि मुनियों की तप स्थली रही. स्कंद पुराण के महेश्वर खण्ड में शिव महिमा और पूजा के फल के संदर्भ में एक प्रसंग में लोमेश ऋषि द्वारा कथा उल्लेख है कि राजा बलि पूर्व जन्म में जुआरी और व्यभिचारी था. शिव भक्ति और कृपा स्वरूप जब उसकी मृत्यु हुई तो उसे तीन घड़ी के लिए इन्द्र का राज दे दिया गया था. शिव कृपा के कारण इस अल्प काल में जुवारी रूपी बलि ने महान दान कर्म किया था. उसने विभिन्न ऋिषियों को दान दिया जिसमें उसके द्वारा दिव्य वृक्ष कल्पवृक्ष (बीरू क्वलसिन-जो मृत जीव को भी जीवित कर देता था.) को कोण्डिन्य मुनि को दान देने की बात कही गयी है. स्थानीय कथाओं में कल्प वृक्ष के सतयुग में कौआ पर्वत और कैलीरोंग में दृश्यमान रूप में होने और बाद में अदृश्य होने की बात कही जाती है. जो इस बात की ओर इशारा करते हैं कि यह भूमि ऋषि कोण्डिन्य की तप स्थली रहीं है. क्योंकि समस्त शास्त्रों में कल्पवृक्ष के स्वर्ग में होने की कथाएं तो हैं पर धरती में कभी अस्तित्व में था और अदृश्य रूप में आज भी विद्यमान है ऐसी कथाएं व्यास भूमि के अलावा अन्यत्र कहीं भी नहीं है. कौआ नाम ऋषि काग भुसुण्डि की कर्म स्थली की ओर भी संकेत करता है. गोस्वामी तुलसीदास ने रामायण के बाल काण्ड में ऋषि काग भुसुण्डि के कौवे के रूप में अयोघ्या आने और जूठन खाने के बारे में वर्णन किया है. शास्त्र और लोक कथाएँ इस ओर संकेत करते हैं कि हनुमान लक्ष्मण की मूर्छा को दूर करने के लिए व्यास घाटी में ही आए होंगे. स्थानीय कथाओं में दिव्य मृत संजीवनी बूटी (बीरू क्वलसिन-कल्पवृक्ष) के वर्तमान छयालेख तथा केलीरोंग पर्वतों में अद्श्य रूप में अस्तित्व में होने की बात कही जाती है जो कि सतयुग में दृश्यमान रूप में था. यह प्रमाणित करता है कि हनुमान जी निश्चित रूप से व्यास घाटी में आए होगे. क्योंकि अन्य क्षेत्रों मे बीरू क्वलसिन कथा (जो कि मृत जीव को भी जीवित कर देता था.) से साम्यता रखने वाले किस्से कहानियों की दुर्लभता है. राक्षसों द्वारा हनुमान जी को भ्रमित करने के लिए मायावी अंधकार करने तथा ऋषि काग भुसुण्डि द्वारा दिव्य दियों की रोशनी कर हनुमान को रास्ता दिखाने का प्रसंग रामायण में आता है. इसमें कोई शक नहीं कि व्यास घाटी को कौण्डिन्य मुनि, ऋषि काक भुसुण्डि द्वारा वेद व्यास से पूर्व अपना तप स्थली बनाया था. कहा जाता है कि देवादिदेव शिव के कहने पर राम कथा कहने के लिए कैलाश के निकटवर्ती पवित्र जगह को चुना गया था. उपरोक्त बातो का प्रमाण रंग कर्म काण्ड में उल्लिखित कथाओं में रामायण के कथाओं और प्रसंगों की साम्यता रखने वाले प्रसंगों में खोजा जा सकता है जो एक शोध का विषय है. लोक कथाओं के अनुसार का या कौवे द्वारा स्थानीय लोगों को, जीवन का आधार अग्नि और मुक्ति हेतु कर्मकाण्डीय ज्ञान दिया गया. चौदास क्षेत्र में अपने अनुष्ठानों और पूजा इत्यादि में कौवे को सबसे पहले भोग लगाने की परंपरा आज भी जीवित है.
माना जाता है कि वेद व्यास सात अमर पुरुषों (राजा बलि, परशुराम, हनुमान और व्यास, कर्पाचार्य, अश्वत्थामा और विभीषण) में से एक है. अन्य दिव्य पुरूषों के समान वे भी धर्मात्मा लोगों को संकट की घडी में दिखाई देते हैं. इससे संबंधित कई स्थानीय प्रसंग है. व्यास घाटी में वेद व्यास को स्थानीय देवता माना जाता है और सात्विक तरीके से उनकी पूजा की जाती है.
व्यास घाटी के लोग कब से वेद व्यास की पूजा करते रहे हैं इसका लिखित ऐतिहासिक साक्ष्य तो नहीं है पर सामिष भोजन को भोजन का आधार मानने वाले लोगों द्वारा व्यास ऋषि का ऋकी के नाम से विशुद्ध शाकाहारी विधि विधान से पूजा करना आश्चर्य में डालने वाली बात है. आदि काल से इस घाटी के लोगों द्वारा ऋकी की उन्हीं के द्वारा सृजित फापर और ओगल के चढ़ावे से पूजा किया जाना एक आश्चर्य नहीं तो क्या है? उनकी पूजा इस घाटी में कब से की जाती थी उसके बारे में जानकारी को लोक कथाओं में ही ढूंढा जा सकता है. लोक कथा है कि वेद व्यास पराणों में वर्णित केराल पवर्त जो स्थानीय बोली में केलीरोंग के नाम से जाना जाता है में तप करते थे. (केलीरोंग=तारा पर्वत के दक्षिण में काला पानी के पर्वत से लेकर कौआ पर्वत तक का भाग. लोक कथाओं के अनुसार इसी पर्वत में कल्प वृक्ष और अमृत कुण्ड होने की बात कहीं जाती है जिसके दर्शन से व्यक्ति को देवत्व की प्राप्ति हो जाती है) केराल पर्वत के दक्षिणी भाग, कौआ पर्वत (कौआ यी) के यर टोंगलिन (यहां पर सुन्दर चरागाह है) नामक स्थान में उनका आवास था. कथा अनुसार उन्होंने ही कौआ की भूमि को कुषि योग्य बनाया और फापर, पल्ती और नपल नामक खाद्यन्नो की सृष्टि की. कहा जाता है कि व्यास ऋकी दिन में कौआ के मैदानों में कृषि कार्य करते थे और शाम को योग बल से यर टोंगलिंन में उड़ कर अपने आवास में जाते थे. जैसा कि पूर्व में चर्चा की गई, काला पानी में स्थित व्यास गुफा में भी साधारण मनुष्य द्वारा साधारण तरीके से जाना संभव नहीं है क्यों उनकी ध्यान गुफा खड़ी चट्टान पर स्थित है. लोक कथाओं में मिलता है कि व्यास ऋषि गुफा में ध्यान हेतु योग बल से पहुँचते थे. एक और लोक कथा प्रचलित है कि एक बार हस्तिनापुर में पाण्डवों की माता कुन्ती बीमार पड़ गई थी और जैसा कि वेद व्यास द्वारा माता सत्यवती को वचन दिया था कि आवश्यक्ता पड़ने पर मैं हस्तिनापुर आऊंगा. कथा के अनुसार दुर्गम क्षेत्र होने के कारण, क्यों कि यह क्षेत्र देवात्माओं, गन्धर्वों, यक्षों, किन्नरों, किरातों और नागों की धरती थी और तमाम अन्य खतरे थे अत:, बलशाली भीमसेन को वेद व्यास जी को माता कुन्ती के कष्ट निवारण हेतु बुलाने भेजा गया. कहा जाता है कि जब भीमसेन मल्ला कौआ में पहुँचे तो देखा कि एक वृद्ध व्यक्ति स्थानीय भेष-भूषा में, एक जोड़ी बैल (कल्या मल्या नामक बैल-आज भी रंग समुदाय में अपने प्रत्येक पशुओं के नामकरण की परंपरा जीवित है.) को जोत कर हल चला रहा है, भीम सेन ने वृद्ध व्यक्ति से वेद व्यास का पता पूछा तो उस वृद्ध ने ऊपर यर टोंगलिन की ओर इशारा किया और भीम सेन अपना रास्ता पकड़ कर यर टोंगलिन की ओर चल पडे़. जब भीम सेन थके हारे यर टोंगलिन पहुंचे तो वहाँ उसी वृ़द्ध व्यक्ति को देख कर आश्चर्य चकित हो गए. फिर भी अपना भ्रम मानकर उन्होंने ऋकी को प्रणाम किया और अपने आने का मंतव्य बताया. इतने में भीम सेन ने देखा ऋकी के कान पर मिट्टी जमी है. जब भीम सेन को सच्चाई का अहसास हुआ तो उन्हें अपनी अज्ञानता पर खेद हुआ और उन्होंने वेद व्यास से क्षमा याचना की, कि वे ऋषिवर को खेत में नहीं पहचान पाए. कथा अनुसार ऋकी भीमसेन को खाने के लिए फाफर की रोटी देते हैं जो स्वाद में कड़वा होता है. भीमसेन चुपके से रोटी को हस्तिनापुर में राज दबार में दिखाने के लिए छुपा लेते हैं. व्यास ऋषि खुद आने को कहकर भीम सेन को विदा करते है. कहा जाता है कि भीम सेन जब हस्तिनापुर पहुँच कर रोटी को दिखाने के लिए बाहर निकालते हैं तो वह सोने मे परिर्वतित हो जाती है. फापर इस घाटी का सर्वाधिक खाया जाने वाला अन्न है और इसकी रोटी से हाथों में पीला रंग चढ़ जाता है.
आदि काल से गुन्जियाल लोग व्यास ऋषि की पूजा टोंगलिन के ठीक नीचे यरफन कौआ (मल्ला कौआ) की भूमि, जिसको ऋकी द्वारा कृषि योग्य बनाकर कृषि कार्य किया था, के उत्तरी छोर पर स्थित स्थान वर्ती पुष्या नामक स्थान के दाहिने भाग में, मल्ला कौआ के सेरा के ठीक उत्तर में करते थे और दरबोच्ये स्थापित करते थे. पूजा के लिए नपल नामक गेहूँ के सत्तू से निर्मित दलङ्ग तथा फापर के आटे के धत्वो (पूजा हेतु अपरिहार्य प्रसाद) और पलती के फूलों को अर्पित किया जाता था जो आज भी प्रचलित है. गुन्जियालों का विश्वास है कि कि इस स्थान के ठीक ऊपर टोंगलिन में ऋकी की कुटिया थी. वर्ती पुष्या से निकले वाली जुंग मूल ती (युग्म जल स्रोत) से मल्ला कौआ में सिंचाई का कार्य होता था. मान्यता के अनुसार वेद व्यास इसी जल स्रोत पर अपने प्यारे बैलों कल्या-कल्या को पानी पिलाने ले जाते थे. इतना ही नहीं मल्ला कौआ के (युंजा) सेरा के मध्य में दरब्वोची की स्थापना भी करते थे. यह कार्य भादौ मास के शुक्ल पक्ष के प्रारंभिक दिनों में सम्पन्न करते थे. आज भी वेद व्यास ऋषि की पूजा कौआ कुट्ये के नीचे काली और कुटी यंती के संगम के पास मल्ला कौआ और तल्ला कौआ के बीच में स्थापित नए मन्दिर मे गुन्जी माटी के चारों दिकपालों की पूजा के साथ पूर्ण सात्विक तरीके से सम्पनन की जाती है. जिसकी स्थापना सन् 1950 के दशक में की गई थी.
चूकि वेद व्यास व्यांसियों की पहचान और आराध्य देव है इस लिए शायद पूर्व में सभी गांव वालों द्वारा स्थानीय स्तर पर इसकी पूजा की जाती रही होगी. 1950 के दशक में सभी नौ गांव यरज्युंख्वू और पंज्युंख्वू (यरज्युंख्वू-मल्ला व्यास के पांच गांव नपलच्यो, गुन्जी, रोंकोंग, नाबी और कुटी पंज्युंख्वू-तल्ला व्यास के चार गांव-छांगरू, तिंकर,गव्र्याग, बुदी) के लोगों ने व्यास देव की पूजा सामूहिक रूप से करने के लिए तिंकर और काली नदी के बीच में वर्तमान सीतापुल (श्यन्ठा पुल, जो कि गर्बयांग गांव के नीचे श्यं-ठा के पास होने के कारण नामोल्लेख ) के पास, जहां आज छांगरू तिंकर वालों का व्यास मंदिर स्थापित है उस स्थान को चिन्हित किया गया और देव डांगरों के दिशा निर्देश पर सभी यरज्युंख्वू और पंज्युंख्वू– मल्ला और तल्ला व्यास वाले इसमें शामिल हुए. किन्हीं कारणों वश दैवीय और व्यावहारिक कारणों से यह प्रयास सफल नहीं हो पाया. पर छांगरू गव्र्याग और बूदी गांव वाले इस स्थल पर काफी समय तक पूजा करते रहे. चूंकि जब एक बार व्यास देव के मंदिर और पूजा उपासना के लिए ठान लिया गया था अत: गुन्जी वालों द्वारा 1950 के दशक में ही कौआ कुट्ये के नीचे काली और कुटी यंती के संगम के पास मल्ला कौआ और तल्ला कौआ के बीच में व्यासऋकी मंदिर की स्थापना कर पूजा अर्चना आरंभ की गयी. नये मंदिर के स्थापना के बाद भी गुन्जियालों द्वारा व्यास ऋकी की पूजा पूर्ववत कौआ के उत्तरी छोर पर भी किया जाता रहा, जब तक कि कौआ सेरा में खेती का कार्य चलता रहा. आज भी नए मंदिर में पूजा के वक्त कौआ सेरा में दच्र्यों दिया जाता है.
1962 की भारत-चीन युद्ध से पूर्व कौआ कुट्ये के नीचे स्थापित मंदिर में तिब्बत को जाने वाले सभी गांव वाले भी पूजा में शिरकत करते थे. उस समय मल्ला व्यास और तल्ला व्यास को जोडने वाला एकमात्र मार्ग हंच्यूयर नामक स्थान (जहां पर गुन्जी गांव वालों द्वारा स्थापित जगत मैया पूणागिरी जी जिसकी पूजा भी लम्बे समय तक सभी तल्ला और मल्ला व्यास के गांव वाले करते रहे.) के नीचे बना पुल वास्तविक सीता पुल (शीती नामक स्थान के पास होने के कारण नाम्मोल्लेख ) था. इसी से होकर तिब्बत व्यापार हेतु लोगों की आवा-जाही होती थी. अत: सभी लोग व्यास देव पूजा में भी उसी भाव से शामिल होते थे.
1962 के भारत चीन युद्ध ने व्यास घाटी में रहने वाले गांवों के पारस्पिरिक संबंधों और अंतरक्रिया के समीकरण को बदल कर रख दिया. सभी भारतीय गांवों बुदी से लेकर कुटी तक के गांवों के लिए तिब्बत व्यापार प्रतिबंधित कर दिया गया पर छांगरू और तिंकर गांव वालों, जो नेपाल में स्थित थे, का व्यापार चलता रहा. सामारिक दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए जहां एक ओर छांगरू तिंकर वालों की आवाजाही को भारत सरकार तथा नेपाल सरकार द्वारा सीमावर्ती क्षेत्र होने के कारण कठिन कर दिया गया वहीं दूसरी ओर लीपू दर्रे से तिब्बत व्यापार के प्रतिबंधित होने से तल्ला व्यास वालों की हंचूयर और कौआ के रास्ते मल्ला व्यास की ओर आना-जाना भी हाशिए पर चला गया और कम हो गया. आवाजाही कम होने के कारण तल्ला व्यास वालों का कौआ कुटे वाले मंदिर में पूजा कम हो गया पर वे पूर्ववत अपने क्षेत्र काली और तिंकर नदी के बीच में वर्तमान सीतापुल के पास स्थापित व्यास मंदिर में ही पूजा करते रहे. कालान्तर में गरब्याग और बुंदी गांव वालों ने भी व्यास देव मंदिर सामूहिक रूप से छियालेख में स्थापित करके पूजा आरंभ किया. वर्तमान में दोनों गांवों ने व्यासऋकी मंदिर अलग-अलग स्थापित कर लिया है.
मल्ला व्यास वालों द्वारा कौआ कुट्ये के नीचे के नए मंदिर में वेद व्यास की पूजा पूर्ववत 1968 तक जारी रहीं जहाँ पर गुन्जी गांव वाले उसी पारंपरिक तरीके से आज भी पूजा करते हैं. नेपाल स्थित मंदिर में पूजा हेतु जाने की दुरूहता को देखते हुए 1968 में मल्ला व्यास के पांच गांव के प्रबु़द्ध लोगों द्वारा स्थानीय देव डांगरों से सहमति लेकर वर्तमान पूजा स्थल मन्येला में मंदिरों का निर्माण किया गया, और अराध्य देव महादेव शिव जिसे स्थानीय भाषा में ह्या गंगरी के नाम से जाना जाता है तथा व्यासऋकी की मूर्ति स्थापना, प्राण प्रतिष्ठा कर पूजा अर्चना का कार्य आरंभ किया गया. जिसमें स्थानीय धनी मानी लोगों तथा पांच गांवों द्वारा संसाधन प्रबंध करवाया गया था. पांच गांव के प्रबुद्ध जनों द्वारा वेदव्यास की पूजा को भव्यता प्रदान करने और क्षेत्रीय संस्कृति का संवर्धन तथा पूजा हेतु संसाधन जुटाने हेतु 1969 से विशाल मेले का आयोजन किया गया जो कि वर्तमान समय तक निर्बाध रूप से उसी भैभव के साथ सावन की पूर्णिमा में (स्थानीय भादौ पूर्णिमा में क्यों कि व्यासी लोग माह का आरंभ शुक्ल पक्ष से मानते हैं जो कि सामान्य पंचांगों से 15 दिन आगे चलता है.) पूर्ण श्रद्धा और भक्ति के साथ संपन्न किया जाता है.
(लेखक: गोविन्द गुन्जियाल, महेन्द्र गुन्जियाल)
(यह लेख लेखकद्वय द्वारा संकलित स्थानीय किंवदंतियों भारत तथा नेपाल के हिमवंत खण्ड और मानस खण्ड के संदर्भ में उल्लिखित कथाओं और प्रसंगों तथा विभिन्न लेखकों द्वारा व्यास घाटी और मानसरोवर यात्रा के संदर्भ में लिखे लेखों पर आधारित है. इसका प्रयोजन किसी भी प्रकार से अंधविश्वास फैलाना और कोरी कल्पनाओ को बढ़ावा देना नहीं है.)
संदर्भ:-
1- कुमाऊं का इतिहास, बद्रीदत्त पाण्डे
2- कैलास मानसरोवर, स्वामी प्रणवानन्द
3- स्कंद पुराण- महेश्वर और केदार खण्ड
4- नेपाली साहित्य, हिमवत खण्ड और कर्लनाली क्षेत्र
5- व्यास घाटी में प्रचलित लोक कथाएँ और परम्पराएँ
6- जानकार वरिष्ठ लोगों के संस्मरण और भौगोलिक स्थिति.
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